Bhartiya rajniti naye badlav Class 12th Notes
अध्याय 9
भारतीय राजनीति : नए बदलाव
1990 का दशक
1980 के दशक के आखिर के सालों में देश में ऐसे पाँच बड़े बदलाव आए, जिनका हमारी आगे की राजनीति पर गहरा असर पड़ा।
पहला, इस दौर की एक महत्त्वपूर्ण घटना 1989 के चुनाव में कांग्रेस की हार है। जिस पार्टी ने 1984 में लोकसभा की 415 सीटें जीती थीं वह इस चुनाव में महज 197 सीटें ही जीत सकी। 1991 में एक बार फिर मध्यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस इस बार अपना आँकड़ा सुधारते हुए सत्ता में आयी।
दूसरा बड़ा बदलाव राष्ट्रीय राजनीति में ‘मंडल मुद्दे’ का उदय था। 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की नयी सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इन सिफारिशों के अंतर्गत प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार की नौकरियों में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ को आरक्षण दिया जाएगा। सरकार के इस फैसले से देश के विभिन्न भागों में मंडल-विरोधी हिंसक प्रदर्शन हुए। अन्य पिछड़ा वर्ग को मिले आरक्षण के समर्थक और विरोधियों के बीच चले विवाद को ‘मंडल मुद्दा’ कहा जाता है।
तीसरा, विभिन्न सरकारों ने इस दौर में जो आर्थिक नीतियाँ अपनायीं, वे बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। इसे ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम अथवा नए आर्थिक सुधार के नाम से जाना गया। इनकी शुरूआत राजीव गाँधी की सरकार के समय हुई और 1991 तक ये बदलाव बड़े पैमाने पर प्रकट हुए।
चौथे, घटनाओं के एक सिलसिले की परिणति अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचे (बाबरी मस्जिद के रूप में प्रसिद्ध) के विध्वंस के रूप में हुई। यह घटना 1992 के दिसंबर महीने में घटी। इस घटना ने देश की राजनीति में कई परिवर्तनों को जन्म दिया और उनका प्रतीक बनी। इस घटना से भारतीय राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता पर बहस तेज हो गई। इस सिलसिले की आखिरी बात यह है कि मई 1991 में राजीव गाँधी की हत्या कर दी गई और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। राजीव गाँधी चुनाव अभियान के सिलसिले में तमिलनाडु के दौर पर थे। तभी लिट्टे से जुड़े श्रीलंकाई तमिलों ने उनकी हत्या कर दी। राजीव गाँधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी ने नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री चुना।
गठबंधन का युग
1989 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार हुई थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि किसी दूसरी पार्टी को इस चुनाव में बहुमत मिल गया था। कांग्रेस अब भी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत में न होने के कारण उसने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। राष्ट्रीय मोर्चे को (यह मोर्चा जनता दल और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बना था) परस्पर विरूद्ध दो राजनीतिक समूहों –भाजपा और वाम मोर्चे – ने समर्थन दिया। इस समर्थन के आधार पर राष्ट्रीय मोर्चा ने एक गठबंधन सरकार बनायी, लेकिन इसमें भाजपा और वाम मोर्चे ने शिरकत नहीं की।
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कांग्रेस का पतन
कांग्रेस की हार के साथ भारत की दलीय व्यवस्था से उसका दबदबा खत्म हो गया। 1960 के दशक के अंतिम सालों में कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती मिली थी, लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभुत्व फिर से कायम किया। नब्बे के दशक में कांग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली।
इस दौर में कांग्रेस के दबदबे के खात्मे के साथ बहुदलीय शासन-प्रणाली का युग शुरू हुआ। 1989 के बाद से लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी एक पार्टी को 2014 तक पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस बदलाव के साथ केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ और क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
गठबंधन की राजनीति
नब्बे का दशक कुछ ताकतवर पार्टियों और आंदोलनों के उभार का साक्षी रहा। और आंदोलनों ने दलित तथा पिछड़े वर्ग (अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी) की नुमाइंदगी की। 1996 में बनी संयुक्त मार्चे की सरकार में इन पार्टियों ने अहम किरदार निभाया। संयुक्त मार्चा 1989 के राष्ट्रीय मोर्चे के ही समान था। क्योंकि इसमें भी जनता दल और कई क्षेत्रीय पार्टियाँ शामिल थीं। इस बार भाजपा ने सरकार को समर्थन नहीं दिया। संयुक्त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था।
1989 में भाजपा और वाम मोर्चा दोनों ने राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को समर्थन दिया था। क्योंकि ये दोनों कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखना चाहते थे। इस बाद वाममोर्चा ने गैर-कांग्रेस सरकार को अपना समर्थन जारी रखा, लेकिन संयुक्त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस पार्टी ने भी समर्थन दिया। दरअसल, कांग्रेस और वाममोर्चा दोनों इस बार भाजपा को सत्ता से बाहर रखना चाहते थे।
भाजपा ने 1991 तथा 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता मिला। लेकिन अधिकांश दल, भाजपा की नीतियों के खिलाफ थे और इस वजह से भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। आखिकार भाजपा एक गठबंधन (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आयी और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रही। फिर 1999 के अक्टूबर में इस गठबंधन ने दोबारा सत्ता हासिल की। राजग की इन दोनों सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 1999 की राजग सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया।
इस तरह 1989 के चुनावों से भारत में गठबंधन की राजनीति के एक लंबे दौर की शुरूआत हुई। इसके बाद से केंद्र में 11 सरकारें बनी। ये सभी या तो गठबंधन की सरकारें थीं अथवा दूसरे दलों के समर्थन पर टिकी अल्पमत की सरकारें थीं जो इन सरकारों में शामिल नहीं हुए।
अन्य पिछड़ा वर्ग का राजनीतिक उदय
इस अवधि का एक दूरगामी बदलाव था-अन्य पिछड़ा वर्ग का उदय। यह अनूसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति से अलग एक कोटि है, जिसमें शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों की गणना की जाती है। इन समुदोयों को ‘पिछड़ा वर्ग’ भी कहा जाता है।
‘मंडल’ का लागू होना
1980 के दशक में अन्य पिछड़ा वर्गों के बीच लोकप्रिय ऐसे ही राजनीतिक समूहों को जनता दल ने एकजूट किया। राष्ट्रीय मार्चा की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया। नौकरी में आरक्षण के सवाल पर तीखे वाद-विवाद हुए और इन विवादों से ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ अपनी पहचान को लेकर ज्यादा सजग हुआ।
राजनीतिक परिणाम
1978 में ‘बामसेफ’ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्पलाइज फेडरेशन) का गठन हुआ। यह सरकारी कर्मचारियों का कोई साधाण-सा ट्रेड यूनियन नहीं थी। इस संगठन ने ‘बहुजन’ यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक सत्ता की जबरदस्त तरफदारी की। इसी का परवर्ती विकास ‘दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति’ है, जिससे बाद के समय में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ। इस पार्टी की अगुवाई कांशीराम ने की।
1989 और 1991 के चुनावों में इस पार्टी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली। बहुजन (यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक) देश की आबादी में सबसे ज्यादा हैं इस पार्टी का सबसे ज्यादा समर्थन दलित मतदाता करते हैं,
सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र
आपातकाल के बाद भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी में शामिल हो गया था। जनता पार्टी के पतन और बिखराव के बाद भूतपूर्व जनसंघ के समर्थकों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बनाई। इसने ‘गाँधीवादी समाजवाद’ को अपनी विचारधारा के रूप में स्वीकार किया। भाजपा को 1980 और 1984 के चुनावों में खास सफलता नहीं मिला। 1986 के बाद इस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिंदु राष्ट्रवाद के तत्त्वों पर जोर देना शुरू किया। भाजपा ने ‘हिंदुत्व’ की राजनीति का रास्ता चुना और हिंदुओं को लामबंद करने की रणनीति अपनायी।
‘हिंदुत्व’ अथवा ‘हिंदुपन’ शबद को वी.डी. सावरकर ने गढ़ा था और इसको परिभाषित करते हुए उन्होंने इसे भारतीय (और शब्दों में हिंदू) राष्ट्र की बुनियाद बताया।
1986 में ऐसी दो बातें हुईं, जो एक हिंदूवादी पार्टी के रूप में भाजपा की राजनीति के लिहाज से प्रधान हो गईं । इसमें पहली बात 1985 के शाहबानो मामले से जुड़ी है। यह मामला एक 62 वर्षीया तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो का था। उसने अपने भूतपूर्व पति से गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए अदालत में अर्जी दायर की थी। सर्वोच्च अदालत ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया। पुरातनपंथी मुसलमानों ने अदालत के इस फैसले को अपने ‘पर्सनल लॉ’ में हस्तक्षेप माना। कुछ मुस्लिम नेताओं की माँग पर सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम (1986) (तलाक से जुड़े अधिकरों) पास किया। इस कदम का कई महिला संगठनों, मुस्लिम महिलाओं की जमात तथा अधिकांश बुद्धिजीवियों ने विरोध किया। भाजपा ने कांग्रेस सरकार के अस कदम की आलोचना की और इसे अल्पसंख्यक समुदाय को दी गई अनावश्यक रियायत तथा ‘तुष्टिकरण’ करार दिया।
अयोध्या विवाद
दसरी बात का संबंध फैजाबाद जिला न्यायालय द्वारा फरवरी 1986 में सुनाए गए फैसले से है। इस अदालत ने फैसला सुनाया था कि बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खोल दिया जाना चाहिए, ताकि हिंदू यहाँ पूजा पाट कर सकें, क्योंकि वे इस जगह को पवित्र मानते हैं। अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद को लेकर दशकों से विवाद चला आ रहा था। बाबरी मस्जिद का निर्माण अयोध्या में मीर बाकी ने करवाया था। यह मस्जिद 16वीं सदी में बनी थी। मीर बाकी मुगल शासक बाबर का सिपहसलार था।
जैसे ही बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खुला, वैसे ही दोनों पक्षों में लामबंदी होने लगी। अनेक हिंदू और मुस्लिम संगठन इस मसले पर अपने-अपने समुदाय को लामबंद करने की कोशिश में जुट गए। भाजपा ने इसे अपना बहुत बड़ा चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् जैसे कुछ संगठनों के साथ भाजपा ने लगातार प्रतीकात्मक और लामबंदी के कार्यक्रम चलाए। उसने जनसमर्थन जुटाने के लिए गुजरात स्थित सोमनाथ से उत्तर प्रदेश स्थित अयोध्या तक बड़ी ‘रथयात्रा’ निकाली।
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विध्वंस और उसके बाद
जो संगठन राम मंदिर के निर्माण का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने 1992 के दिसंबर में एक ‘कारसेवा’ का आयोजन किया। इसके अंतर्गत ‘रामभक्तों’ से आह्वान किया गया कि वे ‘राम मंदिर’ के निर्माण में श्रमदान करें। पूरे देश में माहौल तनावपूर्ण हो गया। अयोध्या में यह तनाव अपने चरम पर था। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह ‘विवादित स्थल’ की सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। बहरहाल 6 दिसंबर 1992 को देश के विभिन्न भागों से लोग आ जुटे और इन लोगों ने मस्जिद को गिरा दिया। मस्जिद के विध्वंस की खबर से देश के कई भागों में हिंदू और मुसलमानों के बीच झड़प हुई। 1993 के जनवरी में एक बार फिर मुंबई में हिंसा भड़की और अगले दो हफ्तों तक जारी रही।
अयोध्या की घटना से कई बदलाव आए। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन भाजपा की राज्य सरकार को केंद्र ने बर्खास्त कर दिया। इसके साथ ही दूसरे राज्यों में भी, जहाँ भाजपा की सरकार थी, राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। चूँकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस बात का हलफनामा दिया था कि ‘विवादित ढाँचे’ की रक्षा की जाएगी। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मुकदमा दायर हुआ। भाजपा ने आधिकारिक तौर पर अयोध्या की घटना पर अफसोस जताया।
अधिकतर राजनीतिक दलों ने मस्जिद के विध्वंस की निंदा की और इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के विरूद्ध बताया। लोकतांत्रिक राजनीति इस वायदे पर आधारित है कि सभी धार्मिक समुदाय किसी भी पार्टी में शामिल होने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल धार्मिक समुदाय पर आधारित दल नहीं होगा।
गुजरात के दंगे
2002 के फरवरी-मार्च में गुजरात में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। गोधरा स्टेशन पर घटी एक घटना इस हिंसा का तात्कालिक उकसावा साबित हुई। अयोध्या की ओर से आ रही एक ट्रेन की बोगी कारसेवकों से भरी हुई थी और इसमें आग लग गई। सत्तावन व्यक्ति इस आग में मर गए। यह संदेह करके कि बोगी में आग मुसलमानों ने लगायी होगी। अगले दिन गुजरात के कई भागों में मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंसा का यह तांडव लगभग एक महीने तक जारी रहा। लगभग 1100 व्यक्ति, जिनमें ज्यादातर मुसलामन थे, इस हिंसा में मारे गए। 1984 के सिख-विरोधी दंगों के समान गुजरात के दंगों से भी यह जाहिर हुआ कि सरकारी मशीनरी सांप्रदायिक भावनाओं के आवेग में आ सकती है। गुजरात में घटी ये घटनाएँ हमें आगाह करती हैं कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना खतरनाक हो सकता है। इससे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति को खतरा पैदा हो सकता है।
एक नयी सहमति का उदय
1989 के बाद की अवधि को कभी-कभार कांग्रेस के पतन और भाजपा के अभ्युदय की भी अवधि कहा जाता है
2004 के लोकसभा चुनाव
2004 के चुनावों में कांग्रेस भी पूरे जोर के साथ गठबंधन में शामिल हुई। राजग की हार हुई और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस ने किया। संप्रग को वाम मोर्चा ने समर्थन दिया। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस का पुनरूत्थान भी हुआ। 1991 के बाद इस दफा पार्टी की सीटों की संख्या एक बार फिर बढ़ी।
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