Bharat Me Rastravad – भारत में राष्ट्रवाद कक्षा 10 इतिहास

Bharat Me Rastravad

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History) के पाठ 4 ( Bharat Me Rastravad ) “भारत में राष्ट्रवाद” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में भारत में राष्‍ट्रवादी आंदोलन बताया गया है ।

Bharat Me Rastravad

4. भारत में राष्ट्रवाद ( Bharat Me Rastravad )

भारत में राष्ट्रवाद (Bharat Me Rastravad) के उदय के कारणः

राजनीतिक कारण

भारत में राष्ट्रवाद (Bharat Me Rastravad) : 19वीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रीय चेतना का उदय मुख्य रूप से अंग्रजी शासन व्यवस्था का परिणाम था।

भारत में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में विभिन्न कारणों का योगदान रहा परन्तु सभी किसी-न-किसी रूप में ब्रिटेन सरकार की प्रशासनिक नीतियों से संबंधित थी।

  • 1878 ई॰ में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन ने ‘वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट‘ पारित कर प्रेस पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया।
  • 1879 में ‘आर्म्स एक्ट‘ के द्वारा भारतीयों के लिए अस्त्र-शस्त्र को रखना गैर कानूनी घोषित कर दिया गया।
  • 1883 में ‘इलबर्ट बिल‘ का पारित होना। इस बिल का उद्देश्य भारतीय और यूरोपीय व्यक्तियों के फौजदारी मुकदमों की सुनवाई सामान्य न्यायालय में करना था और उस विशेषाधिकार को समाप्त करना था, जो यूरोप के निवासियों को अभी तक प्राप्त था और जिसके अर्न्तगत उनके मुकदमें सिर्फ यूरोपीय जज ही सुन सकते थे। यूरोपीय जनता ने इसका विरोध किया जिसके कारण सरकार को इस बिल को वापस लेना पड़ा।
  • 1899 में लार्ड कर्जन ने ‘कलकत्ता कॉपरेशन‘ एक्ट पारित किया जिसमें नगर पालिका में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में कमी और गैर निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई।
  • 1904 में विश्वविद्यालय अधिनियम द्वारा विश्वविद्यालय पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया जाना।
  • 1905 में बंगाल विभाजन कर्जन के द्वारा सम्प्रदायिकता के आधार पर कर देना।
  • 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट पारित कर उत्ते‍जित लेख  छापने वाले को दंडित करना।

आर्थिक कारण

  • नकदी फसलों की उगाही अपनी मनमानी किमतों पर करना।
  • उद्योग क्षेत्रों में मजदूरों, कामगारों को मुसीबतों का सामना करना
  • 1882 में सूती वस्त्रों पर से आयात शुल्क हटा लेना।
  • भारत में औद्योगीकरण की समस्या।
  • अधिक भू-राजस्व (लगान) वसुलना।

सामाजिक कारण

  • अंग्रेजों के द्वारा भारतीयों को हेय दृष्टि से देखना।
  • रेलगाड़ी में, क्लबों में, सड़कों पर और होटलों में अंग्रेज भारतीय के साथ दुर्व्यवहार करना।
  • इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों के साथ भेद-भाव करना।

धार्मिक कारण

  • धर्मसुधार आंदोलन
  • धर्म के प्रति लोगों में निष्ठा की भाव को जागृत करना।
  • बहुत सारे धर्म सुधारकों ने एकता, समानता एवं स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाना।
  • प्रथम विश्वयुद्ध के कारण और परिणाम का भारत से अंतर्सम्बन्ध
  • तिलक और गांधी जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रयासों में हर संभव सहयोग दिया, क्योंकि उन्हें सरकार के स्वराज सम्बन्धी आश्वासन पर पूरा भरोसा था।
  • युद्ध के आगे बढ़ने के साथ ही भारतीयों का भ्रम टूटा।
  • 1915-17 के बीच एनी बेसेन्ट और तिलक ने आयरलैण्ड से प्रेरित होकर भारत में होमरूल लीग आंदोलन आरंभ किया।
  • तीन सफल सत्याग्रह चम्पारण, खेड़ा और अहमदाबाद आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ।

प्रभाव

  • बेरोजगारी
  • महंगाई
  • विदेशी वस्तुओं पर आयात शुल्क का कम करना।
  • रौलेट एक्ट का पारित होना।
  • भारत में राष्ट्रवाद का उदय।
  • खिलाफत आंदोलन की शुरूआत।
  • राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीवादी चरण।

रॉलेट एक्ट : बढ़ती हुई क्रांतिकारी घटनाओं एवं असंतोष को दबाने के लिए लार्ड चेम्सफोर्ड ने न्यायाधीस सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की।

समिति की अनुशंसा पर 25 मार्च, 1919 ई॰ को रॉलेट एक्ट पारित हुआ। इसके अर्न्तगत एक विशेष न्यायालय के गठन का प्रावधान था जिसके निर्यण के विरूद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती थी। किसी व्यक्ति को अमान्य साक्ष्य और बिना वारंट के भी गिरफ्तार किया जा सकता था।

जालियांवाला बाग हत्याकांड :

  • रॉलेट एक्ट के विरोध में 6 अप्रैल, 1919 ई॰ को देशव्यापी हड़ताल के बाद 9 अप्रैल, 1919 ई॰ को दो स्थानीय नेताओं डॉ॰ सत्यपाल एवं किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया।
  • इनके गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल, 1919 ई॰ को जालियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा बुलाई गई थी। जहाँ जिला मजिस्ट्रेट जनरल ओ डायर ने बिना किसी चेतावनी के शांतिपूर्वक चल रही सभा पर गोलियां चलाकर 1000 लोगों की हत्या कर दी। बहुत से लोग घायल भी हुए। इस घटना को जालियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है।

खिलाफत आंदोलन

  • इस्लाम के प्रमुख को ‘खलिफा‘ कहा जाता था।
  • मुस्लमान ‘खलिफा‘ को धार्मिक और अध्यात्मिक नेता मानते थे।
  • ऑटोमन साम्राज्य का शासक तुर्की का सुल्तान इस्लामिक संसार का खलिफा हुआ करता था।
  • प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के खिलाफ तुर्की के पराजय के फलस्वरूप ऑटोमन साम्राज्य को विघटित कर दिया गया।
  • तुर्की के सुल्तान को अपने शेष प्रदेशों में भी अपनी सत्ता के प्रयोग से वंचित कर दिया गया।
  • 1920 के प्रारंभ में भारतीय मुसलमानों ने तुर्की के प्रति ब्रिटेन की अपनी नीति बदलने के लिए बाध्य करने हेतु जोरदार आंदोलन प्रारंभ किया जिसे ‘खिलाफत आंदोलन‘ कहा जाता है।
  • भारत के मुस्लमान तुर्की के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार के कारण खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की।
  • खिलाफत आंदोलन अली बन्धुओं ( शौकत अली और मोहम्मद अली ) ने प्रारंभ किया था।
  • नवम्बर 1919 में महात्मा गाँधी अखिल भारतीय खिलाफत आंदोलन के अध्यक्ष बने।
  • महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन (दिसम्बर 1919) में समर्थन पाकर यह आन्दोलन काफी सशक्त हो गया।
  • गांधी जी ने इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के महान अवसर के रूप में देखा। (Bharat Me Rastravad)

तीन सूत्री माँग पत्र :

  • तुर्की के सुलतान ( खलिफा ) को पर्याप्त लौकिक अधिकार प्रदान किया जाए ताकि वह इस्लाम की रक्षा कर सके।
  • अरब प्रदेश को मुस्लिम शासन ( खलिफा ) के अधीन किया जाए।
  • खलिफा को मुस्लमानों के पवित्र स्थलों का संरक्षक बनाया जाए।

17 अक्टूबर 1919 ई॰ को पूरे भारत में खिलाफत दिवस मनाया गया।

असहयोग आन्दोलन ( 1920-22 )

असहयोग आंदोलन के कारण:

  • खिलाफत का मुद्दा।
  • पंजाब में सरकार की बर्बर कार्रवाइयों के विरूद्ध न्याय प्राप्त करना।
  • स्वराज प्राप्ति करना।
  • 1 अगस्त, 1920 ई॰ को महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई।

12 फरवरी, 1922 को गांधीजी के निर्णनयानुसार आन्दोलन को स्थगित कर दिया गया।

इस आंदोलन में दो तरह के कार्यक्रम को अपनाया गया।

  • अंग्रेजी सरकार को कमजोर करने और नैतिक रूप से पराजित करने के लिए उपाधियों और अवैतनिक पदों का त्याग करना, सरकारी और गैर सरकारी समारोहों का बहिष्कार करना, सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार करना, विधान परिषद के चुनावों का बहिष्कार, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ-साथ मेसोपोटामिया में नौकरी से इन्कार करना शामिल था।
  • न्यायालय के स्थान पर पंचों का फैसला मानना, राष्ट्रीय विद्यालयों एवं कॉलेजों की स्थापना, स्वदेशी को अपनाना, चरखा खादी को लोकप्रिय बनाना।
  • आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय विद्यालयों, जामिया मिलिया इस्लामिया, अलिगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ जैसी शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना हुई
  • मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास जैसे बड़े-बड़े बैरिस्टर ने अपनी चलती वकालत छोड़कर आंदोलन में नेतृत्व प्रदान किया। प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत 17 नवम्बर, 1921 को मुम्बई में राष्ट्रव्यापी हड़ताल के साथ किया गया।
  • सरकार ने आंदोलन को गैर कानूनी करार देते हुए लगभग 30000 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार किया।
  • गिरफ्तारी के विरोध में गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की धमकी दी।
  • उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में राजनितिक जुलूस पर पुलिस द्वारा फायरिंग के विरोध में भीड़ ने थाना पर हमला करके 5 फरवरी, 1922 ई॰ को 22 पुलिसकर्मियों की जान ले ली।
  • 12 फरवरी, 1922 को गाँधीजी के निर्णनयानुसार आन्दोलन को स्थगित कर दिया गया।
  • गाँधीजी को ब्रिटिश सरकार द्वारा मार्च, 1922 ई॰ में गिरफ्तार करके 6 वर्षों के कारावास की सजा दी गई। (Bharat Me Rastravad)

परिणाम :

  • असहयोग आंदोलन के अचानक स्थगित हो जाने और गांधीजी की गिरफ्तारी के कारण खिलाफत के मुद्दे का भी अंत हो गया।
  • हिन्दु-मुस्लिम एकता भंग हो गई तथा सम्पूर्ण भारत में साम्प्रदायिकता का बोलबाला हो गया।
  • न ही स्वराज की प्राप्ति हुई और न ही पंजाब के अन्यायों का निवारण हुआ।
  • इन असफलताओं के बावजूद इस आंदोलन ने महान उपलब्धि हासिल की।
  • कांग्रेस और गांधी में सम्पूर्ण भारतीय जनता का विश्वास जागृत हुआ।
  • समूचा देश पहली बार एक साथ आंदोलित हो उठा।
  • चरखा एवं करघा को भी बढ़ावा मिला।

सविनय अवज्ञा आंदोलन

  • गाँधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत दांडी यात्रा से की।
  • 12 मार्च, 1930 ई॰ को साबरमती आश्रम से अपने 78 अनुयायियों के साथ दांडी समुद्र तट तक ऐतिहासिक यात्रा शुरु की।
  • 24 दिनों में 250 किलोमीटर की पदयात्रा के पश्चात् 5 अप्रैल को वे दांडी पहुँचे।
  • 6 अप्रैल को समुद्र के पानी से नमक बनाकर कानुन का उल्लंघन किया।

आंदोलन का कार्यक्रम-

  • हर जगह नमक कानुन का उल्लघंन किया जाना।
  • छात्रों स्कूल एवं कॉलेजों का बहिष्कार करना।
  • विदेशी कपड़ों को जलाया जाना चाहिए।
  • सरकार को कोई कर नहीं अदा किया जाना चाहिए।
  • औरतों को शराब के दुकानों के आगे धरना देना चाहिए।
  • वकील अदालत छोडें तथा सरकारी कर्मचारी पदत्याग करें।
  • हर घर में लोग चरखा काटें तथा सूत बनायें।
  • इन सभी कार्यक्रमों में सत्य एवं अहिंसा को सर्वोपरि रखा जाए तभी पूर्ण स्वराज की प्राप्ति हो सकती है।

गांधी-इरविन पैक्ट :

  • सविनय अवज्ञा आंदोलन की व्यापकता ने अंग्रेजी सरकार को समझौता करने के लिए बाध्य किया।
  • सरकार को गांधी के साथ समझौता करनी पड़ी। जिसे ‘गांधी-इरविन पैक्ट‘ के नाम से जाना जाता है। इसे ‘दिल्ली समझौता‘ के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह समझौता 5 मार्च, 1931 को गांधीजी और लार्ड इरविन के बीच हुई।
  • इसके तहत गांधी जी ने आंदोलन को स्थगित कर दिया तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने हेतु सहमत हो गए।
  • गांधीजी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया, परन्तु वहाँ किसी भी मुद्दे पर सहमति नहीं बन सकी। अतः वह निराश वापस लौट गए।
  • दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने दमन का सिलसिला तेज कर दिया था। तब गांधीजी ने दुबारा सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रारंभ किया।
  • इसमें पहले जैसा धार एवं उत्साह नहीं था, जिससे 1934 ई॰ में आंदोलन पूरी तरह वापस ले लिया।

चम्पारण आन्दोलन

  • बिहार के नील उत्पादक किसानों की स्थिति बहुत दयनीय थी।
  • यहाँ नीलहे गोरों द्वारा तीनकठिया व्यवस्था प्रचलित थी, जिसमें किसानों के अपने भूमि के 3/20 हिस्से पर खेती करनी पड़ती थी। यह समान्यतः उपजाऊ भूमि होती थी।
  • किसान नील की खेती करना नहीं चाहते थे क्योंकि इससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती थी।
  • 1908 में तीनकठिया व्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश की थी, परन्तु इससे किसानों की गिरती हुई हालत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
  • नीलहों के इस अत्याचार से किसान त्रस्त थे।
  • इसी समय 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में चम्पारण के ही एक किसान राजकुमार शुक्ल ने सबका ध्यान समस्या की ओर आकृष्ट कराया तथा महात्मा गांधी को चम्पारण आने का अनुरोध किया।
  • किसानों की माँग को लेकर 1917 में महात्मा गाँधी ने चंपारण आंदोलन की शुरुआत की।
  • गांधीजी के दबाव पर सरकार ने ‘चम्पारण एग्रेरीयन कमेटी‘ का गठन किया। गांधीजी भी इस कमेटी के सदस्य थे।
  • इस कमेटी के सिफारिश पर ब्रिटीश सरकार ने किसानों पर से तीनकठिया व्यवस्था और अन्य कर भी समाप्त कर दिया।

खेड़ा आन्दोलन

  • गुजरात के खेड़ा जिला में किसानों ने लगान माफी के लिए आंदोलन चलाया।
  • महात्मा गाँधी ने लगान माफी के लिए किसानों की माँग का समर्थन किया क्योंकि 1917 में अधिक बारिस के कारण खरिफ की फसल को व्यापक क्षति पहुँची थी।
  • लगान कानुन के अन्तर्गत ऐसी स्थिति में लगान माफी का प्रावधान नहीं था।
  • 22 जून, 1918 को यहाँ गाँधीजी ने सत्याग्रह का आह्वान किया, जो एक महीने तक जारी रहा।
  • इसी बीच रबी की फसल होने तथा सरकार द्वारा भी दमनकारी उपाय समाप्त करने से स्थिति काफी बदली और गाँधीजी ने सत्याग्रह समाप्त करने की घोषणा कर दी।
  • इस सत्याग्रह के द्वारा गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र में भी किसानों में अंग्रेजों की शोषण मूलक कानूनों का विरोध करने का साहस जगा।

मोपला विद्रोह

  • आधुनिक केरल राज्य के मालाबार तट पर किसानों का एक बड़ा विद्रोह हुआ, जिसे मोपला विद्रोह कहा जाता है।
  • मोपला स्थानिय पट्टेदार और खेतिहर थे, जो इस्लाम धर्म के अनुयायी थे, जबकि स्थानीय ‘नम्बूदरी‘ एवं ‘नायर‘ भू-स्वामी उच्च जातीय हिन्दू थे।
  • अन्य भू-स्वामीयों की तरह उन्हें भी सरकारी संरक्षण प्राप्त था और पुलिस एवं न्यायालय इनका समर्थन करती थी।
  • 1921 में एक नयी स्थिति उत्पन्न हुई जब कांग्रेस ने किसानों के हित में भूमि एवं राजस्व सुधारों की मांग की और खिलाफत आंदोलन को समर्थन दे दिया।
  • इस नई स्थिति से उत्साहित हो कर मोपला विद्रोहियों ने एक धार्मिक नेता अली मुसालियार को अपना राजा घोषित कर दिया और सरकारी संस्थाओं पर हमले आरंभ कर दिए।
  • परिस्थिति की गंभिरता को देखते हुए अक्टूबर 1921 में विद्रोहियों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई आरम्भ हूयी।
  • दिसम्बर तक दस हजार से अधिक विद्रोही मारे गए और पचास हजार से अधिक बन्दी बना लिए गए।
  • इस प्रकार यह विद्रोह धीरे-धीरे समाप्त हो गया।

बारदोली सत्याग्रह

  • फरवरी 1928 ई॰ में गुजरात के बारदोली ताल्लुका में लगान वृद्धि के खिलाफ किसानों में असंतोष की भावना जागृत हुई।
  • सरकार द्वारा गठित ‘बारदोली जाँच आयोग‘ की सिफारिशों से भी किसान असंतुष्ट रहे और उन्होंने सरकार के निर्णय के विरूद्ध आंदोलन छेड़ा।
  • इसमें सरदार बल्लभ भाई पटेल की निर्णायक भूमिका रही। इसी अवसर पर उन्हें सरदार की उपाधि दी गई।
  • किसानों के समर्थन में बम्बई में रेलवे हड़ताल हुयी।
  • के॰ एम॰ मुंशी और लालजी नारंगी ने आंदोलन के समर्थन में बम्बई विधान परिषद् की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।
  • सरकार को ब्लूमफील्ड और मैक्सवेल के नेतृत्व में नई जाँच समिति का गठन करना पड़ा।
  • नई जाँच समिति ने इस वृद्धि को अनुचित माना।
  • अन्ततः सरकार को लगान की दर कम करनी पड़ी।
  • यह आंदोलन सफल ढंग से सम्पन्न हुआ।

मजदूर आन्दोलन

  • यूरोप में औद्योगीकरण और मार्क्सवादी विचारों का प्रभाव भारत में भी पड़ा, जिसके फलस्वरूप औद्योगिक प्रगति के साथ-साथ मजदूर वर्ग में चेतना जागृत हुयी।
  • 1917 में अहमदाबाद में प्लेग की महामारी के कारण मजदूरों को शहर छोड़कर जाने से रोकने के लिए मिल मालिकों ने उनके वेतन में वृद्धि कर दी, लेकिन महामारी खत्म होने पर समाप्त कर दी गई।
  • 1920 को कांग्रेस पार्टी ने ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस‘ की स्थापना की।
  • राष्ट्रीय आंदोलन में मजदूरों का समर्थन जारी रहा। (Bharat Me Rastravad)

जनजातीय आंदोलन

  • 19वीं शताब्दी की तरह 20वीं शताब्दी में भारत के अनेक भागों में आदिवासी आंदोलन होते रहे।
  • जैसे 1916 के रम्पा विद्रोह, 1914 के खोंड विद्रोह, 1914 से 1920 ई. तक जतरा भगत के नेतृत्व के कई विद्रोह हुए।

भारतीय राजनीतिक दल

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ऐलेन ऑक्ट्रोवियन ह्यूम ने किया।
  • इसके प्रथम अध्यक्ष व्योमेशचन्द्र बनर्जी थे।
  • इसकी स्थापना 1885 ई. में हुई।

वामपंथ/कम्युनिस्ट पार्टी

  • 1920 ई. में एम. एन. राय ने ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।

मुस्लिम लीग :

  • सर आगा खां के नेतृत्व में 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की नींव रखी।
  • ढाका में 30 सितम्बर 1906 को एक सम्मेलन बुलाया गया जहाँ इसका नाम बदलकर ‘ऑल इंडिया मुस्लिम लीग‘ रखा गया।
  • इसका उद्देश्य मुसलमानों को सरकारी सेवाओं में उचित अनुपात में स्थान दिलाना एवं न्यायाधीशों के पदों पर भी मुसलमानों को जगह दिलाना।

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हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन कक्षा 10 इतिहास – Hind Chin me Rashtrawadi Andolan

Hind Chin me rastrawadi andolan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History) के पाठ 3 ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan ) “हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में हिन्‍द चिन्‍ह में राष्‍ट्रवादी आंदोलन के बारे में बताया गया है ।

Hind Chin me rastrawadi andolan

3. हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

राष्ट्रवाद- राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है जो किसी विषेश भौगोलिक, सांस्कृतिक या सामाजिक परिवेश में रहने वाले लोगों में एकता का वाहक बनती है।

अर्थात्

राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे ख़ुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं।

राष्ट्रवाद का अर्थ- राष्ट्र के प्रति निष्ठा या दृढ़ निश्चय या राष्ट्रीय चेतना का उदय,  उसकी प्रगति और उसके प्रति सभी नियम आदर्शों को बनाए रखने का सिद्धांत।

अर्थात्

अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना को राष्ट्रवाद कहते हैं।

3. हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

  • दक्षिण-पूर्व एशिया में फैला एक प्रायद्वीपीय क्षेत्र, जिसका क्षेत्रफल 2.80 लाख वर्ग कि.मी. है, जिसमें आज के वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के क्षेत्र आते हैं।
  • वियतनाम के तोंकिन एवं अन्नाम कई शताब्दीयों तक चीन के कब्जे में रहा तथा दूसरी तरफ लाओस-कम्बोडिया पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव था।
  • चौथी शताब्दी में कम्बुज भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र था।
  • 12वीं शताब्दी में राजा सुर्यवर्मा द्वितीया ने अंकोरवाट का मंदिर का निर्माण करवाया था, परन्तु 16वीं शताब्दी में कंबुज का पतन हो गया था।
  • इस प्रकार कुछ देशों पर चीन एवं कुछ देशों पर हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण ही यह हिन्द-चीन के नाम से जाना गया।
  • दक्षिण-पूर्व एशिया में फैला एक प्रायद्वीपीय क्षेत्र, जिसका क्षेत्रफल 2.80 लाख वर्ग कि.मी. है, जिसमें आज के वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के क्षेत्र आते हैं।
  • वियतनाम के तोंकिन एवं अन्नाम कई शताब्दीयों तक चीन के कब्जे में रहा तथा दूसरी तरफ लाओस-कम्बोडिया पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव था।
  • चौथी शताब्दी में कम्बुज भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र था।

व्यापारिक कंपनियों का आगमन और फ्रांसीसी प्रभुत्व

1498 ई. में वास्कोडिगामा ने भारत से जुड़ने की चाह में समुद्री मार्ग खोज निकाला तब पुर्तगाली ही पहले व्यापारी थे। पुर्तगाली व्यापारियों ने 1510. में मलक्का को व्यापारिक केन्द्र बना कर हिन्द-चीनी देशों के साथ व्यापार शुरु किया था। उसके बाद स्पेन, डच, इंगलैंड और फ्रांसीसीयों का आगमन हुआ।

इन कंपनियों में फ्रांसीसियों को छोड़कर किसी ने इन भू-भागों पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व कायम करने का प्रयास नहीं किया, लेकिन फ्रांस शुरु से ही इस दिशा में प्रयासरत था।

20वीं शताब्दी के आरंभ तक सम्पूर्ण हिन्द-चीन फ्रांस की अधीनता में आ गया।

फ्रांस द्वारा उपनिवेश स्थापना के उद्देश्य

फ्रांस द्वारा हिन्द-चीन को अपना उपनिवेश बनाने का उद्देश्य डच एवं ब्रिटिश कंपनियों के व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना था।

औद्योगीकरण के लिए कच्चे मालों की आपूर्ति उपनिवेशों से होती थी एवं उत्पादित वस्तुओं के लिए बाजार भी उपलब्ध था।

पिछड़े समाजों को सभ्य बनाना विकसित यूरोपीय राज्यों का स्वघोषित दायित्व था।

एकतरफा अनुबंध व्यवस्था- एक तरफा अनुबंध व्यवस्था एक तरह की बंधुआ मजदूरी थी। वहाँ मजदूरों को कोई अधिकार नहीं था, जबकि मालिक को असिमित अधिकार था।

हिन्द-चीन में बसने वाले फ्रांसीसी को कोलोन कहे जाते थे।

हिन्द-चीन में राष्ट्रीयता का विकास

हिन्द-चीन ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan ) में फ्रांसीसी उपनिवेशवाद को समय-समय पर विद्रोहों का सामना तो प्रारंभिक दिनों से ही झेलना पड़ रहा था, परन्तु 20वीं शताब्दी के शुरू में यह और मुखर होने लगा।

1930. में ‘फान-बोई-चाऊ‘ नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की जिसके नेता कुआंग दें थे।

फान बोई चाऊ ने ‘द हिस्ट्री ऑफ लॉस ऑफ वियतनाम‘ लिखकर हलचल पैदा कर दी।

सन्यात सेन के नेतृत्व में चीन में सत्ता परिवर्तन ने हिन्द-चीन के छात्रों ने प्रेरित होकर वियेतनाम कुवान फुक होई ( वियतनाम मुक्ति एशोसिएशन ) की स्थापना की।

1914 ई. में देशभक्तों ने वियतनामी राष्ट्रवादी दल नामक संगठन बनाया।

चीन का हिन्द-चीन के कृषि उत्पाद, व्यापार एवं मत्स्य व्यापार पर नियंत्रण था फिर भी ये मुख्य राजनिति से अलग रहते थे।

इसी कारण जनता ने इनसे क्रुद्ध होकर 1919 में चीनी-बहिष्कार आंदोलन किया था।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद कुछ उदारवादी नीतियाँ अपनाई गई।

कोचीन-चीन के लिए एक प्रतिनिधि सभा का गठन किया गया और उसके सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था की गयी थी।

1917 ई० में “न्यूगन आई क्वोक“ (हो-ची मिन्ह) नामक एक वियतनामी छात्र ने पेरिस मे ही साम्यवादियो का एक गुट बनाया।

हो-ची मिन्ह शिक्षा प्राप्त करने मास्को गया और साम्यवाद से प्रेरित होकर 1925 में ‘वियतनामी क्रांतिकारी दल‘ की गठन किया।

1930 के दशक की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने भी राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध और वियतनामी स्वतंत्रता

जून 1940 ई० में फ्रांस जर्मनी से हार गया और फ्रांस में जर्मन समर्थित सत्ता कायम हो गयी।

उसके बाद जापान ने पूरे हिन्द-चीन पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व जमा लिया।

हो-ची-मिन्ह के नेतृत्व में देश भर के कार्यकर्ताओं ने ‘वियतमिन्ह‘ ( वियतनाम स्वतंत्रता लीग ) की स्थापना कर पीड़ित किसानों, बुद्धिजीवियों, आतंकित व्यापारियों सभी को शामिल कर छापामार युद्ध नीति का अवलंबन (अपनाना) किया।

1944 में फ्रांस जर्मनी के अधिपत्य से निकल गया तथा जापान पर परमाणु हमला के पश्चात् जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया।

इस स्थिति में जापान की सेनाएँ वियतनाम से निकलने लगी और फ्रांस के पास इतनी शक्ति नहीं थी कि खुद को पुनः हिन्द-चीन में स्थापित रख सके।

इसका लाभ उठाते हुए वियतनाम के राष्ट्रवादियों ने वियतमिन्ह के नेतृत्व में लोकतंत्रीय गणराज्य की स्थापना 2 सितम्बर 1945 ई. को करते हुए वियतनाम की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी, इस सरकार का प्रधान हो-ची-मिन्ह बनाए गए।

हिन्द चीन के प्रति फ्रांसीसी नीति

फ्रांस हिन्द-चीन में अपने डूबे सम्राज्य को बचाना चाहता था।

अतः उसने एक नये औपनिवेशिक तंत्र की योजना बनाई।

फ्रांस ने घोषणा की कि ’फ्रांस के विशाल सम्राज्य को एक यूनियन बना दिया जाएगा, जिसमें अधिनस्थ उपनिवेश शामिल रहेगें’।

इस महासंघ का एक अंग हिन्द-चीन भी होगा।

जापानी सेनाओ के हटते ही, फ्रांसीसी सेना जैसे ही सैगान पहुँची वियतनामी छापामारो ने भयंकर युद्ध किया और फ्रांसीसी सेना सैगान में ही फंसी रही।

अंततः 6 मार्च 1946 को हनोई-समझौता फ्रांस एवं वियतनाम के बीच हुआ जिसके तहत फ्रांस ने वियतनाम को गणराज्य के रूप में स्वतंत्र इकाई माना, साथ ही माना गया कि यह गणराज्य हिन्द चीन संघ में रहेगा और हिन्द चीन संघ फ्रांसीसी यूनियन में रहेगा।

फ्रांस ने कोचीन चीन में एक पृथक सरकार स्थापित कर लिया जिससे हनोई समझौता टूट गया। फ्रांस को कुछ वियतनामी प्रतिक्रियादी ताकतों का समर्थन मिल गया जिनके सहयोग से नवगठित सरकार चलने लगी।

अब तक हो ची मिन्ह की ताकत इतनी नहीं हुई थी कि फ्रांसीसी सेना का प्रत्यक्ष मुकाबला कर सके। अतः पुनः गुरिल्ला युद्ध शुरू हो गया।

इसी क्रम में गुरिल्ला सैनिकों ने दिएन-विएन-फु पर भयंकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में फ्रांस बुरी तरह हार गया।

फ्रांस के लगभग 16000 सैनिकों को आत्म समर्पण करना पड़ा। इस तरह दिएन-विएन-फु पर साम्यवादियों का अधिकार हो गया।

अमेरकी हस्तक्षेप

अमेरिका जो अब तक फ्रांस का समर्थन कर रहा था, ने हिन्द-चीन में हस्तक्षेप की नीति अपनायी। साम्यवादियों के विरोध में इसकी घोषणा भी कर दी।

1954 में हिन्द-चीन समस्या पर एक वार्ता बुलाया गया, जिसे जेनेवा समझौता के नाम से जाना जाता है।

जेनेवा समझौता ने पूरे वियतनाम को दो हिस्सों में बाँट दिया।

हनोई नदी से सटे उत्तर के क्षेत्र उत्तरी वियतनाम और उससे दक्षिण में दक्षिणी वियतनाम अमेरिका समर्थित सरकार को दे दिया।

जेनेवा समझौता के तहत लाओस और कम्बोडिया को वैध राजतंत्र के रूप में स्वीकार किया गया।

लाओस में गृह-युद्ध

जेनेवा समझौता के तहत लाओस और कम्बोडिया को पूर्ण स्वतंत्र देश मान लिया गया। ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

जेनेवा समझौता के क्रियान्वयन की देखभाल करने के लिए एक त्रिसदस्यीय अंतराष्ट्रीय निगरानी आयोग का गठन किया गया, जिसके सदस्य भारत, कनाडा एवं पोलैण्ड थे।

25 दिसम्बर 1955 को लाओस में चुनाव के बाद राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ और सुवन्न फूमा के नेतृत्व में सरकार बनीं।

लाओस में तीन भाईयों के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष चालु हो गया तथा भयंकर गृहयुद्ध शुरू हो गया।

लाओस के गृह युद्ध में अमेरिका-रूस की परोक्ष सहभागिता ने एक बार फिर विश्वशांति को खतरे में डाल दिया। तब भारत ने जेनेवा समझौता के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण आयोग को पुनर्जीवित करने की मांग उठायी।

अंततः इस समस्या पर 14 राष्ट्रों का एक सम्मेलन बुलाना तय हुआ, जिसमें लाओस के तीनों पक्षों की भागीदारी पर रूस अमेरिका भी सहमत थे। मई 1961 म यह सम्मेलन हुआ जिसमें सभी राजकुमारों ने संयुक्त मंत्रिमण्डल के गठन पर सहमति प्रदानकी और मंत्रिमण्डल भी बना, परन्तु अमेरिकी षड्यंत्र के कारण लाओस के विदेश मंत्री की हत्या हो गयी और गृह युद्ध पुनः शुरू हो गया। चूंकि अमेरिका लाओस में साम्यवादी प्रसार नहीं चाहता था, अतः चुनाव द्वारा सुवन्न फुमा को प्रधानमंत्री बनाया गया और सुफन्न बोंग उप प्रधानमंत्री बना। इससे असंतुष्ट पाथेट लाओ ने सन् 1970 में लाओस पर आक्रमण कर जार्स के मैदान पर कब्जा कर लिया। हालांकि अमेरिका ने इस युद्ध में जम कर बमबारी किया परन्तु पाथेट लाओ के आक्रमण को रोका नहीं जा सका।

सन् 1970 में लाओस पर आक्रमण और उसके बिगड़ती स्थिति की जिम्मेदारी अमेरिका पर सौंपा। अमेरिका के खुल कर युद्ध में आ जाने से यह जटिल स्थिति उत्पन्न हुई थी।

1971 में हजारों दक्षिणी वियतनामी सैनिकों ने लाओस में प्रवेश किया उनके साथ अमेरिकी सैनिक, युद्धक विमान एवं बमवर्षक हेलिकाप्टर भी थे।

इनका उद्देश्य हो-ची-मिन्ह मार्ग पर कब्जा करना था। पाथेट लाओ ने रूस और ब्रिटेन से अनुरोध किया कि वे अमेरिका पर दबाव डाल कर उन्हें रोकें।

परन्तु चीन ने अमेरिका को धमकी दी। पहले अमेरिका को लगा कि वह युद्ध जीत लेगा, परन्तु हो-ची-मिन्ह मार्ग क्षेत्र पर जा कर उसकी सेनाएँ फंस गयी। लाओस के प्रबल प्रतिरोध के कारण उसके लिए वापस लौटना ही मात्र एक उपाय था। इस तरह अमेरिका अपने आक्रमण में वामपंथ के प्रसार को रोक नहीं पाया।

कंबोडियायी संकट :

सन् 1954 ई० में स्वतंत्र राज्य बनने के बाद कम्बोडिया में संवैधानिक राजतंत्र को स्वीकार कर राजकुमार नरोत्तम सिंहानुक को शासक माना गया। नरोत्तम सिंहानुक 1954 से ही कम्बोडिया को गुटनिरपेक्षता एवं तटस्थता की नीति पर चलाना शुरू का दिया था। इसलिए कम्बोडिया दक्षिण पूर्व एशियाई सैन्य संगठन में शामिल नहीं हुआ। अमेरिका इन क्षेत्रो में अपना प्रभाव चाहता था, इसी कारण वह सिंहानुक से चिढ़ा हुआ था और थाईलैण्ड को उकसा कर कम्बोडिया को तंग करवा रहा था। अमेरिका की इस कूटनीतिक चाल के कारण 1963 में सिंहानुक ने उससे भी किसी तरह की मदद लेने से इंकार कर दिया। यह बात अमेरिका के लिए अपमान जनक थी। मई 1965 में उसने वियतनाम के साथ कम्बोडिया के सीमावर्ती गांवो पर आक्रमण कर दिया।

तब सिंहानुक ने अमेरिका से राजनयिक सम्बंध तोड़ लिए। आगे चलकर सन् 1969 में अमेरिका ने कम्बोडिया सीमा क्षेत्र में जहर की वर्षा हवाई जहाज से करवा दी, जिससे लगभग 40 हजार एकड़ भूमि की रबर की फसल नष्ट हो गयी। तब सिंहानुक ने मुआवजे की मांग अमेरिका से की एवं रूस की ओर झुकाव दिखाते हुए पूर्वी जर्मनी से राजनयिक सम्बंध बढ़ाने शुरू किये।

तत्कालीन दो गुटिय विश्व व्यवस्था में पूंजीवादी अमेरिका यह नही चाहता था कि कम्बोडिया साम्यवादी देशों के प्रति सहानुभूति रखें।

नरोत्तम सिंहानुक ने पेकिंग में निर्वासित सरकार का गठन कर जनरल लोन नोल की सरकार को अवैध घोषित कर दिया साथ ही राष्ट्रीय संसद को भंग कर दिया और जनता से मौजूदा सरकार को अपदस्थ करने की अपील की। अप्रैल 1970 से सिंहानुक ने नयी सरकार के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया, जिसमें उत्तरी वियतनाम एव वियतकांग सैनिको से भरपूर मदद मिल रही थी। नरोत्तम सिंहानुक की सेना विजयी होती हुयी राजधानी नामपेन्ह की ओर बढ़ रही थी। अमेरिका ने तुरंत इसमें हस्तक्षेप किया। दक्षिणी वियतनाम से अमेरिकी फौज कम्बोडिया में प्रवेश कर गयी और व्यापक संघर्ष शुरू हो गया। यह युद्ध बडा ही भयंकर था। ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

अमेरिकी राष्ट्रपति की इस नीति का व्यापक विरोध अमेरिकी भी कर रहे थे। राष्ट्रपति निक्सन को अपनी सेनाएं वापस बुलाने की घोषणां करनी पड़ी परन्तु दक्षिणी वियतनाम ने अपनी सेना कम्बोडिया में रहने देने की घोषण कर स्थिति को और जटिल बना दिया। अब लग रहा था कि चीन भी कम्बोडिया मामले में हस्तक्षेप करेगा।

इस तरह एक बार पुनः दक्षिण पूर्वी एशिया की सुरक्षा खतरे में पड़ गयी। स्थिति को भांपते हुए इन्डोनेशिया ने एशियायी देशों का सम्मेलन बुलाने का प्रस्ताव रखा। 16 मई 1970 को जकार्ता में एक सम्मेलन बुलाया गया। यद्यपि यह सम्मेलन सफल रहा परन्तु कम्बोडिया की स्थिति में कोई परिवर्तन नही आया।

कम्बोडियायी छापामारों, अमेरिकी सेना के बीच युद्धो, बमबारी नृशंश हत्याओं के इस दौर में ही 9 अक्टूबर 1970 को कम्बोडिया को गणराज्य घोषित किया गया। परन्तु सिंहानुक एव लोन नोल की सेनाओ में संघर्ष चलता रहा। पांच वर्ष पश्चात सिंहानुक ने निर्णायक युद्ध का ऐलान किया और उनकी लाल खुमेरी सेना विजय करती आगे बढ़ती गयी अंततः लोन नोल को भागना पड़ा। अपै्रल 1975 में कम्बोडियायी गृह युद्ध समाप्त हो गया। नरोत्तम सिंहानुक पुनः राष्ट्राध्यक्ष बने परन्तु 1978 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। अब कम्बोडिया का नाम बदल कर कम्पुचिया कर दिया गया।

वियतनामी गृह युद्ध और अमेरिकाः

जेनेवा समझौता से दो वियतनामी राज्याें का जन्म तो अवश्य हो गया था परन्तु स्थायी शांति की उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, क्योकि उत्तरी वियतनाम में जहाँ साम्यवादी सरकार थी वही दक्षिणी वियतनाम में पूंजीवाद समर्पित सरकार थी। जेनेवा समझौता में यह कहा गया था कि अगर जनता चाहे तो मध्य 1956 तक चुनाव कराकर पूरे वियतनाम का एकीकरण किया जाएगा। उसी समय से वियतनामी जनता उसके एकीकरण के पक्ष में आवाज उठाती रही थी जिसे उत्तरी वियतनाम का पूर्ण समर्थन था, जबकि दक्षिणी वियतनाम की जनता शांतिपूर्ण प्रयासो से चुक गयी, तो 1960 में ’वियतकांग’ (राष्ट्रीय मुक्ति सेना) का गठन कर अपने सरकार के विरूद्ध हिंसात्मक संघर्ष शुरू कर दी। 1961 ई० तक स्थिति इतनी विगड़ गयी कि दक्षिणी वियतनाम में आपात काल की घोषणा कर दी गयी और वहाँ गृह युद्ध शुरू हो गया।

अमेरिका जो दक्षिणी वियतनाम मे साम्यवाद के प्रभाव को रोकना चाहता था ने 1961 सितम्बर में “शांति को खतरा’ नाम से श्वेत पत्र जारी कर उतरी वियतनाम की हो ची मिन्ह सरकार को इस गृह युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया और 1962 के शुरूआत में अपने 4000 सैनिको को दक्षिणी वियतनाम के मदद के लिए सौगॉन भेज दिया।

वास्तविकता यह थी कि न्योदिन्ह-दियम की तानाशाही अत्याचारो से जनता तंग आ चुकी थी, बौद्ध जनता धार्मिक असहिष्णुता के कारण आत्म दाह कर रही थी।

इसी को लेकर 1963 ई० में सेना ने विद्रोह कर न्यो-दिन्ह-दियम को मार दिया और सैनिक सरकार की स्थापना हुयी, परन्तु यह भी प्रतिक्रियावादी थी। इस तरह सरकारों का आना जाना लगा रहा मगर किसी की भी नीति नही बदली और वियतकांग का संघर्ष चलता रहा।

5 अगस्त 1964 को अमेरिका ने उत्तरी वियतनाम पर हमला कर कुछ सैनिक अड्डे तबाह कर दिए।

अमेरिका द्वारा शुरू किया गया यह युद्ध काफी हिंसक, बर्बर एवं यातनापूर्ण था। इस युद्ध में खतरनाक हथियारों, टैंकां एवं बमवर्षक विमानां का व्यापक प्रयोग किया गया था। साथ ही रासायनिक हथियारों नापाम, आरेंज एजेंट एव फास्फोरस बमों का जमकर इस्तेमाल किया गया था।

यह युद्ध उत्तरी वियतनाम के साथ-साथ वियतकांग एव वियतकांग समर्थक दक्षणी वियतनामी जनता सभी से लड़ा गया था। निर्दोष ग्रामीणों की हत्या कर दी जाती थी। उनकी औरतो व लड़कियों के साथ पहले सामूहिक बलात्कार किया जाता था, फिर उन्हें मार दिया जाता था और अंत में पूरे गांव को आग के हवाले कर दिया जाता था। 1967 ई० तक अमेरिका इसे इतने बम वियतनाम में वर्षाए जितना द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी ने इंग्लैण्ड के विरूद्ध नहीं गिराया था।

अमेरिका की इस तरह की कार्रवाइयों का विरोध राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर होने लगा। प्रसिद्ध दार्शनिक रसेल ने एक अदालत लगा कर अमेरिका को वियतनाम युद्ध के लिए दोषी करार दे दिया। इसके आर्थिक कुपरिणाम भी परिलक्षित होने लगे। प्रतिवर्ष 2 से 2.5 अरब डालर का अमेरिकी खर्च में वृद्धि हुयी। इसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था डाँवाडोल होने लगी। अंतराष्ट्रीय बाजार में डालर का मूल्य काफी नीचे गिर गया। परन्तु अमेरिका ने दक्षिणी वियतनाम को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था और समझौते के सारे प्रयासों को विफल करता हुआ युद्ध को जारी रखे हुए था।

दूसरी तरफ वियतनामी अब साम्यवाद या किसी अन्य बातो के लिए नही बल्कि अपने अस्तित्व और अपने राष्ट्र के लिए लड़ रहे थे।

वियतनाम में त्रि-अयू की कहानी भी सुनने को मिलता है जिसे इस समय देवी की तरह पूजा जाता था।

1968 के प्रारंभ में वियतकांग ने अमेरिकी शक्ति का प्रतिक पूर्वी पेंटागन सहित कई ठिकानो पर धावा बोल कर अमेरिकियों को काफी क्षति पहुँचाई। इन धावो ने यह स्पष्ट कर दिया कि वियतनाम के हौसले अभी भी काफी बुलंद है

और यह भी स्पष्ट हो गया कि वियतनामियों की रशद पहुँचाने वाला मार्ग हो ची मिन्ह काफी मजबूत है क्योंकि इसे बमबारियों से नष्ट नहीं किया जा सका था। वस्तुतः हो-ची मिन्ह मार्ग हनोई से चलकर लाओस, कम्बोडिया के सीमा क्षेत्र से गुजरता हुआ दक्षिणी वियतनाम तक जाता था, जिससे सैकड़ो कच्ची पक्की सड़के निकल कर जुड़ी थी। अमेरिका सैकड़ों बार इसे क्षतिग्रस्त कर चूका था, परन्तु वियतकांग और उसके समर्थित लोग तुरंत उसका मरम्मत कर लेते थे। इसी मार्ग पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से अमेरिका लाओस एवं कंबोडिया पर आक्रमण भी कर दिया था, परन्तु तीन तरफा संघर्ष में फंस कर उसे वापस होना पड़ा था। ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

अब अमेरिका भी शांति वार्ता चाहता था, परन्तु अपनी शर्तों पर।

अतः 1968 में पेरिस में शांति वार्ता शुरू हुई। अमेरिकी हठ के कारण 6 माह तक वार्ता एक ही जगह अटकी रही। वियतनामियों की मांग थी कि पहले बमबारी बंद हो फिर अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन अपनी सेनाएं हटाए।

इसी क्रम में 7 जून 1969 को वियतनामी शिष्ट-मण्डल ने दक्षणी वियतनाम के मुक्त क्षेत्र में वियतकांग के सरकारों के गठन की घोषणा की, जिसे रूस एवं चीन ने तुरंत मान्यता दे दी। इसी दरम्यान वियतनामी राष्ट्रीयता के जनक हो-ची-मिन्ह की मृत्यु हो गयी। लेकिन संघर्ष जारी रहा।

अमेरिकी असफलता और वियतनाम एकीकरणः

अब हॉलिबुड द्वारा अमेरिका के वियतनाम युद्ध को जायज ठहराने वाली फिल्मों के स्थान पर अमेरिका के ही अत्याचार पर फिल्में बनने लगी। दूसरी तरफ निक्सन अमेरिका राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल कर नया राष्ट्रपति बना।

अमेरिकी शर्ते

  • दक्षिण वियतनाम की स्वतंत्रता
  • अमेरिकी सेनाएं उस क्षेत्र में रहेगी
  • जब तब वियतकांग संघर्ष करेगा एवं दक्षिणी वियतनाम में आतंक मचाएगा बमबारी जारी रहेगा।
  • वियतनाम समस्या का जल्द समाधान की जिम्मेवारी उस पर सौंपी गयी। अन्तरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता ही जा रहा था। इसी समय ‘माई ली गाँव‘ की एक घटना प्रकाश में आयी। अमेरिकी सेना की आलोचना पूरे विश्व में होने लगी। तब राष्ट्रपति निकसन ने शांति के लिए पाँच सूत्री योजना की घोषणा की।

(1) हिन्द-चीन की सभी सेनाए युद्ध बंद कर यथा स्थान पर रहे।

(2) युद्ध विराम की देख-रेख अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक करेगे।

(3) इस दौरान कोई देश अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयत्न नही करेगा

(4) युद्ध विराम के दौरान सभी तरह की लड़ाईयाँ बंद रहेंगी

(5) युद्ध विराम का अंतिम लक्ष्य समूचे हिन्द चीन में संघर्ष का अंत होना चाहिए।

परन्तु इस शांति प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। अमेरिकी सेनाए पुनः बमबारी शुरू कर दी। लेकिन अमेरिका अब जान चुका था कि उसे अपनी सेनाएं वापस बुलानी ही पड़ेगी। निक्सन ने पुनः आठ सुत्री योजना रखी। वियतनामियों ने इसे खारिज कर दिया। अब अमेरिका चीन को अपने पक्ष में करने में लग गया। 24 अक्टूबर 1972 को वियतकांग, उतरी वियतनाम, अमेरिका एवं दक्षिणी वियतनाम में समझौता तय हो गया, परन्तु दक्षिणी वियतनाम ने आपत्ति जताई और पुनः वार्ता के लिए आग्रह किया। वियतकांग ने इसे अस्वीकार कर दिया। इस बार इतने बम गिराए गए जिनकी कुल विध्वंसक शक्ति हिरोशिमा में प्रयुक्त परमाणु बम से ज्यादा आंकी गयी।

हनोई भी इस बमवारी से ध्वस्त हो गया, लेकिन वियतनामी डटे रहे। अंततः 27 फरवरी 1973 को पेरिस में वियतनाम युद्ध के समाप्ती के समझौते पर हस्ताक्षर हो गया, समझौते की मुख्य बाते थीं युद्ध समाप्ति के 60 दिनो के अंदर अमेरिकी सेना वापस हो जाएगी, उतर और दक्षिण वियतनाम परस्पर सलाह कर के एकीकरण का मार्ग खोजेंगे, अमेरिका वियतनाम को असीमित आर्थिक सहायता देगा।

इस तरह से अमेरिका के साथ चला आ रहा युद्ध समाप्त हो गया एवं अप्रैल, 1975 में उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम का एकीकरण हो गया।

इस प्रकार सात दशकों से ज्यादा चलने वाला यह अमेरिका वियतनाम युद्ध समाप्त हो गया। इस युद्ध में 9855 करोड़ डालर खर्च हुए। सर्वधिक व्यय अमेरिका का था। उसके 56000 से अधिक सैनिक मारे गए लगभग 3 लाख सैनिक घायल हुए। दक्षिणी वियतनाम के 18000 सैनिक मारे गए। अमेरिका के 4800 हेलिकाप्टर एव 3600 एवं अनगिनित टैंक नष्ट हो गए।

इन सारी घटनाओं में के परिपेक्ष में धन जन की बर्बादी के अलावे अमेरिकी शाख को भी गहरा आघात पहुँचा। पूरे हिन्दी चीन में वह बुरी तरह असफल रहा। अंततः उसे अपनी सेनाए हिन्दी चीन से हटानी पड़ी और सभी देशो की संप्रभुता एवं अखण्डता को स्वीकार करना पड़ा।

माई-ली-गाँव की घटना:

दक्षिणी वियतनाम में एक गाँव था जहाँ के लोगों को वियतकांग समर्थक मान अमेरिकी सेना ने पूरे गांव को घेर कर पुरूषों बंधक बनाकर कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया, फिर उन्हें भी मार कर पूरे गांव में आग लगा दिया। लाशों के बीच दबा एक बूढ़ा जिन्दा बच गया था जिसने इस घटना को उजागर किया।

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समाजवाद एवं साम्यवाद कक्षा 10 इतिहास – Samajwad Evam Samyavad

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History) के पाठ 2 ( Samajwad Evam Samyavad ) “समाजवाद एवं साम्यवाद” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में समाजवाद एवं साम्यवाद तथा रूसी क्रांती के बारे में बताया गया है ।

Samajwad Evam Samyavad

2. समाजवाद एवं साम्यवाद (Samajwad Evam Samyavad)

समाजवाद और साम्यवाद दोनों का उद्देश्य- समानता स्थापित करना है।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समान हो।
किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं हो।
सब किसी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता मिले।
समाजवाद एवं साम्यवाद में अंतर

समाजवाद-
समाज को महत्व दिया जाता है।
समाज में असमानता को कम करके समानता स्थापित करने की बात करता है।
असमानता को दूर करने के लिए राज्य को उपयोगी माना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि राज्य ही समाज में समानता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
समाजवाद में प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता के अनुसार कार्य दिया जाने तथा कार्य के अनुसार वेतन की बात किया जाता है।
ज्यादा काम करने पर ज्यादा वेतन और कम काम करने पर कम वेतन देने पर जोर देता है।

साम्यवाद-
साम्यवादी राज्य को समाप्त करना चाहते हैं।
क्योंकि राज्य द्वारा शोषण करने वालो को बल मिलता है।
साम्यवादी कहते हैं कि इन दो वर्गों में संघर्ष जरूर होगा और जिस दिन संघर्ष-क्रांति करा जायेगा तब ही शोषित वर्ग जीत सकेगा।
शोषित वर्ग इसलिए जीतेगा क्योंकि शोषित वर्ग बहुत अधिक संख्या में होते हैं।
शोषण करने वाले लोग कम होते हैं।
जब शोषित जीत जायेंगे तब समानता आऐगी।
आर्थिक स्थिति में समानता हो।
आवश्यकता के अनुसार वेतन पर जोर देता है।

समाजवाद की उत्‍पत्ति
समाजवादी भावना का उदय मूलतः 18 वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप हुआ था।
औद्योगिक क्रांति के दौरान पूँजीपतियों और मिल-मालिकों की श्रमिक विरोधी नीतियों के कारण सभी देशों के श्रमिक जीवन नारकीय बन गया था।
श्रमिकों को कोई अधिकार नहीं था और उनका क्रूर शोषण हो रहा था।
पूँजीवादी व्यवस्था दिन-प्रतिदिन मजबूत होती जा रही थी।
श्रमिकां की आर्थिक स्थिति का तेजी से पतन हो रहा था।
इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से समाज का विभाजन दो वर्गों में हो गया था-
(1) पूँजीपति वर्ग          (2) श्रमिक वर्ग
जिस समय श्रमिक जगत आर्थिक दुर्दशा और सामाजिक पतन की स्थिति से गुजर रहा था उसी समय श्रमिकां को कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्र-भक्तों, विचारकों और लेखकों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
इन व्यक्तियों ने सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में एक नवीन विचारधारा का प्रतिपादन किया जिसे ‘समाजवाद‘ के नाम से जाना जाता है।

यूटोपियन समाजवादी
प्रथम यूटोपियन समाजवादी, जिसने समाजवादी विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, एक फ्रांसीसी विचारक सेंट साइमन था।
उसका मानना था कि राज्य एवं समाज को इस ढंग से संगठित करन चाहिए कि लोग एक दूसरे का शोषण करने के बदले मिलजुल कर प्रकृति का दोहन करें।
प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार तथा प्रत्येक को उसके कार्य के अनुसार वेतन मिलना चाहिए।
फ्रांस से बाहर सबसे महत्वपूर्ण यूटोपियन चिंतक ब्रिटिश उद्योगपति रार्बट ओवन था।

कार्ल मार्क्स (1818-1883)

  • कार्ल मार्क्स का जन्म 5 मई, 1818 ई० को जर्मनी के राइन प्रांत के ट्रियर नगर में एक यहूदी परिवार में हुआ था।
    कार्ल मार्क्स के पिता हेनरिक मार्क्स एक प्रसिद्ध वकील थे, जिन्होंने बाद में चलकर ईंसाई धर्म ग्रहण कर लिया था।
    मार्क्स ने बोन विश्व विद्यालय में विधि की शिक्षा ग्रहण की परन्तु 1836 में वे बर्लिन विश्वविद्यालय चले आये, जहाँ उनके जीवन को एक नया मोड़ मिला।
    1843 में उन्होंने बचपन के मित्र जेनी से विवाह किया।
    कार्ल मार्क्स की मुलाकात पेरिस में 1844 ई० में फ्रेडरिक एंगेल्स से हुई जिससे जीवन भर उसकी गहरी मित्रता बनी रही।
    मार्क्स ने 1867 ई० में ‘दास-कैपिटल‘ नामक पुस्तक की रचना की जिसे ‘समाजवादियों की बाइबिल‘ कहा जाता है।

मार्क्स के सिद्धांत

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत
वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या
मूल्य एवं अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
राज्यहीन और वर्गहीन समाज की स्थापना

कार्ल मार्क्स के अनुसार छः ऐतिहासिक चरण हैं।

आदिम साम्यवादी युग
दासता का युग
सामन्ती युग
पूँजीवादी युग
समाजवादी युग
साम्यवादी युग

1917 की बोल्शेविक क्रांति

20वीं शताब्दी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना रूस की क्रांति थी।
इस क्रांति ने रूस के सम्राट अथवा जार के एकतंत्रीय निरंकुश शासन का अंत कर मात्र लोकतंत्र की स्िापना का ही प्रयत्न नहीं किया, अपितु सामाजिक, आर्थिक और व्यवसायिक क्षेत्रों में कुलीनों, पूँजीपतियों और जमींदारों की शक्ति का अंत किया और किसानों की सŸा को स्थापित किया।

1917 की बोल्शेविक क्रांति के कारण :

  • जार की निरंकुशता एवं अयोग्य शासन
    कुषकों की दयनीय स्थिति
    मजदूरों की दयनीय स्थिति
    औद्योगीकरण की समस्या
    रूसीकरण की नीति
    विदेशी घटनाओं का प्रभाव :
    (क) क्रीमिया का युद्ध     (ख) जापान से पराजय तथा 1905 की क्रांति
    रूस में मार्क्सवाद का प्रभाव तथा बु़द्धजीवियों का योगदान
    तात्कालिक कारण-प्रथम विश्व युद्ध में रूस की पराजय

रूसी क्रांति

खूनी रविवार
1905 में रूस-जापान युद्ध में रूस के पराजय के कारण 9 जनवरी 1905 को लोगों का समूह ‘रोटी दो‘ के नारे के साथ सड़कों पर प्रदर्शन करते हुए सेंट पीटर्सवर्ग स्थित महल की ओर जा रहा था। परन्तु जार की सेना ने इस निहत्थे लोगों पर गोलियाँ बरसाई जिसमें हजारों लोग मारे गये इसलिए 22 जनवरी को खूनी रविवार के नाम से जाना जाता है।

मार्च की क्रांति एवं निरंकुश राजतंत्र का अंत :

  • 7 मार्च 1917 को पेट्रोग्राड ( वर्तमान लेनिनग्राद ) की सड़कों पर किसान-मजदूरों ने जुलूस निकाला। उन्होंने ‘रोटी दो‘ के नारे लगाए। अगले दिन 8 मार्च को कपड़े की मिलों की महिला मजदूरों ने बहुत सारे कारखानों में ‘रोटी‘ की माँग करते हुए हड़ताल का नेतृत्व किया, जिसमें अन्य मजदूर भी शामिल हो गए।
    जुलूस में लाल झंडों की भरमार थी। जब सेना की एक टुकड़ी से भीड़ पर गोली चलाने के लिए कहा गया तो उसने भी विद्रोह कर दिया। सैनिकों का विद्रोह बढ़ता गया। अतः विवश होकर 12 मार्च 1917 को जार ने गद्दी त्याग दी।
    इस तरह से रोमनोव-वंश का निरंकुश जारशाही का अंत हो गया। 15 मार्च को बुर्जुआ सरकार का गठन हुआ।
    बुर्जुआ सरकार गिर गई तथा करेंसकी के नेतृत्व में एक उदार समाजवादियों की सरकार गठित हुई। बोल्शेविकों ने इस सरकार को भी स्वीकार नहीं किया।
  • सर्वहारा वर्ग- समाज का वैसा वर्ग जिसमें किसान, मजदूर एवं आम गरीब लोग शामिल हो।
  • रूसी समाज दो वर्गां में बँटा था, जो बहुमत वाला दल था वह ‘बोल्शेविक‘ कहलाया और अल्पमतवाला दल ‘मेनशेविक‘ कहलाया।

बोल्शेविक क्रांति

इसी समय लेनिन का उदय हुआ। जार की सरकार ने लेनिन को निर्वासित कर दिया था।
जब रूस में मार्च 1917 की क्रांति हुई, तो वह जर्मनी की सहायता से रूस पहुँचा, तब रूस की जनता का उत्साह बढ़ गया।
लेनिन ने घोषित किया कि रूसी क्रांति पूरी नहीं हुई है। अतः एक दूसरी क्रांति अनिवार्य है।
लेनिन ने तीन नारे दिये- भूमि, शांति और रोटी।
लेनिन ने बल प्रयोग द्वारा केरेन्सकी सरकार को उलट देने का निश्चय किया। सेना और जनता दोनों ने उसका साथ दिया।
7 नवम्बर 1917 को बोल्शेविकों ने पेट्रोग्राद के रेलवे स्टेशन, बैंक, डाकघर, टेलिफोन-केंन्द्र, कचहरी तथा अन्य सरकारी भवनों पर अधिकार कर लिया।
केरेन्सकी रूस छोड़कर भाग गया।
इस प्रकार रूस की महान बोल्शेविक क्रांति ( इसे अक्टुबर क्रांति भी कहते हैं।) सम्पन्न हुई।
सत्ता पर कब्जा करने के पश्चात् लेनिन और बोल्शेविक दल का उत्तरदायित्व और भी बढ़ गया। सत्ता में आने के बाद लेनिन के समक्ष कई जटिल समस्याएँ थीं। परन्तु उसने बहुत हद तक इन समस्याओं का निराकरण करने की कोशिश की। सर्वप्रथम उसने जर्मनी के साथ ब्रेस्टलिटोवस्क की संधि की। इस संधि में सोवियत रूस को लगभग एक चौथाई भू-भाग गवाना पड़ा। परंतु लेनिन प्रथम विश्व युद्ध से बाहर हो गया तथा उसने अब आंतरिक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इसी समय रूस में गृहयुद्ध की समस्या भी उत्पन्न हुई। जिसमें अमेरिका, जापान, ब्रिटेन और फ्रांस ने हस्तक्षेप करते हुए सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया, परन्तु लेनिन ने साहसपूर्वक इन विरोधियों का सामना किया।
ट्रॉटस्की के नेतृत्व में एक विशाल लाल सेना गठित की गई। लाल सेना ने सफलतापूर्वक विदेशी हमले का सामना किया। दूसरी तरफ, आंतरिक विद्रोहों को दबाने के लिए ’चेका’ नामक गुप्त पुलिस संगठन बनाया गया। यह अचानक छापा मार कर विद्राहियों को गिरफ्तार कर लेती थी। इस तरह, लेनिन आंतरिक विद्रोह को दबाने में सफल रहा।

रूसी क्रांति में लेनिन की भूमिका

लेनिन ने एक शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता की स्थापना की। सन् 1918 में विश्व का पहला समाजवादी शासन स्थापित करने वाला देश रूस का नया संविधान बनाया गया। इसके द्वारा रूस का नाम ’सोवियत समाजवादी गणराज्यों का समूह’ के रूप में परिवर्तित किया गया। लेनिन ने नए राज्य में प्रतिनिधि सरकार की व्यवस्था की। राजनैतिक संगठन के सबसे निचले स्तर पर ’सोवियत’ नामक स्थानीय समितियाँ बनाई गयीं। सभी सोवियत के सदस्यों को मिलाकर एक राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया गया, जिसकी कार्यकारिणी शक्ति एक केंद्रीय समिति को सौंपा गया। लेनिन इस समिति का अध्यक्ष था। मंत्रिमंडल के सदस्यों का चुनाव इसी समिति के द्वारा होना निश्चित हुआ।
लेनिन के नये संविधान के द्वारा 18 वर्ष से अधिक उम्रवाले वैसे सभी नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया गया। बैंकों, परिवहन एवं रेलवे का राष्ट्रीयकरण किया गया।
शिक्षा पर से चर्च का अधिकार समाप्त कर उसका भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
इसी तरह लेनिन ने शासन के नियमों में परिवर्तन करने के साथ ही बोल्शेविक दल का नया नाम बदलकर साम्यवादी दल कर दिया और लाल रंग के झंडे पर हँसुए और हथौड़े को सुशोभित कर देश का राष्ट्रीय झंडा तैयार किया गया। उसके बाद से यह झंडा साम्यवाद का प्रतीक बन गया।
अब लेनिन के समक्ष एक अन्य समस्या भूमि के पुनर्वितरण की थी। उसने एक आदेश जारी किया जिसके तहत बड़े भूस्वामियों की भूमि किसानों के बीच पुनर्वितरित किया गया। हालांकि किसानों ने भूमि पर पहले से ही कब्जा जमा रखा था। इस आदेश द्वारा लेनिन ने उसे सिर्फ वैधता प्रदान की। लेनिन के इस कदम की आलोचना हुई क्योंकि समाजवादी अर्थव्यवस्था में भूमि पर राज्य का नियंत्रण होता है।
करोड़ों लोगों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न आ खड़ा हुआ। कहीं-कहीं तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई। राजकीय और विदेशी सहायता के बावजूद काफी लोग भूख और प्यास से मरने लगे। क्रांति विरोधी नारे भी सनाई पड़ने लगे। अतः लेनिन ने अपनी नीति में संशोधन किया जिसका परिणाम था-नई आर्थिक नीति की घोषणा की गई। उसने यह स्पष्ट देखा कि तत्काल पूरी तरह समाजवादी व्यवस्था लागू करना या एक साथ सारी पूँजीवादी दुनिया से टकराना संभव नहीं है, जैसा कि ट्रॉटस्की चाहता था। इसलिए 1921 ई० में उसने एक नई नीति की घोषणा की जिसमें मार्क्सवादी मूल्यों से कुछ हद तक समझौता करना पड़ा। लेकिन वास्तव में पिछले अनुभवों से सीखकर व्यावहारिक कदम उठाना इस नीति का लक्ष्य था।

नई आर्थिक नीति में निम्नांकित प्रमुख बातें थी

किसानों से अनाज ले लेने के स्थान पर एक निश्चित कर लगाया गया। बचा हुआ अनाज किसान का था और वह इसका मनचाहा इस्तेमाल कर सकता था।
यद्यपि यह सिद्धांत कायम रखा गया कि जमीन राज्य की है फिर भी व्यवहार में जमीन किसान की हो गई।
20 से कम कर्मचारियों वाले उद्योगों को व्यक्तिगत रूप से चलाने का अधिकार मिल गया।
उद्योगों का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया। निर्णय और क्रियान्वयन के बारे में विभिन्न इकाइयों को काफी छूट दी गई।
विदेशी पूँजी भी सीमित तौर पर आमंत्रित की गई।
व्यक्तिगत संपत्ति और जीवन की बीमा भी राजकीय ऐजेंसी द्वारा शुरू किया गया।
विभिन्न स्तरों पर बैंक खोले गए।
ट्रेड यूनियन की अनिवार्य सदस्यता समाप्त कर दी गई।

स्टालिन

1924 ई० में जब लेनिन की मृत्यु हुई तो उत्तराधिकार की समस्या खड़ी हुई। विभिन्न समूहों और अलग-अल नेताओं के बीच सत्ता के लिए गंभीर संघर्ष चल रहे थे। इस संघर्ष में स्टालिन की विजय हुई। 1929 ई० में ट्रॉटस्की को निर्वासित कर दिया गया। 1930 के दशक में लगभग वे सभी नेता खत्म कर दिए, जिन्होंने क्रांति में और उसके बाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजनीतिक लोकतंत्र तथा भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता स्टालिन द्वारा नष्ट हो गयी। पार्टी के अन्दर भी मतभेदों को बर्दाश्त नहीं किया जाता था। स्टालिन कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव था और 1953 ई० में अपनी मृत्यु तक तानाशाही व्यवहार करता रहा।

रूसी क्रांति का प्रभाव

  • इस क्रांति के पश्चात् श्रमिक अथवा सर्वहारा वर्ग की सत्ता रूस में स्थापित हो गई तथा इसने अन्य क्षेत्रों में भी आंदोलन को प्रोत्साहन दिया।
    रूसी क्रांति के बाद विश्व विचारधारा के स्तर पर दो खेमों में विभाजित हो गया। साम्यवादी विश्व एवं पूँजीवादी विश्व । इसके पश्चात् यूरोप भी दो भागों में विभाजित हो गया। पूर्वी यूरोप एवं पश्चिमी यूरोप। धर्मसुधार आंदोलन के पश्चात् और साम्यवादी क्रांति से पहले यूरोप में वैचारिक आधार पर इस तरह का विभाजन नहीं देखा गया था।
    द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् पूँजीवाद विश्व और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध की शुरूआत हुई और आगामी चार दशकों तक दोनों खेमों के बीच शस्त्रों की होड़ चलती रही।
    रूसी क्रांति के पश्चात् आर्थिक आयोजन के रूप में एक नवीन आर्थिक मॉडल आया। आगे पूँजीवादी देशों ने भी परिवर्तित रूप में इस मॉडल को अपना लिया। इस प्रकार स्वयं पूँजीवाद के चरित्र में भी परिवर्तन आ गया।
    इस क्रांति की सफलता ने एशिया और अफ्रीका में उपनिवेश मुक्ति को भी प्रोत्साहन दिया क्योंकि सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार ने एशिया और अफ्रीका के देशों में होने वाले राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक समर्थन प्रदान किया।
  • शीत युद्ध- यह एक वैचारिक युद्ध था जिसमें पूँजीवादी गुट का नेता संयुक्त राज्य अमेरिका तथा साम्यवादी गुट का नेता सोवियत रूस था।

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Europe Me Rashtravad Ke Uday – यूरोप में राष्‍ट्रवाद के उदय कक्षा 10 इतिहास

Europe Me Rashtravad Ke Uday

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History ) के पाठ 1 ( Europe Me Rashtravad Ke Uday ) “यूरोप में राष्‍ट्रवाद के उदय” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में फ्रांस, इटली, जर्मनी, यूनान, हंगरी, पोलैंड आदि देशो के राष्‍ट्रीय आंदोलनों के बारे में बताया गया है ।

Europe Me Rashtravad Ke UdayEurope Me Rashtravad Ke Uday

1. यूरोप में राष्‍ट्रवाद के उदय ( Europe Me Rashtravad Ke Uday )

राष्ट्रवाद- राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है जो किसी विषेश भौगोलिक, सांस्कृतिक या सामाजिक परिवेश में रहने वाले लोगों में एकता का वाहक बनती है।

अर्थात्

राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे ख़ुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं।

राष्ट्रवाद का अर्थ- राष्ट्र के प्रति निष्ठा या दृढ़ निश्चय या राष्ट्रीय चेतना का उदय,  उसकी प्रगति और उसके प्रति सभी नियम आदर्शों को बनाए रखने का सिद्धांत।

अर्थात्

अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना को राष्ट्रवाद कहते हैं।

यूरोप में राष्‍ट्रवाद के उदय ( Europe Me Rashtravad Ke Uday )

बीजारोपण- राष्ट्रवाद की भावना का बीजारोपण यूरोप में पुनर्जागरण के काल ( 14वीं और 17वीं शताब्दी के बीच ) से ही हो चुका था। परन्तु 1789 ई॰ की फ्रांसीसी क्रांति से यह उन्नत रूप में प्रकट हुई।

यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास फ्रांस की राज्यक्रांति और उसके बाद नेपोलियन के आक्रमनों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

फ्रांसीसी क्रांति ने राजनिति को अभिजात्य वर्गीय ( ऐसे उच्चतम लोगों का वर्ग, जिनमें जमींदार, नवाब, महाजन और रईस लोग होते हैं। ) परिवेश से बाहर कर उसे अखबारों, सड़कों और सर्वसाधारण की वस्तु बना दिया।

वियना कांगेस क्या है ?

यूरोपीय देशों के राजदूतों का एक सम्मेलन था जो सितम्बर 18 से 14 जून 1815 को आस्ट्रिया की राजधानी वियना में आयोजित किया गया था।

nepoleon bonapart

नेपोलियन कौन था ?

  • नेपोलियन एक महान सम्राट था जिसने अपने व्यक्तित्व एवं कार्यों से पूरे यूरोप के इतिहास को प्रभावित किया।
  • अपनी योग्यता के बल पर 24 वर्ष की आयु में ही सेनापति बन गया।
  • उसने कई युद्धों में फ्रांसीसी सेना को जीत दिलाई और अपार लोकप्रियता हासिल कर ली फिर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा और फ्रांस का शासक बन गया।

उदारवादी से क्या समझते हैं ?

  • उदारवादी लातिनी भाषा के मूल्य पर आधारित है जिसका अर्थ है ‘ आजाद ‘
  • उदारवाद तेज बदलाव और विकास को प्राथमिकता देता है।

रूढ़ीवादी से क्या समझते हैं ?

  • ऐसा राजनितिक दर्शन परंपरा, स्‍थापित संस्थाओं और रिवाजों पर जोर देता है और धीरे-धीरे विकास को प्राथमिकता देता है।

वियना सम्मेलन- नेपोलियन के पतन के बाद यूरोप की विजयी शक्तियाँ ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में 1815 ई॰ में एकत्र हुई, जिसे वियना सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य फिर से पुरातन व्यवस्था को स्थापित करना था। इस सम्मेलन का मेजबानी आस्ट्रिया के चांसलर मेटरनिख ने किया।

मेटरनिख युग- वियना सम्मेलन के माध्यम से एक तरफ नेपोलियन युग का अंत तथा दूसरी तरफ मेटननिख युग की शुरुआत हुई। इसने इटली पर अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए उसे कई राज्यों में विभाजित कर दिया। जर्मनी में 39 रियासतों का संघ कायम रहा। फ्रांस में भी पुरातन व्यवस्था की पुनर्स्थापना की।

विचारधारा- एक खास प्रकार की सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण इंगित करने वाले विचारों का समुह विचारधारा कहलाता है।

यूरोप में राष्ट्रवादी चेतना की शुरुआत फ्रांस से होती है।

नेपोलियन का शासनकाल

जब नेपोलियन फ्रांस पर अपना शासन चलाना शुरू किया तो उन्होंने प्रजातंत्र को हटाकर राजतंत्र स्थापित कर दिया। उसने 1804 में नागरिक संहिता स्‍थापित किया, जिसे नेपोलियन की संहिता भी कहते हैं।

नगरिक संहिता या नेपोलियन की संहिता 1804

1. कानून के समक्ष सबको बराबर रखा गया।

2. संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित रखा गया।

3. भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्क से मुक्ति दिलाई।

जागीरदारी- इसके तहत किसानों, जमींदारों और उद्योगपतियों द्वारा तैयार समान का कुछ हिस्सा कर के रूप में सरकार को देना पड़ता था।

यूरोपीय समाज की संरचना- 16वीं शताब्दी से पहले यूरोपीय समाज दो वर्गों में विभाजित था।

1. उच्च वर्ग कुलीन वर्ग

2. निम्न वर्ग कृषक वर्ग 

बीच में एक और वर्ग जुड़ गया। जिसे मध्यम वर्ग कहा गया।

फ्रांस में राष्‍ट्रवाद का उदय

  • फ्रांस में वियना व्यवस्था के तहत क्रांति के पूर्व की व्यवस्था स्थापित करने के लिए बूर्वों राजवंश को पुनर्स्थापित किया गया तथा लुई 18 वाँ फ्रांस का राजा बना।
  • इसका मुख्य उद्देश्य फिर से पुरातन व्यवस्था को स्थापित करना था।
  • इस सम्मेलन का मेजबानी आस्ट्रिया के चांसलर मेटरनिख ने किया।
  • मेटरनिख ने इटली, जर्मनी के अलावा फ्रांस में भी पुरातन व्यवस्था की पुनर्स्थापना की।
  • लेकिन यह व्यवस्था स्थायी साबित नहीं हुई और जल्द ही यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार हुआ जिससे सभी देश प्रभावित हुए।
  • लुई 18 वाँ ने फ्रांस की बदली हुई परिस्थितियों को समझा और फ्रांसीसी जनता पर पुरातनपंथी व्यवस्था स्‍थापित करने का प्रयास नहीं किया।
  • उसने प्रतिक्रियावादी और सुधारवादी शक्तियां के बीच सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से 2 जून 1814 को संवैधानिक घोषणापत्र जारी किए जो 1848 ई० तक फ्रांस में चलते रहे।
  • चार्ल्स- X के शासनकाल में कुछ परिवर्तन किए गए परन्तु इसका परिणाम 1830 की क्रांति के रूप में सामने आया।

जुलाई 1830 की क्रांतिः चार्ल्स-X एक निरंकुश और प्रतिक्रियावादी शासक था। उसने फ्रांस में उभर रही राष्ट्रीयता की भावना को दबाने का कार्य किया। उसके द्वारा पोलिग्नेक को प्रधानमंत्री बनाया गया। पोलिग्नेक ने समान नागरिक संहिता के स्थान के पर शक्तिशाली अभिजात्य वर्ग की स्थापना तथा उसे विशेषाधिकारों से विभूषित करने का प्रयास किया। प्रतिनिधि सदन और दूसरे उदारवादियों ने पोलिग्नेक के विरूद्ध गहरा असंतोष प्रकट किया। चार्ल्स-X ने इस विराध के प्रतिक्रिया स्वरूप 25 जुलाई 1830 ई॰ को चार अध्यादेशों के द्वारा उदार तत्वों का गला घोंटने का प्रयास किया। इन अध्यादेशों के विरोध में पेरिस में क्रांति की लहर दौड़ गई और फ्रांस में 28 जून 1830 ई॰ को गृहयुद्ध आरम्भ हो गया इसे ही जुलाई 1830 की क्रांति कहते हैं।

परिणाम- चार्ल्स-X राजगद्दी छोड़कर इंग्लैंड पलायन कर गया और इस प्रकार फ्रांस में बूर्वो वंश के शासन का अंत हो गया।

1830 की क्रांति का प्रभाव

  • इस क्रांति ने फ्रांस के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया तथा वियना काँग्रेस के उद्देश्यों को निर्मूल सिद्ध किया।
  • इसका प्रभाव सम्पूर्ण यूरोप पर पड़ा और राष्ट्रीयता तथा देशभक्ति की भावना का प्रस्फुटन जिस प्रकार हुआ उसने सभी यूरोपीय राष्ट्रों के राजनैतिक एकीकरण, संवैधानिक सूधारों तथा राष्ट्रवाद के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।
  • इस क्रांति से इटली, जर्मनी, यूनान, पोलैंड एवं हंगरी में तत्कालीन व्यवस्था के प्रति राष्ट्रीयता के प्रभाव के कारण आन्दोलन उठ खड़े हुए।
  • आगे चलकर फ्रांस में लुई फिलिप के खिलाफ आवाज उठने लगी जिससे फ्रांस में 1848 की क्रांति हुई।

1848 की क्रांति

  • लुई फिलिप एक उदारवादी शासक था, उसने गीजो को प्रधानमंत्री नियुक्त किया, जो कट्टर प्रतिक्रियावादी था।
  • प्रधानमंत्री गीजो किसी भी तरह के वैधानिक, सामाजिक और आर्थिक सुधारों के विरुद्ध था।
  • लुई फिलिप ने पुँजीपति वर्ग के लोगों को साथ रखना पसंद किया, जो अल्पमत में थे।
  • उसके पास किसी भी तरह के सुधारात्मक कार्यक्रम नहीं था और नहीं उसे विदेश निति में कोई सफलता मिल रही थी।
  • उसके शासन काल में देश में भुखमरी एवं बेरोजगारी व्याप्त होने लगी, जिससे गीजो की आलोचना होने लगी।
  • सुधारवादियों ने 22 फरवरी 1848 ई० को पेरिस में थियर्स के नेतृत्व में एक विशाल भोज का आयोजन किया।
  • जगह-जगह अवरोध लगाए गए और लुई फिलिप को गद्दी छोड़ने पर मजबुर किया गया।
  • 24 फरवरी को लुई फिलिप ने गद्दी त्याग किया और इंगलैंड चला गया।
  • उसके बाद नेशनल एसेम्बली ने गणतंत्र की घोषणा करते हुए 21 वर्ष से ऊपर के सभी व्यस्कों को मताधिकार प्रदान किया और काम के अधिकार की गारंटी दी।

1848 की क्रांति का प्रभाव

इस क्रांति ने न सिर्फ पुरातन व्यवस्था का अंत किया बल्कि इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हालैंड, स्वीट्जरलैंड, डेनमार्क, स्पेन, पोलैंड, आयरलैंड तथा इंगलैंड प्रभावित हुए।

 

इटली का एकीकरण

  • इटली के एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होने में भौगोलिक समस्या के अलावे कई अन्य समस्याएँ थीं। जैसे- इटली में ऑस्ट्रीया और फ्रांस जैसे विदेशी राष्ट्रों का हस्तक्षेप था।
  • इसलिए एकीकरण में इनका विरोध अवश्यम्भावी था।
  • पोप की इच्छा थी कि इटली का एकीकरण स्वयं उसके नेतृत्व में धार्मिक दृष्टिकोण से हो ना कि शासकों के नेनृत्व में।
  • इसके अलावा आर्थिक और प्रशासनिक विसंगतियाँ भी मौजूद थीं।
  • नेपोलियन ने इसे तीन गणराज्यों में गठित किया जैसे- सीसपाइन, गणराज्य, लीगुलीयन तथा ट्रांसपेडेन।
  • नेपोलियन ने यातायात व्यवस्था को भी चुस्त-दुरूस्त किया तथा सम्पूर्ण क्षेत्र को एक शासन के अधीन लाया।
  • इटली के एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होने में भौगोलिक समस्या के अलावे कई अन्य समस्याएँ थीं। जैसे- इटली में ऑस्ट्रीया और फ्रांस जैसे विदेशी राष्ट्रों का हस्तक्षेप था।
  • इसलिए एकीकरण में इनका विरोध अवश्यम्भावी था।
  • पोप की इच्छा थी कि इटली का एकीकरण स्वयं उसके नेतृत्व में धार्मिक दृष्टिकोण से हो ना कि शासकों के नेनृत्व में।
  • इसके अलावा आर्थिक और प्रशासनिक विसंगतियाँ भी मौजूद थीं।
  • नेपोलियन ने इसे तीन गणराज्यों में गठित किया जैसे- सीसपाइन, गणराज्य, लीगुलीयन तथा ट्रांसपेडेन।
  • नेपोलियन ने यातायात व्यवस्था को भी चुस्त-दुरूस्त किया तथा सम्पूर्ण क्षेत्र को एक शासन के अधीन लाया।
  • नेपोलियन के पतन ( 1814 ) के पश्चात वियना काँग्रेस ( 1815 ) द्वारा इटली को पुराने रूप में लाने के उद्देश्य से इटलीके दो राज्यों पिडमाउण्ट और सार्डिनिया का एकीकरण कर दिया।
  • इस प्रकार इटली के एकीकरण की दिशा तय होने लगी।
  • इटली में 1820 ई० से ही कुछ राज्यों में संवैधानिक सुधारों के लिए नागरिक आंदोलन होने लगे।
  • एक गुप्त दल ‘कार्ब्रोनारी‘ का गठन राष्ट्रवादियों द्वारा किया गया, जिसका उद्देश्य छापामार युद्ध के द्वारा राजतंत्र को नष्ट कर गणराज्य की स्‍थापना करना था।
  • प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता जोसेफ मेजिनी का संबंध भी इसी दल से था।
  • 1830 की क्रांति के प्रभाव से इटली भी अछूता नहीं रह सका और यहाँ भी नागरिक आन्दोलन शुरू हो गए।
  • मेजिनी ने भी नागरिक आन्दोलनों का उपयोग करते हुए उत्तरी और मध्य इटली में एकीकृत गणराज्य स्थापित करने का प्रयास किया।
  • लेकिन ऑस्ट्रीया के चांसलर मेटरनिख द्वारा इन राष्ट्रवादी नागरिक आन्दोलनों को दबा दिया गया और मेजिनी को इटली से पलायन करना पड़ा।

इटली के एकीकरण में मेजिनी का योगदान

मेजिनी :

  • मेजिनी साहित्यकार, गणतांत्रिक विचारों के समर्थक और योग्य सेनापति था।
  • मेजिनी में आदर्शवादी गुण अधिक और व्यावहारिक गुण कम थे।
  • 1831 में उसने ‘यंग इटली‘ की स्थापना की, जिसने नवीन इटली के निमार्ण में महत्वपूर्ण भाग लिया।
  • इसका उद्देश्य इटली प्रायद्वीप से विदेशी हस्तक्षेप समाप्त करना तथा संयुक्त गणराज्य स्थापित करना था।
  • 1834 में ‘यंग यूरोप‘ नामक संस्था का गठन कर मेजिनी ने यूरोप में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को भी प्रोत्साहित किया।
  • 1848 में जब फ्रांस सहित पूरे यूरोप में क्रांति का दौर आया तो मेटरनिख को ऑस्ट्रीया छोड़कर जाना पड़ा।
  • इसके बाद इटली की राजनीति में पुनः मेजिनी का आगमन हुआ।
  • मेजिनी सम्पूर्ण इटली का एकीकरण कर उसे एक गणराज्य बनाना चाहता था जबकि सार्डिनिया-पिडमाउंट का शासक चार्ल्स एलबर्ट अपने नेतृत्व में सभी प्रांतो का विलय चाहता था।
  • पोप भी इटली को धर्मराज्य बनाने का पक्षधर था।
  • इस तरह विचारों के टकराव के कारण इटली के एकीकरण का मार्ग अवरुद्ध हो गया था।
  • कालांतर में ऑस्ट्रीया द्वारा इटली के कुछ भागों पर आक्रमण किये जाने लगे जिसमें सार्डिनिया के शासक चार्ल्स एलबर्ट की पराजय हो गई।
  • ऑस्ट्रीया के हस्तक्षेप से इटली में जनवादी आंदोलन को कुचल दिया गया।
  • इस प्रकार मेजिनी की पुनः हार हुई और वह पलायन कर गया।

इटली के एकीकरण का द्वितीय चरण

विक्टर इमैनुएल :

  • 1848 तक इटली में एकीकरण के लिए किए गए प्रयास असफल ही रहे।
  • इटली में सार्डिनिया-पिडमाउण्ट का नया शासक ‘विक्टर इमैनुएल‘ राष्ट्रवादी विचारधारा का था और उसके प्रयास से इटली के एकीकरण का कार्य जारी रहा।
  • अपनी नीतियां के कार्यान्वयन के लिए विक्टर ने ‘काउंट कावूर‘ को प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

काउंट कावूर :

  • कावूर एक सफल कुटनीतिज्ञ एवं राष्ट्रवादी था। वह इटली के एकीकरण में सबसे बड़ी बाधा ऑस्ट्रीया को मानता था।
  • इसलिए उसने ऑस्ट्रीया को पराजित करने के लिए फ्रांस के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
  • 1853-54 के क्रिमिया के युद्ध में कावूर ने फ्रांस की ओर से युद्ध में सम्मिलित होने के घोषणा कर दी जबकि फ्रांस इसके लिए किसी प्रकार का आग्रह भी नहीं किया था।
  • इसका प्रत्यक्ष लाभ कावूर को प्राप्त हुआ।
  • युद्ध समाप्ती के बाद पेरिस के शांति सम्मेलन में कावूर ने इटली में ऑस्ट्रीया के हस्तक्षेप को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
  • कावूर ने नेपोलियन प्प्प् से भी एक संधि की जिसके तहत फ्रांस ने ऑस्ट्रीया के खिलाफ पिडमाउन्ट को सैन्य समर्थन देने का वादा किया।
  • बदले में नीस और सेवाय नामक दो रियासतें कावूर ने फ्रांस को देना स्वीकार कर लिया।
  • कावूर की दृष्टि में इटली का एकीकरण संभव नहीं था।
  • इसी बीच 1859-60 में ऑस्ट्रीया और पिडमाउण्ट में सीमा संबंधी विवाद के कारण युद्ध आरंभ हो गया।
  • युद्ध में इटली के समर्थन में फ्रांस ने अपनी सेना उतार दी जिसके कारण ऑस्ट्रीयाई सेना बुरी तरह पराजित होने लगी।
  • ऑस्ट्रीया के एक बड़े राज्य लोम्बार्डी पर पिडमाउण्ट का कब्जा हो गया।
  • एक तरफ तो लड़ाई लम्बी होती जा रही थी और दूसरी तरफ नेपोलियन इटली के राष्ट्रवाद से घबराने लगा था क्योंकि उŸार और मध्य इटली की जनता कावूर के समर्थन में बड़े जन सैलाब के रूप में आंदोलनरत थी।
  • नेपोलियन इस परिस्थिति के लिए तैयार नहीं था।
  • अतः वेनेशिया पर विजय प्राप्त होने के तुरंत बाद नेपोलियन ने अपनी सेना वापस बुला ली।
  • युद्ध से हटने के बाद नेपोलियन III ने ऑस्ट्रीया तथा पिडमाउण्ट के बीच मध्यस्थता करने की बात स्वीकारी।
  • इस तरह संधि के अनुसार लोम्बार्डी पर पिडमाउण्ट का अधिकार और वेनेशिया पर ऑस्ट्रिया का अधिकार माना गया। अंततः एक बड़े राज्य के रूप में इटली सामने आया। परन्तु कावूर का ध्यान मध्य तथा उत्तरी इटली के एकीकरण पर था ।
  • अतः उसने नेपोलियन को सेवाय प्रदेश देने का लोभ देकर ऑस्ट्रिया पिडमाउण्ट युद्ध में फ्रांस के निष्क्रिय रहने तथा इटली के राज्यों का पिडमाउण्ट में विलय का विरोध नहीं करने का आश्वासन ले लिया।
  • बदले में नेपोलियन ने यह शर्त रख दी कि जिन राज्यों का विलय होगा वहाँ जनमत संग्रह कराये जायेंगे।
  • चूंकि उन रियासतों की जनता पिडमाउण्ट के साथ थी इसलिए कावूर ने कूटनीति का परिचय देते हुए इसे स्वीकार कर लिया।
  • 1860-61 में कावूर ने सिर्फ रोम को छोड़कर उत्तर तथा मध्य इटली की सभी रियासतों (परमा, मोडेना, टस्कनी आदि) को मिला लिया तथा जनमत संग्रह कर इसे पुष्ट भी कर लिया।
  • ऑस्ट्रिया भी फ्रांस तथा इंग्लैंड द्वारा पिडमाउण्ट को समर्थन के भय से कोई कदम नहीं उठा सका। दूसरी तरफ ऑस्ट्रिया जर्मन एकीकरण की समस्या से भी जूझ रहा था।
  • इस प्रकार 1862 ई० तक दक्षिण इटली रोम तथा वेनेशिया को छोड़कर बाकी रियासतों का विलय रोम में हो गया और सभी ने विक्टर इमैनुएल को शासक माना।

गैरीबाल्डी :

  • इसी बीच महान क्रांतिकारी ’गैरीबाल्डी’ सशस्त्र क्रांति के द्वारा दक्षिणी इटली के रियासतों के एकीकरण तथा गणतंत्र की स्थापना करने का प्रयास कर रहा था।
  • गैरीबाल्डी पेशे से एक नाविक था और मेजिनी के विचारों का समर्थक था परन्तु बाद में कावूर के प्रभाव में आकर संवैधानिक राजतंत्र का पक्षधर बन गया।
  • गैरीबाल्डी ने अपने कर्मचारियों तथा स्वयं सेवकों की सशस्त्र सेना बनायी।
  • उसने अपने सैनिकों को लेकर इटली के प्रांत सिसली तथा नेपल्स पर आक्रमण किये। इन रियासतों की अधिकांश जनता बूर्वों राजवंश के निरंकुश शासन से तंग होकर गैरीबाल्डी की समर्थक बन गयी।
  • गैरीबाल्डी ने यहाँ गणतंत्र की स्थापना की तथा विक्टर इमैनुएल के प्रतिनिधि के रूप में वहाँ को सत्ता सम्भाली।
  • 1862 ई० में गैरीबाल्डी ने रोम पर आक्रमण की योजना बनाई तब कावूर ने गैरीबाल्डी के इस अभियान का विरोध किया और रोम की रक्षा के लिए पिडमाउण्ट की सेना भेज दी।
  • इसी बीच गैरीबाल्डी को भेंट कावूर से हुई और उसने रोम के अभियान की योजना त्याग दी। दक्षिणी इटली के जीते गए क्षेत्र को बिना किसी संधि के गैरीबाल्डी ने विक्टर इमैनुएल को सौंप दिया।
  • गैरीबाल्डी को दक्षिणी क्षेत्र में शासक बनने का प्रस्ताव विक्टर इमैनुएल द्वारा दिया भी गया परन्तु उसने इसे अस्वीकार कर दिया।
  • वह अपनी सारी सम्पत्ति राष्ट्र को समर्पित कर साधारण किसान की भाँति जीवन जीने की ओर अग्रसित हआ। त्याग और बलिदान की इस भावना के कारण गैरीबाल्डी के चरित्र को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान खूब प्रचारित किया गया तथा लाला लाजपत राय ने उसकी जीवनी लिखी।
  • 1862 ई० में दुर्भाग्यवश कावूर की मृत्यु हो गई और इस तरह वह भी पूरे इटली का एकीकरण नहीं देख पाया। रोम तथा वेनेशिया के रूप में शेष इटली का एकीकरण विक्टर इमैनुएल ने स्वयं किया।
  • 1870-71 में फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध छिड़ गया जिस कारण फ्रांस के लिए पोप को संरक्षण प्रदान करना संभव नहीं था । विक्टर इमैनुएल ने इस परिस्थिति का लाभ उठाया। पोप ने अपने आप को बेटिकन सिटी के किले में बंद कर लिया। इमैनुएल ने पोप के राजमहल को छोड़कर बाकी रोम को इटली में मिला लिया और उसे अपनी राजधानी बनायी।
  • इस नई स्थिति को पोप ने तत्काल स्वीकार नहीं किया। इस समस्या का अंततः मुसोलिनी द्वारा निदान हुआ जब उसने पोप के साथ समझौता कर वेटिकन की स्थिति को स्वीकार कर लिया।
  • इस प्रकार 1871 ई० तक इटली का एकीकरण मेजिनी, कावूर, गैरीबाल्डी जैसे राष्ट्रवादी नेताओं एवं विक्टर इमैनुएल जैसे शासक के योगदानों के कारण पूर्ण हुआ। इन सभी घटनाओं के पार्श्व में राष्ट्रवादी चेतना सर्वोपरी थी।

जर्मनी का एकीकरण

  • इटली और जर्मनी का एकीकरण साथ-साथ सम्पन्न हुआ।
  • आधुनिक युग में जर्मनी पुरी तरह से विखंडित राज्य था, जिसमें 300 छोटे-बड़े राज्य थे।
  • जर्मनी में राजनितिक, सामाजिक तथा धार्मिक विषमताएँ थी।
  • जर्मन एकीकरण की पृष्ठभूमि निर्माण का श्रेय नेपोलियन बोनापार्ट को दिया जाता है क्योंकि 1806 ई० में जर्मन प्रदेशों को जीत कर राईन राज्य संघ का निर्माण किया था। यहाँ से जर्मन राष्ट्रवाद की भावना धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी।
  • उत्तर जर्मन राज्यों में जहाँ प्रोटेस्टेंट मतावलम्बियों की संख्या ज्यादा थी, वहाँ प्रशा सबसे शक्तिशाली राज्य था एवं अपना प्रभाव बनाए हुए था।
  • दूसरी तरफ दक्षिण जर्मनी के कैथोलिक बहुल राज्यों की प्रतिनिधि सभा-’डायट’ जिन्दा थी, जहाँ सभी मिलते थे। परन्तु उनमें जर्मन राष्ट्रवाद की भावना का अभाव था, जिसके कारण एकीकरण का मुद्दा उनके समक्ष नहीं था।
  • इसी दौरान जर्मनी में बुद्धिजीवियों, किसानों तथा कलाकारों, जैसे-हीगेल काण्ट, हम्बोल्ट, अन्डर्ट, जैकब ग्रीम आदि ने जर्मन राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
  • जर्मनी में राष्ट्रीय आन्दोलन में शिक्षण संस्थानों एवं विद्यार्थियों का भी योगदान था। शिक्षकों एवं विद्यार्थियों ने जर्मनी एकीकरण के उद्देश्य से ’ब्रूशेन शैफ्ट’ नामक सभा स्थापित की। वाइमर राज्य का येना विश्वविद्यालय राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र था।
  • 1834 में जन व्यापारियों ने आर्थिक व्यापारिक समानता के लिए प्रशा के नेतृत्व में जालवेरिन नामक आर्थिक संघ बनाया, जो जर्मन राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
  • फ्रांस की 1830 की क्रांति ने जर्मन राष्ट्रवादी भावनाओं को कुछ हवा जरूर दी।
  • 1848 की फ्रांसीसी क्रांति ने जर्मन राष्ट्रवाद को एक बार फिर भड़का दिया। दूसरी तरफ इस क्राति ने मेटरनिख के युग का अंत भी कर दिया।
  • इसी समय जर्मन राष्ट्रवादियों ने मार्च 1848 में पुराने संसद की सभा को फ्रैंकफर्ट में बलाया।
  • जहाँ यह निर्णय लिया गया कि प्रशा का शासक फ्रेडरिक विलियम जर्मन राष्ट्र का नेतृत्व करेगा और उसी के अधीन समस्त जर्मन राज्यों को एकीकृत किया जायेगा।
  • फ्रेडरिक, जो एक निरंकुश एवं रूढ़िवादी विचार का शासक था, ने उस व्यवस्था को मानने से इंकार कर दिया।
  • प्रशा भी मानता था कि जर्मनी का एकीकरण उसी के नेतृत्व में हो सकता है।
  • इसलिए उसने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी।
  • इसी बीच फ्रेडरिक विलियम का देहान्त हो गया और उसका भाई विलियम प्रशा का शासक बना।
  • विलियम राष्ट्रवादी विचारों का पोषक था।
  • विलियम ने एकीकरण के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर महान कूटनितिज्ञ बिस्मार्क को अपना चांसलर नियुक्त किया।

जर्मनी का एकीकरण में बिस्मार्क :

  • बिस्मार्क एक सफल कुटनितिज्ञ था, वह हीगेल के विचारों से प्रभावित था।
  • वह जर्मन एकीकरण के लिए सैन्य शक्ति के महत्व को समझता था।
  • अतः इसके लिए उसने ‘रक्त और लौह की नीति‘ का अवलम्बन किया।
  • बिस्मार्क ने अपनी नीतियों से प्रशा का सुदृढ़ीकरण किया और इस कारण प्रशा, ऑस्ट्रिया से किसी भी मायने में कम नहीं रहा।
  • बिस्मार्क ने ऑस्ट्रिया के साथ मिलकर 1864 ई० में शेल्सविग और होल्सटिन राज्यों के मुद्दे को लेकर डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। क्योंकि उन पर डेनमार्क का नियंत्रण था।
  • जीत के बाद शेल्सविग प्रशा के अधीन हो गया और होल्सटिन ऑस्ट्रिया को प्राप्त हुआ। चूँकि इन दोनों राज्यों में जर्मनों की संख्या अधिक थी
  • अतः प्रशा ने जर्मन राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का कर विद्रोह फैला दिया, जिसे कुचलने के लिए ऑस्ट्रिया की सेना को प्रशा के क्षेत्र को पार करते हुए जाना था और प्रशा ने ऑस्ट्रिया को ऐसा करने से रोक दिया।
  • बिस्मार्क ऑस्ट्रिया को आक्रमणकारी साबित करना चाहता था अतः पूर्व में ही उसने फ्रांस से समझौता कर लिया था कि ऑस्ट्रिया-प्रशा युद्ध में फ्रांस तटस्थ रहे। इसके लिए उसने फ्रांस को कुछ क्षेत्र भी देने का वादा किया था।
  • बिस्मार्क ने इटली के शासक विक्टर इमैनुएल से भी संधि कर ली जिसके अनुसार ऑस्ट्रिया-प्रशा युद्ध में इटली को ऑस्ट्रियाई क्षेत्रों पर आक्रमण करना था। अंततः अपने अपमान से क्षुब्ध ऑस्ट्रिया ने 1866 ई० में प्रशा के खिलाफ सेडोवा में युद्ध की घोषणा कर दी।
  • ऑस्ट्रिया दोनों तरफ से युद्ध में फंस कर बुरी तरह पराजित हो गया, इस तरह ऑस्ट्रिया का जर्मन क्षेत्रों पर से प्रभाव समाप्त हो गया और इस तरह जर्मन एकीकरण का दो तिहाई कार्य पुरा हुआ।
  • शेष जर्मनी के एकीकरण के लिए फ्रांस के साथ युद्ध करना आवश्यक था। क्योंकि जर्मनी क दक्षिणी रियासतों के मामले में फ्रांस हस्तक्षेप कर सकता था। इसी समय स्पेन की राजगद्दी का मामला उभर गया, जिस पर प्रशा के राजकुमार की स्वाभाविक दावेदारी थी। परन्तु फ्रांस ने इस दावदारी का खुलकर विरोध किया और प्रशा से इस संदर्भ में एक लिखित वादा मांगा। बिस्मार्क न इस बात को तोड़-मरोड़ कर प्रेस में जारी कर दिया। फलस्वरूप जर्मन राष्ट्रवादियों ने इसका खुलकर विरोध करना शुरू कर दिया।
  • स्पेन की उतराधिकार को लेकर 19 जून 1870 को फ्रांस के शासक नेपोलियन ने प्रशा के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी और सेडॉन की लड़ाई में फ्रांसीसियों की जबदस्त हार हुई। तदुपरांत 10 मई 1871 को फ्रैंकफर्ट की संधि द्वारा दोनों राष्ट्रों के बीच शांति स्थापित हुई। इस प्रकार सेडॉन के युद्ध में ही एक महाशक्ति के पतन पर दूसरी महाशक्ति जर्मनी का उदय हुआ। अंततोगत्वा जर्मनी 1871 तक एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में यूरोप के राजनैतिक मानचित्र में स्थान पाया।

जर्मन राष्ट्रवाद का प्रभाव

  • जर्मन राष्ट्रवाद ने केवल जर्मनी में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण यूरोप के साथ-साथ हंगरी, बोहेमिया तथा यूनान में स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू हो गये।
  • इसी के प्रभाव ने ओटोमन साम्राज्य के पतन की कहानी को अंतिम रूप दिया। बाल्कन क्षेत्र में राष्ट्रवाद के प्रसार ने स्लाव जाति को संगठित कर सर्बिया को जन्म दिया।

यूनान में राष्ट्रीयता का उदय

  • यूनान का अपना गौरवमय अतीत रहा है। जिसके कारण उसे पाश्चात्य का मुख्य स्रोत माना जाता था। यूनानी सभ्यता की साहित्यिक प्रगति, विचार, दर्शन, कला, चिकित्सा विज्ञान आदि क्षेत्र की उपलब्धियाँ यूनानियों के लिए प्रेरणास्रोत थे।
  • यूनान तुर्की साम्राज्य के अधीन था।
  • फ्रांसीसी क्रांति से यूनानियों में राष्ट्रीयता की भावना की लहर जागी, क्योंकि धर्म, जाति और संस्कृति के आधार पर इनकी पहचान एक थी।
  • हितेरिया फिलाइक नामक संस्था की स्थापना ओडेसा नामक स्थान पर की। इसका उद्देश्य तुर्की शासन को युनान से निष्काषित कर उसे स्वतंत्र बनाना था।
  • इंग्लैंड का महान कवि वायरन यूनानियों की स्वतंत्रता के लिए यूनान में ही शहीद हो गया। इससे यूनान की स्वतंत्रता के लिए सम्पूर्ण यूरोप में सहानुभूति की लहर दौड़ने लगा।
  • रूस भी यूनान की स्वतंत्रता का पक्षधर था।
  • 1821 ई० में अलेक्जेंडर चिपसिलांटी के नेतृत्व में यूनान में विद्रोह शुरू हो गया।
  • 1827 में लंदन में एक सम्मेलन हुआ जिसमें इंग्लैंड, फ्रांस तथा रूस ने मिलकर तुर्की के खिलाफ तथा यूनान के समर्थन में संयुक्त कार्यवाही करने का निर्णय लिया।
  • इस प्रकार तीनों देशों की संयुक्त सेना नावारिनो की खाड़ी में तुर्की के खिलाफ एकत्र हुई। तुर्की के समर्थन में सिर्फ मिस्र की सेना ही आयी। युद्ध में मिश्र और तुर्की की सेना बुरी तरह पराजित हुई
  • 1829 ई० में एड्रियानोपल की संधि हुई, जिसके तहत तुर्की की नाममात्र की प्रभुता में यूनान को स्वायत्ता देने की बात तय हुई।
  • परन्तु यूनानी राष्ट्रवादियों ने संधि की बातों को मानने से इंकार कर दिया।
  • 1832 में यूनान को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया गया। बवेरिया के शासक ’ओटो’ को स्वतंत्र यूनान का राजा घोषित किया गया। इस तरह यूनान पर से रूस का प्रभाव भी जाता रहा।

हंगरी में राष्ट्रीयता का उदय

     आंदोलन का नेतृत्व ’कोसुथ’ तथा ’फ्रांसिस डिक’ नामक क्रांतिकारी के द्वारा किया जा रहा था। फ्रांस में लुई फिलिप का हंगरी के राष्ट्रवादी आन्दोलन पर विशेष प्रभाव पड़ा । कोसूथ ने ऑस्ट्रियाई आधिपत्य का विरोध करना शुरू किया तथा व्यवस्था में बदलाव की मांग करने लगा। इसका प्रभाव हंगरी तथा आस्ट्रिया दोनों देशों की जनता पर पडा। जिसके कारण यहाँ राष्ट्रीयता के पक्ष में आन्दोलन शुरू हो गए। 31 मार्च 1848 ई० को आस्ट्रिया की सरकार ने हंगरी की कई बातें मान ली, जसके अनुसार स्वतंत्र मंत्रिपरिषद की मांग स्वीकार की गई । इस प्रकार इन आन्दोलनों ने हंगरी को राष्ट्रीय अस्मिता प्रदान की।

पोलैंडः

     पोलैंड में भी राष्ट्रवादी भावना के कारण, रूसी शासन के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गए। 1830 ई. की क्रांति का प्रभाव यहाँ के उदारवादियों पर भी व्यापक रूप से पड़ा था परन्तु इन्हें इंग्लैंड तथा फ्रांस की सहायता नहीं मिल सकी। अतः इस समय रूस ने पोलैंड के विद्रोह को कुचल दिया।

बोहेमिया:

     बोहेमिया जो ऑस्ट्रियाई शासन के अंतर्गत था, में भी हंगरी के घटनाक्रम का प्रभाव पड़ा। बोहेमिया की बहुसंख्यक चेक जाति की स्वायत्त शासन की मांग को स्वीकार किया गया परन्तु आन्दोलन ने हिंसात्मक रूप धारण कर लिया। जिसके कारण ऑस्ट्रिया द्वारा क्रांतिकारियों का सख्ती से दमन कर दिया गया। इस प्रकार बोहेमिया में होने वाले क्रांतिकारी आन्दोलन की उपलब्धियाँ स्थायी न रह सकीं।

परिणाम:

  • यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास तो फ्रांसीसी क्रांति के गर्भ से ही आरम्भ हुआ, जिसके फलस्वरूप कई बड़े एवं छोटे राज्यों का उदय हुआ।
  • प्रत्येक राष्ट्र की जनता और शासक के लिए उनका राष्ट्र ही सब कुछ हो गया। इसके लिए वे किसी हद तक जाने के लिए तैयार रहने लगे।
  • बड़े यूरोपीय राज्यों यथा, जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड जैसे देशों में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ गई।
  • यूरोप के राष्ट्रवाद के कारण अफ्रिकी एवं एशियाई उपनिवेशों में विदेशी सत्ता के खिलाफ मुक्ति के लिए राष्ट्रीयता की लहर उपजी।
  • भारत में भी यूरोपीय राष्ट्रवाद के संदेश पहुँचने शुरू हो चुके थे। मैसूर का शासक टीपू सुल्तान स्वयं 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से काफी प्रभावित था। इसी प्रभाव में उसने भी जैकोबिन क्लब की स्थापना करवाई तथा स्वयं उसका सदस्य बना।
  • यह भी कहा जाता है कि उसने श्रीरंगपट्टम में ही स्वतंत्रता का प्रतीक ’वृक्ष’ भी लगवाया था।
  • कालांतर में भारत में 1857 की क्रांति से ही राष्ट्रीयता के तत्व नजर आने लगे थे।
  • इस प्रकार यूरोप में जन्मी राष्ट्रीयता की भावना ने प्रथमतः यूरोप को एवं अंततः पूरे विश्व को प्रभावित किया। जिसके फलस्वरूप यूरोप के राजनैतिक मानचित्र में बहु़त बड़े बदलाव के साथ-साथ कई उपनिवेश भी स्वतंत्र हुए।

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