इस पोस्ट में हमलोग साहित्यकार रवींद्रनाथ टैगर रचित निबंध ‘शिक्षा में हेर-फेर (Shiksha me Her Pher)’ को पढ़ेंगे। यह निबंध भारतीय शिक्षा प्रणाली की खामियों को उजागर किया है।
पाठ-परिचय
महान् शिक्षाशास्त्री एवं साहित्यकार रवींद्रनाथ टैगर ने’शिक्षा में हेर-फेर’ शीर्षक निबंध में भारतीय शिक्षा प्रणाली की खामियों का उजागर किया है। उनका मानना है कि मानव-जीवन का उद्देश्य निश्चित नियमों में आबद्ध करदेना नहीं होता. बल्कि सर्वतोन्मुखी विकास करना होता है। किंत दषित शिक्षा-प्रणाली केकारण बच्चों को आवश्यक शिक्षा के साथ स्वाधीनता के पाठ का अवसर नहीं दियाजाता, जिस कारण बच्चे की चेतना का विकास नहीं हो पाता और आयु बढ़ने पर भी . बुद्धि की दृष्टि से वह बालक ही रह जाता है। लेखक का कहना है कि हमारी शिक्षाप्रणाली ऐसी है कि जिसमें परीक्षा पास कर लेना मुख्य उद्देश्य होता है। परिणामस्वरूप, हमारे बच्चों को व्याकरण शब्दकोष तथा भूगोल के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। साथ ही दूसरे देशों में बालक जिस आयु में अपने नए दाँतों से बड़े आनंद से गन्ना चबाते हैं, उसी आयु में हमारे बच्चे स्कूल में मास्टर के बेंत हजम करते हैं तथा शिक्षक की कड़वी गालियों का रस लेते हैं जिस कारण बच्चों की मांसिक पाचन शक्ति का ह्रास होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारी शिक्षा में बाल्काल से ही आनंद के लिए स्थान नही होता, हम उसी को कंठस्य करते है जो अति आवश्यक है। इससे काम तो हो जाता है, लेकिन उसका विकास नही हो पाता। लेखक की मान्यता है कि आनन्द के साथ पढ़ते रहने से पठन शक्ति बढ़ती है, सहज-स्वभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति तथा चिंतन शक्ति सबल होती है।
Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 12 Shiksha me Her Pher Explanation
अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द-विन्यास तथा पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं है। इससे अपरिचित होने के कारण बच्चों के मन मेंकोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होता और अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रह जाता है। दूसरी बात यह भी है कि नीचे वर्गों में पढ़ाने वाले शिक्षक अल्पज्ञ होते हैं, वे न तो स्वदेशी भाषा अच्छी तरह जानते हैं, न अंग्रेजी।
वे बच्चों को पढ़ाने के बदले मन बहलाने का काम पूरी सफलता के साथ करते हैं । लेखक खेद प्रकट करते हुए कहता है कि मनुष्य के अंदर और बाहर दो उन्मुक्त विचार क्षेत्र हैं, जहाँ से वह जीवन, बल और स्वास्थ्य संचय करता है, वहाँ बालकों को एक विदेशी कारागृह में बंद कर दिया जाता है, जिस कारण साहित्य के कल्पना-राज्य का द्वार उनके लिए अवरूद्ध हो जाता है। लेखक का तर्क है.कि जिस शिक्षा में जीवन नहीं,आनंद, अवकाश या नवीनता नहीं, जहाँ हिलने-डुलने का स्थान नहीं, ऐसी शिक्षा की शुष्क, कठोर, संकीर्णता में क्या बालक कभी मानसिक शक्ति, चित्त का प्रसार या चरित्र की बलिष्ठता प्राप्त कर सकता है ? नहीं, कभी नहीं, वह तो केवल रटना, नकल करना तथा दूसरों की गुलामी करना ही सीख पाएगा। जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए चिंतन शक्ति एवं कल्पनाशक्ति का होना आवश्यक माना गया है। लेकिन हमारी शिक्षा में पढ़ने की क्रिया के साथ-साथ सोचने की क्रिया नहीं होती, क्योंकि बाल्यकाल से ही चिंतन और कल्पना पर ध्यान नहीं जाता । इसलिए बाल्यकाल से ही बच्चों की स्मरणशक्ति पर बल न देकर चिंतनशक्ति और कल्पनाशक्ति को स्वतंत्र रूप से परिचालित करने का अवसर उन्हें दिया जाना चाहिए, ताकि नीरस शिक्षा में जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ न हो।
लेखक शिक्षा प्रणाली की आलोचना करते हुए कहता है. कि जिस प्रकार बर्बर जातियों के लोग शरीर पर रंग लगाकर अथवा शरीर के विभिन्न अंगों को गोदकर, गर्व का अनुभव करते हैं, जिससे उनके स्वाभाविक, स्वास्थ्य, उज्ज्वलता और लावण्य छिप जाते हैं, उसी तरह हम भी विलायती विद्या का लेप लगाकर दंभ करते हैं, किंतु यथार्थ आंतरिक जीवन के साथ उसका योग बहुत ही कम होता है। इसलिए बाल्यकाल से ही भाषा-शिक्षा के साथ भाव-शिक्षा की व्यवस्था हो और भाव के साथ समस्त जीवन-यात्रा नियमित हो, तभी हमारा व्यवहार सहज, मानवीय तथा व्यावहारिक हो सकता है। हमें अच्छी तरह समझना चाहिए कि जिस भाव से हम जीवन-निर्वाह करते हैं, उसके अनकल हमारी शिक्षा प्रणाली नहीं है। इतना ही नहीं, जिस समाज के बीच हमें जीवन बिताना है, उस समाज का कोई उच्च आदर्श हमें शिक्षा प्रणाली में नहीं मिलता। हमारी शिक्षा जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। हमारी यह शिक्षा किसी एक ही व्यवसाय तक सीमित रहती है. संपूर्ण जीवन के साथ उसका कोई संबंध नहीं होता । इसी कारण एक व्याक्त युरोपीय दर्शन, विज्ञान तथा न्यायशास्त्र का पंडित तो दूसरी ओर सारे का पोषण भी करता है । फलतः विद्या आर व्यवहार के बीच एक दुर्भेद्य व्यवधान उत्पन्न हा गया है। दोनों में सुसंलग्नता निर्मित नहीं हो पाती।
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परिणाम यह होता है कि दोनों एक-दूसरे के विरोधी होते जाते हैं। हमारी पुस्तकीय विद्या उसकी विपरीत दिशा में जीवन को निर्देशित करते हमारे मन में उस विद्या के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा का जन्म होता है। हम सोचते हैं कि वह विद्या एक सारहीन वस्तु है और समस्त यूरोपीय सभ्यता इसी मिथ्या पर आधारित है। इस तरह जब हम शिक्षा के प्रति अश्रद्धा व्यक्त करते हैं, तब शिक्षा भी हमारे जीवन से विमुख हो जाती है। हमारे चरित्र पर शिक्षा का प्रभाव विस्तृत परिमाण में नहीं पड़ता तथा शिक्षा और जीवन का आपसी संघर्ष बढ़ जाता है। इसलिए शिक्षा और जीवन में सामंजस्य निर्माण करने की समस्या आज हमारे लिए सर्वप्रधान विचारणीय विषय है। तात्पर्य कि भाषा शिक्षा के साथ-साथ भाव शिक्षा की वृद्धि न होने से यूरोपीय विचारों से हमारी यथार्थ संसर्ग नहीं होता। दूसरी बात, जिन लोगों के विचारों से मातृभाषा का दृढ़ संबंध नहीं होता वे अपनी भाषा से दूर हो जाते हैं और उसके प्रति उनके मन में अवज्ञा की भावना उत्पन्न होती है।
निष्कर्पतः हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि हेर-फेर दूर होने से ही हमारा जीवन सार्थक होगा। हम शिक्षा का सही उपयोग नहीं कर पाते, इसी कारण हमारे जीवन में इतना दैन्य है, जबकि हमारे पास सब कुछ है। इसलिए हमें क्षुधा के साथ अन्न गीत के साथ वस्त्र, भाव के साथ भाषा और शिक्षा के साथ जीवन का सामंजस्य होने से समस्या अपने आप दूर हो जाएंगी।
Bihar Board Class 10th Social Science
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