पाठ का सारांश
प्रस्तुत पाठ ‘बिहार का लोकगायन’ में बिहार की संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। लोकगीतों की अकूत संपदा से परिपूर्ण बिहार की धरती ने अनेक गायक एवं वादक पैदा किए हैं। जन्म, व्रत-उत्सव, जनेऊ, विवाह, कुटौनी, पिसौनी, रोपनी आदि में औरतों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में लोकगायन का असली रूप दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार सोहर, झूमर, ज्योनार, जैतसार, साँझा, पराती, रोपनी गीत, होली तथा चैता बिहार की मिट्टी की अपनी अनुगूंज हैं, अंतस् की अभिव्यक्ति है।
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बिहार में प्रचलित लोकगीतों के पाँच भेद हैं संस्कार गीत, पर्वगीत, श्रमगीत, प्रेमगीत, गाथा गीत एवं ऋतुगीत । जन्म, जनेऊ, तिलक तथा विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत को संस्कार गीत कहते हैं। पर्वो में छठगीत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। श्रमगीतों में जँतसार, पिसौनी तथा रोपनी गीतों की लय की तरंगें वातावरण में नाद घोलती है कि सारी थकान विलीन हो जाती है। प्रेम-गीत मुख्यतः चरवाहे, हलवाहे तथा गाड़ीवान द्वारा गाए जाते हैं तो लोरिका, भरथरी और नैका गाथा गीत के रूप में गाए जाते हैं तथा होली, चैता एवं बारहमासा ऋतु गीत हैं। फिर कबीर, सूर तथा तुलसी के भक्ति के पदों ने इतनी गहराई तक प्रभावित किया है कि वे उसमें अभिन्न भाव से घुलमिल गए हैं। माली जाति के लोगों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में इतनी तन्मयता होती है कि सुनने वाले भाव विभोर हो जाते हैं। उन विभिन्न गीतों में ढोलक, झाल, डुग्गी, डंका, हुरका आदि वाद्यों का प्रयोग आदिकाल से होता रहा है। इन बाजाओं को बजानेवालो का न तो कोई घराना है और न गुरू-शिष्य पंरपरा ही। लेकिन अनपढ़, गँवार पुरुष-औरतें कुछ इतनी कुशलता हासिल कर लेते हैं जिनके हाथों की कुशलता विस्मय में डाल देती है। इन गीतों की भाषा चाहे मगही, मैथिली या भोजपुरी कोई हो, विषय की समानता आंतरिक एकसूत्रता के प्रमाण सामने रख जाती है। प्रायः सबके संस्कार गीतों में राम, कृष्ण तथा भगवान शंकर के पारिवारिक प्रसंगों की भागीदारी प्रमुखता से पाई जाती है, जैसे-विवाह में हर दूल्हा राम या कृष्ण तथा हर दुल्हन सीता या पार्वती होती है। तात्पर्य यह कि इन लोक गीतों का स्वरूप परिवेशानुसार बदल जाता है, जैसे- स्वागत गीत में औरतें घर के वयस्क का नाम ले-लेकर अगवानी के गीत गाती हैं तो बारातियों के भोजन करते समय हास-परिहास भाव से जो गालियाँ गाई जाती हैं उनमें औरतों की उम्र तथा पद की सारी सीमाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। विदाई गीत इतने कारूणिक होते है कि उपस्थित लोगों की आँखें बरसने लगती है। पर्वगीतों में भक्ति मूलक गीतों की धुन तथा लय अलग होती है। इसमें परिवार की समर्पित भक्ति की निष्कलुष भाव की व्यंजना होती है। पर्वो के भक्तिमूलक लोकगायन में पूर्णतः पारिवारिक सामाजिक संदर्भ होता है जिसमें देव या देवी की कृपालुता, रुष्टता, लीला, स्वरूप एवं सौन्दर्य का वर्णन-चित्रण हुआ रहता है।
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कक्षा 9 हिंदी वर्णिका (Second Hindi) पाठ 1 बिहार का लोकगायन
बिहार के श्रीमगीतों में जैतसार तथा रोपनी-गीतों का विशेष महत्त्व है। जाँते में गेहूँ अथवा अन्य अनाज पीसती औरतें जँतसार गाकर श्रम में लय पैदा करती है तो धान के बिचड़ों की रोपनी करती महिलाएँ जब अपना गीत छेड़ती हैं तो उसकी लय सम्पूर्ण वातावरण में एक उर्वर मिठास घोल देती है।
होली और चैता बिहार के उत्सव तथा ऋतुगीत हैं। बसंत पंचमी के दिन गीत आरंभ होता है तो होली के दिन की अर्द्धरात्रि से चैता गायन आरंभ होता है। इन दोनों गीतों में ढोलक, झाल तथा करताल वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। होली में तो पौरूष भाव से पूर्ण उल्लास योग शृंगार की अनेक मर्यादाओं को तोड़ जाता है। विटा के होली गीतों पर ब्रजभाषा तथा अवधी के होली गीतों का गहरा प्रभाव रहा है किंतु भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि बिहार की बोलियों में होली की विशेष उन्मुक्तता देखी जाती है।
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बिहार के लोकगायन अर्थात् होली, चैता तथा रामायण गाते समय ढोलक वादन के एक-से-एक माहिर देखे जाते हैं। बक्सर जिले के निवासी रामकृतार्थ मिश्र उर्फ गाँधीजी, स्व. किशुन देव राय तथा कंठासुर राय को ढोलक वादन कला में महारत हासिल थी। इसी प्रकार बिंध्यवासिनी देवी, भरत सिंह भारतीय, शारदा सिंहा आदि ने बिहार के लोकगायन के प्रचार-प्रसार में प्रशंसनीय कार्य किया है तो युवा पीढ़ी में अजीत कुमार अकेला, भरत शर्मा व्यास तथा मनोज तिवारी आदि इस लोकगायन को व्यापक बनाने में लगे हुए हैं।
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निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि लोकगायन की आत्मा आज भी ग्रामीण नारियों तथा पुरुषों के कंठ से फूटे विभिन्न गीतों में बोलती है।