कक्षा 10 भूगोल मानचित्र अध्ययन – Manchitra Adhyayan

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इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई छ: का पाठ ‘मानचित्र अध्ययन’ (Manchitra Adhyayan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

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इकाई-6 मानचित्र अध्ययन (Manchitra Adhyayan)
उच्चावच निरूपण

आप सभी जानते हैं कि पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियाँ पायी जाती हैं। इनमें मे कुछ भू-आकृतियों के नाम आप जानते हैं। इनमें शंक्वाकार पहाड़ी, पठार, ’टश् आकार की घाटी, जलप्रपात, झील इत्यादि प्रमुख हैं। इन आकृतियों का मानचित्र पर निरूपण ही उच्चावच निरूपण कहलाता है। दूसरे शब्दों में-उच्चावच निरूपण का तात्पर्य मानचित्रण की वह विधि है, जसके द्वारा धरातल पर पायी जानेवाली त्रिविमीय आकृति का समतल सतह पर प्रदर्शन किया जाता है।

उच्चावच प्रदर्शन की विधियाँ

1.हैश्यूर विधि :
इस विधि का विकास ऑस्ट्रिया के एक सैन्य अधिकारी लेहमान ने किया था। उच्चावच निरूपण के लिए इस विधि के अंतर्गत मानचित्र में छोटी, महीन एवं खंडित रेखाएँ खींची जाती हैं। ये रेखाएँ ढाल की दिशा अथवा जल बहने की दिशा में खींची जाती हैं। फलतः अधिक या तीव्र ढ़ाल वाले भागों के पास-पास इन रेखाओं को मोटी एवं गहरी कर दिया जाता है। जबकि, मंद ढ़ालों के लिए ये रेखाएं पतली एवं दूर-दूर बनाई जाती है। समतल क्षेत्र को खाली छोड़ दिया जाता है। ऐसी स्थति में धरातल का जो भाग जितना अधिक ढालुवाँ होता है, हैश्यर विधि के मानचित्र पर वह भाग उतना ही अधिक काला दिखाई देता है। इस विधि से मानचित्र काफी आकर्षक एवं सजीव दिखता है, तथा इससे ढ़ाल का सही-सही ज्ञान हो पाता है। इस विधि से उच्चावच प्रदर्शित करने में काफी समय एवं मेहनत लगता है।

2.पर्वतीय छायाकरण : इस विधि के अंतर्गत उच्चावच-प्रदर्शन के लिए भू-आकृतियों पर उत्तर पश्चिम कोने पर ऊपर से प्रकाश पड़ने की कल्पना की जाती है। इसके कारण अंधेरे में पड़ने वाले हिस्से को या ढाल को गहरी आभा से भर देते हैं जबकि प्रकाश वाले हिस्से या कम ढ़ाल को हल्की आभा से (या छोड़) भर देते हैं या फिर खाली भी छोड़ सकते हैं।

इस विधि से पर्वतीय देशों के उच्चावच को प्रभावशाली ढंग से दिखाना संभव हेता है परन्तु इन मानचित्रों से भी ढ़ाल की मात्रा का सही ज्ञान नहीं हो पाता है।

3.तल चिह्न :

वास्तविक सर्वेक्षण के द्वारा भवनों, पुलों, खंभों, पत्थरों जैसे स्थाई वस्तुओं पर समुद्र तल से मापी गई ऊँचाई को प्रदर्शित करने वाले चिह्न को तल चिह्न (ठमदबी डंता) कहा जाता है।

4.स्थानिक ऊँचाई :
तल चिह्न की सहायता से किसी स्थान विशेष की मापी गई ऊँचाई को स्थानिक ऊँचाई कहा जाता है। इस विधि में बिंदुओं के द्वारा मानचित्र में विभिन्न स्थानों की ऊँचाई संख्या में लिख दिया जाता है।

5.त्रिकोणमितीय स्टेशन :
त्रिकोणमितीय स्टेशन का संबंध उन बिंदुओं से है जिनका उपयोग त्रिभूजन विधि (एक प्रकार का सर्वेक्षण) द्वारा सर्वेक्षण करते समय स्टेशन के रूप में हुआ था। मानचित्र पर त्रिभुज बनाकर उसके बगल में धरातल की समुद्र तल से ऊँचाई लिख दी जाती है।

6.स्तर रंजन :
रंगीन मानचित्रों में रंगों विभिन्न आभाओं के द्वारा उच्चावच प्रदर्शन का एक मानक निश्चित किया गया है। एटलस एवं दिवार मानचित्रों में इस विधि का उपयोग आपने अवश्य ही देखा होगा। ऊँचाई में वृद्धि के अनुसार रंगों की आभाएँ हल्की होती जाती है। इनमें समुद्र या जलीय भाग को नीले रंग से दिखाया जाता है। मैदान को हरा रंग से तथा पर्वतों का बादामी हल्का कत्थई रंग से दिखाया जाता है। जबकि बर्फीले क्षेत्र को सफेद रंग से दिखा जाता है।
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समोच्च रेखाएँ :
समोच्च रेखाओं की सहायता से उच्चावच प्रदर्शन की विधि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह एक मानक विधि है। वस्तुतः समोच्च रेखाएँ भूतल पर समुद्र जल-तल से एक समान ऊंचाई वाले बिंदुओं/स्थानों को मिलाकर मानचित्र पर खींची जानेवाली काल्पनिक रेखाएँ हैं। इन रेखाओं को क्षेत्र में सम्पन्न किए गए वास्तविक सर्वेक्षणं के आधार पर खींचा जाता है। मानचित्र में प्रत्येक समोच्च रेखा के साथ उसकी ऊँचाई का मान लिख दिया जाता है। मानचित्र पर इन समोच्च रेखाओं को बादामी रंग से दिखाया जाता है।

विभिन्न प्रकार के उच्चावच को प्रदर्शित करने के लिए समोच्च रेखाओं के बनाने का प्रारूप अलग-अलग होता है। एक समान ढ़ाल को दिखाने के लिए समोच्च रेखाओं को समान दूरी पर खींचा जाता है। खड़ी ढाल को दिखाने के लिए समोच्च रेखाएं पास-पास है। जबकि मंद ढ़ाल के लिए इन रेखाओं को दूर-दूर बनाया जाता है। जब किसी मानचित्र में अधिक ऊंचाई (मान) की समोच्च रेखाएँ पास-पास तथा कम ऊंचाई की समोच्च रेखाएँ दूर-दूर बनी होती है तब यह समझना चाहिए कि इन समोच्च रेखाओं का समुह अवतल ढ़ाल का प्रदर्शन कर रहा है। इसक विपरित स्थिति उत्तल ढाल का प्रतिनिधित्व करती है। सीढ़ीनुमा ढाल के लिए दो-दो समोच्च रेखाएँ अंतराल खींची जाती है। इसी तरह अन्य अनेक भू-आकृतिया को मानचित्र पर समोच्च रेखाओं द्वारा दिखाया जाता है।
समोच्च रेखाओं पर विभिन्न भू-आकृतियों का प्रदर्शन :

समोच्च रेखाओं की सहायता से भू-आकृतियों को प्रदर्शित करने के लिए उन आकृतियों की जानकारी होनी चाहिए क्योंकि भू-आकृतियों के अनुरूप ही समोच्च रेखाओं का प्रारूप बनता है तथा उन समोच्च रेखाओं पर संख्यात्मक मान (ऊँचाई के अनुसार) बैठाया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि आप वृताकार प्रारूप में आठ-दस समोच्च रेखाएँ खींचते हैं तब इससे दो भू-आकृतियाँ दिखाई जा सकती है। पहला शंक्वाकार पहाड़ी एवं दूसरा झील। परंतु इन दोनों भू- आकृतियों में समोच्च रेखाओं का मान ऊँचाई के अनुसार अलग-अलग होता है। शंक्वाकार पहाड़ी के लिए बनाए जाने वाले समाच्च रेख्याओं का मान बाहर से अंदर की ओर बढ़ता हुआ होता है, यानी अधिक ऊँचाई वाली समोच्च रेखा अन्दर की ही होती है। दूसरी ओर झील आकृति दिखाने के लिए समोच्च रेखाओं में बाहर की ओर अधिक वाली तथा अंदर की ओर कम मानवाली समोच्च रेखाएँ होती हैं। कहने का तात्पर्य यह समोच्च रेखाओं पर भू-आकृति प्रदर्शित करते समय उन रेखाओं के मान अच्छी तरह समझकर लिखने चाहिए। समोच्च रेखीय मानचित्र पर अनुभाग रेखा खींचने के बाद पार्श्वचित्र बनाया जाता है । इस पार्श्वचित्र की सहायता से संबंधित भू-आकृतियों को स्पष्टः समझा जा सकता है।
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पर्वत :
पर्वत स्थल पर पाई जानेवाली वह आकृति है जिसका आधार काफी चौड़ा एवं शिखर काफी पतला अथवा नुकीला होता है। आसपास की स्थलाकृति से यह पर्याप्त ऊँची उठी हुई होती है। इसका रूप शंक्वाकार या शंकुनुमा होता है। ज्वालामुखी से निर्मित पहाड़ी, शंकु आकृति की होती है। शंक्वाकार पहाड़ी की समोच्च रेखाओं को लगभग वताकार रूप में बनाया जाता है। बाहर से अन्दर की ओर वृतों का आकार छोटा होता जाता है। बीच में सर्वाधिक ऊँचाई वाला वृत्त होता है। बाहर से अंदर की ओर सर्वोच्च रेखाओं का मान क्रमशः बढ़ता जाता है।

पठार :
पठार धरातल पर पायी जानेवाली ऐसी आकृति है। जिसका आधार और शिखर दोनों चौड़ा एवं विस्तृत होता है। परंतु इसका विस्तृत शिखर उबड़-खाबड़ होता है। परिणामस्वरूप, पठारी भाग को दिखाने के लिए समोच्च रेखाओं को लगभग लंबाकार आकृति में बनाते हैं। प्रत्येक समोच्च रेखा बंद आकृति में बनाया जाता है। इसका मध्यवर्ती समोच्च रेखा भी पर्याप्त चौड़ा बनाया जाता है।

जलप्रपात :
जब किसी नदी का जल अपनी घाटी से गुजरने के दौरान ऊपर से नीचे की ओर तीव्र ढाल पर अकस्मात गिरती है तब इसे जलप्रपात कहा जाता है। इस आकृति को दिखाने के लिए खड़ी ढाल के पास कई समोच्च रेखाओं को एक स्थान पर मिला दिया जाता है। तथा शेष रेखाओं को ढाल के अनुरूप बनाया जाता है।

V आकार की घाटी
इस प्रकार की घाटी का निर्माण नदी द्वारा किया जाता है। खडी ’V’ आकार की घाटी का निर्माण नदी द्वारा उसके युवावस्था में किया जाता है। इस आकृति को प्रदर्शित करने के लिए समोच्च रेखाओं को अंग्रेजी के V अक्षर की उल्टी आकृति बनाई जाती है। जिसमें समोच्च रेखाओं का मान बाहर से अंदर की ओर क्रमशः घटता जाता है।

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कक्षा 10 भूगोल बिहार : जनसंख्या और नगरीकरण – Bihar Jansankhya aur Nagrikaran

Bihar Jansankhya aur Nagrikaran

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई पाँच का पाठ ‘बिहार : जनसंख्या और नगरीकरण’ (Bihar Jansankhya aur Nagrikaran) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Bihar Jansankhya aur Nagrikaran
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बिहार : जनसंख्या और नगरीकरण (Bihar Jansankhya aur Nagrikaran)

बिहार आरंभ से ही सघन जनसंख्या वाला देश रहा है, यहाँ 3000 वर्ष पहले से ही मानव बसाव के प्रमाण मिलते हैं। बिहार घनी आबादी वाले राज्यों में से एक है, इसका मुख्य कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति है, अर्थात समतल भू-भाग, उपजाऊ मिट्टी, सालों भर जल से भरी नदियाँ एवं सुगम पहुँचने की सुविधा है। वŸार्मान समय में बिहार जनसंख्या के दृष्टि से उत्तर-प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद तीसरे स्थान पर है। 2001 के जनगणन के अनुसार बिहार की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का 8.07 प्रतिशत है। बिहारइमें लिंग अनुपात 919 महिलायें प्रति हजार पुरूष है। यह राष्ट्रीय अनुपात 933 से कम है।
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जनसंख्या वितरण :
बिहार की जनसंख्या वितरण सभी जगह एक समान नहीं है। कहीं पर जनसंख्या बहुत अधिक है तो कहीं पर बहुत ही कम।

जहाँ भी धरातल समतल जलोढ़ और मैदानी हैं वहाँ घनी आबादी है। बिहार में सबसे अधिक जनसंख्या वाला जिला पटना है।

जनसंख्या घनत्व :
2001 की जनसंख्या के अनुसार बिहार में प्रतिवर्ग किलोमीटर घनत्व 881 व्यक्ति है। सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व पटना जिला में है जहाँ प्रतिवर्ग किमी पर 1471 व्यक्ति निवास करते हैं। इसके बाद दरभंगा और वैशाली का स्थान आता है, जहाँ क्रमशः 1342 और 1332 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी रहते हैं। जनसंख्या घनत्व में चौथे स्थान पर बेगुसराय जिला है, जहाँ 1222 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है।

सबसे कम जनसंख्या घनत्व वाला जिला पश्चिमी चम्पारण, बाँका, जमुई और कैमुर है, जिसका घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी० है।

नगरों का विकास :
बिहार में नगरों के विकास का इतिहास बहुत पुराना है, यहाँ के अधिकतर प्रमुख नगर नदी के तट पर बसे हुए हैं। प्राचीन नगरों में पाटलिपुत्र, नालन्दा, गया, वैशाली, बोधगया, उदवेतपुरी, सीतामढ़ी आदि है।

आजादी के बाद यहाँ नगरों के विकास में तेजी आई है। औद्योगिक विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं जीवन के मौलिक सुविधाओं के विकास के कारण कई नगर यहाँ विकसित हुए हैं। इनमें बरौनी, हाजीपुर, दानापुर, डालमिया नगर, मुंगेर, जमालपुर, कटिहार आदि हैं। बिहार भारत का सबसे कम शहरीकृत राज्य है। यहाँ 2001 के जनगणना के अनुसार नगरीय आबादी मात्र 10.5 प्रतिशत है।

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कक्षा 10 भूगोल बिहार : उद्योग एवं परिवहन – Bihar Udyog evam Parivahan

Bihar Udyog evam Parivahan

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Bihar Udyog evam Parivahan
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बिहार : उद्योग एवं परिवहन (Bihar Udyog evam Parivahan)

बिहार के अधिकतर बड़े उद्योग बिहार विभाजन के बाद झारखण्ड राज्य में चले गए और बिहार से बड़े उद्योग लगभग विलुप्त हो गये।
दसवीं पंचवर्षीय योजना काल में औद्योगिक विकास दर 9.8 प्रतिशत था। किन्तु बिहार की औद्योगिक आय पूरे देश के औद्योगिक आय का मात्र 0.4 (2004-05) प्रतिशत ही था।

बिहार में 1500 लघु उद्योग, 98000 अतिलघु/अत्यन्त लघु औद्योगिक इकाइयाँ और 68000 शिल्प उद्योग इकाइयाँ मौजूद हैं।

कृषि पर आधारित उद्योग :

चीनी उद्योग :
भारत की पहली चीनी मिल डच कम्पनी द्वारा 1840 में बेतिया में स्थापित किया गया था।

बिहार में 10 टन गन्ना से एक टन चीनी प्राप्त होता है। 1960 के पूर्व यहाँ पूरे भारत की लगभग एक तिहाई चीनी बिहार से प्राप्त होता था।

बिहार में 10 टन गन्ना से एक टन चीनी प्राप्त होता है। 1960 के पहले यहाँ पूरे भारत का लगभग एक तिहाई चीनी बिहार से प्राप्त होता था।

बिहार में चीनी उद्योग एक महत्वपूर्ण उद्योग है। पहले यहाँ चीनी मिलों की संख्या 29 थी लेकिन 2006-07 में इसकी संख्या घटकर मात्र 09 रह गई है।

बिहार में चीनी की अधिकतर मिलें उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में विकसित है। पश्चिमी चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, सीवान, गोपालगंज, और सारण जिला में चीनी मिलें केंद्रित हैं, क्योंकि यह क्षेत्र गन्ना उत्पादन के लिए अत्यन्त अनुकूल हैं।

चीनी मिलें से सह उत्पादन के रूप में विद्युत, कागज, छोवा एवं इथेनॉल का निर्माण भी होता है।
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जूट उद्योग : जूट बिहार की ही नहीं, बल्कि पूरे भारत का महत्वपूर्ण उद्योग है। कपास के बाद भारत का यह दूसरा महत्वपूर्ण उद्योग है। आजादी से पहले भारत में जूट के 110 कारखाने थे। इनमें सबसे अधिक पश्चिम बंगाल और बिहार में केन्द्रित थे। आजादी के बाद जूट पैदा करने वाला अधिकतर भाग बंगलादेश में भाग गया जिसके कारण इस उद्योग को भारी झटका लगा। वर्तमान में बिहार में जूट के तीन बड़े कारखाने हैं कटिहार, पूर्णिया और दरभंगा में है। अभी सिर्फ कटिहार का कारखाना कार्यरत है।

तम्बाकू उद्योग : तम्बाकू पर आधारित उद्योग में बीड़ी तथा सिगरेट के कारखाने आते हैं। तम्बाकू उत्पादन में बिहार का स्थान देश में लागातार घट रहा है।
चावल, दाल एवं आटा मील : बिहार की सबसे प्रमुख फसल धान है। धान को कूट कर चावल तैयार किया जात है। बिहार में सबसे अधिक चावल की मिलें भोजपूर रोहतास और पूर्वी चम्पारण जिलों में हैं, इन जीलो में चावल की मिलां की संख्या 520 हैं। यहाँ लगभग 2000 आटा की मिलें हैं,

तेल मिल :– बिहार में तीसी, राई, सरसां, तेल, सूरजमूखी से तेल निकाले जाते हैं और इसकी फसल भी लगाई जाती हैं। यहाँ 500 तेल मिले हैं।

चर्म उद्योग :- बिहार में यह उद्योग मुख्य रूप से कुटीर उद्योग के रूप में विस्तृत हैं, अधिकांश चर्म उद्योग बेतिया, मुजफ्फरपूर, पूर्णिया, कटिहार, पटना, आरा और औरंगाबाद में अवस्थित हें।

वस्त्र उद्योग बिहार का एक प्राचिन उद्योग हैं, यह काम यहाँ ग्रामिन एवं शहरी क्षेत्र दोनो में होता हैं। बिहार में सूती, रेशमी एवं ऊनी वस्त्र तैयार किया जाता हैं। कच्चे माल के अभाव के कारण बिहार में सूती वस्त्र उद्योग का अधिक विकास नही हुआ हैं। डुमराव, गया, मोकामा, मुंगेर फुलवारीशरीफ ओरमाझी, भागलपूर में हुआ हैं। भागलपूर मुजफ्फरपूर गया एवं दरभंगा में रेशमी वस्त्र का उद्योग हुआ हैं।

खनिज आधरित उद्योग :- बिहार में खनिज का अभाव हैं खनिज पर आधारित उद्योगों में सीमेंट उद्योग का रासायन उद्योग एवं काँच उद्योग प्रमुख हैं।

सीमेंट उद्योग :-  सिमेंट उद्योग के लिए सबसे प्रमुख माल चूना पत्थर हैं। बिहार में सम्पूर्ण देश का मात्र 5% चूना पत्थर प्राप्त होता हैं।

रासायनिक उद्योग :

अम्ल, क्षार एवं उर्वरक रासायनिक उद्योग में भारी वस्तुओं के उद्योग है। बिहार में उर्वरक का सबसे महत्वपूर्ण कारखाना बरौनी में स्थापित है।
रंग, वर्निश, तेल, साबुन, दवाईयाँ आदि रासायनिक उद्योग के अंतर्गत आते हैं।
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काँच उद्योग :
यह उद्योग बिहार का प्राचीन उद्योग है, यहाँ पहले काँच की चूड़ियाँ बनाई जाती थी। बिहार में काँच का उत्पादन पटना, हाजीपुर, दरभंगा और भागलपूर में होता है।

पर्यटन उद्योग :
बिहार में पर्यटन प्रमुख उद्योग के रूप में उभरने की क्षमता है। लेकिन बिहार सरकार इस उद्योग पर कम ध्यान दे रही है। यहाँ की सांस्कृतिक विरासत, धार्मिक स्थलें, प्राकृतिक सौंदर्य पूरे संसार के लोगों को आकृष्ट करने की क्षमता रखता है। बिहार के पर्यटन मानचित्र में बौद्ध मठ, जैन मंदिर, सिखों के गुरूद्वारे और सूफी संतों की दरगाहें मौजूद है। इन पर्यटन स्थलों में राजगीर, पाटलीपुत्र, वैशाली, बौधगया, नालंदा, पावापुरी, पटना साहेब, गया, सुलतानगंज, बाल्मिकीनगर, देव, सोनपुर, सासाराम, मनेर, बिहारशरीफ जैसे अनेक स्थान प्रसिद्ध हैं।

बिहार में इस उद्योग पर विशेष ध्यान नहीं है फिर भी यहाँ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों की संख्या में वृद्धि हो रही है।

अन्य प्रमुख उद्योग- ऊपर वर्णन किये गए उद्योगों के अलावा अन्य उद्योगों का यहाँ विकास हुआ है। इनमें बरौनी में तेलशोधन कारखाना और पेट्रो रसायन उद्योग स्थापित है। मुंगेर में बंदुक, पूर्णिया में कीटनाशक उद्योग और बेतिया में प्लास्टिक उद्योग स्थापित हैं। कहलगाँव, बरौनी तथा काँटी में ताप विद्युत केन्द्र स्थापित हैं।
नालंदा में कोल्डस्टोरेज और आलू से सम्बंधित (पाउडर, चिप्स) उद्योग खोला गया है।

बिहार में औद्योगिक पिछड़ेपन का प्रमुख कारण-
1.कच्चे माल की कमी यहाँ की सबसे बड़ी समस्या है। यहाँ खनिजों का अभाव है।
2.संरचनात्मक सुविधाओं में कमी- परिवहन, ऊर्जा, भण्डारण की कमी, बाजार की कमी
3.आधुनिकरण हेतु पूँजी और तकनिकी की कमी।
4.विदेशी निवेश की कमी

बिहार में परिवहन :
बिहार का अधिकतर भाग मैदानी है, इसलिए यहाँ परिवहन के प्रायः सभी स्थलीय साधनों का विकास हुआ है।
बिहार में मूल रूप से सड़क मार्ग एवं रेलमार्ग तथा सीमित रूप से नदी जलमार्ग, वायु मार्ग एवं रज्जूमार्ग का विकास हुआ है।

सड़क मार्ग :
बिहार में सड़क मार्ग का विकास सबसे पहले हुआ। यह बिहार के प्राचीन साधनों में से है। आजादी के बाद बिहार में सड़क का विस्तार अधिक हुआ है। आजादी के समय यहाँ सड़कों की कुल लंबाई 2104 किमी थी जबकि वर्तमान में यहाँ सड़कों की लंबाई 81680 किमी है।

रेल मार्ग :
बिहार में रेलमार्ग का विकास ब्रिटिशकाल में सर्वप्रथम 1860 में हुआ था। गंगा के किनारे इस्ट इंडिया कम्पनी ने कोलकाता तक पहली रेल लाईन बिछाई।
2001 तक बिहार में रेल लाईन की कुल लंबाई 6,283 किमी० हो गई। हाजीपुर में 2002 में पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय स्थापित किया गया था।
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जल मार्ग :
बिहार एक भू-आवेशित राज्य है। इसे समुद्री मार्ग से कोई सम्पर्क नहीं है। यहाँ जलमार्ग के लिए नदियों का उपयोग किया जाता है।
गंगा, घाघरा, कोसी, गण्डक और सोन नदियाँ मुख्य रूप से जल परिवहन के लिए उपयोग की जाती है।
वर्तमान में गंगा नदी में हल्दिया-इलाहाबाद राष्ट्रीय जल मार्ग विकसित किया गया है। महेन्द्रु घाट के निकट एक राष्ट्रीय पोत संस्थान की स्थापना भी की गई है।

वायु मार्ग :
बिहार की ढ़िली अर्थव्यवस्था के कारण यहाँ वायु मार्ग का विकास पूरी तरह नहीं हो पाया है। सिर्फ यहाँ पटना और बोधगया में ही अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के हवाई अड्डों का विकास हुआ है। यहाँ से काठमाण्डू, कोलकाता, मुम्बई, लखनऊ, राँची तथा दिल्ली के लिए वायु सेवा उपलब्ध है। बोध गया से साप्ताहिक उड़ान बैंकॉक के लिए होती है। इसके अलावा यहाँ मुजफ्फरपुर, जोगवनी, रक्सौल, भागलपुर, बिहटा आदि सात हवाई अड्डे हैं।

रज्जू मार्ग :
रज्जू मार्ग का उपयोग पर्वतीय एवं दूर्गम स्थानों के लिए होता है। बिहार में राजगीर के गृद्धकूट पर्वत पर बौद्ध शांति स्तूप पर जाने के लिए रज्जू मार्ग का विकास किया गया है। इसका निर्माण 1972 में जापान सरकार के द्वारा किया गया था। बांका जिला में मन्दार हिल को भी जल्द ही रज्जू मार्ग से शीघ्र जोड़ दिया जायेगा। यह स्थान जैनियों के लिए तीर्थ स्थल है।

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कक्षा 10 भूगोल बिहार : खनिज एवं ऊर्जा संसाधन – Bihar Khanij evam Urja Sansadhan

Bihar Khanij evam Urja Sansadhan

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बिहार : खनिज एवं ऊर्जा संसाधन (Bihar Khanij evam Urja Sansadhan)

खनिज संपदा की उपलब्धता किसी भी क्षेत्र या राज्य के आर्थिक विकास का सूचक होता है। बिहार विभाजन के बाद लगभग संपूर्ण खनिज संपदा झारखंड में चला गया और बिहार राज्य लगभग खनिज सम्पदा से खाली हो गया।

बिहार में चूना पत्थर और पाइराईट ही ऐसे दो खनिज हैं जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।

बिहार में खनिजों को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है।

1.धात्विक खनिज : इसके अंतर्गत बॉक्साइट, मेग्नेटाइट और सोना अयस्क आते हैं।
2.अधात्विक खनिज : चूना पत्थर, अभ्रक, डोलोमाइट, सिलिका सैंड, पाइराइट, क्वाटर्ज, फेल्सपार, चीनी मिट्टी, स्लेट एवं शोरा जैसी अधात्विक खनिज बिहार में मिलते हैं।

शक्ति के साधन :
बिहार शक्ति के साधनों में से किसी भी साधन में विकसित नहीं है। दूसरे पर अधिक निर्भर रहना पड़ता है।

परम्परागत ऊर्जा के स्त्रोत :
परम्परागत ऊर्जा स्त्रोतों में बिहार के कई तापीय विद्युत केन्द्र हैं इनमें कहलगाँव, कांटी और बरौनी तापीय विद्यूत केन्द्र प्रमुख है।

कहलगाँव सुपर थर्मल पावर बिहार की सबसे बड़ी तापीय विद्युत परियोजना है। इसकी स्थापना 1979 में की गई थी। कहलगाँ सुपर थर्मल पावर की उत्पादन क्षमता 840 मेगावाट है।

कांटी तापीय विद्युत केन्द्र मुजफ्फरपुर के निकट है, इसकी उत्पादन क्षमता 120 मेगावाट है।

बरौनी ताप विद्युत परियोजना की स्थापना 1970 में की गई। इसकी उत्पादन क्षमता 145 मेगावाट है। इस परियोजना की स्थापना रूस के सहयोग से किया गया था।
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जल विद्युत :
बिहार में जल विद्युत परियोजना का काम तेजी से हो रहा है, इसके विकास के लिए 1982 में बिहार राज्य जल विद्युत निगम का गठन किया गया इसके द्वारा 2055 मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।

गैर-परम्परागत ऊर्जा स्त्रोत :
बिहार में गैर-परम्परागत ऊर्जा स्त्रोत एवं नवीकरणीय ऊर्जा की बहुत संभावनाएँ हैं। जिसमें बायो गैस, सौर-ऊर्जा और पवन-ऊर्जा द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है।

बिहार में 92 सम्भावित स्थलों की पहचान की गई है जहाँ लघु जल-विद्युत परियोजनाओं को विकसित किया जा सके, जिनकी कुल क्षमता 46.1 मेगावाट है।

बायोगैस गांवों में भोजन बनाने संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्त्रोत है। अब तक 1.25 लाख संयंत्र स्थापित किए जा चूके हैं।

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कक्षा 10 भूगोल बिहार : कृषि एवं वन संसाधन – Bihar Krishi evam Van Sansadhan 10th Geography

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Bihar Krishi evam Van Sansadhan
Bihar Krishi evam Van Sansadhan

5. बिहार : कृषि एवं वन संसाधन
कृषि एवं वन संसाधन (Bihar Krishi evam Van Sansadhan)

बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है, यहाँ की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है।

यहाँ चार फसलें-भदई, अगहनी, रबी एवं गरमा लगाई जाती है।

भदई- इसकी शुरूआत मई-जून से होती है और अगस्त-सितम्बर में कटाई कर ली जाती है। भदई धान, ज्वार, बाजरा, मकई के अंतिरिक्त जूट और सब्जी की खेती इस समय में की जाती है।

अगहनी- यह बिहार की सबसे महत्वपूर्ण फसल है। यह फसल मध्य जून से अगस्त तक लगाई जाती है और नवम्बर दिसम्बर में काट ली जाती है। धान, ज्वार, बाजरा, अरहर, गन्ना इस फसल की मुख्य पैदावार है।

रबी- जिस फसल को अक्टूबर-नवम्बर के मध्य में लगाया जाता है और अप्रैल में काट लिया जाता है। गेंहूँ, जौ, दलहन, तेलहन इस फसल की खास उपज है।

गरमा- इस फसल को गरमी के मौसम में उन क्षेत्रो में लगाया जाता है जहाँ सिंचाई की समुचित व्यवस्था है, या फिर निम्न भूमि में जहाँ स्थानीय जल श्रोतों में मिट्टी गिली रहती है, इस फसल में गरमा, धान और ग्रीष्मकालीन सब्जियाँ उगाई जाती है।

खाद्यान्न फसलें :

धान : धान बिहार की महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसलें हैं। इसकी खेती राज्य के सभी भागों में की जाती है।
धान का सबसे अधिक उत्पादन पश्चिमी चम्पारण, रोहतास तथा औरंगाबाद में होता है। पहले स्थान पर पश्चिमी चम्पारण है जबकि रोहतास और औरंगाबाद क्रमशः द्वितीय और तृतीय स्थान पर है।

गेहूँ- खाद्यान्न फसलों में धान के बाद गेहूँ दूसरा महत्वपूर्ण फसल है। गेहूँ के उत्पादन में रोहतास जिला प्रथम स्थान पर है।

मक्का : यह बिहार का तीसरा मुख्य खाद्यान्न फसल है। यह भदई, अगहनी, रबी एवं गरमा चारों फसलों में पैदा होता है। मक्का का सबसे अधिक उत्पादन खगड़िया जिला में होता है, दूसरे और तीसरे स्थान पर क्रमशः समस्तीपुर एवं बेगूसराय है।

मोटे अनाज : मोटे अनाजों में महुआ, मिलेट, ज्वार और बाजरा को शामिल किया जाता है। प्रथम स्थान पर मोटे अनाज के उत्पादन में मधुबनी जिला आता है। दूसरे स्थान पर किशनगंज है।

तेलहन : राई, सरसों, तीसी, सूरजमुखी, कुसुम, रेड़ी, तिल, मूँगफली मुख्य रूप से तेलहन फसलें हैं। तिलहन उत्पादन में सबसे आगे पश्चिम चंपारण है।

दलहन : बिहार में दलहन फसल में चना, मसूर, खेसारी, मटर, मूँग, अरहर, उरद तथा कुरथी प्रमुख है।  चना, मसूर, खेसारी, मटर एवं गरमा मूँग रबी दलहन की फसलें हैं तथा अरहर तथा मूँग खरीफ की फसलें हैं।

दलहन उत्पादन में पटना प्रथम स्थान पर है। तथा औरंगाबाद और कैमुर क्रमशः द्वितीय और तृतीय स्थान पर है।
व्यावसायिक फसलें

गन्ना :  हमारे राज्य में गन्ना की खेती के लिए सभी अनुकुल भौगोलिक परिस्थितियाँ विद्यमान हैं, फिर भी यहाँ गन्ना का प्रति हेक्टेयर उत्पादन बहुत कम है, यहाँ के उत्तरी पश्चिम भाग में इनकी खेती प्रमुखता से होती है।

गन्ने के उत्पादन में पश्चिमी चम्पारण पहले स्थान पर हैं जबकि दूसरे और तीसरे स्थान पर क्रमश: गोपालगंज और पूर्वी चम्पारण जिले हैं।

जूट : जूट का उत्पादन बिहार के उत्तर पूर्वी जिलों में होता है, क्योंकि यह अधिक वर्षा वाला क्षेत्र हैं, जो कि जूट उत्पादन के लिए उपयुक्त हैं। सम्पूर्ण देश का आठ प्रतिशत जूट उत्पादन बिहार में होता है। पश्चिम बंगाल और असम के बाद, बिहार का तिसरा स्थान हैं।

तम्बाकू : तम्बाकू उत्पादन में बिहार का भारत में छठा स्थान हैं, इसकी खेती के लिए गंगा का दियारा क्षेत्र सबसे उपयुक्त हैं।

सब्जियाँ, फल एवं मशाले : बिहार में सब्जियों के अंतर्गत आलू, प्याज, भिन्डी, परोर, लौकी, पालक, लाल साग, लूबिया, फूलगोभी पटल, पत्तागोभी आदि की खेती की

जाती हैं। इनमें आलू सबसे प्रमुख सब्जी ही नही बल्कि एक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ भी हैं। इसकी खेती बिहार के लगभग सभी जिलों में होती हैं।

मिर्च :  मिर्च की खेती दियरा क्षेत्र में गंगा के दोनों किनारे पर वृहत पैमाने पर की जाती है। बिहार में अन्य मसालें जैसे- हल्दी, धनियां, अदरक, सौफ एवं लहसुन की भी खेती की जाती हैं।

मौसमी फलां में आम, लीची, अमरूद, केला, पपीता, सिंघाड़ा एवं मखाने बिहार में उत्पन्न किए जाते हैं। आम के लिए भागलपूर, मुजफ्फरपूर, पूर्णिया, दरभंगा जिले प्रसिद्ध है। लीची के लिए मुजफ्फरपूर और वैशाली को ख्याति प्राप्त हैं।

कुषि की समस्याएँ : बिहार की 90 प्रतिशत आबादी देहातों में रहती हैं और 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। बिहार में कृषि निम्नलिखित समस्याओं से जूझ रहा है।

1.मिट्टी कटाव एवं गुणवत्ता का ह्रास – भारी वर्षा और बाढ़ के कारण मिट्टी का कटाव होता है, साथ ही वर्षां से लगातार रासायनिक खादों के उपयोग से भी मिट्टी की ह्रास हो रहा है।
2.घटिया बीजों का उपयोग – उच्च कोटी के बीज का उपयोग नहीं होने के कारण प्रति एकड़ उपज अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है।
3.खेतों का छोटा आकार का होना – हमारे राज्य में खेतों का छोटा आकार होने के कारण वैज्ञानिक खेती संभव नहीं हो पाती है।
4.किसानों में रूढ़िवादिता – यहाँ के किसान परिश्रम पर कम और रूढ़िवादिता पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
5.सिंचाई की समस्या – यहाँ की कृषि मॉनसून पर निर्भर है, सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं है।
6.बाढ़ – यहाँ की ज्यादातर नदियाँ विनाशकारी बाढ़ के लिए प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष यहाँ बाढ़ की समस्याओं से किसान परेशान रहते हैं।
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जल संसाधन :

बिहार में जल का भंडार है, जो दो स्त्रोतों से प्राप्त होता है-
1.धरातलीय जल : इसमें नदियाँ, जलाशय , तालाब आते हैं।
2.भूमिगत जल : इसमें कुआँ, झरने, नलकूप, हैंडपम्प आदि आते हैं।

बिहार में 95 प्रतिशत से अधिक जल संसाधन का उपयोग सिंचाई में होता है। यहाँ मॉनसून से वर्षा की अवधि मात्र चार महिने की होती है।
बिहार में सिंचाई के लिए नहर प्रमुख साधन है। यहाँ कुल सिंचित भूमि का 40.63 प्रतिशत भूमि की सिंचाई नहरों द्वारा होती है।

आजादी के पहले की नहरें :

सोन नहर : यह सिंचाई परियोजना का एक भाग है, यह बिहार का पहला आधुनिक नहर है, इसे 1874 में डिहरी पर निर्मित किया गया, इससे दो नहरें निकाली गई है।

सारण नहर- गोपालगंज प्रखंड में 1880 में इस नहर का निर्माण किया गया था।
त्रिवेणी नहर- इस नहर का निर्माण 1903 में पश्चिमी चम्पारण में भारत-नेपाल सीमा पर गण्डक नदी त्रिवेणी नामक स्थान के निकट हुआ, इसकी कुल लम्बाई 1,094 किमी है।

आजादी के बाद की नहरें :

कोसी नहर- कोसी नदी पर भारत-नेपाल सीमा पर हनुमान नगर के पास बाँध बनाकर दो नहरें निकाली गई है- पूर्वी कोसी के किनारें पर पूर्वी कोसी नहर और पश्चिमी किनारें पर पश्चिमी कोसी नहर

पूर्वी कोसी नहर की लम्बाई 44 किमी है तथा पश्चिमी कोसी नहर की लंबाई 115 किमी है।

गण्डक नहर- गण्डक नदी पर त्रिवेणी नामक स्थान से 85 किमी दक्षिण बाल्मीकि नगर के पास एक 743 किमी लम्बा और 760 मी० ऊँचा बाँध बनाया गया था। इस बाँध से पश्चिम की ओर तिरहुत नहर और पूरब की ओर सारण नहर निकाली गई है।

नलकूप- सिंचाई के लिए नलकूप नहर के बाद दूसरा प्रमुख साधन है।
कुआँ- बिहार में कुँऐं का उपयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है, लेकिन अब इसका प्रचलन कम हो गया है। इसके जगह पर अब पम्पसेटों का प्रयोग होने लगा है।

कुआँ से सिंचाई का काम बिहार में मात्र 2 प्रतिशत है।

तालाब- भारत में 9 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि की सिंचाई तालाबों द्वारा किया जाता है। जबकि बिहार में मात्र 2.10 प्रतिशत ही भूमि की सिंचाई तालाबों द्वारा किया जाता है।

तालाबों द्वारा सिंचाई में मधुबनी जिला प्रथम स्थान पर है तथा दूसरे स्थान पर नालंदा जिला है।

बिहार में सिंचाई के अन्य साधनों में झील, पोखर, पईन अहर, कृत्रिम झील, ढेकू और मोट आदि है।
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बिहार की नदी घाटी योजनाऐं :
बिहार में बहुत सारी बहुउद्देशीय नदी घाटी योजनाओं का विकास किया गया है जिससे जल-विद्युत, उत्पादन, सिंचाई मछली पालन, पेय-जल, औद्योगिक उपयोग, मनोरंजन एवं यातायात का विकास हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई योजनाएँ बनाई कई हैं। जिसमें तीन प्रमुख योजनाऐं हैं-
1.सोन नदी घाटी परियोजना
2.गण्डक नदी घाटी परियोजना
3.कोसी नदी घाटी परियोजना

अन्य परियोजनाएँ हैं-
1.दुर्गावती जलाशय परियोजना
2.चन्दन बहुआ परियोजना
3.बागमती परियोजना
4.बरनार जलाशय परियोजना

1.सोन नदी घाटी परियोजना :
यह परियोजना बिहार की सबसे पुरानी और पहली नदी घाटी परियोजना है इसका विकास अंग्रजी सरकार ने 1874 में सिंचाई के लिए किया था। इसकी कुल लम्बाई 130 किमी है।

2.गण्डक नदी घाटी परियोजना :
यह उत्तर प्रदेश और बिहार की संयुक्त परियोजना है जो भारत और नेपाल के सहयोग से बाल्मीकिनगर के पास शुरू किया गया है। इस परियोजना से बिजली, सिंचाई और जल की आपूर्ति नेपाल को भी की जाती है।

इस परियोजना से भैंसालोटन स्थान पर एक बाँध बनाकर जलाशय का भी निर्माण किया गया है जिससे दो नहरें निकाली गई है। प्रथम पश्चिमी नहर द्वारा गोपालगंज, सारण और सिवान में लगभग 4 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाती है। पूर्वी नहर द्वारा पश्चिमी चम्पारण, पूर्वी चम्पारण, मुजफ्फरपुरए वैशाली तथा समस्‍तीपुर जिले की लगभग 4.5 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाती है।
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3.कोसी नदी घाटी परियोजना :
इस परियोजना की परिकल्पना 1896 में किया गया था किन्तु वास्तविक रूप से 1955 में कार्य प्रारंभ हुआ।

इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य नदी के बदलते मार्ग को रोकना है। उपजाऊ भूमि की बर्बादी पर नियंत्रण, भयानक बाढ़ से क्षति पर रोक, जल से सिंचाई का विकास, जल विद्युत उत्पादन, मत्स्य पालन, नौका रोहण और पर्यावरण पर नियंत्रण आदि है।

वन संसाधन :
बिहार विभाजन के बाद अधिकतर वन क्षेत्र झारखंड राज्य में चला गया। वर्तमान में बिहार में मात्र 7.68 प्रतिशत ही क्षेत्र में वन है। बिहार में कुल 6374 वर्ग किमी अधिसूचित वन क्षेत्र है। मात्र 76 वर्ग किमी में अतिसघन वन है।
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वनों एवं वन्य जीवों का संरक्षण :

बिहार में कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 6.87 प्रतिशत भाग ही वनों से अच्छादित है। जबकि राष्ट्रीय नीति के अनुसार 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन होना चाहिए।

बिहार में वन्य प्राणीयों के संरक्षण के लिए प्राचीन काल से ही कई रीति-रिवाजों का प्रचलन है। कई धार्मिक अनुष्ठान वृक्षों के नीचे ही किए जाते हैं। यहाँ परम्परागत रूप से वट, पीपल, आँवला और तुलसी की पूजा की जाती है। यहाँ चींटी से लेकर साँप जैसे विषैले जंतु को भोजन दिया जाता है। पक्षियों को दाना देने की प्रथा है। साथ ही

राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर वन्य प्राणीयों के संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
बिहार में 14 अभ्यारण्य और एक राष्ट्रीय उद्यान है। पटना का संजय गाँधी जैविक उद्यान, बेगूसराय का कावर झाल, दरभंगा का केशेश्वर स्थान वन्य जीवों के संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है।

वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिए राज्य सरकार की वन, पर्यावरण तथा जल संसाधन विकास विभाग प्रमुख है। इसके अलावा वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाऐं भी काम कर रही है। (Bihar Krishi evam Van Sansadhan)

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कक्षा 10 भूगोल परिवहन, संचार एवं व्यापार – Parivahan Sanchar evam Vyapar 10th Geography

Parivahan Sanchar evam Vyapar

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई चार ‘परिवहन, संचार एवं व्यापार’ (Parivahan Sanchar evam Vyapar) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Parivahan Sanchar evam Vyapar
Parivahan Sanchar evam Vyapar

इकाई-4
परिवहन, संचार एवं व्यापार (Parivahan Sanchar evam Vyapar )

परिवहन- वस्तुओं तथा यात्रियों को एक जगह से दूसरे जगह ले जाने की प्रक्रिया को परिवहन कहते हैं। किसी भी क्षेत्र या राष्ट्र के समुचित विकास में परिवहन एवं संचार के साधन आधार का काम करते हैं।

संचार- किसी भी सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने की प्रक्रिया को संचार कहते हैं।

व्यापार- एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सामानों के तबादला की प्रक्रिया को व्यापार कहते हैं।

परिवहन के प्रकार
दो स्थानों के बीच आने-जाने के लिए परिवहन साधनों की आवश्यकता पड़ती है। भारत में परिवहन के लिए सड़कमार्ग, रेलमार्ग, जलमार्ग, वायुमार्ग एवं पाईपलाईन की सुविधाएँ उपलब्ध है।

पहाड़ी क्षेत्रों में आने-जाने के लिए कई जगहों पर रज्जू मार्ग का विकास किया गया है। खास कर रज्जू मार्ग का विकास पर्यटन की दृष्टि से किया गया है।

1.सड़कमार्ग : सड़कमार्ग परिवहन का सबसे सामान्य, सुलभ एवं सुगम साधन है। इसका उपयोग एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में अवश्य करता है। भारत में लगभग 33 लाख किलोमीटर लंबी सड़क है। यह विश्व के सर्वाधिक सड़क जाल वाले देशों में स्थान रखता है। ग्रैंड ट्रंक रोड देश का सबसे पुरानी सड़क है। इस सड़क को शेरशाह सूरी द्वारा बनवाया गया था। यह कोलकाता से अमृतसर तक को जोड़ता है। आजकल इसे अमृतसर से दिल्ली तक राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-1 तथा दिल्ली से कोलकाता तक राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-2 के नाम से जाना जाता है।

भारत में सड़कों का विकास :
भारत में सड़कों के विकास का आरंभिक प्रमाण हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों की सभ्यता में मिलते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में लगभग 2.42 लाख किलोमीटर कच्ची एवं 1.46 लाख किलोमीटर लंबी पक्की सड़कें थी।

देश में सड़कों की कुल लंबाई 1950-51 ई० में 4 लाख किलोमीटर थी जो 2006-07 में बढ़कर 33 लाख किलोमीटर हो गई।

पक्की सड़कों की लंबाई की दृष्टि से देश में पहला स्थान महाराष्ट्र का है। पक्की सड़कों की कम लंबाई वाला राज्य लक्षद्वीप है।
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सड़कों का प्रकार :
हमारे देश में सड़कों को चार प्रकारों में बाँटा गया है।

1.राष्ट्रीय राजमार्ग 2. राज्य राजमार्ग 3. जिला की सड़कें 4. ग्रामीण सड़कें।

1.राष्ट्रीय राजमार्ग :
राष्ट्रीय राजमार्ग विभिन्न भागों, प्रांतों को आपस में जोड़ने का करता है। यह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैला हुआ है। देश का सबसे लंबा राष्ट्रीय राजमार्ग-7 है। इसकी लंबाई 2369 किलोमीटर है। राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण एवं देखभाल का दायित्व केन्द्र सरकार को है। देश में कुल 228 राष्ट्रीय राजमार्ग है।

2.राज्य राजमार्ग
राज्य राजमार्ग राज्यों की राजधानियों को विभिन्न जिला मुख्यालयों से जोड़ने का काम करती है। इन सड़कों का निर्माण देखरेख की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। देश में ऐसे सड़कों की लंबाई कुल सड़कों का मात्र 4 प्रतिशत है।

3.जिला सड़कें
जिला सड़कें राज्यों के विभिन्न जिला मुख्यालयों एवं शहरों को मिलाने का काम करती है। देश की कुल सड़कों का यह 14 प्रतिशत है। इन सड़कों का निर्माण देखरेख की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है।

4.ग्रामीण सड़कें :
ये सड़के विभिन्न गाँवों को जोड़ने का काम करती है। देश के कुल सड़कों का यह 80 प्रतिशत है।

5.सीमांत सड़के :
राजनीतिक एवं सामरिक दृष्टि से इस प्रकार के सड़कों का निर्माण सीमावर्त्ती क्षेत्रों में किया जाता है। इन सड़कों के रखरखाव सीमा सड़क संगठन करता है। युद्ध की स्थिति में इन सड़कों का उपयोग अधिक होता है। इन्हीं सड़कों के माध्यम से सीमा पर सैनिकों के लिए आवश्यक सामान भेजा जाता है।

रेलमार्ग :

भारत में रेल परिवहन का विकास 16 अप्रैल 1853 ई० से शुरू हुआ था। पहली बार रेलगाड़ी मुम्बई से थाणे के बीच 34 किलोमीटर की लंबाई में चली थी। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने लाभ के उद्देश्य से रेलों का जाल बिछाने पर जोर दिया।

भारतीय रेलवे :
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में रेल परिवहन के विकास पर अधिक जोर दिया गया। भारतीय रेल परिवहन कई विशेषताओं से युक्त है। इनमें कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित है।
1.तीव्र गति से चलने वाली राजधानी एक्सप्रेस एवं शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेनों का परिचालन दो महानगरों के बीच किया जा रहा है।
2.छोटे शहरों को महानगरों एवं बड़े शहरों से जोड़ने के लिए जन-शताब्दी एक्सप्रेस गाड़ियाँ चलायी जा रही है।
3.1 अगस्त 1947 से रेल मंत्रालय ने रेल यात्री बीमा योजना शुरू की है।
4.कोलकाता और दिल्ली में मेट्रो रेल सेवा के तहत भूमिगत रेल सेवा दी जा रही है।
5.रेल संपत्तियों एवं रेल यात्रियों की सुरक्षा के लिए जी. आर. पी, एवं आर. पी. एफ की व्यवस्था की गई है।
6.पूर्वोतर राज्य में मेघालय एक ऐसा राज्य है जहाँ रेलमार्ग नहीं है।
7.भारतीय रेल प्रणाली एशिया की सबसे बड़ी तथा विश्व की तीसरी बड़ी रेल प्रणाली है।
8.विश्व की सबसे अधिक विद्युतीकृत रेलगाड़ीयाँ रूस के बाद भारत में ही चलती है।

भारतीय रेल प्रतिदिन लगभग 1.24 करोड़ यात्रियों को यातायात की सुविधा देती है।

पाइपलाइन मार्ग :
शहरों में घर-घर तक पानी को पहुँचाने के लिए पाइप का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार के मार्ग को पाइपलाइन मार्ग कहते हैं।

पाइपलाइन मार्ग का उपयोग तरल पदार्थों जैसे पेट्रोलियम के साथ ही गैस के परिवहन के लिए भी किया जाता है।

भारत में पाइपलाइन :
देश में कच्चे तेलों का उत्पादन क्षेत्रों से शोधनशालाओं तक तथा शोधन-शालाओं से तेल उत्पादों को बाजार तक पाइपलाइनों के माध्यम से भेजा जाता है।

शोधनशालाओं में कच्चे तेल से प्राप्त विभिन्न उत्पाद जैसे एल० पी० जी०, मोटर गैसोलीन, नेप्था, कैरोसीन वायुयान तेल, हाई स्पीड डीजल, लाइट डीजल, फरनेस तेल, ल्यूब ऑयल इत्यादि को पाइपलाइनों की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा जाता है।

भारत में पाइपलाइन को मुख्य रूप से दो वर्गों में बाँटा गया है :-
1.तेल पाइपलाइन और
2.गैस पाइपलाइन

वायुमार्ग :
वायुमार्ग परिवहन का सबसे तीव्र, आधुनिक एवं महँगा साधन है। यह भारत में विभिन्न शहरों, मेगाशहरों, औद्योगिक एवं वाणिज्यिक केन्द्रों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करता है।

भारत में वायु परिवहन :
भारत में वायुपरिवहन का शुरूआत 1911 में इलाहाबाद से नैनी के बीच 10 किमी की छोटी-सी दूरी के उड़ान से हुआ था। यह उड़ान डाक ले जाने के लिए किया गया था।

1953 में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण किया गया। भारत में लगभग 450 हवाई अड्डे हैं जिसमें 12 अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं।

वायु परिवहन एक ऐसा परिवहन है जिसके द्वारा जंगल, पहाड़, पठार, नदी, झील, सागर इत्यादि सभी को पार किया जा सकता है।

जलमार्ग :
जलमार्ग परिवहन का एक प्राचीन माध्यम रहा है। जलमार्ग दो प्रकार के होता है-
1.आंतरिक जलमार्ग और 2. अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग

1.आंतरिक जलमार्ग- आंतरिक जलमार्ग के अंतर्गत नदियों, नहरों तथा झीलों का उपयोग किया जाता है।

2.अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग- इसके माध्यम से विश्व के विभिन्न देशों से समुद्र के माध्यम से व्यापार किया जाता है। देश का 90 प्रतिशत व्यापार समुद्री मार्गों के माध्यम से होता है।

अंतर्राष्टीय व्यापार :
दो व्यक्तियों, राज्यों या देशों की बीच होने वाले सामानों एवं सेवाओं के क्रय विक्रय को ही ‘व्यापार‘ कहा जाता है।
आज के समय में विश्व के सभी देश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर कर रहे हैं, इसका मुख्य कारण संसाधनों की क्षेत्रीय उपलब्धता या वितरण की असमानता का होना है, जबकि जरूरत सभी देशों को होती है।

भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार :
भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद 1950-51 में 1214 करोड़ रूपये का था, जो 1990-91 में 75751 करोड़ का तथा 2007-08 में बढ़कर 1605022 करोड़ रूपए का हो गया। (Parivahan Sanchar evam Vyapar )

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कक्षा 10 भूगोल निर्माण उद्योग – Nirman Udyog 10th Geography

Nirman Udyog 10th Geography

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई तीन का पाठ ‘निर्माण उद्योग’ (Nirman Udyog)के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Nirman Udyog 10th Geography
Nirman Udyog 10th Geography

इकाई-3
निर्माण उद्योग

विनिर्माण उद्योग किसी भी राष्ट्र के विकास और संपन्नता का सूचक है। कच्चे मालों द्वारा जीवन के उपयोगी वस्तुएँ तैयार करना विनिर्माण उद्योग कहलाता है। जैसे- कपास से कपड़ा, गन्ने से चीनी, लौह-अयस्क से लोहा एवं इस्पात, बॉक्साइट से एल्यूमिनियम आदि।

भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास का प्रारंभ मुम्बई में प्रथम सुती कपड़े की मिल की स्थापना 1854 में हुआ था। जूट का पहला कारखाना 1855 में कलकत्ता के नजदिक रिशरा नामक स्थान पर लगाया गया था।

भारत में उद्योगों का योजनाबद्ध विकास स्वतंत्रता के बाद 1951 से प्रारंभ होता है।

सूती वस्त्र उद्योग :
भारत में सर्वप्रथम 1854 ई० में काबस जी नानाभाई डाबर ने मुम्बई में आधुनिक सुती वस्त्र उद्योग का विकास किया।

सूती वस्त्र उद्योग आज भारत का सबसे विशाल उद्योग है। यह कृषि के बाद रोजगार प्रदान करनेवाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है।

सकल घरेलू उत्पादन में इसका योगदान 4.0 प्रतिशत है एवं विदेशी आय में इसका योगदान 17 प्रतिशत है।

सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में कपास का उपयोग किया जाता है। मुम्बई को सूती कपड़ों की महानगरी कहा जाता है। क्योंकि सिर्फ मुम्बई महानगरी क्षेत्र में देश का लगभग एक चौथाई सूती वस्त्र तैयार किया जाता है।

जूट या पटसन उद्योग :
सूती वस्त्र उद्योग के बाद जूट उद्योग भारत का दूसरा महत्वपूर्ण उद्योग है। कच्चे जूट और जूट से बने समान के उत्पादन में भारत विश्व में पहला स्थान है। जूट के समान के निर्यात में भारत विश्व में बंगलादेश के बाद दूसरा स्थान है। पश्चिम बंगाल में 80 प्रतिशत से अधिक जूट के समानों का उत्पादन होता है।

ऊनी वस्त्र उद्योग :
यह देश के पूराने वस्त्र उद्योग मे से एक है। ऊनी वस्त्र उद्योग पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा और राजस्थान राज्यों में है। भारत विश्व में सातवाँ ऊन का सबसे बड़ा उत्पादक देश है।

रेशमी वस्त्र :
भारत शुरू से ही रेशम से बनी वस्तुओं के उत्पादन के लिए विश्व प्रसिद्ध रहा है। यहाँ चार प्रकार की रेशम मलवरी, तसर, ईरी और मूँगा पैदा की जाती है। 90 प्रतिशत से अधिक रेशम का उत्पादन कर्नाटक, तामिलनाडु, पश्चिम बंगाल और जम्मु काश्मीर राज्यों में होता है।

कृत्रिम वस्त्र :
कृत्रिम धागे- पेट्रो रशायन के उत्पादन द्वारा कृत्रिम धागे तैयार किया जाता है। जैसे- नाईलॉन, पॉलिस्टर रियान और पॉलिमर।

कृत्रिम वस्त्र उद्योग में कृत्रिम धागे का प्रयोग किया जाता है। मानव निर्मित रेशों को रासायनिक प्रक्रिया द्वारा लुगदी, कोयला तथा पेट्रोलियम से प्राप्त किया जाता है। वस्त्र में अधिक गुणवत्ता लाने के लिए इसे प्रायः प्राकृतिक रेशों जैसे कपास, रेशम और ऊन के साथ मिलाकर बनाया जाता है।

चीनी उद्योग :
भारत विश्व में गन्ने के उत्पादन में सबसे बड़ा देश है। गुड़ और खांडसारी को मिलाकर चीनी के उत्पादन में भी इसका पहला स्थान है। इस उद्योग का विकास आधुनिक आधार पर 1903 में प्रारंभ हुआ जब सारण जिले के मढ़ौरा में एक चीनी मिल की स्थापना की गई।

2008 में देश में लगभग चालू चीनी मिलों की संख्या 615 थीं जिसमें सिर्फ महाराष्ट्र में 134 से अधिक मिलें है। वर्तमान समय में यह उद्योग 4 लाख लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है।

लौह और इस्पात उद्योग :
लौह और इस्पात उद्योग एक आधारभूत उद्योग हैं, क्योकि अन्य सभी भारी हल्के और मध्यम उद्योग इनसे बनी मशीनरी पर निर्भर करते हैं। इसे अन्य उद्योगां का जनक भी कहा जाता हैं। भारत में लौह इस्पात का पहला कारखाना 1830 में पोर्टोनोवा नामक स्थान पर तमिलनाडू में स्थापित किया गया था परन्तु स्थानियकरण के अनुकुल
कारकों की कमी के कारण इसे बन्द करना पड़ा।

आधुनिक लौह इस्पात उद्योग का वास्तविक रूप से प्रारम्भ सन 1864 ई0 में पश्चिम बंगाल में कुल्टी नामक स्थान पर स्थापित होने के साथ हुआ और इस्पात का बड़े पैमाने पर उत्पादन सन् 1907 ई0 में टाटा आयरण एण्ड स्टील कम्पनी द्वारा साक्ची (झारखंड स्थित जमशेदपुर) में कारखाना की स्थापना के साथ हुआं।

लौह इस्पात उद्योग एक भारी उद्योग है क्योंकि इसमें भारी तथा अधिक स्थान घेरने वाले कच्चे माल का उपयोग होता है।

भारत कच्चे इस्पात उद्योग में पाँचवें स्थान पर है। जमशेदपुर को भारत का र्बमिंघम कहा जाता है।

एल्युमिनियम उद्योग :
यह लौह एवं इस्पात उद्योग के बाद भारत का दूसरा महत्वपूर्ण धातु उद्योग है। यह लचीला, हल्का, जंगरोधी, ऊष्मा और विद्युत का सुचालक होता है। इसका अयस्क बॉक्साइट है। हवाई जहाज, बर्त्तन उद्योग तथा तार बनाने में इसका उपयोग किया जाता है।

ताँबा प्रगलन उद्योग :
भारत में पहला ताँबा प्रगलन संयंत्र भारतीय तांबा निगम द्वारा घाटशिला नामक स्थान पर झारखंड राज्य में स्थापित किया गया था। 1972 में भारतीय तांबा निगम को हिन्दुस्तान तांबा लिमिटेड में हस्तांतरित कर दिया गया है। भारत में एकमात्र तांबा उत्पादन संस्थान हिन्दुस्तान तांबा लिमिटेड है।

हिन्दुस्तान तांबा लिमिटेड के दो केन्द्र है। पहला सिंहभूम जिले में घाटशिला के निकट मऊभंडार नामक स्थान पर (झारखण्ड) तथा दूसरा झुनझुन जिले के खेतड़ी नामक स्थान पर (राजस्थान) पर स्थित है।

रासायनिक उद्योग :
रासायनिक उद्योग का देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण स्थान है। इसका आकार में विश्व का 12वां तथा एशिया का तीसरा स्थान है।

उर्वरक उद्योग :
भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बनाये रखने के लिए उर्वरक का उपयोग अनिवार्य है। यह विश्व का तिसरा सबसे बड़ा नाईट्रोजन युक्त उर्वरक का उत्पादक है। भारत का पहला उर्वरक संयंत्र 1906 में रानीपेट (तमिलनाडु) में स्थापित किया गया था।

सीमेंट उद्योग :
इस उद्योग का आवास निर्माण एवं देश के ढांचागत क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक देश है।
सींमेट उद्योग के लिए कच्चा माल के रूप में चूना-पत्थर, कोयला, सिलिका, अल्यूमिनियम और जिप्सम की आवश्यकता होती है। भारत में पहला सीमेंट संयंत्र 1904 में चेन्नई में स्थापित किया गया था।

रेलवे उपकरण उद्योग :

रेलवे :
भारत में सभी जगह रेलवे का जाल बिछा हुआ है इसलिए माल एवं सवारी गाड़ी के डिब्बों और रेल ईंजनों की बड़ी संख्या में माँग रहती है। अतः रेलवे ईंजन यात्री डिब्बे और माल डिब्बे निर्माण का उद्योग बड़े स्तर पर विकसित हुआ है।

बड़ी लाईन वाले विद्युत चालित ईंजन पश्चिम बंगाल में स्थित चितरंजन के लोकोमोटिव वर्क्स में बनाए जाते हैं। वाराणसी में डीजल चालित रेल ईंजनों के बनाने का कारखाना है। सवारी गाड़ी पैरांबूर, बंगलौर, कपूरथला और कोलकाता में बनाए जाते हैं।

मुंगेर जिला के जमालपूर में रेलवे का वर्कशाप है जो एशिया के सबसे पुराना रेलवे वर्कशाप है।

मोटरगाड़ी उद्योग :
सड़क परिवहन रेल परिवहन के तुलना में अधिक फैला हुआ है। वर्तमान समय में मोटर वाहन जैसे ट्रक बस, कार, मोटरसाईकिल, स्कूटर आदि बड़ी संख्या में निर्माण किए जा रहे हैं। तिपहिया स्कूटरों के निर्माण में भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है।

मारूति उद्योग दिल्ली के निकट गुड़गाँव (हरियाणा) में है। महिन्द्र एण्ड महिन्द्रा नासिक में है, जो स्कॉरपियो तथा बोलेरो का निर्माण करता है।

पोत निर्माण उद्योग :
वर्तमान समय में पोत निर्माण उद्योग एक बड़ा उद्योग है। इस उद्योग के लिए एक विशाल पूँजी की आवश्यकता होती है। वर्तमान में देश में पोत निर्माण के पाँच प्रमुख केन्द्र है। विशाखापत्तनम, कोलकाता, कोच्चि, मुम्बई और मझगाँव में स्थित है। बड़े-बड़े आकार के पोतों का निर्माण कोच्चि और विशाखापत्तनम में होता है।

वायुयान उद्योग :
यह नया उद्योग है और पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में है। वायुयान उद्योग का पहला कारखाना, हिन्दुस्तान एयर क्राफ्ट लि० बंगलोर में 1940 में लगाया गया था। भारतीय वायुयानों का प्रयोग इंडियन एयरलाइन और भारतीय वायुसेना द्वारा किया जाता है।

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कक्षा 10 भूगोल कृषि – Krishi 10th Geography

Krishi 10th Geography

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई दो का पाठ ‘कृषि’ (Krishi 10th Geography) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Krishi 10th Geography
Krishi 10th Geography

इकाई-2

कृषि (Krishi 10th Geography)

भारत कृषि के दृष्टि से एक सम्पन्न राष्ट्र है। कृषि निर्धारण में वर्षा का बहुत महत्व है। भारत के अधिकांश भागों में वर्षा वर्ष के 3-4 महिने ही होता है। जहाँ सिंचाई की सुविधा है वहाँ साल में दो से अधिक फसल उगाई जाती है।

वर्षा की सहायता से विकसित कृषि प्रणाली को शुष्क कृषि कहते हैं।

भारत में कृषि के महत्व
1.कृषि देश के आर्थिक जीवन की प्राण है, इससे भारत में 2/3 लोगों की जीविका चलती है।
2.उद्योगों के लिए कच्चे माल कृषि से ही प्राप्त होते हैं। जैसे कपास-सूती वस्त्र उद्योग, गन्ना-चीनी उद्योग, जूट उद्योग में जूट आदि।
3.भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान 24 प्रतिशत है।
4.यहाँ की विशाल जनसंख्या के लिए भोजन कृषि से ही प्राप्त होता है।

भारत में कृषि भूमि उपयोग

कृषि पर निर्भर लोगों के लिए भूमि अत्यंत ही महत्वपूर्ण संसाधन है, क्योंकि यह पूरी तरह भूमि पर निर्भर है।

कृषि योग्य भूमि में चार तरह के भूमि को शामिल किया जाता है।
1.शुद्ध बोया गया क्षेत्र, 2. चालू परती भूमि, 3. अन्य परती, 4. कृषि योग्य व्यर्थ भूमि

जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि योग्य भूमि पर दबाव बढ़ गया है, जिससे कृषि योग्य भूमि कम हो रही है। ऐसी स्थिति में कृषि में उत्पादन दो ही रूपों में बढ़ाया जा सकता है-
2.प्रति हेक्टेयर उपज में वृद्धि

3.एक ही कृषि वर्ष में एक ही भूमि में एक से अधिकाधिक फसलों को उगाकर कुल उत्पादन में वृद्धि करना।

4.75 सेंमी० से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में होने वाली कृषि को ‘शुष्क भूमि कृषि‘ एवं 75 सेंमी० से अधिक वर्षा वाले क्षेत्र होने वाली कृषि को ‘आर्द्र‘ भूमि कृषि कहते हैं।

कृषि के प्रकार- तीन प्रकार की कृषि होती है।

1.प्रारंभिक जीविका कृषि

2.गहन जीविका कृषि

3.वाणिज्यिक कृषि

प्रारंभिक जीविका कृषि- इस प्रकार की कृषि में पारंपरिक रूप से खेती की जाती है। इसमें आधुनिक तकनीक का अभाव होता है जिसके कारण उपज कम होता है। इसमें फसल उत्पादन जीविका निर्वाह के लिए किया जाता है।

गहन जीविका कृषि- यह कृषि देश के अधिकतर भागों में की जाती है। जहाँ जनसंख्या अधिक होता है, वहाँ इस प्रकार के कृषि पद्धति को अपनाया जाता है। इसमें श्रम अधिक लगता है। इस प्रकार की कृषि में भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिए परंपरागत ज्ञान, बीजों के रख-रखाव एवं मौसम संबंधी ज्ञान का होना अत्यंत आवश्यक होता है। जनसंख्या बढ़ने से जोतों का आकार काफी छोटा हो गया है। इस कृषि में मुख्य रूप से धान की खेती होती है। इसमें किसानों के पास व्यापार के लिए बहुत कम उत्पादन बचता है। इसलिए इसे जीविका निर्वाहक कृषि भी कहते हैं।

वाणिज्यिक कृषि अथवा व्यापारिक कृषि- इस प्रकार के कृषि में फसल व्यापार के लिए उगाई जाती है। इस में आधुनिक कृषि तकनीक के द्वारा अधिक पैदावार वाले परिष्कृत बीज, रासायनिक खाद, सिंचाई, कीटनाशक आदि का उपयोग किया जाता है। भारत में इस कृषि पद्धति को हरित क्रांति के बाद व्यापक रूप से पंजाब एवं हरियाणा में अपनाया गया। इसमें मुख्य रूप से गेहूँ की खेती की जाती है। बासमती चावल भी पंजाब और हरियाणा में उगाई जाती है। इसके अलावा चाय, काफी, रबड़, गन्ना, केला भी उगाया जाता है।

फसल प्रारूपः
ऋतु के आधार पर भारत में तीन प्रकार की फसल उगाई जाती है।

1.रबी फसल

2.खरीफ फसल

3.जायद ( गरमा फसल )

रबी फसल- जिस फसल को जाड़े के महिने में अक्टूबर से दिसंबर के मध्य बोया जाता है और ग्रीष्म ऋतु में मार्च से अप्रैल के मध्य काटा जाता है, उसे रबी फसल कहते हैं। जैसे- गेहूँ, जौ, मटर, मसूर, सरसों आदि। हरित क्रांति के फलस्वरूप इस फसल के उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई है।

खरिफ फसल- जिस फसल को वर्षा ऋतु में अर्थात जून-जुलाई में बोई जाती है और सितंबर-अक्टूबर में काट ली जाती है, उसे खरिफ फसल कहते हैं। जैसे- मकई, ज्वार, बाजरा, अरहर, मूँग, उरद, कपास, जूट आदि।

जायद फसल- जिस फसल को ग्रीष्म ऋतु में (अर्थात मार्च-अप्रैल में बोया जाता और और मई-जून में काट लिया जाता है।) उगाया जाता है, उसे जायद फसल कहते हैं।

जैसे- धान, मकई और सब्जियाँ। इस फसल में मुख्य रूप से सब्जियों का उत्पादन किया जाता है। सब्जियों में खासकर खीरा, ककड़ी, कद्दू, भिंडी, खरबूज, तरबूज आदि।

भारत विश्व का 22% चावल का उत्पादन करता है।

चावल के उत्पादन के लिए अत्यंत उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी की आवश्यकता होती है।

इसमें मानव श्रम की अधिक आवश्यकता होती है।

भारत में चावल के मुख्य उत्पादक राज्य प० बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, असम, केरल, तमिलनाडु आदि है।

भारत में चावल के बाद गेहूँ दूसरा प्रमुख खाद्यान्न फसल है। हमारा देश विश्व का दूसरा बड़ा गेहूँ उत्पादक देश है। यह विश्व का 10 प्रतिशत गेहूँ का उत्पादन करता है।

हमारे देश में 1967 ई० में हरित क्रांति आयी और इसका सबसे अधिक प्रभाव गेहूँ की खेती पर पड़ा। हरित क्रांति के बाद इसके उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई।

देश में कुल गेहूँ उत्पादन का 2/3 हिस्सा पंजाब, हरियाणा और उŸार प्रदेश से प्राप्त होता है। उŸार प्रदेश गेहूँ उत्पादन में सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है।

मोटे अनाज- ज्वार, बाजरा और रागी देश के प्रमुख मोटे अनाज है। रागी में प्रचुर मात्रा में लोहा और कैल्शियम पाया जाता है।

ज्वार- चावल और गेहूँ के बाद भारत में ज्वार सबसे प्रमुख खाद्य फसल है। इसका सबसे बड़ा उत्पादक राज्य महाराष्ट्र है जो 51% ज्वार का उत्पादन करता है। ज्वार से भारत का 10 प्रतिशत खाद्यान्न उपलब्ध होता है।

बाजरा- कुल कृषिगत भूमि का 7 प्रतिशत भूमि पर बाजरा उगाया जाता है। निर्धन लोगों के लिए एवं पशुओं के लिए यह प्रमुख चारा है। बाजरा का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य गुजरात है, जो कुल उत्पादन का 24 प्रतिशत उत्पादन करता है।

रागी- यह शुष्क प्रदेश का फसल है। कर्नाटक इसका सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है, इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य तमिलनाडु है।

मकई- यह भी एक मोटा अनाज है जो मनुष्य के भोजन एवं पशुओं के चारा के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह निर्धन लोगों का प्रमुख भोजन है।

दालें- यहाँ की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है और दाल हमारे भोजन में प्रोटीन का स्त्रोत है। भारत की मुख्य दलहनी फसल तूर (अरहर), उड़द, मूँग, मसूर, मटर और चना है। दालें खरिफ और रबी दोनों ही ऋतुओं में उगाया जाता है। अरहर, मूँग, उड़द आदि खरीफ फसलें हैं जबकि चना, मटर, मसूर आदि रबी फसलें हैं।

गन्ना- यह बाँस की प्रजाति का एक पौधा है जिससे मिठा रस निकलता है। इससे गुड़ तथा चीनी तैयार किया जाता है। भारत गन्ने की जन्मभूमि है। सबसे पहले विश्व में भारत में ही गन्ना उगाई गई थी। यह फसल मिट्टी की उर्वरता को जल्दी ही समाप्त कर देता है इसलिए इसकी खेती में काफी मात्रा में खाद की जरूरत होती है।

तिलहन- भारत विश्व में सबसे बड़ा तिलहन उत्पादक देश है। देश की कुल कृषि भूमि के 12 प्रतिशत भाग पर तिलहन की फसलें उगाई जाती है।
मूँगफली, सरसों, नारियल, तिल, सोयाबीन, अरंडी, बिनौला, अलसी और सूरजमुखी आदि भारत की प्रमुख तिलहन फसलें हैं।

मूँगफली- यह एक खरिफ फसल है। भारत विश्व में मूँगफली के उत्पादन में दूसरा स्थान है। भारत में गुजरात इसके उत्पादन में प्रथम है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र है।

सरसों- इसके अंतर्गत राई, सरसों, तोरिया, तारामीरा आदि कई तिलहन शामिल है। इसकी कृषि भारत के मध्य तथा उत्तर पश्चिम भाग में रबी के मौसम में की जाती है। राजस्थान अकेले 1/3 भाग उत्पादन करता है।

अलसी ( तीसी ) : यह भी रबी फसल है। उत्तरी भारत में यह खरीफ फसल और और दक्षिणी भारत में यह रबी की फसल है।
सोयाबीन और सूरजमुखी भारत का महत्त्वपूर्ण तिलहन फसल है। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र मिलकर भारत का 90 प्रतिशत सोयाबीन का उत्पादन करते हैं।

चाय- यह एक सदाबहार झाड़ी होती है जिसकी पत्तियों को सुखा कर चाय बनाई जाती है।
चाय में थीन नामक पदार्थ होती है जिसके कारण चाय को पीने से हल्की ताजगी महसूस होती है। यह भारत के महत्वपूर्ण पेय फसल है। इसके उत्पादन में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है तथा खपत में यह विश्व का सबसे बड़ा देश है। सबसे पहले भारत में अंग्रजों के द्वारा इस कृषि को ब्रह्मपुत्र घाटी में 1840 में आरंभ किया गया था।
भारत विश्व का अग्रणी चाय उत्पादक एवं निर्यातक देश है।

कॉफी : चाय की तरह कॉफी भी एक पेय पदार्थ है। यह एक प्रकार के झाड़ी पर लगे हुए फल के बीजों द्वारा प्राप्त किया जाता है।
कर्नाटक भारत का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। भारत का 70% कॉफी का उत्पादन यहाँ होता है।

बागवानी फसलें : भारत में बागवानी फसलों में विभिन्न प्रकार के फल, सब्जियाँ, कंदमूल औषधीय एवं सुगंधदायक पौधे एवं मसाले आदि है।
आम के उत्पादन में भारत विश्व में अग्रणी है। यहाँ अनगिनत किस्म के आमों का उत्पादन होता है। बागवाली फसलों में काजू, काली मिर्च और नारियल भी महत्वपूर्ण है। भारत विश्व में काजू का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। इसकी कृषि मुख्य रूप से केरल और आंध्र प्रदेश में होती है।

अखाद्य फसलें :

रबर- भारत में इसकी प्रारंभ 1880 ई० में ट्रावनकोर और मालाबार में प्रारंभ हुआ, लेकिन इसका व्यावसायिक उत्पादन 1902 ई० में ही आरंभ हुआ था।
Krishi 10th Geography

रेशेदार फसलें :
कपास, जूट, सन और प्राकृतिक रेशम भारत के चार प्रमुख रेशेदार फसलें हैं।

कपास : कपास को भारत का मूल स्थान माना जाता है। सूती वस्त्र उद्योग के लिए यह कच्चा माल का काम करता है। भारत में काली मिट्टी कपास के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

कपास को पक कर तैयार होने में 6 से 8 महीने लगते हैं।

जूट :
कपास के बाद जूट भारत की दूसरी महत्वपूर्ण रेशेदार फसल है। इसे सुनहरा रेशा भी कहा जाता है।

इसके उत्पादन के लिए चिकायुक्त मिट्टी की आवश्यकता होती है। जूट द्वारा रस्सी, चाट एवं बोरा आदि बनाया जाता है। इससे वस्त्र एवं आकर्षक दस्तकारी की चीजें भी बनाई जाती है।

कृषि का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और उत्पादन में योगदान :

भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में नींव के पत्थर की भाँति महत्व रखती है। 2001 में देश की लगभग 63 प्रतिशत जनसंख्या कृषि से रोजगार प्राप्त की।

आजादी के बाद आज तक सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगातार घट रहा है जो चिंता का विषय है।

कृषि के महत्व को समझते हुए भारत सरकार ने इसके विकास एवं वृद्धि के लिए इसके आधुनीकरण का प्रयास कर रही है।

इसके अंतर्गत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् एवं कृषि विद्यालयों की स्थापना, पशु चिकित्सा सेवाएँ तथा पशु प्रजनन केन्द्र की स्थापना, बागवानी-विकास, मौसम

विज्ञान और मौसम के पूर्वानुमान के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास आदि को प्राथमिकता दी गई है।

खाद्य सुरक्षा : रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। हमारे देश में जहाँ निर्धनता अधिक है, वहाँ भूखमरी की समस्या है। इसे दूर करने के लिए सरकार ने खाद्य सुरक्षा प्रणाली बनाई हुई है। इसके दो अंग है-

1.बफर स्टॉक प्रणाली और

2.जन वितरण प्रणाली

इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र में सस्ती दरों पर आवश्यक सामग्री और अनाज मुहैया कराई जाती है। इससे गरीब लोगों को भोजन सुलभ होता है।

उपभोक्तओं को दो वर्गों में बाँटा गया है- गरीबी रेखा के नीचे और गरीबी रेखा के ऊपर।

वर्धन काल- फसल के बोने, बढ़ने और पकने के लिए उपयुक्त मौसम वाला समय।

हरित क्रांति- हमारे देश की कृषि में क्रांतिकारी विकास। इसमें मुख्यतः नए बीजों, खादों और उर्वरकों का प्रयोग तथा सुनिश्चित जलापूर्ति की व्यवस्था के फलस्वरूप कुछ अनाज उपज में अधिक वृद्धि हुई।

भारत में विश्व का सबसे अधिक पशुधन है। यहाँ विश्व का 57% भैंस तथा विश्व का 14% गाय की जनसंख्या निवास करती है। ऑपरेशन फ्लड द्वारा देश में दुग्ध उत्पादन में
बहुत वृद्धि हुई है। इसे उजाला क्रांति के नाम से जाना जाता है।(Krishi 10th Geography)

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कक्षा 10 भूगोल शक्ति (ऊर्जा) संसाधन – Shakti Urja Sansadhan

Shakti (Urja) Sansadhan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ ‘(ङ) शक्ति (ऊर्जा) संसाधन’ (Shakti Urja Sansadhan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Shakti (Urja) Sansadhan
Shakti (Urja) Sansadhan

(ङ) शक्ति (ऊर्जा) संसाधन (Shakti Urja Sansadhan)
शक्ति एवं उर्जा विकास की पूँजी हैं।

शक्ति संसाधन के प्रकारः
शक्ति संसाधन के वर्गीकरण के विविध आधार हो सकते हैं। उपयोग स्तर के आधार पर शक्ति के दो प्रकार हैं-

सतत् शक्ति एवं समापनीय शक्ति।

सौर किरणें, भूमिगत उष्मा, पवन, प्रवाहित जल आदि सतत् शक्ति के स्रोत हैं जबकि कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस एवं विखण्डनीय तत्व समापनीय शक्ति स्रोत हैं।
उपयोगिता के आधार पर उर्जा के दो भागो में विभक्त किया जाता है। पहला प्राथमिक ऊर्जा, जैसे- कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि तथा दूसरा गौण ऊर्जा, जैसे- विद्युत, क्योंकि यह प्राथमिक ऊर्जा से प्राप्त किया जाता है।

स्रोत के स्थिति के आधार पर शक्ति को दो भागो में वर्गीकृत किया जाता है। पहला क्षयशिल शक्ति संसाधन जैसे- पेट्रोलियम, कोयला, प्राकृतिक गैस तथा आण्विक खनिज आदि तथा दूसरा अक्षयशिल शक्ति संसाधन, जैसे- प्रवाही जल, पवन, लहरें, सौर शक्ति आदि।

संरचनात्मक गुणों के आधार पर ऊर्जा के दो स्त्रोत हैं। जैविक ऊर्जा स्त्रोत और अजैविक ऊर्जा स्त्रोत। मानव एवं प्राणी जैविक तथा जल शक्ति, पवन-शक्ति, सौर शक्ति तथा इंधन शक्ति आदि अजैविक ऊर्जा स्त्रोत हैं।

समय के आधार पर ऊर्जा को पारम्परिक तथा गैर पारम्परिक स्त्रोतों में विभक्त किया गया है। कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस पारम्परिक तथा सूर्य, पवन, ज्वार, परमाणु ऊर्जा तथा गर्म झरने आदि गैर पारम्परिक शक्ति संसाधन के उदाहरण हैं।

पारम्परिक ऊर्जा स्रोतः- कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस जैसे खनिज ईंधन जो जीवाश्म ईंधन के नाम से भी जाने जाते हैं ये पारम्परिक शक्ति संसाधन हैं तथा ये समाप्य संसाधन है।

कोयलाः- कोयला शक्ति और ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत है। भूगर्भिक दृष्टि से भारत के समस्त कोयला भण्डार को दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता हैः-

1.गोंडवाना समूहः- इस समूह में भारत के 96 प्रतिशत कोयले का भण्डार है तथा कुल उत्पादन का 99 प्रतिशत भाग प्राप्त होता है। गोंडवाना कोयला क्षेत्र मुख्यतः चार नही-घाटियों में पाये जाते हैं-
1.दामोदर घाटी, 2. सोन घाटी, 3. महानदी घाटी तथा 4. वार्घा-गोदावरी घाटी।

2.टर्शियरी समूहः- गोडवाना समूह के बाद टर्शियरी समूह के कोयला का निर्माण हुआ। यह 5.5 करोड़ वर्ष पुराना है। टर्शियरी कोयला मुख्यतः असम, अरूणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैण्ड में पाया जाता है।

कोयले का वर्गीकरणः- कार्बन की मात्रा के आधार पर कोयला को चार वर्गों में रखा गया हैः

1.ऐंथासाइटः- यह सर्वोच्य कोटि का कोयला है जिसमें कार्बन की मात्रा 90% से अधिक होती है। जलने पर यह धुँआ नही देता है।

2.बिटुमिनसः- यह 70 से 90% कार्बन की मात्रा धारण किये हुए रहता है तथा इसे पारिष्कृत कर कोकिंग कोयला बनाया जा सकता है। भारत का अधिकतर कोयला इसी श्रेणी का है।

3.लिग्नाईटः- यह निम्न कोटि का कोयला माना जाता है जिसमें कार्बन की मात्रा 30 से 70% होता है। यह कम ऊष्मा तथा अधिक धुआँ देता है।

4.पीटः- इसमें कार्बन की मात्रा 30% से भी कम पाया जाता है। यह पूर्व के दलदली भागों में पाया जाता है।
गांडवाला समूह का कोयला क्षेत्रः-

झारखण्ड – कोयले के भण्डार एवं उत्पादन की दृष्टि से झारखण्ड का देश में पहला स्थान है। यहाँ देश का 30 प्रतिशत से भी अधिक कोयला का सुरक्षित भण्डार है। झरिया, बोकारो, गिरिडीह, कर्णपुरा, रामगढ़ इस राज्य के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। पश्चिम बंगाल के रानीगंज कोयला क्षेत्र का कुछ भाग इसी राज्य में पड़ता है।

त्तीसगढ़ः- सुरक्षित भण्डार की दृष्टि से इस राज्य का स्थान तीसरा किन्तु उत्पादन में यह भारत का दूसरा बड़ा राज्य है। यहाँ देश का 15 प्रतिशत सुरक्षित भण्डार है लेकिन उत्पादन 16 प्रतिशत होता है।

उड़िसाः- उड़िसा में एक चौथाई कोयले का भण्डार है पर उत्पादन मात्र 14.6 प्रतिशत ही होता है।

टर्शियरिय कोयला क्षेत्रः- टर्शियरी युग में बना कोयला नया एवं घटिया किस्म का होता है। यह कोयला मेघालय मे दारगिरी, चेरापूंजी, लेतरिंग्यू, माओलौंग और लांगरिन क्षेत्र से निकाला जाता है। ऊपरी असम में माकुम, जयपुर, नजिरा आदि कोयले के क्षेत्र हैं। अरूणाचल प्रदेश में नामचिक और नामरूक कोयला क्षेत्र है। जम्मू और कश्मिर में कालाकोट से कोयला निकाला जाता हैं।

लिग्नाइट कोयला क्षेत्र :
यह एक निम्न कोटि का कोयला होता है। इसमें नमी ज्यादा तथा कार्बन कम होता है। इसलिए यह अधिक धुँआ देता है। लिग्नाइट कोयले का भण्डार मुख्य रूप से तमिलनाडु के लिग्नाइट वेसिन में पाया जाता है। जहाँ देश का 94 प्रतिशत लिग्नाइट कोयले का सुरक्षित भंडार है।

पेट्रोलियम :
पेट्रोलियम शक्ति के समस्त साधनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं व्यापक रूप से उपयोगी संसाधन है। पेट्रोलियम से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ जैसे- गैसोलीन, डीजल, किरासन तेल, स्नेहक, कीटनाशक दवाएँ, दवाएँ, पेट्रोल, साबुन, कृत्रिम रेशा, प्लास्टिक आदि बनाए जाते हैं।

तेल क्षेत्रों का वितरण :

भारत में मुख्यतः पाँच तेल उत्पादक क्षेत्र हैं :

1.उत्तरी-पूर्वी प्रदेश : यह देश का सबसे पुराना तेल उत्पादक क्षेत्र है, जहाँ 1866 ई० में तेल के लिए खुदाई शुरू की गई थी। ऊपरी असम घाटी, अरूणाचल प्रदेश, नागालैण्ड आदि विशाल तेल उत्पादक क्षेत्र इसके अन्तर्गत आते हैं।

2.गुजरात क्षेत्र : यह क्षेत्र खम्भात के बेसिन तथा गुजरात के मैदान में विस्तृत है। यहाँ पहली बार 1958 में तेल का पता चला था। इसके मुख्य उत्पादक अंकलेश्वर, कलोल, नवगाँव, कोसांबा, मेहसाना आदि हैं।

3.मुम्बई हाई क्षेत्र : यह क्षेत्र मुम्बई तट से 176 किलोमीटर दूर उŸार-पश्चिम दिशा में अरब सागर में स्थित है। यहाँ 1975 में तेल खोजने का कार्य शुरू हुआ। यहाँ समुद्र में सागर सम्राट नामक मंच बनाया गया है जो जलयान है और पानी के भीतर तेल के कुँए खोदने का कार्य करता है।

4.पूर्वी तट प्रदेशः- यह कृष्ण-गोदावरी और कावेरी नदियों के बेसिल तथा मुहाने के समुद्री क्षेत्र में फैला हुआ है।

5.बारमेर बेसिनः- इस बेसिन के मंगला तेल क्षेत्र से सितम्बर 2009 से उत्पादन शुरू हो गया हैं। यहाँ प्रतिदिन 56000 बैरल तेल का उत्पादन हो रहा है। 2012 तक यह क्षेत्र भारत का 20 प्रतिशत पेट्रोलियम उत्पन्न करेगा।

तेल परिष्करणः- कुओं से निकाला गया कच्चा तेल अपरिष्कृत एवं अशुद्ध होता हैं। अतः उपयोग के पूर्व उसे तेल शोधक कारखानो में परिष्कृत किया जाना आवश्यक होता है। उसके बाद ही डिजल, किरासन तेल, स्नेहक पदार्थ तथा अन्य कई वस्तुएँ प्राप्त होती है।

प्राकृतिक गैसः- प्राकृतिक गैस हमारे वर्तमान जीवन में बड़ी तेजी से एक महत्वपूर्ण ईंधन बनता जा रहा है। इसका उपयोग विभिन्न उद्योगों में मशीन को चलाने में, विद्युत उत्पादन में, खाना पकाने में तथा मोटर गाड़ियाँ चलाने में किया जा रहा है।
Shakti Urja Sansadhan

विधुत शक्तिः- विद्युत शक्ति उर्जा का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है। वर्तमान विश्व में विद्युत के प्रति व्यक्ति उपभोग को विकास का एक सुचकांक माना जाता है। जब विद्युत के उत्पादन में कोयला, पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस से प्राप्त उष्मा का उपयोग किया जाता है तो उसे ताप विद्युत कहते हैं। इसके अतिरिक्त विद्युत का उत्पादन आण्विक खनिजों के विखण्डन से भी किया जाता है। जिसे परमाणु विद्युत कहते हैं।

जल विद्युतः- जल विद्युत उत्पादन के लिए सदावाहिनी नदी में प्रचुर जल की राशि, नदी मार्ग में ढ़ाल, जल का तीव्र वेग, प्राकृतिक जल प्रपात का होना अनुकूल भौतिक दशाएँ हैं जो पर्वतीय एवं हिमानीकृत क्षेत्रों में पाया जाता हैं। भारत में सन् 1897 ई0 में दार्जिलिंग में प्रथम जल विधुत संयंत्र की स्थापना हुई थी। इसके बाद कर्नाटक के शिवसमुद्रम् में काबेरी नदी के जलप्रपात पर दूसरे जल विद्युत संयंत्र की स्थापना हुई।
1947 तक भारत में 508 मेगावाट बिजली की उत्पादन की जाने लगी।
भारत के मुख्य बहुउद्देशीय परियोजनाएँ
बहुउद्देशीय परियोजना- ऐसी परियोजना जिससे एक साथ अनेक लाभ के प्राप्त की जा सके, उसे बहुउद्देशीय परियोजना कहते हैं।

अर्थात्
ऐसी परियोजना जिससे एक साथ कई उद्देश्य प्राप्त करने के लिए स्थापित किए जाते हैं, उसे बहुउद्देशीय परियोजना कहते हैं।

1.भाखड़ा-नंगल परियोजना- भाखड़ा नंगल बाँध विश्व की ऊँची बाँधों में से एक है, जो हिमालय क्षेत्र में सतलज नदी पर है। जिसकी ऊँचाई 225 मीटर है। यह भारत की सबसे बड़ी परियोजना है। इससे 7 लाख किलोवाट विद्युत उत्पन्न किया जाता है।

2.दामोदरघाटी परियोजना– यह परियोजना दामोदर नदी पर झारखंड और पश्चिम बंगाल को बाढ़ से बचाने के लिए किया गया है। इससे 1300 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाता है।

3.कोशी परियोजना- नेपाल स्थित हनुमान नगर में कोशी नदी पर बाँध बनाकर इस परियोजना से 20000 किलोवाट बिजली उत्पन्न किया जाता है।

4.रिहन्द परियोजना- इस परियोजना को सोन की सहायक नदी रिहन्द पर उŸार प्रदेश में 934 मीटर लंबा बाँध बनाकर किया गया है। इससे 30 लाख किलोवाट बिजली उत्पादन किया जाता है।

5.हीराकुंड परियोजना- उड़ीसा के महानदी पर विश्व का सबसे लंबा बाँध बनाकर 2.7 लाख किलोवाट बिजली उत्पादन किया जाता है।

6.चंबल घाटी परियोजना- चंबल नदी पर राजस्थान में तीन बाँध गाँधी सागर, राणाप्रताप सागर और कोटा में स्थापित कर तीन शक्ति गृहों की स्थापना कर 2 लाख मेगावाट बिजली उत्पादन किया जाता है।

7.तुंगभद्रा परियोजना- यह दक्षिण भारत की सबसे बड़ी नदी-घाटी परियोजना है, जो कृष्णा नदी की सहायक नदी तुंगभद्रा नदी पर बनाई गई है।
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ताप शक्ति
तापीय विद्युत का उत्पादन करने के लिए ताप शक्ति संयंत्रों में कोयला, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस का उपयोग होता है। जल विद्युत की तरह यह प्रदुषण रहित नहीं है।

परमाणु शक्ति- जब उच्च अणुभार वाले परमाणु विखंडित होते हैं तो ऊर्जा का उत्सर्जन होता है। यूरेनियम परमाणु ऊर्जा का कच्चा माल है। भारत में यूरेनियम का विशाल भंडार झारखण्ड के जादूगोड़ा में है।
भारत में 1955 में प्रथम आण्विक रियेक्टर मुम्बई के निकट तारापुर में स्थापित किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य उद्योग एवं कृषि को बिजली प्रदान करना था।
देश में अब तक छः विद्युत परमाणु विद्युत गृह स्थापित किए गए हैं।

1.तारापुर परमाणु विद्युत गृह- यह एशिया का सबसे बड़ा परमाणु विद्युत गृह है।
2.राणाप्रताप सागर परमाणु विद्युत गृह- यह राजस्थान के कोटा में स्थापित है। यह चंबल नदी के किनारे है।
3.कलपक्कम परमाणु विद्युत गृह- यह तमिलनाडु में स्थित है।
4.नरौरा परमाणु विद्युत गृह- यह उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के पास स्थित है।
5.ककरापारा परमाणु विद्युत गृह- यह गुजरात राज्य में समुद्र के किनारे स्थित है।
6.कैगा परमाणु विद्युत गृह- यह कर्नाटक राज्य के जागवार जिला में स्थित है।
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गैर-पारम्परिक शक्ति के स्त्रोत
अधिक दिनों तक हम शक्ति के पारम्परिक स्त्रोतों पर निर्भर नहीं रह सकते हैं क्योंकि यह समाप्य संसाधन है। इसलिए गैर-पारम्परिक शक्ति संसाधनों से ऊर्जा के विकास बहुत ही अधिक आवश्यक है। ऊर्जा के गैर पारम्परिक स्त्रोतों में बायो गैस, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय एवं तरंग ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा एवं जैव ऊर्जा महत्वपूर्ण हैं।

सौर ऊर्जा- यह कम लागत वाला पर्यावरण के अनुकूल तथा निर्माण में आसान होने के कारण अन्य ऊर्जा स्त्रोतों की अपेक्षा ज्यादा लाभदायक है।
राजस्थान और गुजरात में सौर ऊर्जा की ज्यादा संभावनाएँ हैं।

पवन ऊर्जा- पवन चक्कियों से पवन ऊर्जा की प्राप्ति की जाती है। भारत विश्व का सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक देश है। देश में पवन ऊर्जा की संभावित उत्पादन क्षमता 50000 मेगावाट है। गुजरात के कच्छ में लाम्बा का पवन ऊर्जा संयंत्र एशिया का सबसे बड़ा संयंत्र है। दूसरा बड़ा संयंत्र तमिलनाडु के तूतीकोरिन में स्थित है।

ज्वारीय ऊर्जा तथा तरंग ऊर्जा- समुद्री ज्वार और तरंग के कारण गतिशील जल से ज्वारीय और तरंग ऊर्जा प्राप्त किया जाता है।

भूतापीय ऊर्जा- यह ऊर्जा पृथ्वी के उच्च ताप से प्राप्त किया जाता है।

बायो गैस एवं जैव ऊर्जा- ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि अपशिष्ट, पशुओं और मानव जनित्र अपशिष्ट के उपयोग से घरेलू उपयोग हेतु बायो गैस उपयोग की जाती है। जैविक पदार्थों के अपघटन से बायो गैस प्राप्त की जाती है।
जैविक पदार्थों से प्राप्त होनेवाली ऊर्जा को जैविक ऊर्जा कहते हैं। कृषि अवशेष, नगरपालिका, औद्योगिक एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थ जैविक पदार्थों के उदाहरण है।

शक्ति संसाधनों का संरक्षण :
ऊर्जा संकट विश्व व्यापी संकट बन चूका है। इस परिस्थिति में समस्या के समाधान की दिशा में अनेक प्रयास किए जा रहे हैं।

1.ऊर्जा के प्रयोग में मितव्ययीता : ऊर्जा संकट से बचने के लिए ऊर्जा के उपयोग में मितव्ययीता जरूरी है। इसके लिए तकनीकी विकास आवश्यक है। ऐसे मोटर गाड़ीयों का निर्माण हो जो कम तेल में ज्यादा चलते हैं। अनावश्यक बिजली को रोककर हम ऊर्जा की बचत बड़े स्तर पर कर सकते हैं।

2.ऊर्जा के नवीन क्षेत्रों की खोज- ऊर्जा संकट समाधान के लिए परम्परागत ऊर्जा के नये क्षेत्रों का खोज किया जाए। वैसे जगहों का पता लगाया जाए जहाँ पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैसों का भंडार हो।

3.ऊर्जा के नवीन वैकल्पिक साधनों का उपयोग- वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत में जल-विद्युत, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, जैव ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि के विकास कर उपभोग कर शक्ति के संसाधन को संरक्षित किया जा सकता है।

4.अंतराष्ट्रीय सहयोग- ऊर्जा संकट से बचने के लिए सभी राष्ट्र को आपसी भेद-भाव को भुलकर ऊर्जा समाधान हेतु आम सहमति से नीति निर्धारण करना चाहिए। (Shakti Urja Sansadhan)

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कक्षा 10 भूगोल खनिज संसाधन – Khanij Sansadhan

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इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ ‘(घ) खनिज संसाधन’ (Khanij Sansadhan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

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(घ) खनिज संसाधन (Khanij Sansadhan)

खनिजः पृथ्वी की परत में विद्यमान धातुयुक्त ठोस पदार्थ को खनिज कहते हैं। जैसे- सोडियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बोनेट, जिंक सल्फाइड आदि।
खनिज संसाधन आधुनिक सभ्यता एवं संस्कृति के आधार स्तंभ हैं। भारत में लगभग 100 से अधिक खनिज मिलते हैं।

खनिजों के प्रकार : खनिज सामान्यतः दो प्रकार के होते हैंः-

1.धात्विक खनिजः इन खनिजों में धातु होता है। जैसे- लौह अयस्क, तांबा, निकल, मैंगनीज आदि। पुनः इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैः-

(क) लौहयुक्त खनिजः जिन धात्विक खनिजों में लोहे का अंश अधिक पाया जाता है वे लौह युक्त खनिज कहलाते हैं, जैसे- मैंगनीज, निकल, टंगस्टन आदि।

(ख) अलौहयुक्त खनिजः जिन धात्विक खनिजों में लोहे का अंश न्यून होता है या नहीं होता है वे अलौहयुक्त खनिज कहलाते हैं, जैसे- सोना, चांदी, शीशा, बॉक्साइट, टिन, तांबा आदि।

2.अधात्विक खनिजः इन खनिजों में धातु नहीं होते हैं, जैसे- चुना-पत्थर, डोलोमाइट, अभ्रक, जिप्सम आदि। अधात्विक खनिज भी दो प्रकार के होते हैं-

(क) कार्बनिक खनिजः इसमें जीवाश्म होते हैं। ये पृथ्वी में दबे प्राणी एवं पादप जीवों के परिवर्तित होने से बनते हैं, जैसे- कोयला, पेट्रोलियम आदि।

(ख) अकार्बनिक खनिजः इनमें जीवाश्म नहीं होते हैं, जैसे- अभ्रक, ग्रेफाइट आदि।
धात्विक एवं अधात्विक खनिज में अंतरः

1.धात्विक खनिज को गलाने पर धातु प्राप्त होता है जबकि अधात्विक खनिज को गलाने पर धातु प्राप्त नहीं हो सकता।

2.धात्विक खनिज कठोर एवं चमकीले होते हैं जबकि अधात्विक खनिजों की अपनी चमक नहीं होती है।

3.धात्विक खनिज प्रायः आग्नेय चट्टानों में मिलते हैं जबकि अधात्विक खनिज प्रायः परतदार चट्टानों में मिलते हैं।

4.धात्विक खनिज को पीटकर तार बनाया जा सकता है। ये पीटने पर टूटता नहीं है जबकि अधात्विक खनिज को पीटकर तार नहीं बनाया जा सकता। ये पीटने पर चूर-चूर हो जाते हैं।

लौह एवं अलौह खनिजों में अंतरः

1.जिन खनिजों में लोहे का अंश पाया जाता है तथा जिनका उपयोग लोहा एवं इस्पात बनाने में किया जाता है; लौह खनिज कहलाते हैं। जैसे- लौह अयस्क, निकिल, टंगस्टन, मैंगनीज आदि। जबकि जिन खनिजों में लोहे का अंश न्यून या बिलकुल नहीं होता है वे अलौह खनिज कहलाते हैं, जैसे- सोना, शीशा, अभ्रक आदि।

2.लौह खनिज स्लेटी, धूसर, मटमैला आदि रंग के होते हैं जबकि अलौह खनिज अनेकों रंग के हो सकते हैं।

3.लौह खनिज रवेदार चट्टानों में पाये जाते हैं जबकि अलौह खनिज सभी प्रकार के चट्टानों में मिल सकते हैं।

लौह-अयस्कः लोहा आधुनिक सभ्यता की रीढ़ है। यह उद्योगों की जननी है। लोहा खान से शुद्ध रूप में नहीं मिलता बल्कि लौह अयस्क के रूप में निकलता है।
शुद्ध लोहे की मात्रा के आधार पर भारत में पाये जाने वाले लौह अयस्क तीन प्रकार के होते हैं- हेमेटाइट, मैग्नेटाइट और लिमोनाइट।
भारत में पूरे विश्व के लौह भंडार का एक चौथाई भाग आंकलित है।

भारत में लौह अयस्क प्रायः सभी राज्यों में पाया जाता है परंतु यहाँ के कुल भंडार का 96 प्रतिशत- कर्नाटक, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, गोवा, झारखंड राज्यों में सीमित है।

कर्नाटक राज्य भारत का लगभग एक चौथाई लोहा उत्पादन करता है। यहाँ बेल्लारी, हासपेट, संदूर आदि क्षेत्रों में लौह अयस्क की खाने हैं।

छत्तीसगढ़ देश का दूसरा उत्पादक राज्य है जो देश का करीब 20 प्रतिशत लोहा उत्पन्न करता है। दांतेवाड़ा जिले का बैलाडिला तथा दुर्ग जिले के डल्ली एवं राजहरा प्रमुख उत्पादक हैं। रायगढ़, बिलासपुर तथा सरगुजा अन्य उत्पादक जिले हैं।

उड़ीसा देश का 19 प्रतिशत लोहा उत्पादन करता है। यहाँ की प्रमुख खानें- गुरू महिषानी, बादाम पहाड़ (मयूरगंज) एवं किरीबुरू हैं।

गोवा देश का चौथा बड़ा लोहा उत्पादक राज्य है और देश का 16 प्रतिशत लोहा यहीं से प्राप्त होता है। यहाँ की प्रमुख खानें- साहक्वालिम, संग्यूम, क्यूपेम, सतारी, पौंडा एवं वियोलिम में स्थित हैं।

झारखंड देश का पांचवा बड़ा लौह अयस्क उत्पादक राज्य है और 15 प्रतिशत से अधिक लोहे का उत्पादन करता है। यहाँ के पूर्वी तथा पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला, प्लामू, धनबाद, हजारीबाग, लोहरदगा तथा राँची मुख्य उत्पादक जिले हैं।

महाराष्ट्र में लौह अयस्क की खानें चंद्रपुर, रत्नागिरी और भण्डारा जिलों में स्थित है।

आंध्रप्रदेश के करीमनगर, बारंगल, कुर्नूल, कड़प्पा आदि जिले लौह अयस्क उत्पादक हैं।

तमिलनाडु की तीर्थ मल्लई पहाड़ियों (सलेम) एवं यादपल्ली (नीलगिरी) क्षेत्र में लोहे के भण्डार हैं।

मैंगनीज अयस्कः मैंगनीज के उत्पादन में भारत का स्थान विश्व में रूस एवं दक्षिण अफ्रीका के बाद तीसरा है। मैंगनीज का उपयोग शुष्क बैटरियों के निर्माण, फोटोग्राफी, चमड़ा एवं माचिस उद्योग में भी होता है। साथ ही इसका उपयोग पेंट तथा कीटनाशक दवाओं के बनाने में भी किया जाता है। भारत के कुल उत्पादन का 85 प्रतिशत मैंगनीज का उपयोग मिश्र धातु बनाने में किया जाता है।

विश्व में जिम्बाबे के बाद भारत में ही मैंगनीज का सबसे बड़ा संचित भंडार है जो विश्व के कुल भंडार का 20 प्रतिशत है।

उड़ीसा भारत में मैंगनीज के उत्पादन में अग्रणी है। यहाँ देश के कुल उत्पादन का 37 प्रतिशत मैंगनीज उत्पादन होता है।

महाराष्ट्र भारत के कुल उत्पादन का लगभग एक चौथाई मैंगनीज उत्पादन करता है।

धात्विक खनिज (अलौह) : इसके अंतर्गत बॉक्साइट, सोना, चाँदी, तांबा, टिन, शीशा, जस्ता आदि आते हैं।

बॉक्साइटः भारत में बॉक्साइट का इतना भंडार है, कि एल्यूमिनियम में हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं। इसका बहुमुखी उपयोग वायुयान निर्माण, विद्युत उपकरण निर्माण, घरेलू साज-सज्जा के सामानों का निर्माण, बर्तन बनाने, सफेद सीमेंट तथा रासायनिक वस्तुएं बनाने में किया जाता है।

बॉक्साइट का वितरणः बॉक्साइट भारत के अनेक क्षेत्रों में मिलता है किंतु मुख्य रूप से इसका भंडार उड़ीसा, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश में अवस्थित है। देश का आधा से अधिक बॉक्साइट का भंडार उड़ीसा राज्य में है। उड़ीसा भारत के कुल उत्पादन 42 प्रतिशत बॉक्साइट उत्पादन करता है।

तांबाः तांबा एक अति उपयोगी अलौह धातु है। यह बिजली का अच्छा संचालक है जिससे इसका ज्यादा उपयोग विद्युत उपकरण बनाने में किया जाता है। इससे बर्तन एवं सिक्के भी बनाए जाते हैं। भारत में तांबा का अभाव है।
झारखंड का पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम जिले तांबा का सबसे बड़ा उत्पादक है।

अधात्विक खनिज

अभ्रकः भारत विश्व में शीट अभ्रक का अग्रणी उत्पादक है। प्राचीन काल से अभ्रक का उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं के लिए किए जाते रहे हैं लेकिन विद्युत उपकरण में इसका खास उपयोग होता है क्योंकि यह विद्युत रोधक होने के कारण उच्च विद्युत शक्ति को सहन कर सकता है।

भारत में उत्पादन की दृष्टि से, अभ्रक निक्षेप की तीन पेटियां हैं, जो बिहार, झारखंड, आंध्रप्रदेश तथा राजस्थान राज्यों के अंतर्गत आती है। बिहार, झारखंड में उत्तम कोटि के रूबी अभ्रक का उत्पादन होता है। बिहार झारखंड भारत का 80 प्रतिशत अभ्रक उत्पादन करता है। राजस्थान देश का तीसरा अभ्रक उत्पादक राज्य है। संयुक्त राज्य अमेरिका भारतीय अभ्रक का मुख्य आयातक है।

चूना पत्थरः भारत के चूना पत्थर का 76 प्रतिशत सीमेंट 16 प्रतिशत लौह इस्पात तथा 4 प्रतिशत रासायन उधोग में उपयोग किया जाता है। देश का 35 प्रतिशत चूना पत्थर मध्य प्रदेश में पाया जाता है।

खनिजों का आर्थिक महत्व
पृथ्वी पर जैसे जल और थल अति महत्वपूर्ण खजाने हैं। ठीक उतने ही महत्वपूर्ण खनिज संसाधन भी हैं। खनिज संसाधन के अभाव में देश के औधोगिक विकास को गति एवं दिशा नहीं दे सकते। फलतः देश का आर्थिक विकास अवरूद्ध हो सकता हैं। खनिज संसाधन का संबंध हमारे वर्तमान और भविष्य से हैं इसलिए खनिजां के संरक्षण की अति आवश्यकता हैं।

खनिज संसाधनों का संरक्षण
खनिज क्षयशील और अनवीकरणीय संसाधन हैं। इसकी मात्रा सिमित है इसका फिर से निर्माण असंभव हैं। उद्योगों में अधिक खनिजो के दोहन और उपयोग के कारण इसके अस्तित्व संकट में पड़ गया है इसलिए खनिजों का संरक्षण आवश्यक है। खनिज संसाधन के विवेकपूर्ण उपयोग करने से खनिज संकट से बचा जा सकता हैं। खनिज संसाधन के विवेकपूर्ण उपयोग तीन बातों पर निर्भर करता है- खनिजों के लगातार दोहन पर नियंत्रण, उनका बचतपूर्वक उपयोग तथा कच्चे माल के रूप में सस्ते विकल्पों की खोज।

खनिजो के संरक्षण के साथ-साथ उसके प्रबंधन पर ध्यान दिया जाए तो खनिज संकट से निपटा जा सकता हैं। (Khanij Sansadhan)

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