इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड कक्षा 7 संस्कृत के पाठ 8 ‘वसुधैव कुटुम्बकम् (अव्यय-प्रयोग)(Vasudhaiv ka prayog class 7 sanskrit)’ के अर्थ को पढ़ेंगे।
अष्टमः पाठः
वसुधैव कुटुम्बकम्
(अव्यय-प्रयोग)
पाठ – परिचय — प्रस्तुत पाठ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में विश्वबन्धुत्व की भावना के महत्त्व एवं आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है । आज विश्व अशान्ति के सागर में गोते लगा रहा है । सर्वत्र असंतोष महत्त्वाकांक्षा, ईर्ष्या आदि के कारण सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त है । ऐसी स्थिति में भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था की ओर सबका ध्यान जाता है कि भारत ने सारे विश्व को अपने परिवार जैसा समझा, सबके प्रति सम्मान का भाव रखा। इसी भावना से प्रेरित होकर विदेशियों ने भी इस भूमि को अपना मान लिया । इस विषम परिस्थिति में विश्व को अशांति से मुक्ति दिलाने का काम भारत ही कर सकता है ।
अधुना सम्पूर्णः संसारः अशान्तो वर्तते । देश: देशं प्रति, समाजः समाजं प्रति, मानवश्च मानवं प्रति द्वेषग्रस्ताः सन्ति । अस्य कारणमपि वर्तते । स्वार्थसिद्धिः स्वस्य सुखस्य कामना, महत्त्वाकांक्षा च परस्य शोषणाय कमपि प्रेरयति । सर्वे स्वसुखं वाञ्छन्ति, न कश्चित् परस्य सुखम् उत्कर्षं वा सहते । तेन अशान्तिः भवति । तद् दुःखकारणम् ।
अशान्तः मानवः राक्षसः इव भवति । यदि स देववत् भवेत् तदा संसारः शान्तः प्रसन्नः आनन्दमयश्च भविष्यति । तदा शस्त्रादीनां न आवश्यकता । एक: अपरं दृष्ट्वा प्रमुदितः भवेत् । यथा आत्मनः बन्धुं परिवारं वा मन्यते मनुष्यः तथैव अपरमपि जनं बन्धुं परिवारं मन्येत । सर्वे एकरूपाः एकस्य ईश्वरस्य सन्तानाः कथं भिन्नाः सन्ति ? यः सर्वेषु जनेषु आत्मभावनां धारयति स वस्तुतः देवः । अस्माकं लक्ष्यं तदेव भवेत् यत् सर्वे वयं परस्परं मित्ररूपाः बन्धुरूपाश्च भवेम । तदा मोहः द्वेषः शत्रुभावना च न भवेत् ।
अर्थ — इस समय सारा संसार अशांत है । एक देश दूसरे देश को, एक समाज दूसरे समाज को और एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ईर्ष्या की दृष्टि से देखता है। इसका मुख्य कारण है, अपने हित की साधना, अपना सुख, ऊँची, आकांक्षा आदि । यह भावना दूसरों को कष्ट पहुँचाने की प्रेरणा देती है। सभी अपना ही सुख चाहते हैं, कोई दूसरों के सुख तथा उन्नति को सहन नहीं कर पाता। इससे अशांति होती है। यही दुख का कारण है ।
अशान्त (बेचैन) मानव दानव के समान होता है । यदि वह मानवता का पुजारी हो जाए तो सारा संसार सुखमय तथा आनन्दमय हो जाएगा । और शस्त्र (हथियार) आदि की जरूरत ही न रहेगी। एक-दूसरे को देखकर प्रसन्न हों। जिस प्रकार अपने परिवार को माना जाता है, उसी प्रकार दूसरे के परिवार को भी मानें। हम सभी समान रूपवाले एक ही ईश्वर की संतान हैं फिर आपस में भिन्नता कैसी ? जो सबको अपने समान मानता है, वह सचमुच देवतुल्य होता है । हमारा उद्देश्य वैसा ही हो कि हम सभी आपस में मित्रवत् तथा भाई के समान हों और तब किसी के प्रति भी लगाव, ईर्ष्या एवं शत्रुता की भावना नहीं हो ।
अद्य वैज्ञानिकस्य विकासस्य परिणामः वर्तते यत् संसार: अल्पीकृतः । अद्य एकस्मिन् देशे घटिता घटना सम्पूर्णं संसारं शीघ्रमेव प्रभावयति । वैश्वीकरणस्य प्रभावात् एकः उत्पाद : शीघ्रं सर्वेषु देशेषु गच्छति । अतः अद्य विश्वबन्धुत्वं प्रभूतम् आवश्यकमस्ति । उत्सवेषु समारोहेषु परस्परं मिलन्तः जनाः बन्धुत्वं दर्शयन्ति । तथैव राष्ट्रियेषु समारोहेषु विश्वसमारोहेषु च अद्यापि बन्धुत्वं वर्धते । अस्माकं शास्त्रेषु कथ्यते यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् । अर्थात् यथा एकस्मिन् नीडे पक्षिणां परिवारो निवसति तथैव क्वचित् समारोहे, शिक्षास्थले, कार्यस्थले वा सर्वे एकनीडाः भवन्ति । यथा तत्र बन्धुत्वं वर्तते तथैव सामान्यजीवनेऽपि देशानां समाजानां वर्गाणां च मध्ये तदेवं एकनीडत्वं बन्धुत्वं च भवेताम् । तत्र स्वार्थः सर्वथा नश्यति, परमार्थः वर्धते । स्वदेश: परदेशश्च परमार्थतः एक एव । इदमेव उदारस्य जनस्य लक्षणमस्ति यत् स स्वस्य परस्य च विचारं न कुर्यात् । तथा च हितोपदेश:
अर्थ- आज वैज्ञानिक विकास के फलस्वरूप यह संसार छोटा हो गया है। इस समय किसी एक देश में घटित घटना अतिशीघ्र सारे संसार में फैल जाती है । वैश्वीकरण के प्रभाव से एक वस्तु अतिशीघ्र दूसरे देशों में पहुँच जाती है। इसलिए आज विश्वबंधुत्व की भावना की अतिआवश्यकता है । उत्सवों, समारोहों आदि में आपस में मिलते हुए लोगों में भाईचारे का भाव देखे जाते हैं। हमारे आर्ष ग्रंथों का संदेश है— ‘जहाँ संसार एक परिवार के समान रहता है। अर्थात् जिस प्रकार एक घोंसले में पक्षी का सारा परिवार रहता है, उसी प्रकार किसी उत्सव, शिक्षालय, समारोहों में सभी एक समान भाव से रहते हैं । जैसा भाईचारा उन समारोहों, उत्सवों में रहता है, वैसा ही भाईचारा सामान्य जीवन में, विभिन्न देशों, समाजों तथा विभिन्न वर्गों के बीच वही भाईचारा का भाव होना चाहिए । इससे स्वार्थ का नाश होता है और परोपकार की भावना बढ़ती है। देश-विदेश दोनों एक समान हो जाते हैं। यही भावना उदार लोगों (महापुरुषों) की पहचान है, क्योंकि ऐसे लोग अपना पराया का विचार नहीं रखते। और वैसा ही हितोपदेश में कहा गया है :
” अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
अर्थ — तुच्छ विचारवाले ही अपना-पराया का भाव रखते हैं, महापुरुष तो सारे संसार को अपने परिवार अथवा भाई-बन्धु जैसा मानते हैं ।”
Vasudhaiv ka prayog class 7 sanskrit
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