इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 9 हिंदी गद्य भाग के पाठ 2 ‘भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा (Bharat ka Puratan Vidyapith Nalanda)’ को पढ़ेंगे। इस पाठ में नालंदा के गौरवमयी इतिहास को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बताया है।
2. भारत का पुरातन विद्यापीठ : नालंदा
लेखक – राजेन्द्र प्रसाद
पाठ का सारांश
मगध की प्राचीन राजधानी वैभार गिरि पाँच पर्वतों के मध्य में बसी हई गिरिब्रज या राजगृह के तप्त कुंडों से सात मील उत्तर की ओर नालंदा है। नालंदा हमारे इतिहास में अति आकर्षक नाम है। इसका अतीत अति गौरवपूर्ण रहा है। यह एक ऐसा उज्ज्वल दृष्टान्त है, जहाँ ज्ञान के क्षेत्र में देश तथा जातियों के भेद लुप्त थे। नालंदा की वाणी एशिया महाद्वीप में पर्वतों और समुद्रों के उस पार तक फैली हुई थी।
Class 9th Hindi Chapter 2 Bharat ka Puratan Vidyapith Nalanda
नालंदा भगवान बुद्ध एवं महावीर जैन की कर्मस्थली था। बुद्ध के समय नालंदा गाँव में प्रावारिकों का आम्रवन था। यहीं महावीर ने चौदह वर्षों तक व्यतीत किए थे। सूत्रकृतांग के अनुसार नालंदा के एक धनी नागरिक लेप ने धन-धान्य, शैया, आसन, रथ, स्वर्ण आदि के द्वारा भगवान बुद्ध का स्वागत किया और उनका शिष्य बन गया।
कहानी का प्लॉट लेखक शिवपूजन सहाय
तिब्बती विद्वान इतिहास-लेखक लामा तारानाथ के अनुसार नालंदा सारिपुत्त की जन्मभूमि थी। यहाँ इनका एक चैत्य था। राजा अशोक ने एक मंदिर बनवाकर उसे परिवर्द्धित किया। यद्यपि नालंदा की प्राचीनता की अनुश्रुति बुद्ध तथा अशोक दोनों से संबंधित है, किंतु एक प्राणवंत विद्यापीठ के रूप में उसके जीवन का आरंभ गुप्तकाल में हुआ। इतिहास-लेखक तारानाथ के अनुसार भिक्ष नागार्जुन तथा आर्यदेव दोनों का संबंध नालंदा से रहा है। उनका कहना है कि आचार्य दिड्नाग ने यहाँ आकर अनेक प्रतिपक्षियों के साथ शास्त्रों का विचार किया था, जिनमें सुदुर्जय नामक ब्राह्मण अग्रणी था। चौथी शताब्दी में चीनी यात्री फाह्यान नालंदा आए थे। सातवीं सदी में समाट हर्षवर्द्धन के समय में युवानचांग जब यहाँ आए तो नालंदा अपनी उन्नति के शिखर पर था। युवानचांग ने कहा है कि इसका नाम नालंदा इसलिए पड़ा, क्योकि अपने पूर्व-जन्म में उत्पन्न भगवान बुद्ध को तृप्ति नहीं होती थी। इसका कारण यह है कि ज्ञान के क्षेत्र में जो दान दिया जाता है, उसमें न तो ज्ञान देने वाले तृप्त होते हैं और न ही ज्ञान प्राप्त करनेवालों को हो तृप्ति मिलती है।
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना जनता के उदार दान से हुई थी। ऐसी मान्यता है कि पाँच सौ व्यापारियों ने अपने धन से भूमि खरीदकर बुद्ध को दान में दी थी। आठवीं सदी के यशोवर्मन के शिलालेख में नालंदा का भव्य वर्णन किया गया है कि यहाँ के विहारों के शिखर आकाश में मेघों को छूते थे। इनके चारों ओर नीले जल से भरे सरोवरों में सुनहरे एवं लाल कमल तैरते थे, सघन आग्रकुंजों की छाया थी। यहाँ के भवनों के शिल्प और स्थापत्य को देखकर आश्चर्य होता था। इनमें अनेक अलंकरणों सहित मूर्तियों थी। चीनी यात्री इत्सिंग के समय इस विहार में तीन सौ बड़े कमरे तथा आठ मंडप थे। पुरातत्व विभाग की खुदाई में नालंदा विश्वविद्यालय के जो अवशेष मिले हैं, उनसे इन वर्णनों की सच्चाई प्रकट होती है।
Bharat ka Puratan Vidyapith Nalanda Video
नालंदा विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षकों एवं छात्रों के नित्य प्रति के व्यय के लिए सौ गाँवों की आय अक्षय निधि के रूप में समर्पित की गई थी। इत्सिंग के समय इन गाँवों की संख्या बढ़कर दो सौ के पास पहुँच गई थी। नालंदा विश्वविद्यालय के निर्माण एवं अर्थव्यवस्था में उत्तर प्रदेश, बिहार तथा बंगाल का महत्त्वपूर्ण योगदान था। नालंदा की खुदाई में बंगाल के महाराज धर्मपालदेव तथा देवपालदेव के समय के ताम्रपत्र और मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इतना ही नहीं, विदेशों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय का जो संबंध था, उसका स्मारक एक ताम्रपत्र भी खुदाई में मिले हैं। ताम्रपत्र के अनुसार, नालंदा के गुणों से प्रभावित होकर यव द्वीप के सम्राट बालपुत्र ने नालंदा में एक बड़े विहार का निर्माण कराया था। सम्राट देवपालदेव द्वारा दान में दिए गए पाँच गाँवों की आय से अन्तर्राष्ट्रीय आर्य भिक्षु संघ के भोजन, चिकित्सा, शयनासन, विहार की मरम्मत तथा धार्मिक ग्रंथों की प्रतिलिपि आदि में व्यय की जाती थी। यह तो संयोग से बचा हुआ एक प्रमाण है, जो विदेशों में फैली हुई नालंदा की अमिट छाप हमारे सामने रखता है। नालंदा महाविहारीय आर्य भिक्षु संघ की बहुत-सी मिट्टी की मुद्राएँ भी नालंदा में प्राप्त हुई हैं।
नालंदा का शिक्षाक्रम ऐसा व्यावहारिक था कि छात्र पढ़कर दैनिक जीवन में अधिकाधिक सफलता प्राप्त करते थे। यहाँ मुख्यतः पाँच विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
Class 9th Hindi Chapter 2 Bharat ka Puratan Vidyapith Nalanda
जैसे-भाषा का सम्यक् ज्ञान के लिए-शब्द विद्या या व्याकरण की, विषय-वस्तु की परख के लिए तर्कशास्त्र की. स्वास्थ्य ज्ञान के लिए चिकित्साशास्त्र की, अर्थ प्राप्ति के लिए-शिल्पशास्त्र की तथा इसके अतिरिक्त धर्म एवं दर्शनशास्त्र की। शील भद्र योगशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान थे। इनसे पहले इस संस्था के कुलपति धर्मपाल थे। शीलभद्र, ज्ञानचंद्र, प्रभामित्र, स्थिरमति, गुणमति आदि अन्य आचार्य युवानचंग के समाकलीन थे। जब युवानचंग यहाँ से विदा होने लगे तब शीलभद्र एवं अन्य भिक्षुओं ने उनसे आग्रह किया कि वे यहीं रह जाएँ। इस पर युवानचांग ने कहा कि यहाँ आने का मेरा उद्देश्य भगवान बुद्ध के महान धर्म की खोज करना तथा दूसरों को इस धर्म के विषय में समझाना था, ताकि लोग इस धर्म के प्रति आकृष्ट हों और प्रचार-प्रसार कर सकें।
नालंदा के विद्वानों ने विदेशों में जाकर ज्ञान का प्रसार किया। तिब्बत के प्रसिद्ध सम्राट सांग छन गम्पों ने अपने देश में भारतीय लिपि तथा ज्ञान के प्रचार के लिए थोन्मिसम्भोट को बौद्ध और बाह्मण साहित्य की शिक्षा प्राप्त करने नालंदा भेजा। इसके बाद नालंदा के कुलपति आचार्य शान्ति रक्षित सम्राट के आमंत्रण पर तिब्बत गए । इन्होंने ही सबसे पहले तिब्बत में बौद्ध विहार की स्थापना की थी। साहित्य तथा धर्म के क्षेत्र में भी नालंदा एक प्रसिद्ध केन्द्र था । लेखक अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुए कहता है कि भूतकाल से शिक्षा लेते हुए नालंदा में पुनः ‘ज्ञान केन्द्र’ की स्थापना करें।