इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 7 हिन्दी के कविता पाठ पंद्रह ‘ Budhi Prithvi ka Dukh ( बूढी पृथ्वी का दु:ख )’ के अर्थ को पढ़ेंगे।
16 बूढी पृथ्वी का दु:ख
क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से
पेड़ों की चीत्कार?
कुल्हाड़ियों के वार सहते
किसी पेड़ की हिलती टहनियों में
दिखाई पड़े हैं तुम्हें
बचाव के लिए पुकारते हजारों-हजार हाथ
क्या होती है, तुम्हारे भीतर धमस
कटकर गिरता है जब कोई पेड़ धरती पर budhi prithvi ka dukh class 7
अर्थ-कवयित्री निर्मला पुतुल ने वैसे लोगों का ध्यान पेड़-पौधों की ओर आकृष्ट किया है जो निर्ममतापूर्वक पेड़ काटते जा रहे हैं। कवयित्री लोगों से यह जानना चाहती है कि क्या आपने कभी स्वप्न में चमकती हुई कुल्हाडियों के भय से काँपते हुए पेड़ों की चीख-पुकार को सुना है।
पुन: कवयित्री लोगों से पूछती है, क्या आपने कभी यह अनुभव किया है कि जब कोई पेड़ काट रहा होता है, उस समय कुल्हाड़ी के प्रहार से आहत हजारों-हजार टहनियों को बचाओ-बचाओं की पुकार लगाते हुए सुना है। इतना ही नहीं, जब कोई पेड़ कटने के बाद धराशायी होता है, उस समय तुमने अपने अन्दर कभी थकान महसूस किया है।
सुना है कभी
रात के सन्नाटे में अँधेरे से मुंह ढाँप ।
किस कदर रोती हैं नदियो?
इस घाट अपने कपड़े और मवेशियाँ धोते
सोचा है कभी कि उस घाट
पी रहा होगा कोई प्यासा पानी
या कोई स्त्री चढ़ा रही होगी किसी देवता को अर्घ्य?
अर्थ-कवयित्री कहती है कि जिस जल का पान कर जीव अपनी प्यास बुझाते हैं। कपड़े धोते हैं, मवेशियों को नहलाते हैं। सारे जीवित प्राणियों का जीवन जल ही है। देवताओं को उसी जल से अर्घ्य दिया जाता है। उस अमृत जैसे जल में लोग कूड़े-कचड़े, शहरों की नालियों के गंदे जल तथा मृत जीव-जन्तुओं को बहाकर दूषित कर रहे हैं। लोगों के इस अज्ञानतापूर्ण व्यवहार पर रात के सन्नाटे में कल-कल की आवाज करती नदियाँ रोती सुनाई पड़ती हैं । तात्पर्य कि जिस जल से सारी आवश्यकताओं की पूर्ति – होती है, मूर्खतावश लोग उसी जल में गंदे पदार्थों को डालकर दूषित करते जा रहे हैं।
कभी महसूस किया कि किस कदर दहलता है
मौन समाधि लिये बैठा पहाड़ का सीना
विस्फोट से टूटकर जब छिटकता दूर तक कोई पत्थर?
सुनाई पड़ी है कभी भरी दुपहरिया में
हथौड़ों की चोट से टूटकर बिखरते पत्थरों की चीख?
अर्थ-कवयित्री पूछती है कि क्या किसी ने विस्फोट से क्षत-विक्षत पत्थर के टुकड़ों. की चीख सुनी है। किसी महान उद्देश्य की प्राप्ति में तपस्यारत मौन पर्वत की छाती को फोड़कर मानव अपने स्वार्थ का परिचय देता है । कवयित्री कहती है कि दोपहर के विस्फोट से टूटकर जब पत्थर दूर तक छिटकता है तो उसकी भयानक आवाज से हृदय दहल उठता है। इतना ही नहीं, जब हथौड़ों से पत्थर के टुकड़ो को तोड़ा जाता है तो मानव – की निर्ममता पर कठोर पत्थर भी चीत्कार करने लगता है। तात्पर्य कि मानव का हृदय पत्थर से भी कठोर हो गया है। budhi prithvi ka dukh class 7
खून की उल्टियाँ करते
देखा है कभी हवा को, अपने घर के पिछवाड़े?
थोड़ा-सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी कभी
शिकायत न करनेवाली
गुमसुम बूढ़ी पृथ्वी से उसका दुख?
अगर नहीं, तो क्षमा करना!
मुझे तुम्हारे आदमी होने पर सन्देह है!!
अर्थ-कवयित्री कहती है कि तुमने कभी प्रदूषित हवा को साँस लेने के कारण खून की उल्टियाँ करते किसी को देखा है। यदि देखा है तो यह समझ लो, यह तुम्हारी ही गलती का परिणाम है। पुन: कवयित्री लोगों से पूछती है कि तुमने इस प्रकृति के साथ हो रहे अन्याय के विषय में कभी सोचा है, यदि नहीं तो तुम्हें अपने आपको मानव कहने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि जो मानव होगा उसी में मानवता होगी। वह कभी भी इस धरती की शोभा बिगाड़ने का प्रयास नहीं करेगा। इसी प्रवृत्ति के कारण कति को मानव का मानव-सा कार्य प्रतीत नहीं होता।
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