इस पोस्ट में हमलोग रामधारी सिंह दिवाकर रचित कहानी ‘सूखी नदी का पुल(Sukhi nadi ka pul Class 9 Hindi)’ को पढ़ेंगे। यह कहानी समाजिक कुरितियों के बारे में है।
Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 10 सूखी नदी का पुल
रामधारी सिंह दिवाकर
पाठ का सारांश
प्रस्तुत कहानी ‘सूखी नदी का पुल’ गाँव के सामाजिक ताने-बाने में आए बदलाव की कहानी है। कहानी के मूल में लीलावती अर्थात बुच्चीदाय की वह जमीन है जो उसे विवाह के समय पिता ने दान में दी थी।
गाँव के रेलवे स्टेशन पर गाड़ी जैसे ही रुकी, लीलावती उछाह भरे मन से आगवानी के लिए नैहर से आए लोगों को प्लेटफार्म पर देखने लगी। आगवानी में आए भाई, दोनोंभतीजे-सुरेश-नरेश तथा एक अपरिचित को देखकर उसे ऐसा लगा, जैसे—सूखी-प्यासी धरती पर बादल बरस गए हों। स्टेशन के बाहर जीप लगी हुई थी, जिसे देखकर लीलावती उदास हो गई, क्योंकि उसने सोचा था कि टप्परवाली बैलगाडी या ओहार वाली बैलगाड़ी आई होगी। सुरेश यह कहते हुए ड्राइवर वाले सीट पर बैठ गया कि “जीप अपनी है बुआ’ और नरेश ने जेब से कोई काली-सी चीज निकाली और झट से तौलिए में लपेट लिया । बुआ जिज्ञासा भरे शब्दों में पूछा-क्या है? कुछ नहीं, पिस्तौल है। पिस्तौल का नाम सुनते ही बुआ चौंक पड़ी। भैया ने मुस्कराते हुए कहा इसमेंअचरज की क्या बात है, बुच्चीदाय।” भैया के मुँह से बुच्चीदाय संबोधन सुनकर वह प्रेम रस से सराबोर हो गई तथा अपने भाई की ओर गौर से देखने लगी कि गाँवों में कैसा परिवर्तन हो गया कि जीवन भर खादी के कपड़े पहनने वाले अर्थात् आदर्श जीवन व्यतीत करने वाले की जेब में पिस्तौल । यह समय परिवर्तन की देन है। ग्रामीण परिवेश विकृत हो चुका है। आरक्षण के कारण अगड़ी-पिछड़ी तथा ऊँच-नीच की भावनाएँ इतनी प्रबल हो गई हैं कि एक वर्ग दूसरे वर्ग की जान के ग्राहक बन गए हैं। जमीन-जायदाद गले की हड्डी बन गई है। तुम्हारी वाली जमीन गिद्धों के लिए मांस का लोथड़ा बनी हुई है। अच्छा हुआ कि तुम आ गई। जमीन का कोई फैसला करके ही जाना।
बुच्चीदाय तेरह-चौदह वर्षों के बाद नैहर लौटी है। इससे पहले माँ के श्राद्ध-कर्म में आई थी। जीप पर बैठी वह ग्रामीण सामाजिकता के विषय में सोचते हुए विचार मग्न हो जाती है कि नैहर सिर्फ भाई-भौजाई का नहीं होता बल्कि पूरा गाँव ही अपने भाई-भतीजे के समान होता है। इसी वैचारिक क्रम में उसे खवासिन टोली की सहेलिया माय याद आती है जिसके स्तन का दूध पीकर वह पली-बढ़ी थी। उस समय सामाजिक परिवेश कुछ और ही था, किंतु इस बार हर कुछ परिवर्तित देखती है। नदी पर कठपुल्ला की जगह सीमेंट का पुल, नदी में पानी की जगह रेत ही रेत, क्योंकि नदी सूख गई है। बुआ को गाँव भी बदला-बदला दिखाई दिया। खपरैल की जगह पक्का मकान, बिजली के तार, घर में फोन, फ्रिज, टी.वी. आदि-आदि। लेकिन बुआ तो तरस रही है, सखीसहेलियाँ नदी-पोखर, खेत-खलिहान, नाथ बाबा का थान्ह आदि के लिए, क्योंकि इनके साथ बुआ का गहरा संबध था।
बुआ सहेलिया माय के लिए दो साड़ियाँ लाई थीं, किंतु शाम हो जाने के कारण वह उसके घर नहीं जा सकी। रात में जब भाई-भौजाई ने सहेलिया माय के परिवार की कहानी सुनाई तो उसके होश उड़ गए, क्योंकि सहेलिया माय का बेटा कलेसरा ने बुआ को विवाह के समय मिली पाँच एकड़ जमीन पर सिकमी बटाई का दावा ठोंक दिया, जिस कारण केस-मुकदमा तो हुआ ही, साथ-साथ कलेसरा ने उनके भाई पर फरसा चला दिया, बीच-बचाव में कलेसरा के बाप सोने लाल की कलाई कटकर जमीन पर गिर गई। कलेसरा खूनी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा हुआ था। इन सब कारणों से गाँव अगड़ी तथा पिछड़ी दो वर्गों में बँट गया है। लेकिन बुआ यह सब अवसन्न भाव से देखती रही।दिन के तीसरे पहर बुआ कमल पोखर की तरफ निकल पड़ी तथा पोखर के ऊँचे मोहार पर खड़ी हसरत भरी नजर से खवासटोली की तरफ देखने लगी। शहनाई एवं खुरदुक बाजे की मीठी-मीठी मंगल ध्वनि की आवाज सुनकर लगा कि यह आवाज सहेलिया माय के घर से आ रही है। शहनाई का धुन सुनकर बुआ को रघू काका की याद आ गई क्योंकि उनकी शादी के बाद विदाई के समय काका ने समदौन की धुन बजाई थी— “बड़ा रे जतन से सुग्गा रे हम पोसलौं, सेहो सुग्गा उड़ले अकास।” खवासटोली से आती शहनाई की आवाज से बुआ का मन अशांत-सा हो गया। उन्हें अपने भतीजा से पता चला कि सहेलिया माय की पोती की शादी है। उस शादी में शामिल होने के लिए उनका मन उद्विग्न हो उठा और शाम के समय काँख में साड़ी दबाकर उसके घर चल पड़ी। पहुँचने पर उसने देखा कि आँगन गाँव की औरतों एवं बच्चों से भरा हुआ था। गीत-नाद हो रहा था। ओसारे पर पंजों के बल बैठी सहेलिया माय को लीलावती ने पहचान लिया। वह चुपके से उसके पास गई और पैरों पर गिर पड़ी, लेकिन आँखों का मंद ज्योति के कारण वह पहचान न सकी । लीलावती ने अपना परिचय देती हुई कहनेलगी-लाल बाबू की बेटी, बुच्ची दाय हूँ। सारे लोग उन्हें देख स्तब्ध थे। सहेलिया माय के सूखे स्तनों में जैसे दूध उतर आया, क्योंकि इसी के स्तन का दूध पीकर वह पलीबढ़ी थी। टोले के लोग बुच्ची दाय को देखने उमड़ पड़े। सोनेलाल भर्राई आवाज में कहने लगा कि तुम्हारे आने से जीवन धन्य हो गया । कलेसर उनके पैरों पर गिरकर अपने किए पर पश्चाताप के आँसू बहाने लगा। वहाँ का वातावरण इतना प्रेममय हो गया कि कुछ क्षण के लिए उस आँगन का सब कुछ ठहर गया।
बारात आई। विवाह की विधियाँ चलती रहीं। बुच्ची दाय भी औरतों की झुंड में बैठी विवाह के भूले-बिसरे गीत रात भर गाती रही। अगले दिन बुच्चीदाय जब अपने भैया के घर लौटने के तैयार हुई तो पूरे टोले के लोगों से घिरी वह आम बगान के इस पार तक आई। इधर बबुआनटोले के लोग तथा भाई, भौजाई एवं भतीजे एकटक इसी तरफ देख रहे थे। इस समय बुच्चीदाय पूर्ण देहातिन लग रही थी। चेहरे पर परम उपलब्धि की अपूर्व आभा छिटक रही थी।
दूसरे दिन सुबह में भैया ने जब उसकी पाँच एकड़ जमीन की बात चलाई तो लीलावती ने कहा कि इस बार इस जमीन का कोई निर्णय करके जाऊँगी, क्योंकि इस जमीन के कारण आप लोग भी परेशानी में रहते हैं। भैया ने जमीन के सारे कागजात तथा हाल में कटाई गई रसीद लीलावती को सुपुर्द कर दिया। बहन लीलावती ने हाथ में कागजात लिए मुस्कुराकर बोली-आपसे वचन चाहती हूँ भैया। आप वचन दीजिए कि दान मिली जमीन का जो मैं करूँगी, उसे आपलोग मंजूर कीजिएगा। भैया ने उत्तर देते हुए कहा-तुम जो फैसला करोगी, हमें मंजूर होगा। लीलावती ने कहा कि यह जमीन सहेलिया माय को रजिस्ट्री करना चाहती हूँ क्योंकि उसका दूध पीकर जिंदगी पाई थी। सहेलिया माय और कलेसर कल फारबिसगंज रजिस्ट्री ऑफिस में मिलेंगे। भाई ने बहन का मान रखने के लिए फारबिसगंज जाने के लिए तैयार हो गए। भैया के खादी के कुर्ते की जेब में पिस्तौल की जगह जमीन के कागजात थे। लीलावती को ऐसा लग रहा था जैसे दूध की कोई उमगी हुई उजली नदी है और उस नदी में वह ऊब-डब नहा रहीहै |