इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड वर्ग 10 के हिन्दी के पाठ 3 (bharat se hum kya sikhe) ‘भारत से हम क्या सिखें’ को पढेंगे, जिसके लेखक फ्रेड्रिक मैक्समूलर है।
लेखक परिचय
लेखक का नाम- फ्रेड्रिक मैक्समूलर
जन्म- 6 दिसम्बर, 1823 ई0, आधुनिक जर्मनी
के डेसाउ नामक नगर में
मृत्यु- 28 अक्टूबर, 1900 ई0
पिता- विल्हेम मूलर
माता- एडेल्हेड मूलर
मैक्समूलर जब चार वर्ष के हुए, तो इनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता के निधन के बाद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई, फिर भी मैक्समूलर की शिक्षा-दीक्षा बाधित नहीं हुई। बचपन से ही वे संगीत के अतिरिक्त ग्रीक और लैटिन भाषा में निपुण हो गये थे तथा लैटिन में कविताएँ भी लिखने लगे थे। 18 वर्ष की उम्र में लिपजिंग विश्वविद्यालय में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन आरंभ कर दिया।
साहित्यिक रचनाएँ– 1841 ई0 में उन्होंने ‘हितोपदेश‘ का जर्मन भाषा में अनुवाद प्रकाशित करवाया। ‘कठ‘ और ‘केन‘ आदि उपन्यासों का भी जर्मन भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया। ‘मेघदूत‘ महाकाव्य का भी जर्मन पद्य में अनुवाद कर यश का भी काम किया।
पाठ परिचय
प्रस्तुत पाठ ‘भारत से हम क्या सिखें ‘भारतीय सेवा हेतु चयनित युवा अंग्रेज अधिकारियों के आगमन के अवसर पर संबोधित भाषणों की श्रृंखला की एक कड़ी है। प्रथम भाषण का यह संक्षिप्त एवं संपादित अंश है। इसका भाषांतरण डॉ0 भावानी शंकर त्रिवेदी ने किया है। इसमें लेखक ने भारतीय सभ्यता की प्राचीनता एवं विलक्षणता के विषय में नवागंतुक अधिकारियों को बताया है कि विश्व भारत की सभ्यता से बहुत कुछ सीखती तथा ग्रहण करती आई है। यह एक विलक्षण देश है। इसकी सभ्यता और संस्कृति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, नई पीढ़ी अपने देश तथा इसकी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति, ज्ञान-साधना, प्राकृतिक वैभव आदि की महता का प्रामाणिक ज्ञान प्रस्तुत भाषण से प्राप्त कर सकेगी।
पाठ का सारांश
प्रस्तुत पाठ ‘भारत से हम क्या सिखें‘ महान चिन्तक एवं साहित्यकार मैक्समूलर द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने भारत की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है।
लेखक का मानना है कि संसार में भारत एक ऐसा देश है जो सर्वविध संपदा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। भूतल पर स्वर्ग की छटा यहीं देखने को मिलती है। प्लेटो तथा काण्ट जैसे दार्शनिकों ने भी भारत के महत्व को सहर्ष स्वीकार किया है। यूनानी, रोमन तथा सेमेटिक जाति के यहूदियों की विचारधारा में ही सदा अवगाहन करते रहने वाले यूरोपीयनों के विश्वव्यापी एवं सम्पूर्ण मानवता के विकास का ज्ञान भारतीय साहित्य में ही मिला। लेखक के अनुसार, सच्चे भारत के दर्शन गाँवों में ही संभव है न कि कलकत्ता, मुम्बई जैसे शहरों में। यहाँ प्राकृतिक सुषमा है। खनिज भंडार है। कृषि की महत्ता है। यह तपस्वियों की साधना भूमि, जन्मभूमि, कर्मभूमि रही है।
भारत में अनेक विदेशी सिक्कों का विपूल भंडार था- ईरानी, केरियन, थ्रेसियन, पार्थियन, यूनानी, मेकेडेलियन, शकों, रोमन और मुस्लिम शासकों के सिक्के यहाँ प्रचुर मात्रा में मिले थे।
दैवत विज्ञान, कहावतों, कथाओं का महासागर रूप भारत में देखने को मिलता है। शब्द निर्माण और वृहद् शब्द भंडार भी भारत के पास चिरकाल से व्यवहृत है।
विधिशास्त्र, धर्मशास्त्र और राजनितिशास्त्र की जड़े भी भारत में ही हैं। भारतीय वाङ्मय और संस्कृत की महŸा को सभी विदेशी स्वीकार करते हैं।
संस्कृत का संबंध लैटिन से भी है। इस प्रकार संस्कृत, लैटिन, ग्रीक तीनों भाषाएँ एक ही उद्गम स्थल की है। हिन्दू, ग्रीक आदि जातियों में भी अनेकता के बावजूद एकता के बीज छिपे हुए हैं।
भारत विद्या, योग, धर्म-दर्शन का उद्गम स्थल है। पूरे विश्व को बुद्ध ने अपने विचारों से आलोकित किया था।
इस प्रकार भारतीय सभ्यता, संस्कृति ज्ञान-विज्ञान, प्राकृतिक सुन्दरता, भाषा और साहित्य में विशेष अभिरुचि रखने वालों के लिए भारत भ्रमण आवश्यक है।
वारेन हेस्टिंग्स जब भारत का गवर्नर जनरल था तो उसे वाराणसी के पास 172 दारिस नामक सोने के सिक्कों से भरा एक घड़ा मिला था। वारेन हेस्टिंग्स ने अपने मालिक ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल की सेवा में भेजवा दिया। कंपनी के निदेशक ने उन सोने के सिक्कों के महत्व को नहीं समझ पाये और उन्होनें उन मुद्राओं को गला डाला। जब वारेन हेस्टिंग्स इंगलैंड लौटा तो वे मुद्राएँ नष्ट हो चूकी थीं। वारेन हेस्टिंग्स को इस दुर्घटना से बहुत अफसोस हुआ।
कंपनी के निदेशक ने उन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व को समझ हीं नहीं पाये और अनायास यह दुर्घटना घट गई।
वारेन हेस्टिंग्स उन सिक्कों के महत्ता ऐतिहासिकता को समझते थे। कंपनी के निदेशक की नासमझी पर वारेन हेस्टिंग्स दुखित थे।
अंत में, लेखक अपने हार्दिक उद्गार प्रकट करते हुए कहता है कि भारत की प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक सौन्दर्यसम्पन्नता को जानने के लिए अभी न जाने कितने स्वप्नदर्शियों की आवश्यकता है। सर जोन्स ने जब सूर्य को अरब सागर में डुबते देखा तो उनके पिछे इंगलैंड की मधुर स्मृतियाँ तथा उनके सामने भारत की आशा जगमगा रही थी तथा अरब सागर के शातल मंद हवा के झोंखें उन्हें झुला रहे थे। इस प्रकार सर विलियम ने कलकत्ता पहुँचने के बाद पूर्वी देश के इतिहास और साहित्य के क्षेत्र में एक-से-बढ़कर एक शान्दार कार्य किए। फिर भी यह सोचकर निराश नहीं होना चाहिए कि गंगा और सिंधु के मैदानों में अब उनकी खोज के लिए कुछ भी शेष नहीं है।
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