इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 2 (Jayadevasya Audaaryam) “जयदेवस्य औदार्यम्” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे। इस पाठ में जयदेव की उदारता की कहानी को बताया गया है।
2. जयदेवस्य औदार्यम्
( जयदेव की उदारता )
उदारता- दानशीलता, दयालुता
गीतगोविन्दस्य रचयिता जयदेवः सुप्रसिद्धः महाकविः। सः कदाचित् तीर्थयात्रां कुर्वन् आसीत्। जयदेवस्य कीर्तिः देशे सर्वत्र प्रसृता आसीत्। अतः मार्गे तत्र तत्र जनाः तस्य सम्माननं कुर्वन्ति स्म। तस्मै धनमपि अर्पयन्ति स्म। । केचन लुण्ठकाः एतत् ज्ञातवन्तः। जयदेवस्य धनम् अपहर्तुं ते एकम् उपायं चिन्तितवन्तः।
अर्थ- गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव सुप्रसिद्ध कहाकवि थे। वह कभी तीर्थयात्रा – कर रहे थे। जयदेव का यश देश में सर्वत्र फैला हुआ था। इसलिए राह में जहाँ-तहाँ लोग उनका सम्मान (स्वागत) करते थे और उनको धन (रुपये-पैसे) भी देते थे। कुछ लुटेरों ने यह बात जानी (सुनी) तो जयदेव का धन लुटने की योजना बनाई।
तेऽपि यात्रिकाः इव वेषपरिवर्तनं कृत्वा जयदेवेन सह तीर्थयात्रायां मिलिताः। मध्येमार्गं यदा ते अरण्यं प्रविष्टवन्तः तदा लुण्ठकाः जयदेवस्य पाणिपादं कर्तयित्वा तम् एकस्मिन् कूपे क्षिप्तवन्तः। तदीयं धनं सर्वम् अपहृत्य ततः पलायनं कृतवन्तः।
अर्थ- वे भी यात्रियों की भाँति वेश बनाकर जयदेव की तीर्थ यात्रा में शामिल हो गए। बीच रास्ते में जब वे जंगल में प्रवेश किये तब लुटेरों ने जयदेव के हाथ-पैर काटकर उन्हें कुएँ में फेंक दिया। इसके (बाद) उनका सारा धन लूटकर भाग गए।
दैवात् तस्मिन् कूपे जलं न आसीत्। कूपे पतितः जयदेवः किञ्चित्कालानन्तरं चेतनां प्राप्तवान्। ततश्च तत्र एव उपविश्य उच्चैः भगवतः नामस्मरणं कर्तुम् आरब्धवान्।
अर्थ- संयोग से कुएँ में पानी नहीं था। कुएँ में गिरे हुए जयदेव जब होश में आए तब वहीं बैठकर जोर-जोर ईश्वर के नाम का उच्चारण करने लगे।
तद्दिने गौडेश्वरः लक्ष्मणसेनः तेन एवं मार्गेण गच्छन् आसीत्। सः कूपतः मनुष्यस्य ध्वनिं श्रुत्वा सेवकैः तत्र पतितं जयदेवम् उपरि आनायितवान्। तं स्वेन सह राजधानी नीतवान् च। बहुवारं पृष्टः अपि जयदेवः स्वस्य पाणिपादं कर्तितवतां लुण्ठकानां विषये किमपि न उक्तवान्। जयदेवस्य भगवद्भक्ति साधुस्वभावं च दृष्ट्वा महाराजः एवं प्रभावितः अभवत यत-सः तं स्वस्य आस्थानपण्डितम अकरोत्।
अर्थ- उसी दिन गौड़ देश के राजा लक्ष्मण सेन उसी रास्ते से जा रहे थे। वे कुएँ से मनुष्य की आती आवाज सुनकर कएँ में गिरे जयदेव को नौकरों द्वारा ऊपर निकलवाया और उन्हें अपने साथ अपनी राजधानी ले गए। अनेक बार पूछने के बावजूद जयदेव अपने हाथ-पैर काटनेवालों के विषय में कुछ भी नहीं कहा। जयदेव की भगवद्भाक्त एवं सज्जनता- देखकर महाराज इतना प्रभावित हुए कि उन्हें अपना दरबारी कवि बना दिया।
राजभवने कदाचित् कश्चन उत्सवः आयोजितः आसीत्। तदा बहवः साधवः, ब्राह्मणाः, भिक्षुकाच भोजनार्थं तत्र सम्मिलिताः। जयदेवस्य पाणिपादं ये कर्तितवन्तः तेऽपि लुण्ठकाः भिक्षुकवेषेण तत्र आगताः आसन्। ते भिनगात्रं जयदेवं दृष्ट्वा अभिज्ञातवन्तः। परं पण्डितस्थाने तं दृष्टवतां तेषां प्राणाः गताः इव। जयदेवः अपि तान् अभिज्ञातवान्। सः महाराजम् उक्तवान्- “एते सन्ति मम पूर्वतनसुहृदः। भवान् यदि इच्छति तर्हि एतेभ्यः किमपि दातुम् अर्हति“ इति।
अर्थ- राजभवन में कभी किसी उत्सव का आयोजन किया गया। तब बहुत सारे साधु एवं बाह्मण भोजन करने के लिए वहाँ आए। जयदेव के हाथ-पैर काटनेवाले भी भिखारी के वेश में वहाँ आए। वे अंगहीन जयदेव को देखकर पहचान गए। लेकिन पंडित के स्थान पर उनको देखकर उनके प्राण सूखने लगे। जयदेव भी उनको पहचान गए। उन्होंने महाराज से कहा-ये सब मेरे पूर्व के मित्र है। आप यदि देना चाहते हो तो इन्हें कुछ दे दें।
महाराजः तान् समीपम् आहूतवान्। भूरिधनदानेन तान् सत्कृतवान् च। ततः ’एतान् सुरक्षितरूपेण गृहं प्रापय्य आगच्छन्तु’ इति सेवकान् आदिष्टवान्।
अर्थ- महाराज ने उनको अपने पास बुलाया और पर्याप्त धन देकर सत्कार किया। इसके बाद उन्हें सुरक्षापूर्वक घर पहुँचाने के लिए सेवकों को आदेश दिया।
मार्गे गमनसमये सेवकाः कुतूहलेन तान् पृष्टवन्तः- “भोः, भवताम्, अस्माकम् आस्थानपण्डितस्य च कः सम्बन्धः?“ इति।
अर्थ- जाते समय रास्ते में सेवकों ने उनसे उत्सुकतावश पूछा, अरे! आप तथा हमारे राजपंडित के बीच कैसा संबंध है?
दुरात्मनः ते लुण्ठकाः उक्तवन्तः- “पूर्वं कस्मिंश्चित् राज्ये भवतां पण्डितः अस्माभिः सह राज कर्मचारी आसीत्। तत्र कदाचित् तेन तादृशः अपराधः आचंरितः, येन कुपितः राजा तस्य वधदण्डनम् आदिष्टवान्। किन्तु वयं तस्य विषये दयां कृत्वा पाणिपादं केवलं कर्तयित्वा तं सजीवं मोचितवन्तः। एतत् रहस्यं वयं कदाचित् वदेम इति भीत्या सः एवम् अस्माकं सम्मानन कारितवान्।“ इति।
अर्थ- दुष्ट स्वभाववाले उन लुटेरों ने कहा- पहले किसी राज्य में आपका पंडित हम सबों के साथ राज दरबार में कर्मचारी था। वहाँ कभी किसी अपराध के कारण राजा ने उन्हें प्राणदंड का आदेश दिया। लेकिन हमलोग उनके प्रति दया करके मात्र हाथ-पैर काटकर जीवित छोड़ दिया। यह रहस्य हम सब बोल न दें, इसी भय से उन्होंने हमें इतना सम्मान करवाया।
तदा लुण्ठकानाम् एतादृशं व्यवहारं सोढुम् अशक्तवती भूमिः स्वयमेव विदीर्णा अभवत्। लुण्ठकाः तत्र पतित्वा मृताः अभवन्। सेवकाः खेदेन ततः प्रतिगम्य जयदेवं महाराजं च वृत्तं निवेदितवन्तः। सर्वं श्रुत्वा जयदेवः- “हन्त! मया चिन्तितं यत् एते निर्धनाः सन्ति। धनलोभेन पापं कुर्वन्ति। धनं यदि लभ्यते तर्हि अग्ने पापं न कुर्युः, इति! परन्तु निर्भाग्यस्य मम कारणतः तैः प्राणाः त्यक्तव्याः अभवन्। हे भगवन्! तेभ्यः सद्गतिं ददातु“ इति।
तत्क्षणादेव जयदेवस्य कर्तितं पाणिपादं पुनः यथापूर्वम् उत्पन्नम् अभवत्। अहो औदार्यं जयदेवस्य।
अर्थ- लुटेरों की ऐसी दुष्टतापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध होकर उसी क्षण धरती फट गई और लुटेरे उसमें गिरकर मर गए। सेवकगण दुःखी मन से लौटकर जयदेव तथा राजा को सारी कहानी कह सुनाई। सबकुछ सुनकर जयदेव ने कहा-हाय! मैंने सोचा कि ये सब गरीब हैं। धन के लोभ से पाप करते हैं। यदि इन्हें धन मिल जाए तो ये पाप नहीं करेंगे (ऐसा सोचकर राजा से धन दिलवाया) लेकिन मुझ अभागे के कारण उन्हें अपने प्राण गँवाने पड़े। (इसलिए) हे भगवान् ! उन सबों का उद्धार करें।
(जयदेव द्वारा ऐसी बात बोलते ही) उसी क्षण उनके कटे हाथ-पैर फिर से पूर्ववत् हो गए। धन्य है उदारता जयदेव की।
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