Dinbandhu Nirala Class 10 Non Hindi – दीनबन्धु ‘निराला‘

Dinbandhu Nirala

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 15 (Dinbandhu Nirala) “दीनबन्धु ‘निराला” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ के लेखक आचार्य शिवपूजन सहाय हैं, जिसमें लेखक ने दीनबंधु निराला के व्‍यक्त्वि पर प्रकाश डाला है।

Dinbandhu Nirala

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ आधुनिक काल के कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला‘ पर लिखी गई जीवनी है। इस पाठ में निराला के व्यक्तित्व और जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं का उद्घाटन करना पाठ का उद्देश्य है।

15. दीनबन्धु ‘निराला‘

पाठ का सारांश (Dinbandhu Nirala)

प्रस्तुत पाठ के माध्यम से सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला‘ के जीवनी के बारे में बताया गया है।

समस्त हिंदी संसार में निराला जैसी लोकप्रियता और सम्मान किसी को नहीं मिला। दीनबन्धु भगवान को सन्तुष्ट करने का सबसे अच्छा उपाय निर्धनों को मदद करना मानते हैं। वह जीवन-भर दीन-दुखियों की सेवा-सहायता करते रहे।

कंगालों को खिलाने में उनकी गहरी लगन देखकर लोग मुग्ध रहते थे। अच्छी अंग्रेजी और बंगला बोलने के कारण ही वह समाज में पूर्णतः सम्मानित थे। लोग आग्रहपूर्वक उनसे कवीन्द्र रवीन्द्र के गीत गवाकर सुनते थे और संतुष्ट होते थे।

आकर्षक रूप, लम्बे-तगड़े डील-डौल का शरीर, व्यायाम के अभ्यास से सुगठित स्वास्थ्य, विलक्षण मेधाशक्ति, दयालु हृदय, शक्ति-सम्पन्न बुद्धि-सब कुछ भगवान ने उन्हें भरपूर दिया था।

वह एक पत्नीव्रत थे। उनके पास युवती छात्राएँ भी साहित्यिक उद्देश्य से आती थीं। छात्र भी आते थे। पर वे किसी छात्रा से बातचीत करते समय आँखें बराबर नहीं करते थे।

वह कभी भी धन की कामना नहीं किये। जो भी धन आता था, सब को गरीबों में बाँट देते थे।

वह फुटपाथ पर भिखारियों के सिवा बहुत सारे गरीब और कुली-कबाड़ी वाले को बीड़ी, मूढ़ी, भूजा, चना, मूँगफली आदि खरीदकर वितरण करते थे।

निराला शहरों या बाज़ारों और स्टेशनों के अलावा गाँव और पड़ोस के गरीबों को भी मदद करते थे। वह जीवन भर फकीर बन कर रहे। वह कलकत्ता छोड़ने के बाद लखनऊ और प्रयाग में रहे तो वहाँ भी मस्त-मौला फ़कीर की तरह जीवन यापन किये।

निराला खुद मामुली कपड़ों में गुजर करके ग़रीब को अपने नये कपड़े को ओढ़ा देते थे।

कवि शिवपूजन सहाय निराला जी के साथ बहुत दिनों तक रहे हुए हैं। वह कहते हैं कि उस तरह के आचरण के लोग साहित्य जगत में नहीं देखे गये।

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Pipal Kavita Class 10 Non Hindi – पीपल कविता

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 14 (Pipal Kavita) “पीपल” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ के लेखक गोपाल सिंह ‘नेपाली’ हैं, जिसके माध्‍यम से कवि ने प्रकृति के अलग-अलग रूपों का परिचय कराया है।

pipal

पाठ परिचय- प्रस्तुत कविता प्रकृति के विविध रूपों से हमारा आत्मीय परिचय कराती है। कविता के केन्द्र में प्राचीन पीपल के वृक्ष है जो अनेक बदलावों का साक्षी है।

14. पीपल

पाठ का सारांश (Pipal Kavita)

 ’पीपल’ नामक शीर्षक कविता में गोपाल सिंह नेपाली ने प्रकृति के विविध रूपों से हमारा आत्मीय परिचय कराया है। यह प्राचीन वृक्ष है जो अनेक बदलावों का साक्षी है। ऊपर नीला आसमान और नीचे नदी, झील, जामुन, तमाल और करील फैले हैं।

पानी से कमल के ढंडल ऊपर ऊठे हैं जिसमें लाल कमल के फूल खिले हैं। हंस क्रीड़ा कर रहे हैं। ऊंचे टीले झरने झर-झर कर गिर रहे हैं। पीपल के गोल-गोल पत्ते डोल-डोल कर कुछ कह रहे हैं।

जब वर्षा होती है पंछी की मधुर आवाज गुंजने लगती है। कोमल पŸो हिलने लगते हैं। पत्ते सर्सर, मर्मर की मधुर आवाज करने लगते हैं।

बुलबुल चह-चह कर गाती है और नदियों से बह-बह की मधुर आवाज निकलती है। सूर्य के अस्त होते ही चील, कोक आदि अपने पीपल के कोटर में आ जाते हैं।

पीपल के कोटर भर जाता है। प्राणी को नींद आ जाती है निंद्रा में ही रात कट जाती है।

इस धरती का यह जंगली, भाग अलग-थलग और शांत है। शाल, बाँस खड़े  हैं, पशु नरम घास चरते हैं।

झरना और नदी के पास रात भर चकोर रोकर रात बिताते हैं। यहाँ मोर नाचते हैं। पथिकों को यहाँ प्यास बुझती है। यहाँ यूँ ही नींद आती है और इसका निवास यही है।

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Didi Ki Dayari Class 10 Non Hindi – दीदी की डायरी

didi ki dayari

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 13 (Didi Ki Dayari) “दीदी की डायरी” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ में डायरी के लिखने की कला को बताया गया है।

didi ki dayari

पाठ परिचय- नये गद्य रूप ‘डायरी‘ से परिचित कराता यह पाठ डायरी लेखन के साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय सरोकरों और जीवन के विविध अनुभवों का भी साक्षात्कार कराता है।

13. दीदी की डायरी (Didi Ki Dayari)

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘दीदी की डायरी‘ में अप्रत्यक्ष रूप से मानव के आपसी व्यवहार और जीवन के भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभवों से परिचित कराता है।

संजू कक्षा आठ में पढ़ती है। वह स्वभाव से हँसमुख है। उसे किताबें पढ़ने का शौक है। वह कक्षा में अच्छे नंबर लाए या जन्म-दिन मनाए, उसे पुस्तक का उपहार मिलता है।

संजू ने गाँधी साहित्य ‘सत्य के प्रयोग‘ पढ़ा, जो उसे काफी पसंद आए। बापू ने इन प्रयोगां को डायरी में लिखा था। संजू भी डायरी लिखना चाहती थी, लेकिन उसे लिखना नहीं आता था। उसने दीदी से पूछा तो दीदी ने बताया की दिनभर की सारी घटनाएँ याद करके लिख दो।

संजू ने दीदी का लिखा हुआ डायरी जिद्द करके माँग ली और उसे पढ़ने लगी।

डायरी में दिनांक के साथ प्रत्येक घटना के बारे में लिखा हुआ था। जो निम्न प्रकार है।

1 जनवरी, 97

कॉलेज के सामने कारीगर ठक-ठक कर पत्थर तराश रहे हैं।

2 जनवरी, 97

सुबह शीला के घर गई। वह स्नानघर में है। मैनें एक पत्रिका पढ़ने लगी। उसमें एक मज़ेदार चुटकुला था। हँसते-हँसते लोट हो गई। जिस को लिख देती हुँ।

खरीददार- (मालिक से) इस भैंस की तो एक आँख खराब है, फिर इस भैंस के सात हजार रूपये क्यों माँग रहे हो।

मालिक- भैंस से दूध लेना है या कशीदाकारी करवानी है।

3 जनवरी, 97

पिकनिक का दिन रहा आज का। जहाँ हम गए वह स्थान बहुत सुंदर था। मेरे साथ मेरी सहेलियाँ भी थी। वहाँ हमने हरे-भरे वृक्षों तथा पानी से लबालब भरा सरोवर को देखा। मैदान में बैठकर बारी-बारी से हमने गीत गाया।

4 जनवरी, 97

आज रविवार है। कहीं आने-जाने की इच्छा नहीं हुई। माँ ने चाट बनाई थी जमकर नास्ता किया।

5 जनवरी, 97

आज का पूरा दिन उदास था, माँ ने उदासीनता का कारण पूछा तो मैं कही कि मेरी सहेली नीलू हमेशा कक्षा में अव्वल आती है। उसे पढ़ने का बहुत मन है, लेकिन उसके माँ-बाप पढ़ाई छोड़ाकर उसकी शादी कर रहे हैं।

इस तरह से डायरी में प्रत्येक दिन की घटनाओं के बारे में लिखा जाता है।

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Kabir Ke Pad Class 10 Non Hindi – कबीर के पद

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 11 (Kabir Ke Pad) “कबीर के पद” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। जिसके लेखक कबीर हैं।

Kabir Ke Pad

पाठ परिचय- कबीर भक्तिकाल के अप्रतिम भक्त कवि थे। उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से भक्ति के नाम पर व्याप्त बाह्य आडंबरों एवं व्यर्थ अनुष्ठानों पर करारा प्रहार किया है। पाठ में शामिल पदों में उनका यह रूप मुखर हो उठा है। पदों की महत्ता इस अर्थ में खासतौर पर उल्लेखनीय है कि उनका भाव बोध न सिर्फ तत्कालीन समय से जुड़ता है। बल्कि समकालीन समय में भी उनकी उपादेयता यथावत है।

पहले पद में स्थापित रूढ़ियों के समानान्तर सच के सीधे साक्षात्कार की प्रस्तावना है। अर्थात ’कागद की लेखी’ की जगह ’आँखिन देखी’ की प्रतिष्ठा, वहीं दूसरे पद में ईश्वर या अल्लाह को कहीं बाहर ढूंढ़ने के जगह उसका अपने भीतर ही साक्षात्कार की बात कही गयी है।

11. कबीर के पद (Kabir Ke Pad)

मेरा तेरा मनुआँ कैसे इक होई रे।

मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।

मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यौ उरझाई रे।

मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।

मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोही रे।

जुगन-जुगन समुझावत हारा, कही न मानत कोई रे।

सतगुरु धारा निर्मल बाहै, वामैं काया धोई रे।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।

कबीर कहते हैं कि तेरा और मेरा मन कभी एक जैसा नहीं हो सकता है। तुम कागज के लिखा हुआ कहते हो और मैं अपनी आँखों से देखा हुआ कहता हुँ। तुम मनुष्य की समस्याओं को उलझाते रहते हो, लेकिन मैं उसकी समस्याओं को सुलझाने वाली बातें करता हुँ। मैं इस संसार को सावधान बनाना चाहता हुँ, लेकिन तुम अपने को विद्वान कहते हो और खुद सोए हुए हो। मैं कहता हुँ संसार की चीजों के साथ मोह मत करो, किन्तु तुम मोह में पड़े हुए हो। मैं युग-युग से समझा कर हार गया, लेकिन कोई मेरी बात को समझने को तैयार नहीं है। इस संसार में ईश्वर रूपी नदी बह रही है। अपनी इस गंदी शरीर को ईश्वर रूपी नदी में धोएंगे, तब ही हम उसके (परमात्मा) जैसे हो सकेंगे।

मोको कहाँ ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, न काबे कैलास में।

ना तो कौनों क्रिया करम में नाहिं जोग बैराग में।

खोजी होय तो तुरतहि मिलिहौ, पलभर की तलास में।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब साँसों की साँस में।

कबीर कहते हैं कि लोग भगवान को इधर-उधर ढ़ूढ़ते फिरते हैं जबकि ईश्वर का निवास आत्मा में है। भगवान न तो मंदिर, मस्जिद और कावा में रहते हैं, न वे बाह्य क्रिया एवं अनुष्ठानों में रहते हैं, वे तो आत्मा में निवास करते हैं।

यदि तुम सच्चे खोजी होगे, तो मुझे पल भर में ही पा सकते हो। मैं तो प्रत्येक प्राणी की सांस में मौजुद हूँ। तुम्हारे ही अंदर हूँ। इस सत्य को जिस दिन जान लोगे, उसी दिन उसी पल मुझे पा लोगे।

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Vikramshila Class 10 Non Hindi – विक्रमशिला

Vikramshila

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 12 (Vikramshila) ” विक्रमशिला” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ में विक्रमशिला के वैभव को बताया गया है।

Vikramshila

पाठ परिचय- यह निबंध बौद्धकालीन शिक्षा केन्द्र विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अतीत से परिचय कराता है। इस अध्याय में प्राचीन परम्परा ज्ञान की अनेक विशिष्टताओं का उद्घाटन किया गया है।

12. पाठ का सारांश (Vikramshila)

प्रस्तुत निबंध में भारत की अस्मिता का अभेद्य कवच माना जाने वाला विक्रमशिला के बारे में है, जिसका अतीत आज के कैम्ब्रिज एवं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से कहीं उन्नत और महत्वपूर्ण था।

यहाँ आर्यभट और अतिश दिपंकर जैसे विद्वान हुए जिनके योगदान को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है। आर्यभट का योगदान खगोल विद्या में विश्व प्रसिद्ध है जबकि अतिश दिपंकर ने तिब्बत में बौध धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लामा सम्प्रदाय की शुरूआत की।

आधुनिक भागलपुर जिला के कहलगांव थाना क्षेत्र, पोस्ट पथरघट्टा के एक छोटे से गाँव अंतीचक में आठवीं शताब्दी के मध्य में इसका उदय पालवंश के सर्वाधिक प्रतापी राजा धर्मपाल के संरक्षण में हुआ।

यहाँ के आचार्यों के विक्रमपूर्ण आचरण, उनकी अखंड शील के कारण ही यह विक्रमशिला की संज्ञा से संबोधित हुआ। कहा जाता है कि विक्रम नामक यक्ष को दमित कर इस स्थान पर विहार बनाने के कारण इसका नाम विक्रमशिला पड़ा।

यह विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। यहाँ छः महाविद्यालय थे जो द्वार पंडितों के अधीन थे। द्वार पंडितों के समक्ष मौखिक परिक्षा में उत्तीर्ण होने वाले छात्र ही विद्यालय के प्रांगण में प्रवेश पा सकते थे।

यहाँ तंत्र विद्या के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय, सृष्टि विज्ञान, शब्द विज्ञान, शिल्प विद्या, विज्ञान, चिकित्सा विद्या, सांख्य, वैशेषिक, अध्यात्म विद्या, जादू एवं चमत्कार विद्या की पढ़ाई होती थी। कक्षा की व्यवस्था और उसके समय निर्धारण के लिए अलग से आचार्य नियुक्त थे। अध्यापन का माध्यम संस्कृत भाषा थी।

पुरातात्विक विभाग के अथक प्रयास से ही विक्रमशिला के बारे में जानकारी मिलता है। अभी भी इसका खनन जारी है। यहाँ दस हजार छात्र और एक हजार अध्यापक रहते थे।

तेरहवीं सदी के आरम्भ में तुर्कों के आक्रमण के कारण इसका सर्वनाश हो गया। तुर्कों ने भ्रमवश इसे किला समझ कर नष्ट कर दिया। ‘तबक़ात-ए-नासिरी‘ नामक ग्रंथ में इसके विध्वंश का जीवंत वर्णन उपलब्ध है।

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Irshya Tu Na Gyi Mere Man Se Class 10 Non Hindi – ईर्ष्या : तु न गई मेरे मन से

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 10 (Irshya Tu Na Gyi Mere Man Se) “ईर्ष्या : तु न गई मेरे मन से” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। जिसके लेखक रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ है।

Irshya tu na gyi mere man
Irshya tu na gyi mere man

पाठ परिचय- रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ के इस रोचक निबंध में जीवन के राज़मर्रा के व्यवहारों पर टिप्पणी है और सही संतुलित-जीवन के प्रति सोचने-समझने का पहलु विकसित करने की सीख है। तनावों को कम करने में व्यक्ति की अपनी अंतरात्मा खास योगदान देती है। यह निबंध इस अंतर्निहित समझ को विकसित करता है। शीर्षक रोचक है और पहली नजर में पढ़ने का आमंत्रण देता है।

पाठ का सारांश (Irshya Tu Na Gyi Mere Man Se)

प्रस्तुत निबंध ‘ ईर्ष्या : तु न गई मेरे मन से‘ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ के द्वारा लिखा गया है। इस पाठ में जीवन के राज़मर्रा के व्यवहारों पर टिप्पणी है और सही संतुलित-जीवन के प्रति सोचने-समझने का पहलु विकसित करने की सीख है।

इस निबंध में लेखक ईर्ष्या के बारे में कहते हैं कि जिस मनुष्य के अंदर ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों का आनन्द नहीं उठा पाता, जो उसके पास है; बल्कि उन वस्तुओं से दुःख पहुँचता है, जो दूसरों के पास है।

कवि कहते हैं कि ईर्ष्यालु व्यक्ति अपनी उन्नति के लिए उद्गम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है।

लेखक एक उदाहरण देकर कहते हैं कि मेरे घर के बगल में एक वकील साहब का घर है। वह सब -कुछ में अच्छे हैं, मगर वे सुखी नहीं है क्योंकि उनके घर के बगल में एक बीमा एजेंट के पास उनसे ज्यादा धन है।

ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष नहीं है, बल्कि इससे मनुष्य के आनंद में भी बाधा पड़ती है। वह किसी भी चीज का आनंद नहीं ले पाता है।

लेखक कहते हैं कि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कहा है कि तुम्हारी निंदा वहीं व्यक्ति करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है। इसलिए निंदा से घबराना नहीं चाहिए। वह कहते हैं कि जिनका चरित्र उन्नत है, उनका हृदय निर्मल और विशाल है। इन बेचारों की बातों से क्या चिढ़ना ? ये तो खुद ही छोटे हैं।

लेखक कहते हैं कि कुछ लोग दूसरों की निंदा इसलिए करते हैं कि इस प्रकार, दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे तब जो स्थान रिक्त होगा, उस पर अनायास मैं ही बिठा दिया जाऊँगा।

मगर, ऐसा नहीं होता है। किसी भी मनुष्य के पतन का कारण उसके भीतर सद्गुणों का ह्रास है। इसी प्रकार, कोई भी मनुष्य दूसरों की निंदा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करें।

लेखक ने नीत्से के कथन के माध्यम से ईर्ष्या से बचने का उपाय बताते हैं कि जो लोग नए मुल्यों का निर्माण करते हैं वे सबसे दूर बसते हैं। भीड़-भाड़ से दूर एकान्त में वास करते हैं।

उन्हें शोहरत की चाह नहीं होती वे अपना ध्यान अपने कार्य पर केन्द्रित करते हैं निंदा बकवास पर वे ध्यान नहीं देते। भीड़ से दूर रहकर ही अपने काम को अंजाम देते हैं।

लेखक कहते हैं कि ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतु बातों के बारे में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए।

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Ashok Ka Shastra Tyag Class 10 Non Hindi – अशोक का शस्त्र-त्याग

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 9 (Ashok Ka Shastra Tyag) “अशोक का शस्त्र-त्याग” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। जिसके लेखक वंशीधर श्रीवास्तव है।

Ashok Ka shastratyag

पाठ परिचय- वंशीधर श्रीवास्तव रचित एकांकी(Ashok Ka Shastra Tyag) ‘अशोक का शस्त्र-त्याग’ अहिंसा के पक्ष में अपने कथानक का मार्मिक विकास करती है। शांति के पक्ष में सक्रिय होने की शिक्षा देती है। इस लिहाज़ से पाठ की उपादेयता उल्लेखनिय है। अभिनय, नाटकीय दृश्यों का संयोजन, प्रवाहमयता की दृष्टि से पाठ विशिष्ट है।

पाठ का सारांश (Ashok Ka Shastra Tyag)

वंशीधर श्रीवास्तव रचित एकांकी ‘अशोक का शस्त्र-त्याग‘ अहिंसा के पक्ष में मार्मिक विकास करती है और शांति के पक्ष में सक्रिय होने के समझ देती है।
अशोक अपने सैन्य शिविर में टहल रहा है। उनके मुख पर चिन्ता की छाया है। वह कहता है कि चार साल हो गये कलिंग पर अभी तक विजय हासिल न कर सके। संवाददाता सूचना देता है कि कलिंग का राजा लड़ाई में मारे गये।
अशोक खुशी से कहता है कि क्या कलिंग जीत लिया गया है। संवाददाता चुप रहता है। अशोक के पूछने पर कहता है कि अभी तक कलिंग दुर्ग के फाटक बंद है। अशोक आवेश में आकर कहता है कि वह कल खुद सेना का संचालन करेगा।
दूसरे दिन प्रातः काल का समय है। अशोक सैनिकों से कहता है कि चार साल से युद्ध हो रहा है। उसका राजा मारा गया है। उसके सेनापति हमारे कब्जे में है। दोनों ओर से लाखों आदमी मारे गए हैं, लाखों घायल हुए हैं, फिर भी कलिंग दुर्ग पर मगध का पताका नहीं फहर रहा है।
अशोक कहता है कि हम शपथ लेकर प्रण करें कि या हम कलिंग के दुर्ग पर अधिकार कर लेंगे या सदा के लिए मृत्यु की गोद में सो जाएँगे।
अचानक दुर्ग का फाटक खुलता है। पद्मा के नुतृत्व में स्त्रियों की शस्त्र-सज्जित सेना खड़ी है। पद्मा कहती है बहिनां ! तुम वीर कन्या, वीर भगिनी और वीर पत्नी हो। जिस सेना ने तुम्हारे पिता, भाई, पुत्र और पति की हत्या की है, वह तुम्हारे सामने खड़ी है। आज उससे ही लोहा लेना है।
अशोक स्त्रियों की शस्त्र सज्जित सेना को देखकर अचंभित हो जाता है। वह सैनिकों से स्त्रियों पर हमला करने से मना कर देता है।
अशोक आगे बढ़कर उससे पूछता है कि तुम कौन हो देवी ? वह कहती है कि मैं कलिंग महाराज की कन्या हुँ। मैं हत्यारे अशोक से द्वन्द्व युद्ध करना चाहती हुँ
अशोक उससे युद्ध करने से इंकार कर देता है। उसका कहना है कि शास्त्र की आज्ञा है कि तुम स्त्रियों पर शस्त्र न चलाना।
क्या शास्त्र की आज्ञा है कि तुम निरपराधियों की हत्या करो ? पद्मा युद्ध के लिए ललकारती है लेकिन अशोक युद्ध से इंकार कर देता है।
शस्त्र नीचे फेंक देता है और सैनिकों को भी शस्त्र डाल देने आज्ञा देता है। पद्मा कहती है जाइए महाराज स्त्रियाँ निहत्थे पर वार नहीं करती।
अशोक बौद्धधर्म स्वीकार लेता है और कभी भी शस्त्र न उठाने की शपथ लेता है।

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Thes kahani Class 10 Non Hindi – ठेस कहानी

Thes Kahani

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 7 (Thes Kahani) “ठेस कहानी” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु है | इस पाठ के माध्‍यम से ले‍खिका  ने एक कलाकार के दिल में ठेस को बताया है।

Thes Kahani
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7. ठेस

लोक मन के मर्मज्ञ कलाकार फणीश्वरनाथ रेणु की ’ठेस’ कहानी में मिथिलांचल की लोकसंस्कृति का प्रभावी वर्णन है। यह कहानी कलाकार के मन की विशिष्टताओं का मार्मिक वर्णन करती है। श्रम के प्रति सम्मान की भावना, रिश्तों की गहराई और मनुष्यता की पक्षधरता को समझने में पाठ का योगदान महत्वपूर्ण है। आंचलिक कहानी की खूबसूरती, घटना एवं संवेदना की दृष्टि से भी कहानी उल्लेखनीय है।
खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते । लोग उसको बेकार ही नहीं, ’बेगार’ समझते हैं । इसलिए खेत खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को । क्या होगा उसको बुलाकर ? दूसरे मजदूर खेत पहुँचकर एक-तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता हुआ दिखाई पड़ेगा। पगडंडी पर तौल-तौलकर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे । मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात।
आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई । एक समय था, जबकि उसकी मडै़या के पास बड़े-बड़े बाबू लोगों की सवारियाँ बंधी रहती थीं ।
उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे । ………. अरे, सिरचन भाई ! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गई है सारे इलाके में । एक दिन का समय निकालकर चलो । कल बड़े भैया को चिट्ठी आई है शहर से। सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवाकर भेज दो।
मुझे याद है …………… मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता भोग क्या-क्या लगेगा ? – माँ हँसकर कहती, जा-जा, बेचारा मेरे काम में पूजा-भोग की बात नहीं उठाता कभी।
ब्राह्मण टोली के पंचानन्द चौधरी के छोटे लड़के को एक बार मेरे सामने ही बेपानी कर दिया था सिरचन ने-तुम्हारी भाभी नाखून से खाँटकर तरकारी परोसती है । और, इमली का रस डालकर कढ़ी तो हम कहार-कुम्हारों की घरवाली बनाती है । तुम्हारी भाभी ने कहाँ सीखा ?
इसलिए, सिरचन को बुलाने के पहले मैं माँ से पूछ लेता ……..
सिरचन को देखते ही माँ हुलसकर कहती-आओ सिरचन । आज नेन मथ रही थी, तो तुम्हारी याद आई । घी की डाड़ी (खखोरन) के साथ चूड़ा तुमको बहुत पसन्द है न“.. द्य और बड़ी बेटी ने ससुराल से संवाद भेजा है, उसकी ननद रूठी हुई है, मोथी की शीतलपाटी के लिए ।
सिरचन अपनी पनियायी जीभ को सम्भालकर हँसता । घीं की सोंधी सुगन्ध सूँघकर ही आ रहा हू, भाभी । नहीं तो इस शादी-ब्याह के मौसम में दम मारने की भी छुट्टी कहाँ मिलती है।
सिरचन जाति का कारीगर है। एक-एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जतन से उसका कुच्ची बनाता ।
फिर, कुच्चियों को रँगने से लेकर सतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त। “काम करते समय उसकी तन्मयता में जरा भी बाधा पड़ी कि गेहुँअन साँप की तरह फुफकार उठता । फिर किसी दूसरे से करवा लीजिए काम । सिरचन मुंहजोर है, कामचोर नहीं।
बिना मजदुरी के पेटभर भात पर काम करनेवाला कारीगर । दूध में कोई मिठाई न मिले, कोई बात नहीं किन्तु बात में जरा भी झाल वह नहीं बरदाश्त कर सकता ।“
सिरचन को लोग चटोर भी समझते हैं….तली बघारी हुई तरकारी, दही की कढ़ी, मलाईवाला दूध, इन सबका प्रबंध पहले कर लो, तब सिरचन को बुलाओ; दुम हिलाता हुआ हाजिर हो जाएगा। खाने पीने में चिकनाई की कमी हुई कि काम की सारी चिकनाई खत्म। अधूरा रखकर उठ खड़ा होगा ।
आज तो अब अधकपाली दर्द से माथा टनटना रहा है। थोड़ा-सा रह गया है, किसी दिन आकर पूरा कर दंगा।………… ‘किसी दिन’ माने कभी नहीं।
मोथीं घास और पटेर को रंगीन शीतलपाटी, बाँस तोलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढे, भूसी-चुनी रखने के लिए गूंज की रस्सी के बड़े बड़े जाले, हलवाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी तथा इसी तरह के बहुत-से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता।
यह दूसरी बात है कि अब गाँव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं लोग। बेकाम का काम, जिसको मजदूरी में अनाज या पैसे देने की कोई जरूरत नहीं। पेट-भर खिला दो. काम पूरा होने पर एकाथ पुराना धुराना कपड़ा देकर विदा करो। वह कुछ भी नहीं बोलेगा……..
कुछ भी नहीं बोलेगा, ऐसी बात नहीं। सिरचन को बुलानेवाले जानते हैं, सिरचन बात करने में भी कारीगर है।………..महाजन टोले के भज्जू महाजन की बेटी सिरचन की बात सुनकर तिलमिला उठी थी ठहरो। मैं माँ से जाकर कहती हूँ। इतनी बड़ी बात !
बड़ी बात ही है बिटिया। बड़े लोगों की बात ही बड़ी होती है। नहीं तो दो-दो पटेर की पाटियों का काम सिर्फ खंसारी का सतू खिलाकर कोई करवाए भला? यह तुम्हारी माँ ही कर सकती है बबुनी। सिरचन ने मुस्कुराकर जवाब दिया था।
उस बार मेरी सबसे छोटी बहन की विदाई होने वाली थी। पहली बार ससुराल जा रही थी। मानू के दूल्हे ने पहले ही बड़ी भाभी को खत लिखकर चेतावनी दे दी है-मानू के साथ मिठाई की पतीली न आवे, कोई बात नहीं।
तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपाटियों के बिना आएगी मानू तो……। भाभी ने हँसकर कहा-बैरंग वापस ! इसलिए, एक सप्ताह पहले से ही सिरचन को बुलाकर काम पर तैनात करवा दिया था माँ ने। देख सिरचन, इस बार नई धोती दूँगी; असली मोहर छापवाली धोती। मन लगाकर ऐसा काम करो कि देखनेवाले देखकर देखते ही रह जाएँ।
पान-जैसी पतली छुरी से बाँस की तीलियाँ और कमानियों को चिकनाता हुआ सिरचन अपने काम में लग गया। रंगीन सुतलियों में झब्बे डालकर वह चिक बुनने बैठा। डेढ़ हाथ की बुनाई देखकर ही लोग समझ गए कि इस बार एकदम नए फैशन की चीज बन रही है, जो पहले कभी नहीं बनी।
मंझली भाभी से नहीं रहा गया । परदे की आड़ से बोली-पहले ऐसा जानती कि मोहर छापवाली धोती देने से ही अच्छी चीज बनतों है तो मैया को खबर भेज देती।
काम में व्यस्त सिरचन के कानों में बात पड़ गई। बोला-मोहर छापवाली धोती के साथ रेशमी कुर्ता देने पर भी ऐसी चीज नहीं बनती बहुरिया ! मानू दीदी काकी की सबसे छोटी बेटी है…..मानू दीदी का दूल्हा अफसर आदमी हैं ।
मँझली भाभी का मुंह लटक गया। मेरी चाची ने फुसफुसाकर कहा किससे बात करती है बहू? मोहर छापवाली धोती नहीं, मुँगीया लड्डू। बेटी को विदाई के समय रोज मिठाई जो खाने को मिलेगी देखती है !
दूसरे दिन चिक की पहली पाँती में सात तारे जगमगा उठे, सात रंग के । सतभैया तारा । सिरचन जब काम में मग्न रहता है तो उसकी जीभ जरा बाहर निकल आती है, ओठ पर। अपने काम में मग्न सिरचन को खाने-पीने की सुधि नहीं रहती।
चिक में सुतली के फंदे डालकर उसने पास पड़े सूप पर निगाह डाली-चिउरा और गुड़ का एक सूखा ढेला। मैंने लक्ष्य किया, सिरचन की नाक के पास दो रेखाएं उभर आई। दौड़कर माँ के पास गया-माँ, आज सिरचन को कलेवा किसने दिया है, सिर्फ चिउरा और गुड़?
माँ रसोईघर के अन्दर पकवान आदि बनाने में व्यस्त थी। बोली-मैं अकेले कहाँ-कहाँ क्या-क्या देखें……….अरी मॅझली, सिरचन को बुंदिया क्यों नहीं देती?
-बुँदिया मैं नहीं खाता, काकी! सिरचन के मुँह में चिउरा भरा हुआ था। गुड़ का ढेला सूप में एक किनारे पड़ा रहा, अछूता।
माँ की बोली सुनते ही मंझली भाभी को भौंहें तन गई। मुट्ठी भर बुँदिया सूप में फेंककर चली गई।
सिरचन ने पानी पीकर कहा-मैंझली बहूरानी अपने मैके से आई हुई मिठाई भी इसी तरह हाथ खोलकर बाँटती है क्या?
बस, मँझली भाभी अपने कमरे में बैठकर रोने लगी। चाची ने माँ के पास जाकर । कहा-छोटी जाति के आदमी का मुँह भी छोटा होता है। मुँह लगाने से सिर पर चढेगा ही। किसी की नैहर-ससुराल की बात क्यों करेगा वह ?
मँझली भाभी माँ की दुलारी बहू है। माँ तमककर बाहर आई-सिरचन तुम काम करने आए हो, अपना काम करो। बहुओं से बतकट्टी करने की क्या जरूरत? जिस चीज की जरूरत हो, मुझसे कहो।
सिरचन का मुँह लाल हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया। बाँस में टंगे हुए अधूरे चिक में फंदे डालने लगा।
मानू पान सजाकर बाहर बैठकखाने में भेज रही थी। चुपके से एक पान का बीड़ा सिरचन को देती हुई बोली, इधर-उधर देखकर-सिरचन दादा, काम-काज का घर। पाँच तरह के लोग पाँच किस्म की बात करेंगे। तुम किसी की बात पर कान मत दो।
सिरचन ने मुस्कुराकर पान का बीड़ा मुँह में ले लिया। चाची अपने कमरे से निकल रही थी।
सिरचन को पान खाते देखकर अवाक् हो गई। सिरचन ने चाची को अपने ओर अचरज से घूरते देखकर कहा-छोटी चाची, जरा अपनी डिबिया का गमकौआ जर्दा तो खिलाना। बहुत दिन हुए।
चाची कई कारणों से जली-भुनी रहती थी, सिरचन से। गुस्सा उतारने का ऐसा मौका फिर नहीं मिल सकता। झनकती हुई बोली-मसखरी करता है? तुम्हारी बढ़ी हुई जीभ में आग लगे। घर में भी पान और गमकौआ जर्दा खाते हो ?………चटोर कहीं के। मेरा कलेजा धड़क उठा……..।
बस सिरचन की उँगलियों में सुतली के फंदे पड़ गए मानो, कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा पान को मुंह में बुलाता रहा। फिर अचानक उठकर पिछवाड़े थूक आया। अपनी छरी, हाँसया वगैरह समेट-सम्हालकर झोले में रखा। टँगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आँगन से बाहर निकल गया।
चाची बड़बड़ाई-अरे बाप रे बाप ! इतनी तेजी ! कोई मुफ्त में तो काम नहीं करता।
आठ रुपये में मोहर छापवाली धोती आती है।…………..इस मुँहझौंसे के न मुंह में लगाम है. न आँख में शीला पैसा खर्च करने पर सैकड़ों चिकें मिलेंगी। बाँतर टोली की औरतें सिर पर गट्ठर लेकर गली-गली मारी फिरती हैं।
मानू नहीं बोली। चुपचाप अधूरी चिक को देखती रही।……..सातों तारे मन्द पड़ गए।
माँ बोली-जाने दे बेटी। जी छोटा मत कर, मानू। मेले से खरीदकर भेज दूंगी।
मानू को याद आई, विवाह में सिरचन के हाथ की शीतलपाटी दी थी माँ ने।
ससुरालवालों ने न जाने कितनी बार खोलकर दिखाया था पटना और कलकत्ता के मेहमानों को। वह उठकर बड़ी भाभी के कमरे में चली गई।
मैं सिरचन को मनाने गया। देखा, एक फटी हुई शीतलपाटी पर लेटकर वह कुछ सोच रहा है। मुझे देखते ही बोला-बबुआ जी! अब नहीं।
कान पकड़ता हूँ, अब नहीं…….मोहर छापवाली धोती लेकर क्या करूँगा? कौन पहनेगा?… ससुरी खुद मरी, बेटे-बेटियों को भी ले गई अपने साथा बबुआ जी, मेरे घरवाली जिंदा रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा भोगता?
यह शीतलपार्टी उसी की बुनी हुई है। इस शीतलपाटी को छूकर कहता हूँ, अब यह काम नहीं करूँगा………गाँव भर में तुम्हारी हवेली में मेरी कदर होती थी….अब क्या? मैं चुपचाप लौट आया। समझ गया, कलाकार के दिल में ठेस लगी है। वह नहीं आ सकता।
बड़ी भाभी अधूरी चिक में रंगीन छीट का झालर लगाने लगी यह भी बेजा नहीं दिखाई पड़ता । क्यों मानू!
मानू कुछ नहीं बोली…..बेचारी ! किन्तु मैं चुप नहीं रह सका-चाची और मँझली भाभी को नजर न लग जाय इसमें भो।
मानू को ससुराल पहुँचाने मैं ही जा रहा था।
स्टेशन पर सामान मिलाते समय देखा, मानू बड़े जतन से अधूरी चिक को मोड़कर लिए जा रही है अपने साथ। मन ही मन सिरचन पर गुस्सा आया। चाची के सुर में सुर मिलाकर कोसने को जी हुआ।……कामचोर, चटोर!
गाड़ी आई। सामान चढ़ाकर मैं दरवाजा बंद कर रहा था कि प्लेटफार्म पर दौड़ते हुए सिरचन पर नजर पड़ी-बबुआ जी! उसने दरवाजे के पास आकर पुकारा।
क्या है? मैंने खिड़की से गरदन निकालकर झिड़की के स्वर में कहा। सिरचन ने पीठ पर लदे हुए बोझ को उतारकर मेरी ओर देखा-दौड़ता आया हूँ………दरवाजा खोलिए। मानू दीदी कहाँ है? एक बार देखूँ !
मैंने दरवाजा खोल दिया। सिरचन दादा। मानू इतना ही बोल सकी।
खिड़की के पास खड़े होकर सिरचन ने हकलाते हुए कहा- यह मेरी ओर से है। सब चीज है दीदी। शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी कुश की। गाड़ी चल पड़ी।
मानू मोहर छापवाली धोती का दाम निकालकर देने लगी। सिरचन ने जीभ को दाँत से काटकर, दोनों हाथ जोड़ दिए।
मानू फूट-फूटकर रो रही थी। मैं बंडल को खोलकर देखने लगा-ऐसी कारीगरी, ऐसी बारीकी, रंगीन सुतलियों के फंदों का ऐसा काम, पहली बार देख रहा था।

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Karmveer Kavita – हिन्‍दी कक्षा 8 कर्मवीर कविता

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 3 (Karmveer Kavita) “कर्मवीर” कविता के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के माध्‍यम से कवि ने हमेशा आगे बढ्ते रहने की प्रेरणा दिया है। जो कर्म में वीर होते हैं, वह कभी हार नहीं मानते हैं।

karmveer kavita

Karmveer Kavita

पाठ परिचय- कर्म के प्रति निष्ठा ही व्यक्ति की सफलता का निर्धारण करती है । बाधाएं व्यक्तित्व को निखारने का काम करती हैं। कविता बाधाओं से जूझते हुए उन कर्मशील लोगों की बात करती है, जो सभ्यता-संस्कृति का निर्माण करते हैं।

3. कर्मवीर(Karmveer Kavita)

देखकर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।।
काम कितना ही कठिन हो किंतु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही।
सोचते-कहते हैं जो कुछ, कर दिखाते हैं वही।।
मानते जी की हैं, सुनते हैं सदा सबकी कही।
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत् में आप ही।।
भूलकर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं।
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं।
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।
आज कल करते हुए जो दिन गंवाते हैं नहीं।
यत्न करने में कभी जो जी चुराते है नहीं।।
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके किए।
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।।
चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।।
जो कि हँस-हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
’है कठिन कुछ भी नहीं’ जिनके है जी में यह ठना।।
कोस कितने ही चलें, पर वे कभी थकते नहीं।
कौन-सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।
काम को आरम्भ करके यों नहीं जो छोड़ते।
सामना करके नहीं जो भूलकर मुंह मोड़ते।।
जो गगन के फूल बातों से वृथा नहीं तोड़ते।
संपदा मन से करोड़ों की नहीं जो जोड़ते।।
बन गया हीरा उन्हीं के हाथ से है कारबन।
काँच को करके दिखा देते हैं वे उज्ज्वल रतन ।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।।
गर्भ में जल-राशि के बेड़ा चला देते हैं ।
जंगलों में भी महामंगल रचा देते हैं वे ।।
भेद नभ तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार की सारी क्रिया।।
कार्य-स्थल को वे कभी नहीं पूछते ’वह है कहाँ’।
कर दिखाते हैं असंभव को भी संभव वे वहाँ।।
उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहाँ।
वे दिखाते हैं नया उत्साह उतना ही वहाँ।
डाल देते हैं विरोधी सैकड़ों ही अड़चनें।
वे जगह से काम अपना ठीक करके ही टलें।।
सब तरह से आज जितने देश हैं फूले-फले।
बुद्धि, विद्या, धन, विभव के हैं जहाँ डेरे डले।।
वे बनाने से उन्हीं के बन गए इतने भले।
वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले।
लोग जब ऐसे समय पाकर जनम लेंगे कभी।
देश की औ’ जाति की होगी भलाई भी तभी।।

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Balgovin Bhagat Class 10 Non Hindi – बालगोबिन भगत

Balgovind Bhagat

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 4 (Balgovin Bhagat) “बालगोबिन भगत” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी है | इस पाठ के माध्‍यम से कवि ने यह दर्शाया है कि धर्म कार्योंं में दिखावा नहीं करना चाहिए, बल्कि आचरण को पवित्र और शुद्ध करना चाहिए।

Balgovind Bhagat

4. बालगोबिन भगत (Balgovin Bhagat)

रामवृक्ष बेनीपुरी रचित रेखाचित्र बालगोबिन भगत धर्म के इस मर्म का उद्घाटन करता है कि धर्मपालन आडम्बरों या अनुष्ठानों के निर्वाहण में नहीं बल्कि आचरण का पावित्रता और शुद्धता में है। बालगाबिन भगत गृहस्थ हैं, उनकी वेश-भूषा भी साधुओं जैसी नहीं है, लेकिन उनकी दिनचर्या और निर्णय मनुष्यता की सच्ची और सही परिभाषा रचने में सहायक है। इस पाठ के माध्यम से आप एक नयी गद्य विधा की विशेषताओं और रूप से भी परिचित होंगे।
4. बालगोबिन भगत (Balgovin Bhagat)

बालगोबिन भगत मँझौले कद के गोरे-चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढी या जटाजूट तो नहीं रखते थे. किंतु हमेशा उनका चेहरा सफे़द बालों से ही जगमग किए रहता। कपडे़ बिल्कुल कम पहनते। कमर में एक लंगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी कनफटी टोपी। जब जाड़ा आता, एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते। मस्तक पर हमेशा चमकता हुआ रामानंदी चंदन, जो नाक के एक छोर से ही, औरतों के टीके की तरह शुरू होता। गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते।
ऊपर की तस्वीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे। नहीं, बिल्कुल गृहस्थ, उनकी गृहिणीं की तो मुझे याद नहीं, उनके बेटे और पतोहू को तो मैंने देखा था। थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक अच्छा साफ सुथरा मकान भी था।
किंतु, खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे-साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरनेवाले। कबीर को ’साहब’ मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते।
किसी से भी दो-टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते। इस नियम को कभी-कभी इतनी बारीकी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता! कभी वह दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते!
वह गृहस्थ; लेकिन उनकी सब चीज ’साहब’ की थी। जो कुछ खेत में पैदा होता, सिर पर लादकर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते । जो उनके घर से चार कोस दूर पर था। एक कबीरपंथी मठ से मतलब ! वह दरबार में ’भेंट’ रूप में रख लिया जाता और ’प्रसाद’ रूप में जो उन्हें मिलता, उसे घर लाते और उसी से गुजर चलाते !
इन सबके ऊपर मैं तो मुग्ध था उनके मधुर गान पर जो सदा-सर्वदा ही सुनने को मिलते। कबीर के वे सीधे-सादे पद, जो उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते।
आषाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं। कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी-भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेंड पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही।
ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर तरंग झंकार-सी कर उठी। यह क्या है-यह कौन है। यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथडे, अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं।
उनकी अंगुली एक-एक धान के पौधे को, पंक्तिबद्ध खेत में बिठा रही हैं उनका कद एक-एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों को ओर।
बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं; मेंड़ पर खड़ी औरतों के होंठ काँप उठते हैं, वे गुनगुनाने लगती है। हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं; रोपनी करनेवालों की अँगुलियाँ एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं। बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू!
भादो की वह अँधेरी अधरतिया। अभी, थोड़ी ही देर पहले मुसलाधार वर्षा खत्म हुई है। बादलों की गरज, बिजली की तड़प में आपने कुछ नहीं सुना हो, किंतु अब झिल्ली को झंकार या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सकती।
उनकी खँजड़ी डिमक-डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं-“गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया चिहुँक उठ ना।“ हाँ पिया तो गोद में ही है, किंतु वह समझती है वह अकेली है चमक उठती है, चिहुँक उठती है।
उसी भरे-बादलों वाले भादो की आधी रात में उनका यह गाना अँधेरे में अकस्मात् कौंध उठने वाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता? अरे, अब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है, जगा रहा है। तेरी गठरी में लगा चोर, मुसाफ़िर जाग जरा।
कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत को प्रभातियाँ शुरू हुई, जो फागुन तक चला करतीं। इन दिनों वह सबेरे ही उठते। न जाने किस वक्त जगकर वह नदी स्नान को जाते गाँव से दो मील दूर ! वहाँ से नहा-धोकर लौटते और गाँव के बाहर ही, पोखरे के ऊँचे भिंडे पर, अपनी खँजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते।
मैं शुरू से ही देर तक सोनेवाला हूँ, किंतु एक दिन, माघ को उस दाँत किटकिटानेवाली भोर में भी, उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था। अभी आसमान के तारों के दीपक बुझे नहीं थे। हाँ, पूरब में लोहीं लग गई थी जिसकी लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत, बगीचा, घर-सब पर कुहासा छा रहा था।
सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुँह, काली कमली ओढ़े, बालगोबिन भगत अपनी खँजड़ी लिए बैठे थे।
उनके मुँह से शब्दों का तांता लगा था, उनकी अंगुलियाँ खँजड़ी पर लगातार चल रही थी। गाते-गाते इतने मस्त हो जाते, इतने सुरूर में आते, उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता, अब खड़े हो जाएंगे। कमली तो बार-बार सिर से नीचे सरक जाती। मैं जाड़े से कँपकँपा रहा था, किंतु तारे की छाँव में भी उनके मस्तक के श्रमबिंदु, जब-तब चमक ही पड़ते।
गर्मियों में उनकी ’संझा’ उमसभरी शाम को भी शीतल कर देती थी। अपने घर के आँगन में वे आसन जमा बैठते और गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते।
खँजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी-मंडली उसे दुहराती, तिहराती। धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने लगता-एक निश्चित ताल, एक निश्चित गति से। उस ताल-स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे-धीरे मन तन पर हावी हो जाता।
होते-होते. एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके तन और मन नृत्यशील हो उठे हैं। सारा आँगन नृत्य और संगीत से ओत-प्रोत है।
बालगोबिन भगत की संगीत-साधना, का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया, जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह। कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं।
बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने। उनका बेटा बीमार है, इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुरसत। किंतु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है।
हमने सुना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया। कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा रखे हैं; फूल और तुलसीदल भी।
सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और, उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं। वही पुराना स्वर, वही पुरानी तल्लीनता। घर में पतोहू रो रही है जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं। हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नजदीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिणी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात?
मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था-वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।
बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना।
इधर पतोहू रो-रोकर कहती-मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लु पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए। लेकिन भगत का निर्णय अटल था। तू जा, नहीं तो मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूंगा-यह थी उनकी आखि़री दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती?
बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। वह हर वर्ष गंगा-स्नान करने जाते। स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते, जितना संत-समागम और लोक-दर्शन पर। पैदल ही जाते।
करीब तीस कोस पर गंगा थी। साधु को संबल लेने का क्या हक? और, गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे? अतः घर से खाकर चलते, तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते, गाते जहाँ प्यास लगती, पानी पी लेते।
चार-पाँच दिन आने-जाने में लगते; किंतु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती। अब बुढ़ापा आ गया था, किंतु टेक वही जवानीवाली। इस बार लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुखार आने लगा। किंतु नेम-व्रत तो छोड़नेवाले नहीं थे।
वही दोनों जून गीत, स्नानध्यान, खेतीबारी देखना। दिन-दिन छीजने लगे। लोगों ने नहाने-धोने से मना किया, आराम करने को कहा। किंतु, हँसकर टाल देते रहे।
उस दिन भी संध्या में गीत गाए, किंतु मालूम होता जैसा धागा टूट गया हो, माला का एक-एक दाना बिखरा हुआ। भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ उनका पंजर पड़ा है।

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