कक्षा 10 भूगोल वन संसाधन – Van Evam Vanya Prani Sansadhan

Van Evam Vanya Prani Sansadhan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ ‘(ग) वन एवं वन्‍य प्राणी संसाधन’ (Van Evam Vanya Prani Sansadhan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Van Evam Vanya Prani Sansadhan
Van Evam Vanya Prani Sansadhan

(ग) वन एवं वन्‍य प्राणी संसाधन (Van Evam Vanya Prani Sansadhan)

वन- वन उस बड़े भू-भाग को कहते हैं जो पेड़ पौधों एवं झाड़ियों द्वारा आच्छादित होते है।

वन दो प्रकार के होते हैं-

1. प्राकृतिक वन और 2. मानव निर्मित वन
2.प्राकृतिक वन- वे वन जो स्वतः विकसित होते हैं, उसे प्राकृतिक वन कहते हैं।
3.मानव निर्मित वन- वे वन जो मानव द्वारा विकसित होते हैं, उसे मानव निर्मित वन कहते हैं।

वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण : वन विस्तार के नजरिए से भारत विश्व का दसवां देश है, यहां करीब 68 करोड़ हेक्टेअर भूमि पर वन का विस्तार है। रूस में 809 करोड़ हेक्टेअर वन क्षेत्र है, जो विश्व में प्रथम है। ब्राजील में 478 करोड़ हेक्टेअर, कनाडा में 310 करोड़ हेक्टेअर, संयुक्त राज्य अमेरिका में 303 करोड़ हेक्टेअर, चीन में 197 करोड़ हेक्टेअर, ऑस्ट्रेलिया में 164 करोड़ हेक्टेअर, कांगो में 134 करोड़ हेक्टेअर, इंडोनेशिया में 88 करोड़ हेक्टेअर और पेरू में 69 करोड़ हेक्टेअर वन क्षेत्र है। भारत में, 2001 में 19.27 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर वन फैले हुए थे। (वन सर्वेक्षण, थैंप ) के अनुसार 20.55 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वन का विस्तार है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह सबसे आगे है, जहां 90.3 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वन विकसित है।
 

वृक्षों के घनत्व के आधार पर वनों को पांच वर्गो में रखा जा सकता है।
1.अत्यंत सघन वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक )
2.सघन वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 40-70 प्रतिशत)
3.खुले वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 10 से 40 प्रतिशत)
4.झाड़ियां एवं अन्य वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 10 प्रतिशत से कम)
5.मैंग्रोव वन (तटीय वन)- इस प्रकार के वन समुद्र के तटों पर पाए जाते हैं। इस प्रकार के वनों का विस्‍तार पूर्वी तट, पश्चिमी तट और अण्‍डमान निकोबार द्विप समुह में है।

6.अत्यंत सघन वन- भारत में इस प्रकार के वन का विस्तार 54.6 लाख हेक्टेअर भूमि पर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 1.66 प्रतिशत है, असम और सिक्किम को छोड़कर सभी पूर्वोंत्तर राज्य इस वर्ग में आते हैं।

7.सघन वन- इसके अन्तर्गत 73.60 लाख हेक्टेअर भूमि आते हैं जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3 प्रतिशत है। हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र एवं उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में इस प्रकार के वनों का विस्तार है ।

8.खुले वन- 2.59 करोड़ हेक्टेअर भूमि पर इस वर्ग के वनों का विस्तार है, यह कुल भौगोलिक क्षेत्र का 7.12 प्रतिशत है। कर्नाटक, तामिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा के कुछ जिलों एवं असम के 16 आदिवासी जिलों में इस प्रकार के वनों का विस्तार है।

9.झाड़ियां एवं अन्य वन- राजस्थान का मरुस्थलीय क्षेत्र एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में इस प्रकार के वन पाए जाते है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल के मैदानी भागों में वृक्षों का घनत्व 10 प्रतिशत से भी कम है।

10.मैंग्रोव वन (तटीय वन)- इस प्रकार के वनों का विकास समुद्र के तटों पर हुआ है। इसलिए इसे तटीय वन भी कहते हैं। इसका विस्तार केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में हुआ है।
वन सम्पदा तथा वन्य जीवों का ह्रास एवं संरक्षण : विकास के नाम पर वनों का विनाश होना शुरू हुआ। बीसवीं सदी के मध्य तक 24 प्रतिशत क्षेत्र पर वन विस्तार था, जो इक्किसवीं सदी के आरंभ में ही संकुचित होकर 19 प्रतिशत क्षेत्र में रह गया है। इसका मुख्य कारण मानवीय हस्तक्षेप, पालतू पशुओं के द्वारा अनियंत्रित चारण एवं विविध तरीकों से वन सम्पदा का दोहन है। भारत में वनों के ह्रास का एक बड़ा कारण कृषिगत भूमि का फैलाव है।

वनों एवं वन्य जीवों के विनाश में पशुचारण और ईंधन के लिए लकड़ियों का उपयोग की भी काफी भूमिका रही है। रेल-मार्ग, सड़क मार्ग, निर्माण, औद्योगिक विकास एवं नगरीकरण ने भी वन विस्तार को बड़े पैमाने पर तहस-नहस किया है।

जैसे-जैसे वनों का दामन सिकुड़ा, वैसे-वैसे वन्य जीवों का आवास भी तंग होता गया।

आज स्थिति यह है कि बहुत से वन्य प्राणी लुप्त हो गए हैं या लुप्त प्राय हैं। भारत में चीता और गिद्ध इसके उदाहरण हैं ।
विलुप्त होने के खतरे से घिरे कुछ प्रमुख प्राणी हैं, कृष्णा सार, चीतल, भेड़िया, अनूप मृग, नील गाय, भारतीय कुरंग, बारहसिंगा, चीता, गेंडा, गिर सिंह, मगर, हसावर, हवासिल, सारंग, श्वेत सारस, घूसर बगुला, पर्वतीय बटेर, मोर, हरा सागर कछुआ, कछुआ, डियूगाँग, लाल पांडा आदि।

अमृता देवी वन्य संरक्षण परसार : अमृता देवी राजस्थान के विशनोई गाँव (जोधपुर जिला) की रहनेवाली थी। उसने 1731 ई० में राजा के आदेश को दरकिनार कर वनों से लकड़ी काटनेवालों का विरोध किया था। राजा के लिए नवीन महल निर्माण के लिए लकड़ी काटा जाना था। अमृता देवी के साथ गाँव वालों ने भी राजा के आदमियों का विरोध किया। महाराजा को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्हें काफी पश्चाताप हुआ और अपने राज्य में वनों की कटाई पर रोक लगा दी ।

वर्तमान समय में वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारत की संकटापन्न पादप प्रजातियों की सूची बनाने का काम सर्वप्रथम 1970 में बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया तथा वन अनुसंधान संस्थान देहरादून द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। इन्होंने जो सूची बनाई उसे ‘रेड

डेटा बुक’ का नाम दिया गया। इसी क्रम में असाधारण पौधों के लिए ‘ग्रीन बुक’ तैयार किया गया।

रेड डेटा बुकः इसमें सामान्य प्रजातियों के विलुप्त होने के खतरे से अवगत किया जाता है।

संकटग्रस्त प्रजातियाँ सर्वमान्य रूप से चिन्हित होते हैं।

विश्व स्तर पर, संकटग्रस्त प्रजातियों की एक तुलनात्मक स्थिति के प्रति चेतावनी देती है। स्थानीय स्तर पर संकटग्रस्त प्रजातियों की पहचान एवं उनके संरक्षण से संबंधित कार्यक्रम को प्रोत्साहन देना।

अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ ने संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में कार्य कर रही एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्था है।

इस संस्था ने विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राणियों के जातियों को चिन्हित कर निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया हैः

(क) सामान्य जातियाँ- ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती हैं जैसे- पशु, साल, चीड़ और कृतंक इत्यादि।

(ख) संकटग्रस्त जातियाँ- ये वे जातियाँ है जिनके लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है, यदि वे जारी रहती हैं तो इन जातियों का जीवित रहना कठिन है। काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गेंडा, पूंछ वाला बंदर, संगाई (मणिपुरी हिरण) इत्यादि इस प्रकार के जातियों के उदाहरण हैं।

(ग) सुभेद्य जातियाँ- इसके अंतर्गत ऐसी जातियों को रखा गया है, जिनकी संख्या घट रही है। यह वैसी जातियाँ हैं जिनपर ध्यान नहीं दिया गया तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकते हैं। नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा की डॉल्फिन आदि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।

(घ) दुर्लभ जातियाँ- इन जातियों की संख्या बहुत कम है और यदि इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं बदलती हैं तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।

(ङ) स्थानिक जातियाँ- प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियाँ, अंडमानी टील, निकोबरी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरुणाचल के मिथुन इसी वर्ग में आते हैं।

(च) लुप्त जातियाँ- ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गई हैं। ये उपजातियाँ स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश, देश, महाद्वीप या पूरी पृथ्वी से लुप्त हो गई हैं। एशियाई चीता और गुलाबी सर वाली बत्तख एवं डोडो पंक्षी इसके अच्छी उदाहरण हैं।

वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्रों में (क) राष्ट्रीय उद्यान, (ख) विहार या अभ्यारण्य तथा (ग) जैव मंडल सम्मिलित हैं।

(1) राष्ट्रीय उद्यान : ऐसे पार्कों का उद्देश्य वन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास में वृद्धि एवं प्रजनन की परिस्थितियों को तैयार करना है। हमारे देश में राष्ट्रीय उद्यानों की संख्या 85 है।

(2) विहार क्षेत्र या अभम्यारण्य : यह एक ऐसा सुरक्षित क्षेत्र होता है जहाँ वन्य जीव सुरक्षित ढंग से रहते हैं। यह निजी संपत्ति हो सकती है। भारत में इनकी संख्या 448 है। बिहार में बेगूसराय तथा काँवर झील तथा दरभंगा का कुशेश्वर इसके लिए चिन्हित किया गया है।

(3) जैव मंडल : यह वह क्षेत्र है जहाँ प्राथमिकता के आधार पर जैवदृविविधता के संरक्षण के कार्यक्रम चलाए जाते हैं। विश्व के 65 देशों में करीब 243 सुरक्षित जैवदृमंडल क्षेत्र हैं। भारत में इनकी संख्या 14 है।

बाघ परियोजना : वन्य जीवन संरचना में बाघ एक महत्वपूर्ण जंगली जाति है। 1973 में अधिकारियों ने पाया कि देश में 20 वीं शताब्दी के आरंभ में बाघों की संख्या अनुमानित संख्या 5500 से घटकर मात्र 1827 रह गई है। बाघों को मारकर उनको व्यापार के लिए चोरी करना, आवासीय स्थलों का सिकुड़ना, भोजन के लिए आवश्यक जंगली उपजातियों की संख्या कम होना और जनसंख्या में वृद्धि बाघों की घटती संख्या के मुख्य कारण हैं। बाघ परियोजना विश्व की बेहतरीन वन्य जीव परियोजनाओं में से एक है और इसकी शुरुआत 1973 में हुई। शुरू में इसमें बहुत सफलता प्राप्त हुई क्योंकि बाघों की संख्या बढ़कर 1985 में  4002 और 1989 में

4334 हो गयी। परंतु 1993 में इसकी संख्या घटकर 3600 तक पहुँच गई भारत में 37,761 वर्ग किमी० पर फैले हुए 27 बाघ रिजर्व हैं।

चिपको आंदोलन : उत्तर प्रदेश टेहरी-गढ़वाल पर्वतीय जिले में सुंदर लाल बहुगुणा के नेतृत्व में अनपढ़ जनजातियों द्वारा 1972 में यह आंदोलन आरंभ हुआ था। इस आंदोलन में स्थानीय लोग ठेकेदारों की कुलहाड़ी से हरे-भरे पौधों को काटते देख, उसे बचाने के लिए अपने आगोस में पौधा को घेर कर इसकी रक्षा करते थे। इसे कई देशों में स्वीकारा गया।

वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कानूनी प्रावधान : वन्य जीवों के संरक्षण के लिए बनाए गए नियमों तथा कानूनी प्रावधानों को दो वर्गों में बांट सकते हैं, ये हैं-

(क) अंतर्राष्ट्रीय नियम : वन्य जीवों के संरक्षण के लिए दो या दो से अधिक राष्ट्र समूहों के द्वारा (अंतर्राष्ट्रीय समझौते के अंतर्गत) नियम तथा कानूनी प्रावधान बनाए गए हैं। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर 1968 में अफ्रीकी कनवेंशन, अंतर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स का कनवेंशन 1971 तथा विश्व प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक धरोहर संरक्षण एवं रक्षा अधिनियम 1972 के अंतर्गत बनाए गए अंतर्राष्ट्रीय नियमों के द्वारा वन्य जीवों के संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं। इस पर सख्ती से अनुपालन करके वन्य जीवों की रक्षा की जा सकती है।

(ख) राष्ट्रीय कानून : संविधान की धारा 21 के अंतर्गत अनुच्छेद 47, 48 तथा 51 (क) वन्य जीवों तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के नियम हैं। वन्य जीव सुरक्षा एक्ट 1972, नियमावली 1973 एवं संशोधित एक्ट 1991 के अंतर्गत पक्षियों तथा जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया गया है।
जैव विविधताः पृथ्वी पर पौधों और जीव-जंतुओं की लगभग 17-18 लाख से ज्यादा प्रजातियों का विवरण मिलता है। पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियों के पौधों और जीवदृजंतुओं का होना जैव विविधता को दर्शाता है।

जैव विविधता का सामान्य अर्थकृ जीवों की विभिन्नता अर्थात् किसी विशेष क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के जीवों एवं वनस्पतियों जैसे- जानवर, पक्षी, जलीय जीव, पेड़-पौधे, छोटे-छोटे कीटों आदि की उपस्थिति को जैव विविधता कहते हैं। जैव विविधता अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग होती है।

हमारा देश जैव-विविधता के संदर्भ में विश्व के सर्वाधिक देशों में से एक है, इसकी गणना विश्व के 12 विशाल जैविक-विविधता वाले देशों में की जाती है, यहाँ विश्व की सारी

जैव उप जातियों का 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है।

राष्ट्र के स्वस्थ्य जैव मंडल एवं जैविक उद्योग के लिए समृद्ध जैव-विविधता अनिवार्य है।

जैव विविधता का उपयोग कृषि तथा बहुत सारे औषधीय उपयोग में होता है। (Van Evam Vanya Prani Sansadhan)

Read More – click here

Van Evam Vanya Prani Sansadhan Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

कक्षा 10 भूगोल जल संसाधन – Jal Sansadhan

Jal Sansadhan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ ‘(ख) जल संसाधन’ (Jal Sansadhan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Jal Sansadhan
Jal Sansadhan

(ख) जल संसाधन (Jal Sansadhan)
पृथ्वी के सतह का तीन-चौथाई भाग जल से ढ़का है। पृथ्वी के अधिकतर स्तर पर जल की उपस्तिथि के कारण ही इसे नीला ग्रह कहा जाता है।

जल श्रोत- जिस स्त्रोत से जल की प्राप्ति होती है, उसे जल स्त्रोत कहते हैं।

जल-श्रोत विभिन्न रुपों में पाये जाते हैं-

1. भू-पृष्ठीय जल, 2. भूमिगत जल, 3. वायुमंडलीय जल तथा 4. महासागरीय जल।

जल संसाधन का वितरण- अधिकांश जल दक्षिणी गोलर्द्ध में ही है। इसी कारण दक्षिणी गोलर्द्ध को ‘जल गोलार्द्ध’ और उत्तरी गोलार्द्ध को ‘स्थल गोलर्द्ध’ के नाम से जाना जाता है ।

विश्व के कुल मृदु जल का लगभग 75 प्रतिशत अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड एवं पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादर या हिमनद के रूप में पाया जाता है और लगभग 25% भूमिगत जल स्वच्छ जल के रूप में उपलब्ध है।

ब्रह्मपुत्र एवं गंगा विश्व की 10 बड़ी नदियों में से हैं। इन नदियों को विश्व की बड़ी नदियों में क्रमशः आठवाँ एवं दसवाँ स्थान प्राप्त है ।

जल संसाधन का उपयोग- 1951 ई० में भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177 घन मीटर थी, जो 2001 में 1829 घन मीटर प्रति व्यक्ति तक पहुंच गई है। संभावना है 2025 ई० तक पहुंचते-पहुंचते प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1342 घन मीटर हो जाएगी।

पेयजल- घरेलू कार्य, सिंचाई, उद्योग, जन-स्वास्थ्य, स्वच्छता तथा मल-मूत्र विसर्जन इत्यादि कार्यों के लिए जल अत्यंत जरूरी है। जल-विद्युत निर्माण तथा परमाणु-संयत्र, शीतलन, मत्स्य पालन, जल-कृषि, वानिकी, जल-क्रीड़ा जैसे कार्य की कल्पना बिना जल के नहीं की जा सकती है।

बहुउद्देशीय परियोजनाएं- ऐसी परियोजनाएँ, जिसका निर्माण एक साथ कई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे बहुउद्देशीय परियोजना कहते हैं।

बहुउद्देशीय परियोजनाओं को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने गर्व से ‘आधुनिक भारत का मंदिर’ कहा है।

बहुउद्देशीय परियोजना के विकास के उद्देश्य-  बाढ़ नियंत्रण, मृदादृअपरदन पर रोक, पेय एवं सिंचाई के लिए जलापूर्ति, परिवहन, मनोरंजन, वन्य-जीव संरक्षण, मत्स्य-पालन, जल-कृषि, पर्यटन इत्यादि।

भारत में अनेक नदी-घाटी परियोजनाओं का विकास हुआ है- भाखड़ा-नांगल, हीराकुंड, दामोदर, गोदावरी, कृष्णा, स्वर्णरेखा एवं सोन परियोजना जैसी अनेक परियोजनाएं भारत के बहुअयामी विकास में सहायक हो रहे हैं ।

नर्मदा बचाओ आंदोलन- ‘नर्मदा बचाओं आंदोलन’ एक गैर सरकारी संगठन है, जो स्थानीय लोगों, किसानों, पर्यावरणविदों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गुजरात के नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध के विरोध के लिए प्रेरित करता है। इस आंदोलन के प्रवर्त्तक मेधा पाटेकर थे।

बहुउद्देशीय परियोजनाओं से होने वाली हानियाँः
(1) पर्याप्त मुआवजा न मिल पाना,
(2) विस्थापित होना,
(3) पुनर्वास की समस्या,
(4) आस-पास बाढ़ का आ जाना।

बहुउद्देशीय परियोजनाओं के कारण भूकंप की समस्या बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, बाढ़ से जल-प्रदूषण, जल-जनित बीमारियाँ तथा फसलों में कीटाणु जनित बीमारियों का भी संक्रमण हो जाता है।

जल संकट- जल की अनुपलब्धता (कमी) को जल-संकट कहा जाता है। बढ़ती जनसंख्या, उनकी मांग तथा जल के असमान वितरण भी जल दुर्लभता का परिणाम है।
वर्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22 प्रतिशत भाग जल-विद्युत से प्राप्त होता है।

उद्योगों की वजह से मृदु जल पर दबाव बढ़ रहा है। शहरों में बढ़ती आबादी एवं शहरी जीवन शैली के कारण जल एवं विद्युत की आवश्यकता में तेजी से वृद्धि हुई है।
जल की पर्याप्त मात्रा होने के बावजूद लोग प्यासे हैं। इस दुर्लभता का कारण है, जल की खराब गुणवत्ता, यह किसी भी राज्य या देश के लिए चिंतनीय विषय है। घरेलू एवं औद्योगिक-अवशिष्टों, रसायनों, कीटनाशकों और कृषि में प्रयुक्त होने वाले उर्वरक जल में मिल जाने से जल की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हुई है जो मानव के लिए अति नुकसानदेह है।

केवल कानपुर में 180 चमड़े के कारखानें हैं जो प्रतिदिन 58 लाख लीटर मल-जल गंगा में विसर्जित करती है ।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्कता- जल संसाधन की सीमित आपूर्ति, तेजी से फैलते प्रदूषण एवं समय की मांग को देखते हुए जल संसाधनों का संरक्षण एवं प्रबंधन अपरिहार्य है। जिससे स्वस्थ-जीवन, खाद्यान्न-सुरक्षा, आजीविका और उत्पाद अनुक्रियाओं को सुनिश्चित किया जा सके।
जल संसाधन के दुर्लभता या संकट से निवारण के लिए सरकार ने ‘सितंबर 1987’ में ‘राष्ट्रीय जल नीति’ को स्वीकार किया ।

इसके अंतर्गत सरकार ने जल संरक्षण के लिए निम्न सिद्धांतों को ध्यान में रखकर योजनाओं को बनाया गया है-
(a) जल की उपलब्धता को बनाये रखना।
(b) जल को प्रदूषित होने से बचाना।
(c) प्रदूषित जल को स्वच्छ कर उसका पुनर्चक्रण।

वर्षा जल संग्रहण एवं उसका पुनःचक्रण-
जल दुर्लभता एवं उनकी निम्नीकरण वर्तमान समय की एक प्रमुख समस्या बन गई है। बहुउद्देशीय परियोजनाओं के विफल होने तथा इसके विवादास्पद होने के कारण वर्षा जल-संग्रहण एक लोकप्रिय जल संरक्षण का तरीका हो सकता है ।

भूमिगत जल का 22 प्रतिशत भाग का संचय वर्षा-जल का भूमि में प्रवेश करने से होता है।

सूखे एवं अर्द्धसूखे क्षेत्रों में वर्षा-जल को एकत्रित करने के लिए गड्ढ़ो का निर्माण किया जाता था, जिससे मिट्टी सिंचित कर खेती की जा सके। उसे राजस्थान के जैसलमेर में ‘खादीन’ तथा अन्य क्षेत्रों में ‘जोहड़’ के नाम से पुकारा जाता है। राजस्थान के बिरानो फलोदी और बाड़मेर जैसे सूखे क्षेत्रों में पेय-जल का संचय भूमिगत टैंक में किया जाता है। जिसे ‘टांका’ कहा जाता है। मेघालय स्थित चेरापूंजी एवं मॉसिनराम में विश्व की सर्वाधिक वर्षा होती है। जहाँ पेय जलसंकट का निवारण लगभग (25 प्रतिशत) छत जल संग्रहण से होता है । मेघालय के शिलांग में छत जल संग्रहण आज भी परंपरागत रूप में प्रचलित है।

पं० राजस्थान में इंदिरा गाँधी नहर के विकास से इस क्षेत्र को बारहमासी पेयजल उपलब्ध होने के कारण से यह वर्षा जल संग्रहण की की उपेक्षा हो रही है, जो खेद जनक है।
वर्तमान में महाराष्ट्र, म०प्र०, राजस्थान एवं गुजरात सहित कई राज्यों में वर्षा जल संरक्षण एवं पुनः चक्रण किया जा रहा है।
स्वतंत्रता के बाद भारत में आर्थिक, सामाजिक, व्यापारिक सहित समग्र विकास के उद्देश्य से जल संसाधन के उपयोग हेतु योजनाएं तैयार की गई। बिहार में भी इन

उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कई परियोजनाएं बनायी गई हैं, जिनमे तीन प्रमुख हैं-
1. सोन परियोजना, 2. गंडक परियोजना, 3. कोसी परियोजना।

सोन नदी-घाटी परियोजना : सोन नदी-घाटी परियोजना बिहार की सबसे प्राचीन परियोजना के साथ-साथ यहाँ की पहली परियोजना है। ब्रिटिश सरकार ने सिंचित भूमि में वृद्धि कर अधिकाधिक फसल उत्पादन की दृष्टि से इस परियोजना का विकास 1874 ई० में किया था ।

सुविकसित रूप से यह नहर तीन लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचित करती हैं। 1968 ई० में इस योजना के डेहरी से 10 किमी० की दूरी पर स्थित इंद्रपुरी नामक स्थान पर बांध लगाकर बहुउद्देशीय परियोजना का रूप देने का प्रयास किया गया। इससे पुराने नहरों, जल का बैराज से पुनर्पूर्ति, नहरी विस्तारीकरण एवं सुदृढ़ीकरण हुआ है। यही वजह है कि सोन का यह सूखाग्रस्त प्रदेश आज बिहार का ‘चावल का कटोरा’ (त्पबम ठवूस वि ठपींत) के नाम से विभूषित हो रहा है।

इस परियोजना के अंर्तगत जल-विद्युत उत्पादन के लिए शक्ति-गृह भी स्थापित हुए हैं। पश्चिमी नहर पर डेहरी के समीप शक्ति-गृह की स्थापना की गई है। जिससे 6.6 मेगावाट ऊर्जा प्राप्त होती है। इस ऊर्जा का उपयोग डालमियानगर का एक बड़े औद्योगिक-प्रतिष्ठान के रूप में उभर रहा है।

बिहार विभाजन के पूर्व ‘इंद्रपुरी जलाशय योजना’, ‘कदवन जलाशय योजना’ के नाम से जानी जाती थी।

इसके अतिरिक्त भी बिहार के अंर्तगत कई नदी घाटी परियोजनाएं प्रस्तावित हैं; जिसके विकास की आवश्यकता है। जिनमें दुर्गावती जलाशय परियोजना, ऊपरी किऊल जलाशय परियोजना, बागमती परियोजना तथा बरनार जलाशय परियोजना इत्यादि शामिल है । (Jal Sansadhan)

Read More – click here
Jal Sansadhan Video –  click here
Class 10 Science –  click here
Class 10 Sanskrit – click here

कक्षा 10 भूगोल प्राकृतिक संसाधन – Prakritik Sansadhan

Prakritik Sansadhan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ ‘(क) प्राकृतिक संसाधन’ ( Prakritik Sansadhan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Prakritik Sansadhan
Prakritik Sansadhan

(क) प्राकृतिक संसाधन
प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं को प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। जैसे- जल, वायु, वन आदि।
हम भूमि पर निवास करते हैं। हमारा आर्थिक क्रिया-कलाप इसी पर संपादित होता है। इसलिए भूमि एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। कृषि, वानिकी, पशु-चारण, मत्स्यन, खनन, वन्य-जीव, परिवहन-संचार, जैसे आर्थिक क्रियाएँ भूमि पर ही सम्पन्न होते हैं।
भूमि संसाधन के कई भौतिक स्वरूप हैं, जैसे- पर्वत, पठार, मैदान, निम्नभूमि और घाटियाँ इत्यादि। भारत भूमि संसाधन में संपन्न है। यहाँ कुल भूमि का 43 प्रतिशत भू-भाग पर मैदान है जो कृषि और उद्योगों के लिए उपयोगी है। 30 प्रतिशत भाग पर्वतीय क्षेत्र और 27 प्रतिशत भाग पठारी क्षेत्र है।

मृदा निर्माण :
मृदा- पृथ्वी की सबसे ऊपरी पतली परत को मृदा कहते हैं। मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण प्राकृतिक नवीकरणीय संसाधन है।
मृदा का निर्माण एक लंबी अवधी में पूर्ण होती है जो एक जटिल प्रक्रिया है। कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा के निर्माण में लाखों वर्ष लग जाते हैं। चट्टानों के टूटने-फूटने तथा भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से मृदा निर्माण होता है। भूगोलविद् इसे अत्यंत धीमी प्रक्रिया मानते हैं।

मृदा निर्माण के कारक
    उच्चावच या धराकृति
    मूल शैल या चट्टान
    जलवायु
    वनस्पति
    जैव पदार्थ
    खनिज कण
    समय

तापमान परिवर्तन, प्रवाहित जल की क्रिया, पवन, हिमनद और अपघटन की अन्य क्रियाएँ भी ऐसे तŸव हैं, जो मृदा निर्माण में सहयोग करती हैं।
मृदा के प्रकार एवं वितरण :

मृदा निर्माण की प्रक्रिया के निर्धारक तŸव, उनके रंग-गठन, गहराई, आयु व रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत की मृदा के छः प्रकार होते हैं।

1. जलोढ़ मृदा

यह मृदा भारत में विस्तृत रूप में फैली हुई सर्वाधिक महŸवपूर्ण मृदा है। उत्तर भारत का मैदान पूर्ण रूप से जलोढ़ निर्मित है, जो हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी प्रणालियों सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र द्वारा लाए गए जलोढ़ के निक्षेप से बना है।

कुल मिलाकर भारत के लगभग 6.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर जलोढ़ मृदा फैली हुई है।

जलोढ़ मिट्टी का गठन बालू, सिल्ट एवं मृत्तिका के विभिन्न अनुपात से होता है। इसका रंग धुँधला से लेकर लालिमा लिये भूरे रंग का होता है।

ऐसी मृदाएँ पर्वतीय क्षेत्र में बने मैदानों में आमतौर पर मिलती हैं। आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा के दो प्रकार हैं- पुराना एवं नवीन जलोढ़।

पुराने जलोढ़ में कंकड़ एवं बजरी की मात्रा अधिक होती है। इसे बांगर कहते हैं। यह ज्यादा उपजाऊ नहीं होते हैं।

बांगर की तुलना में नवीन जलोढ़ में महीन कण पाये जाते हैं, जिसे खादर कहा जाता है। खादर में बालू एवं मृत्तिका का मिश्रण होता है। ये काफी उपजाऊ होते हैं।

उत्तर बिहार में बालू प्रधान जलोढ़ को ‘दियारा भूमि‘ कहते हैं। यह मक्का की कृषि के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
जलोढ़ मृदा में पोटाश, फास्फोरस और चूना जैसे तब वों की प्रधानता होती है, जबकि नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी रहती है। यह मिट्टी गन्ना, चावल, गेहूँ, मक्का,

दलहन जैसी फसलों के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
अधिक उपजाऊ होने के कारण इस मिट्टी पर गहन कृषि की जाती है। जिसके कारण यहाँ जनसंख्या घनत्व अधिक होता है।

2. काली मृदाः
इस मिट्टी का रंग काला होता है जो इसमें उपस्थित एल्युमीनियम एवं लौह यौगिक के कारण है। यह कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है। जिस कारण इसे ‘काली कपास मृदा‘ के नाम से भी जाना जाता है।
इस मिट्टी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक होती है। यह मृदा कैल्शियम कोर्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूना जैसे पौष्टिक तŸवों से परिपूर्ण होती है। इसमें फास्फोरस की कमी होती है।

3. लाल एवं पीली मृदा :
इस मृदा में लोहा के अंश होने के कारण लाल होता है। जलयोजन के पश्चात यह मृदा पीले रंग की हो जाती है। जैव पदार्थों की कमी के कारण यह मृदा जलोढ़ एवं काली मृदा की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है। इस मृदा में सिंचाई की व्यवस्था कर चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों का उत्पादन किया जा सकता है।

4. लैटेराइट मृदा :
इस प्रकार की मिट्टी का विकास उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में हुआ है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा नगण्य होती है। यह मिट्टी कठोर होती है। अल्युमीनियम और लोहे के ऑक्साइड के कारण इसका रंग लाला होता है।

कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मृदा संरक्षण तकनीक के सहारे चाय एवं कहवा का उत्पादन किया जाता है। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और केरल में इस मृदा में काजू की खेती उपयुक्त मानी जाती है।

5. मरूस्थलीय मृदा :
इस मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा होता है। इस प्रकार की मृदा में वनस्पति और उर्वरक का अभाव पाया जाता है। किन्तु, सिंचाई की व्यवस्था कर कपास, चावल, गेहूँ का भी उत्पादन किया जा सकता है।

6. पर्वतीय मृदा :
पर्वतीय मृदा प्रायः पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलती है। यह मृदा अम्लीय और ह्यूमस रहित होते हैं। इस मृदा पर ढ़ालानों पर फलों के बगान एवं नदी-घाटी में चावल एवं आलू का लगभग सभी क्षेत्रों में उत्पादन किया जाता है।
भूमि उपयोग का बदलता स्वरूप

भूमि उपयोग के निम्नलिखित वर्ग हैं-
(क) वन विस्तार
(ख) कृषि अयोग्य बंजर भूमि
(ग) गैर-कृषि कार्य में संलग्न भूमि जैसे इमारत, सड़क, उद्योग इत्यादि।
(घ) स्थायी चारागाह एवं गोचर भूमि
(ङ) बाग-बगीचे एवं उपवन में संलग्न भूमि।
(च) कृषि योग्य बंजर भूमि, जिसका प्रयोग पाँच वर्षों से नहीं हुआ है।
(छ) वर्तमान परती भूमि।
(ज) वर्तमान परती के अतिरिक्त वह परती भूमि जहाँ 5 वर्षों से खेती नहीं हुई हो।
(झ) शुद्ध बोयी गयी भूमि।

भारत में भू-उपयोग के स्वरूप
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.8 लाख वर्ग किमी के मात्र 93 प्रतिशत भाग का ही भूमि-उपयोग का आँकड़ा उपलब्ध है। जम्मू-कश्मीर में पाक-अधिकृत तथा चीन अधिकृत भूमि का भू-उपयोग सर्वेक्षण नहीं हुआ है।
भारत पशुधन के मामले में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल किया जाता है। किन्तु, यहाँ स्थाई चारागाह के लिए बहुत कम भूमि उपलब्ध है जो पशुधन के लिए पर्याप्त नहीं है जिसके कारण पशुपालन पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है।
पंजाब और हरियाणा में कुल भूमि के 80 प्रतिशत भाग पर खेती की जाती है जबकि अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर एवं अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 10 प्रतिशत से कम क्षेत्र में खेती की जाती है।
किसी भी देश में पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए उसके कुल भू-भाग का 33 प्रतिशत वन होना चाहिए। लेकिन भारत में आज भी मात्र 20 प्रतिशत भू-भाग पर ही वनों का विस्तार है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है।

भू-क्षरण और भू-संरक्षण
मृदा को अपने स्थान से विविध क्रियाओं द्वारा स्थानांतरित होना भू-क्षरण कहलाता है। गतिशीत-जल, पवन, हिमानी और सामुद्रिक लहरों द्वारा भू-क्षरण होता है। तीव्र वर्षा से भी मृदा का कटाव होता है।

भमि निम्नीकरण- वह प्रक्रिया जिसमें भूमि खेती के अयोग्य बनती है, उसे भूमि निम्नीकरण कहते हैं। वनोन्मूलन, अति-पशुचारण, खनन, रसायनों का अत्यधिक उपयोग के कारण भूमि निम्नीकरण होता है।

उड़ीसा वनोन्मूलन के कारण भूमि-निम्नीकरण का शिकार हुआ है। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अत्यधिक पशुचारण के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक सिंचाई के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है। अधिक सिंचाई से जलाक्रांतता की समस्या पैदा होती है जिससे मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाती है जो भूमि के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी होते हैं।

भूमि निम्नीकरण आधुनिक मानव सभ्यता के लिए एक विकट समस्या है, इसका संरक्षण आवश्यक है।
गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि के लगातार उगाने से मृदा में ह्रास होता है। इसलिए तिलहन-दलहन पौधे लगाने से मृदा में उर्वरा शक्ति वापस लौट आती है।

पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च जुताई द्वारा मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि से मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। रसायन का उचित उपयोग कर मृदा संरक्षण को रोका जा सकता है। रसायनों के लगातार उपयोग से मृदा के पोषक तŸवों में कमी होने लगती है। ये पोषक तव जल, वायु, केंचुआ और अन्य शूक्ष्म जीव हो सकते हैं।

एंड्रीन नामक रसायन मेढ़क के प्रजनन पर रोक लगा देता है जिससे कीटों की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण फसलों की हानि होती है। रासायनिक उर्वरक की जगह जैविक खाद का उपयोग कर मृदा क्षरण को रोका जा सकता है।

मृदा क्षरण को रोकने के लिए वृक्षा रोपण महत्वपूर्ण है। वृक्ष के पियों से प्राप्त ह्युमस मृदा की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।

Read More – click here

 Prakritik Sansadhan Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

कक्षा 10 भूगोल भारत संसाधन एवं उपयोग – Bharat Sansadhan aur Upyog

Bharat Sansadhan aur Upyog

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ भारत संसाधन और उपयोग  (Bharat Sansadhan aur Upyog) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Bharat Sansadhan aur Upyog
Bharat Sansadhan aur Upyog

1. भारत : संसाधन एवं उपयोग
भूगोल के पिता- हिकेटियस

इरैटोस्थनिज ने सर्वप्रथम ज्योग्राफिका शब्द का प्रयोग किया।
युनानी विद्वान पाइथागोरस ने बताया कि पृथ्वी चपटी नहीं।
भूगोल-भूगोल पृथ्वी का वर्णन है।

अर्थात
ऐसा शास्त्र जिसमें पृथ्वी के ऊपरी स्वरूप और उसके प्राकृतिक विभागों जैसे- पहाड़, महादेश, देश, नगर, नदी, समुद्र, झील, वन आदि का अध्ययन करते हैं। भूगोल कहलाता है।

संसाधन का महत्व- उपयोग मे आनेवाली प्रत्येक वस्तुऐं संसाधन कहलाते हैं। भूमि, मृदा, जल और खनिज भौतिक संसाधन है तथा वनस्पति, वन्य-जीव तथा जलीय-जीव जैविक संसाधन हैं।
प्रसिद्ध भूगोलविद् जिम्मरमैन ने कहा था कि- ‘संसाधन होते नहीं, बनते हैं।’

संसाधन के प्रकारः- उत्त्पति के आधार पर संसाधन के दो प्रकार होते हैं :

1.जैव संसाधनः- ऐसे संसाधन जिसकी प्राप्ति जैव मंडल से होती हैं। उसे जैव संसाधन कहते हैं। जैसे- मनुष्य, वनस्पती, मत्स्य, पशुधन एवं अन्य प्राणी समुदाय।

2.अजैव संसाधनः- निर्जीव वस्तुओं के समुह को अजैव संसाधन कहते हैं। जैसे- चट्टानें, धातु एवं खनिज आदि।उपयोगिता के आधार पर संसाधन के दो प्रकार होते हैं-

नवीकरणीय संसाधनः- वैसे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रिया द्वारा नवीकृत या पुनः प्राप्त किए जा सकते हैं। उसे नवीकरणीय संसाधन कहते हैं। जैसे- सौर-उर्जा, पवन उर्जा, जल-विद्युत, वन एवं वन्य प्राणी।

अनवीकरणीय संसाधनः– ऐसे संसाधन जिन्हें उपयोग के पश्चात् पुनः प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उसे अनवीकरणीय संसाधन कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम आदि।स्वामित्व के आधार पर संसाधन के चार प्रकार होते हैं-

व्यक्तिगत संसाधन- ऐसे संसाधन जो किसी खास व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र मे होता हैं, उसे व्यक्तिगत संसाधन कहते हैं। जैसे- भूखंड, घर, बाग-बगिचा, तालाब, कुँआ इत्यादि।

सामुदायिक संसाधन- ऐसे संसाधन किसी खास समुदाय के अधिकार क्षेत्र में होता है। उसे सामुदायिक संसाधन कहते हैं। जैसे- गाँव में चारण-भूमि, श्मशान, मंदिर या मस्जिद परिसर, समूदायिक भवन, तालाब, खेल के मैदान आदि।

राष्ट्रीय संसाधन- देश या राष्ट्र के अंतर्गत सभी उपलब्ध संसाधन को राष्ट्रीय संसाधन कहते हैं। जैसे- सड़क, स्कूल, कॉलेज आदि।

अंतर्राष्ट्रीय संसाधन- ऐसे संसाधन जिसका नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय संस्था करती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय संसाधन कहते हैं। तटरेखा से 200km दूरी छोड़कर खुले महासागरीय संसाधन अंतर्राष्ट्रीय संसाधन होते हैं।
विकास के स्तर पर संसाधन चार प्रकार के होते हैं-

संभावी संसाधनः- ऐेसे संसाधन जो किसी क्षेत्र विशेष में मौजूद होते हैं, जिसे उपयोग में लाए जाने की संभावना होती है। उसे संभावी संसाधन कहते हैं। जैसे- हिमालयी क्षेत्र के खनिज, जिनका उत्खनन अिधक गहराई मे होने के कारण दुर्गम एवं महँगा हैं। उसी प्रकार राजस्थान एवं गुजरात क्षेत्र में पवन और सौर्य ऊर्जा आदि।

विकसित संसाधनः- ऐसे संसाधन जिसका सर्वेक्षण के पश्चात् उपयोग हेतु मात्रा एवं गुणवत्ता का निर्धारण हो चुका हैं, उसे विकसित संसाधन कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम आदि।

भंडार ससाधनः- ऐसे संसाधन पर्यावरण में उपलब्ध होते हैं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हैं। जिन्हें उच्च तकनीक से उपयोग में ला सकते हैं, उसे भंडार संसाधन कहते हैं। जैसे- जल, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन का यौगिक है जिसमें ऊर्जा उत्पादन की असीम क्षमता छिपी हुई हैं। लेकिन उच्च तकनीक के अभाव में ऐसे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।

संचित कोष संसाधनः- ऐसे संसाधन भंडार संसाधन के ही अंश हैं, जिसे उपलब्ध तकनीक के आधार पर प्रयोग में लाया जा सकता हैं इनका तत्काल उपयोग प्रारंभ नही हुआ है। यह भविष्य की पूँजी है। जैसे- नदी जल भविष्य में जल विद्युत उत्पन्न करने में उपयुक्त हो सकते हैं।

संसाधन नियोजनः- संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग ही संसाधन नियोजन है। संसाधन नियोजन किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक होता है। भारत जैसे देश के लिए तो यह अनिवार्य है।

भारत में संसाधन नियोजनः- संसाधन-नियोजन एक जटिल प्रक्रिया है।
संसाधन नियोजन के सोपानों को निम्न रूप मेंं बाँटकर अध्ययन किया जाता है।
(क) देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कराने के लिए सर्वेक्षण कराना।
(ख) सर्वेक्षण के बाद मानचित्र तैयार करना एवं संसाधनों का गुणात्मक एवं मात्रात्मक आधार पर मापन या आकलन करना।
(ग) संसाधन-विकास योजनाओं को मूर्त्त-रूप देने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी कौशल एवं संस्थागत, नियोजन की रूप रेखा तैयार करना।
(घ) राष्ट्रीय विकास योजना एवं संसाधन विकास योजनाओं के मध्य समन्वय स्थापित करना।

संसाधनों का संरक्षणः सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में संसाधनों की अहम भूमिका होती है। किंतु संसाधनों का अविवेकपूर्ण या अतिशय उपयोग विविध प्रकार के

सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म देते हैं।

संसाधनों का नियोजित एवं विवेकपूर्ण उपयोग ही संसाधन संरक्षण कहलाता है।

सतत् विकास की अवधारणाः संसाधन मनुष्य के जीवन का आधार है। जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए ससाधानों के सतत् विकास की अवधारणा अत्यावश्यक है। ‘संसाधन प्रकृति के द्वारा उपहार है’ की अवधारणा के कारण मानव ने इनका अंधा-धुंध दोहन किया, जिसके कारण पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो गई हैं।
स्वार्थ के वशीभूत होकर संसाधनों का विवेकहीन दोहन किया गया।

संसाधनों के विवेकहीन दोहन से भूमंडलीय-तापन, ओजोन क्षय, पर्यावरण-प्रदूषण, मृदा-क्षरण, भूमि-विस्थापन, अम्लीय-वर्षा, असमय ऋतु-परिवर्तन जैसी संकट पृथ्वी पर आ गई है। अगर ऐसे ही संसाधनों का दोहन चलता रहा, तो पृथ्वी का जैव संसार विनाश हो जाएगा।

जीवन लौटाने के लिए संसाधनों का नियोजित उपयोग होना आवश्यक है। इससे पर्यावरण को बिना क्षति पहुंचायें, भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर, वर्त्तमान विकास को कायम रखा जा सकता है। ऐसी धारणा ही सतत् विकास कही जाती है। इससे वर्त्तमान विकास के साथ भविष्य भी सुरक्षित रह सकता है।

Read More – click here

Bharat Sansadhan aur Upyog Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here