संस्कृत कक्षा 10 द्रुतपाठय भवान्यष्टकम् – Bhavanyastakam in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 1 (Bhavanyastakam) “भवान्यष्टकम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। यह एक प्रार्थना हैजिसमें माँ दुर्गा से प्रार्थना किया गया है की तुम्हारे अलावा इस संसार में मेरा कोई नहीं है, तुम ही मेरा एक मात्रा सहारा हो
Bhavanyastakam
Bhavanyastakam

1. भवान्यष्टकम् (हिन्‍दी अर्थ सहित)

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥1॥

   अर्थ- हे भवानी ! इस संसार में मेरा न तो पिता है, न माता है, न कोई भाई है और न ही दाता है, न बेटा है, न बेटी है, न नौकर है, न पालन-पोषण करनेवाला है, न पत्नी है, न विद्या (ज्ञान) है और न कोई पेशा (व्यवसाय) ही है। अर्थात् संसार में एकमात्र तुम्हीं मेरा सहारा हो।

भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः ।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहम् । गतिस्त्वं ॥2॥

     अर्थ- हे भवानी ! मैं सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबा अपार दुःख से पीड़ित हूँ। मैं अति नीच, अति कामी, महान लोभी, अति घमंडी हूँ। इस कारण मैं हमेशा सांसारिक बंधनों से जकड़ा हुआ रहता हूँ। हे जगदम्बा ! तुम ही मेरा सहारा हो। तुम्ही हमें संसार रूपी सगार से पार कर सकती हो।

न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम् । गतिस्त्वं॥3॥

     अर्थ- हे भवानी ! मैं किसी को दान देना नहीं जानता हूँ और न ही ध्यान-योग का ज्ञान है। तन्त्र-मंत्र पूजा-पाठ भी नहीं जानता हूँ। इतना ही नहीं, तुम्हारी पूजा-अर्चना की विधि नहीं जानता हूँ तथा आसन-प्राणायाम भी नहीं जानता हूँ कि इसके माध्यम से तुम्हें पा सकूँ। इसलिए एकमात्र तुम्हीं मेरा सहारा हो।

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातः गतिस्त्वं ।।4।।

     अर्थ- हे भवानी ! मैं पुण्य तथा तीर्थ-व्रत करना नहीं जानता हूँ। मुझे मोक्ष प्राप्ति की विधि का ज्ञान नहीं है। स्वर में इतनी मधुरता नहीं है कि मै अपने स्वर से तुम्हें खुश कर सकूँ। साथ ही, भक्ति-भाव का भी ज्ञान नहीं है। इसलिए, हे माँ! तुम्हीं मेरा सहारा हो।

कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कलाचारहीनः ।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम् । गतिस्त्वं ॥5॥

     अर्थ- हे भवानी ! मैं कुकर्मी, बुरे लोगों के साथ रहनेवाला, कुविचारी, कृतघ्न (अपने साथ हुआ उपकार न मानने वाला), अनुशासनहीन, बुरा कर्म करने वाला, ईर्ष्यालु तथा हमेशा कुवचन बोलने वाला हूँ। इसलिए हे माँ ! तुम्हीं इन दुष्कर्मो से मुझे छुटकारा दिला सकती हो । तुम्हारे सिवाय मेरा कोई सहारा नहीं है।

प्रजेशं रमेशं महेशः सुरेशः
दिनेशः निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये । गतिस्त्वं ॥6॥

     अर्थ- हे जगदम्बे ! मैं प्रजा के स्वामी ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, सूर्य तथा चन्द्रमा आदि किसी दूसरे को नहीं जानता। मैं तो सिर्फ तुम पर आश्रित हूँ कि तुम्हीं मुझे इस भवसागर से उद्धार कर सकती हो। इसलिए, हे माँ! तुम्हीं मेरा सहारा हो।

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