Bachhe Ki Dua Class 10 Non Hindi – बच्‍चे की दुआ

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 8 (Bachhe Ki Dua) “बच्‍चे की दुआ” के व्‍याख्‍या को जानेंगे। जिसके लेखक मोहम्‍मद इकबाल है। इस पाठ में कवि ने ईश्‍वर से जरूरत वालों और बेसहारा को मदद करने की दुआ माँगी है।

Bachhe Ki Dua

पाठ परिचय –प्रस्‍तुत पाठ बच्चे की दुआ (Bachhe Ki Dua) एक प्रार्थना गीत है इसमें दर्दमंद और वंचितों की हिफ़ाज़त का संकल्प है तथा खुद को बुराई से बचाकर नेक राह पर चलने की दुआ माँगी गयी है।

8. बच्चे की दुआ

लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्अ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए
हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की जी़नत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या-रब
इल्म की शम्अ से हो मुझको मुहब्बत या-रब
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो, उस राह पे चलाना मुझको

    अर्थ – मेरी इच्छाएं मेरे होठों पर प्रार्थना की तरह आती हैं कि हे ईश्वर मेरे जीवन को दीपक के समान बना। मैं दुनिया का अंधेरा अपने दम से दूर कर सकूं। हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए। मेरे दम से मेरे वतन की इस तरह सोभा बढे़ जिस तरह बागों की सोभा फूलों से होती है। हे ईश्वर मुझे पतिंगा बना दे जो ज्ञान के दीपक पे मंडराता हो। हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना। बुज़ुर्गों और परेशान लोगों से मोहब्बत करना। हे ईश्वर बुराई से बचाना मुझको। नेक जो राह हो उस पर चलाना मुझको।

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Class 10 Non Hindi Eidgah – ईदगाह कहानी

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 2 (Eidgah) “ ईदगाह” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के  प्रेमचंद्र है |रमजान के पूरे तीस रोंजों के बाद आज ईद आई है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। उनकी जेबों में कुबेर का धन जो भरा हुआ है।

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2. ईदगाह (Eidgah)

रमजान के पूरे तीस रोंजों के बाद आज ईद आई है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। उनकी जेबों में कुबेर का धन जो भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खज़ाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद के पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास पंद्रह पैसे हैं। इनसे तो अनगिनत चीजें खरीद सकते हैं-खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और न जाने क्या-क्या। और सबसे ज़्यादा प्रसन्न है हामिद।
वह चार-पाँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट चढ़ गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है।
अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही थी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है- “तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।“
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद को कैसे अकेले मेले में जाने दे। कहीं खो जाए तो क्या होगा? नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे! पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी थोड़ी दूर पर उसे गोद ले लेगी। लेकिन यहाँ सिवइयाँ कौन पकाएगा? धोबिन, नाइन, मेहतरानी और चूड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सिवइयाँ चाहिए। साल भर का त्योहार है।
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। उसके पैरों को तो जैसे पर लग गए हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के खूब हँस रहे हैं।
ईदगाह आ गई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया। नीचे पक्का फर्श है। रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक दूर तक चली गई हैं। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ घुटनों के बल बैठे जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ।
नमाज़ खत्म हुई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौनों की दुकानों पर धावा होता है। तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही, गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती, धोबिन और साधु।
महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ी वाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर पर मशक रखे।
नूर को वकील से प्रेम है। काला चोंगा, नीचे सफेद अचकन, एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए। सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं।
हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? कहीं हाथ से छूट गया, तो चूर-चूर हो जाएगा, पानी पड़ा तो सारा रंग धुल जाएगा। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा?
सब अपने-अपने खिलौनों की तारीफ कर रहे हैं। हामिद ललचाई आँखों से खिलौनों को देख रहा है। चाहता है कि ज़रा देर के लिए ही सही, वह उन्हें हाथ में ले सकता। वह हाथ आगे बढ़ाता है लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है।
मिठाइयों की दुकाने आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन, किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। लेकिन हामिद! अभागे के पास सिर्फ तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता?
मोहसिन उसकी ललचाई नजरें देखकर कहता है-“हामिद, रेवड़ी ले खा, कितनी खुशबूदार है।“ जैसे ही हामिद हाथ फैलाता है, मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे, और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मिठाई की दुकानों के बाद लोहे की चीजों की दुकानें हैं। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण नहीं था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख़याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है, अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वे कितनी प्रसन्न होंगी? फिर उनकी उँगलियाँ कभी नहीं जलेंगी। खिलौने से क्या फायदा. व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं।
अम्मा चिमटा देखते ही कहेंगी-’मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है।’ हजारों दुआएँ देंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी।
सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौनों पर कौन दुआएँ देगा। बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं।
दुकानदार से बड़ी मुश्किल से मोलभाव करके हामिद ने चिमटा तीन पैसों में ले लिया।
उसे कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ साथियों के पास आया। मोहसिन ने हँसकर कहा-“यह चिमटा क्यों लाया पगले? इससे क्या करेगा?’ महमूद बोला, “चिमटा कोई खिलौना है?“
हामिद बोला, “क्यों नहों? अभी कंधे पर रखा तो बंदूक हो गई। हाथ में लिया फ़कीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो मंजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूं तो तुम सबके सारे खिलौनों को जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। मेरा बहादुर शेर है-चिमटा।“
सम्मी ने खंजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला-’मेरी खंजरी से बदलोगे?“
हामिद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा-“मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खंजरी का पेट फाड़ डाले।“ चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया। औरों ने तीन तीन, चार-चार पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज़ न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया।
सबने अपने अपने खिलौने देकर चिम्टा पकड़ने का प्रस्ताव रखा। हामिद मान गया। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं। पर उसका चिमटा तो रुस्तमे हिंद है-सभी खिलौनों का बादशाह।
गाँव पहुँचकर बच्चों ने अपने-अपने खिलौने से खेला, पर थे तो वे मिट्टी के। कुछ ही देर में टूट-फूट गए। अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी। गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी! “यह चिमटा कहाँ से लाया?“
“मैंने मोल लिया है।“ “कै पैसे में?’’ ’’तीन पैसे दिए।“
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है, न कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा “सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?“
हामिद ने अपराधी भाव से कहा, “तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे ले लिया।“ बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया। यह स्नेह मूक था, खूब ठोस,
रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर कितना ललचाया होगा मन! इतना ज़ब्त इससे हुआ कैसे! वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्गद् हो गया।
अमीना की आँखें भर आईं। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता।

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Class 10 Non Hindi Bihari Ke Dohe – बिहारी के दोहे

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 1 ( Bihari Ke Dohe) “ बिहारी के दोहे” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि बिहारी हैं | प्रस्‍तुत कविता के माध्‍यम से कवि ने नीतिपरक दोहों को बताया है।

Bihari Ke Dohe
Bihari Ke Dohe

6. बिहारी के दोहे
रीतिकाल के प्रतिष्ठित शृंगारिक कवि बिहारी के दोहे गागर में सागर हैं। वैसे तो बिहारी प्रेम के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं, पर उनके भक्ति और नीतिपरक दोहों को भी व्यापक लोकप्रियता मिली। इस पाठ में उनके द्वारा रचित तीनों तरह के दोहे शामिल हैं।
लेखक- बिहारी
मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परै स्यामु हरित दुति होय।।
बिहारी कहते हैं कि हे राधा ! मेरी बाधाओं को दूर करो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हारे शरीर की परछाईयाँ पड़ते ही कृष्ण का रूप श्याम और अति सुंदर हो गया।
जपमाला, छापै, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु।।
बिहारी कहते हैं कि हाथ में जपमाला थाम, तिलक लगा कर आडम्बर करने से कोई काम नहीं होता। मन काँच की तरह क्षणभंगुर होता है जो व्यर्थ में नाचता रहता है। इन सब दिखावे को छोड़ अगर भगवान की सच्चे मन से आराधना की जाए तभी काम बनता है।
बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सोहँ करें भौं हनु हँस, दैन कहे नटि जाइ।।
बिहारी कहते हैं कि गोपियों ने श्रीकृष्ण से बात करने की लालसा के कारण उनकी बाँसुरी छुपा दी है। वे भौंहों से संकेत कर मुरली ना चुराने की कसम खाती हैं। वे कृष्ण को उनकी बाँसुरी देने से इनकार करती है।
जब-जब वै सुधि कीजिये, तब-तब सुधि जहि।
आँखिनु आँखि लगी रहैं, आँखें लागति नाँहि।।
बिहारी कहते हैं कि जब-जब उन बातों को याद आती है, तब-तब सभी सुधि जाती रहती है। बिसर जाती है। उनकी आँखे मेरी आँखों से लगी रहती है, इसलिए मेरी आँखे भी नहीं लगतीं-मुझे नींद नहीं आती।
नर की अरु नल-नीर की गति एक करी जोय।
जेतो नीचौ हवै चलै तेतो ऊँचो होय।।
बिहारी कहते हैं कि नर (मनुष्य) और नल के पानी की एक ही गति होती है नल का पानी जितना नीचे होता है उतना ऊपर हो जाता है। अर्थात् जो नल का पानी नीचे गिरता है वो किसी न किसी माध्यम से नदी या समुद्र में जाता है और वहाँ से सूर्य के ताप से भाप में बदल कर ऊँचाई में चला जाता है। उसी तरह मनुष्य जितना विनम्र होता है उतना हि ऊपर जाता है अर्थात् महानता प्राप्त करता है।
संगति सुमति न पावही परे कुमति के धन्ध।
राखौ मेलि कपूर में हींग न होत सुगंध।।
बिहारी कहते हैं कि जो कुमति के धंधे में पड़ा रहता है। जिसे खराब काम करने की आदत सी लग जाती है, वह सत्संगति से भी सुमति नहीं पाता-नहीं सुधरता। कपूर में मिलाकर भले ही रखो, किन्तु हींग सुगंधित नहीं हो सकती।
बड़े न हूजै गुनन बिनु, बिरद बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सो कनक, गहनो गढ़यो न जाय।।
बिहारी कहते हैं कि बिना गुण के कोई भी व्यक्ति बड़ा नहीं हो जाता। चाहे उसकी कितनी भी प्रशंसा न की जाय। लेकिन जिस तरह सोना और धतुरा दोनां का रंग एक ही होता है, लेकिन सोना में विशेष गुण होता है जिससे उसका आभूषण बनता है लेकिन धतूरा का नहीं।
दीरघ साँस न लेहु दुख, सुख साई हि न भूल ।
दई दई क्यौं करतू है, दई दई सु कबूलि।।
बिहारी कहते हैं कि दुःख में लम्बी साँस न लो, और सुख में ईश्वर को मत भूलो। दैव-दैव क्यों पुकारते हो ? दैव (ईश्वर) ने जो दिया है उसे कबूल करो।

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Class 10 Non Hindi Hundru Ka Jalprapat – हुंडरू का जलप्रपात

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 1 (Hundru Ka Jalprapat) “ हुंडरू का जलप्रपात” के व्याख्या को जानेंंगे इस पाठ के कवि कामता प्रसाद सिंह “काम” है | प्रस्‍तुत पाठ मेंं लेखक ने छोटानागपुर के एक झरना की विशेषता को बताया है, जो प्राक़तिक द़ष्टि से एक स्‍वर्ग के टुकड़ा जैसा प्रतित होता है।

Hundru Ka Jalprapat

Hundru Ka Jalprapat

5 हुंडरू का जलप्रपात

सामान्यतः यात्रा वृतांतों में पारंपरिक रूप से महत्त्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक स्थानों का वर्णन किया जाता है। ’हंडरू का जलप्रपात’ आदिवासी संस्कृति की विशिष्टता को उभारने वाला यात्रा वृतांत है। इस दृष्टि से पाठ उल्लेखनीय है। पहाड, नदी, जंगल की सुंदरता के साथ ही, उस इलाके में आसानी से उपलब्ध अबरक और कोयला खदानों का भी वर्णन है। यानी प्रकृति के साथ हो, मनुष्य की जिजीविषा और श्रम की महत्ता का भी संयोजन है। पाठ में बहुलवादी संस्कृति (सामासिक संस्कृति) के प्रति विश्वास प्रकट किया गया है। झरने की सुंदरता और प्राकृतिक दृश्यों की विशिष्टता के उद्घाटन से पाठ रोचक बन गया है।
हुंडरू का जलप्रपात
जलप्रपात का अर्थ- ऊँचे से गिरनेवाला प्राकृतिक झरना।
“छोटानागपुर‘ स्वर्ग का एक टुकड़ा है।“
जमीन में हरियाली, आकाश में नीलिमा। पग-पग पर पहाडों को देखकर धरती भी ऊबड़-खाबड़ और ऊँची हो गई है। तीव्र धारा और गँदले पानी के साथ नदियाँ बलखाती बह रही हैं जिन्होंने मैदानों की छाती चीरी है और पर्वतों का अन्तर फोड़ा है। झाड़ी-झुरमुटों, पेड़-पौधों और लता-गुल्मों के साथ जंगल अपनी जगह पर आबाद है जिन्होंने जंगली जानवरों को शरण दिया है। बेहतरीन सड़के जिनके बनाने में ठीकेदारों को कम तरद्दुद और विभाग को कम व्यय पड़ा है, साँप की तरह भागी जा रही हैं और उन्हीं के साथ कुछ सवारी पर, कुछ पैदल मुसाफिर भी द्रुतगति से चले जा रहे हैं।
धरती पर आदिवासियों का नृत्य हो रहा है और आसमान में बादल आँख मिचौनी खेल रहे हैं। जन-जन के कंठ से मादक गीतों की सृष्टि हो रही है जिनसे पहाड़ और मैदान गुँज रहे हैं। जंगली जानवरों की आवाज के साथ जंगल का कोना कोना बोल रहा है। विचित्र-विचित्र पक्षियों की चहकन से पेड़ों की शाखा-शाखा गुलजार है।
सुन्दर जलवायु, मनहर वातावरण। हवा धीरे-धीरे डोलती है तो अपने साथ फूलों की सुरभि बिखेरती चलती है। बादल धीरे-धीरे बरसते हैं तो उनसे स्वस्थ शरीर और सुन्दर स्वास्थ्य का वरदान मिलता है। नदियाँ कलकल छलछल स्वर में बहती हैं तो किनारे पर के रहनेवाले को अमृत बाँटती जाती हैं। झरने सतत झर-झरकर आँखों को तरी तथा नमी, कल्पना को सुन्दर खुराक, चित्त को स्वच्छता और पवित्रता प्रदान करते हैं।
खानों में कोयला और अबरक, जंगल में तरह-तरह की लकड़ी, फूल-फुनगियों पर नाचती तितलियाँ, फल-भार से झुके जा रहे पेड़, शोभा-संपन्न अवर्णनीय घाटियाँ, सुषमा की दर्शनीय नदियाँ, हरीतिमावाले मनमोहक मैदान, मन पर जादू-जैसा असर करनेवाले पर्वत, मस्त निवासी इन सबके साथ, यह छोटानागपुर है।
एक ओर पृथ्वी अपने कोष को उगल रही है, तो वह कोयला बनकर लोगों के घरों में सोना ला रहा है। एक ओर पृथ्वी अपनी चमक-दमक का प्रदर्शन कर रही है तो वह अबरक बनकर दुनिया का श्रृंगार कर रही है।
अपने निरंतर संघर्ष से नदियाँ पत्थरों को ख़राद्-ख़राद् एक नवीन आकार में प्रस्तुत कर रही हैं, तो उसे लोग श्वेत शालिग्राम कहकर पूजते हैं। पत्थरों से करुणा की धारा झर रही है जिसे लोग झरना कहकर विस्मित भाव से देखते हैं।
इस छोटानागपुर में कई दर्शनीय झरने हैं, पर उनमें हुंडरू का झरना निराला है। मैं जब भी राँची गया, हुंडरू देखने ज़रूर जाता हूँ। यह झरना है जिसने मेरे मन-प्राण पर जादू किया है। यह झरना है। जिसकी स्मृति भूलती नहीं; यह झरना है। जिसके बारे में लिखते हुए मैं अघाता नहीं।
राँची से पुरुलियावाली सड़क पर 14 मील जाने के बाद एक सड़क मिलती है। जिससे हुंडरू पहुँचते हैं। पुरुलिया रोड से उसकी दूरी 13 मील है। यों राँची से हुंडरू 27 मील दूर है।
महात्मा गाँधी ने कहा है कि साध्य की पवित्रता एवं महत्ता तभी है जब उसका साधन भी महान हो। महान मंजिल पर पहुँचने के लिए मार्ग भी महान ही चाहिए। जैसा हुंडरू का झरना, वैसा उसका मार्ग।
राँची से चलनेवाले मुसाफिर को झरना पहुँचने तक ऐसे-ऐसे सुन्दर मैदान मिलते हैं कि वहाँ थोड़ी देर ठहरकर टहलने की इच्छा होती है। ऐसे जंगल दिखलाई पड़ते हैं जिनकी विभीषिका से शायद बाघ को भी डर लगता हो और बीच-बीच में पहाड़ी उस पर झाड़ी। सब दर्शनीय, सब वर्णनीय! चूँकि महीना अगस्त का था, इसलिए धान की क्यारी की भी न्यारी हरियाली थी। बलखाती सड़क जिसपर चलने में आनंद आए।
पथरीली जमीन एवं पत्थर की छाती चीरकर बहनेवाली पतली नदी जिसके देखने में आनंद आए। पेड़ों पर चहकती चिड़ियाँ जिनकी चहक सुनने में आनंद आए। सब मिलकर आनंद को कई गुणा बढ़ा रहे थे। हवा यों डोल रही थी, जैसे सलाह लेकर डोल रही हो।
छोटानागपुर के निवासी सादगी के अवतार और गरीबी की मूर्ति, जिनकी रहन-सहन में शत-प्रतिशत कला बसती है, मार्ग में यों खड़े थे, जैसे मेरा स्वागत कर रहे हों। मकई के पौधे कहीं-कहीं अगल-बगल में यों लहरा रहे थे-जैसे यहाँ वालों की किस्मत लहरा रही हो।
इस प्रकार मार्ग-दर्शन का आनंद लेते हुए हम हुंडरू के पास पहुँचे। एक बार मन ही मन मैंने झरने को प्रणाम किया।
पहाड़ पर पानी की यह अजीब लीला है जिसका मुकाबला न रामलीला करे, न रासलीला। पानी का इस प्रकार उछलना-कूदना, धूम मचाना और उसकी यह आवाज़ जैसे, दस-पाँच हाथी एक बार चिंघाड़ रहे हों जैसे- दस-पाँच ट्रेन के इंजन एक साथ आवाज़ कर हां, जैसे- एक साथ कई हवाई जहाज चक्कर काट रहे हों या जैसे- कई सहस्र नाग एक साथ फन फैलाकर फुफकार कर रहे हों। पहुँचने के साथ यात्री के कानों में ऐसी ही आवाज़ पड़ती है।
और अब झरना देखने लगा। वातावरण की पवित्रता ऐसी कि मालूम होता है, मानो हम देवलोक के समीप पहुँच गए।
है क्या यह ! युग-युग से पानी का आघात है-पत्थर की बर्दाश्त है और यों एक प्रकार से यह पत्थर की क्षमता का प्रदर्शन हैं। पर एक पत्थर ऐसा भी है जिसकी छाती को चीरकर पानी निकलता है।
यां एक प्रकार से यह जल की क्षमता का प्रदर्शन है जिसके सामने पत्थर भी मात है। हाँ, पत्थर मात है-करुणा के सामने, प्रेम के सामने जिसके अपार बल के स्वरूप पत्थर की छाती से धारा फूटती है, पत्थर को आँख से आँसू निकलते हैं और पत्थर का कलेजा पिघल जाता है।
पहाड़ पर नदी का यह खेल है। यह नदी है स्वर्णरेखा-जिसके उद्गमस्थान से 50 मील आगे आकर हुंडरू का यह झरना है। स्वर्णरेखा नदी राँची, धनबाद, सिंहभूम एवं बालासोर जिलों से होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
नदी जहाँ पहाड़ को पार करने की चेष्टा में पहाड़ पर चढ़ती है, वहाँ पानी की कई धाराएँ हो जाती हैं और जब सबकी सब धाराएँ एक होकर पहाड़ से नीचे गिरती हैं, एक विचित्र दृश्य दिखलाई देता है। वही झरना है जिसकी ऊँचाई 243 फुट है। उजला पानी ऐसा प्रतीत होता है कि पानी के चक्कर और भंवर में पिसकर पत्थर का सफेद चूर्ण गिर रहा है।
कभी ऐसा भी मालूम होता है कि रूई धुनने वाला अपनी धुनकी पर रूई धुनकर ऊँचे बैठा हुआ गल्ले को नीचे गिरा रहा है। बचपन में हवा की मिठाई लेकर फेरीवाला आता था तो उसका रंग लाल होता था। प्रतीत होता है, वैसी हीं; लेकिन उजले रंग की हवा की मिठाई लेकर पर्वत आज स्वयं फेरी देने निकला है। इंद्रधनुष फरफरा रहा है।
और कहीं-कहीं बीच में चट्टान पर जब प्रबल धारा गिरती है, तो संघर्ष से इंद्रधनुष जैसा रंग उत्पन्न होता है। जान पड़ता है कि सतरंगा पानी हवा में उड़कर विलीन हो रहा है या हवा में उड़ता इंद्रधनुष फरफरा रहा है।
चारों ओर जंगल और पहाड़ के बीच में प्रकृति की यह लीलास्थली है। झरना के एक ओर का जंगल राँची में है, एक ओर का जंगल हजारीबाग में और बीच में झरना बह रहा है. मानो उसका यह संदेश हो कि वह सबके लिए है, सबका कल्याण उसका उद्देश्य है। वह न राँची का है, न हजारीबाग का, बल्कि सबका है।
बड़े झरने को बगल में एक इंच मोटी एक धारा ऊपर से नीचे धीरे धीरे पत्थरों पर से उतर रही है- जैसे महादेवजी पर कोई भक्त दुध चढ़ा रहा हो। नीचे जहाँ घनघोर धारा गिरती है, वहाँ पानी करीब 20 फुट ऊपर उछलता है। लगता है, पत्थर को चीरकर आनेवाले पानी का स्वागत करने और उसको कंठहार पहनाने के लिए नीचे से पानी ऊपर दौड़ता है।
मेरे मित्र कहते हैं कि शिवजी की बारात शायद इस राह से गुजरी थी। उसका स्वागत करने को पर्वत ने इस गुलाबपाश का प्रबन्ध किया था। वहीं गुलाबपाश शाश्वत होकर अभी भी झरझर कर रहा है।
स्वयं झरने से भी ज्यादा खूबसूरत मालूम होता है झरने के आगे की घाटी का दृश्य। पहाड़ों के बीच एक पतली सी नदी बहती जाती है, जैसे थर्मामीटर में एक पतला पारा हो। आगे भी एक पहाड़ मालूम होता है।
ज्ञात होता है, पहाड़ नदी को ललकार रहा है कि यहाँ से तुम किसी प्रकार पार होकर मेरे आगे जा सको तो जानें यहाँ पर नदी यों दिखाई देती है जैसे, नदी के इर्द-गिर्द पत्थरों का अंबार लगाकर उस पर झाड़ी उगाई गई हो। प्रकृति या परमात्मा ने अपने हाथ से यह सब किया होगा अन्यथा मनुष्य जाति में इतनी सामर्थ्य कहाँ ? सैकड़ों वर्षों में भी मानव के प्रयत्नों से शोभा के इस विशाल वैभव की सृष्टि कठिन है।
पहाड़ के ऊपर से एक पतली-सी पगडंडी नीचे गई है और उसके सहारे हम भी कई बार नीचे गए हैं। नीचे जाकर हम अनिमेष कुछ देर तक इस शोभा से अपनी आँखों की प्यास बुझाते रहे हैं।
यह शोभा, वह छटा और यह दृश्य-यह इतना बड़ा प्रपात जहाँ 243 फुट से पानी नीचे गिरता है। बीच-बीच में चट्टानों की वजह से हुंडरू की शोभा बिखर जाती है। पानी कुछ पीलापन लिए हुए है और यो सरसराता-हरहराता गिरता है कि कुछ भयंकर मालूम पड़ता है।
जोन्हे में यहाँ पानी गिरता है, बिल्कुल सफेद है और यह भयंकरता भी उसमें नहीं है। वह माधुर्य और कोमलता से ओत-प्रोत जान पड़ता है। यहाँ का पानी निरंतर संघर्ष के साथ चट्टान पर गिरता हुआ, मानो आग की सृष्टि करता है जिसका धुआँ बराबर ऊपर उड़ता रहता है।
हुंडरू का पानी कहीं साँप की तरह चक्कर काटता है, कहीं हरिण की तरह छलांग भरता है और कहीं बाघ की तरह गरजता हुआ नीचे गिरता है। सारा पानी एक जगह सिमटकर जहाँ नीचे गिरता है, उस जगह इसका रूप बहुत विशाल और भयंकर हो गया है।
उस जगह हाथी भी जाए तो धारा के साथ कहाँ चला जाए, इसका पता मिलना मुश्किल है। इसके बाद धीरे-धीरे मंथर गति से इसका पानी नदी के रूप में जिसको देखने के लिए दिन-रात दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है।
यहाँ डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की ओर से एक बंगला बनवा दिया गया है लेकिन खाने-पीने के सामान का यहाँ भी अभाव है। हंडरू-प्रपात की भीड़ और चीजों का अभाव देखकर ख़्याल आया कि यहाँ के लोग सचमुच अव्यावहारिक है।
अगर किसी दुसरी जगह में ऐसा झरना होता. तो वहाँ के लोग इसके पास दुकान बगैरह सजाकर अपने लिए आय और दूसरों के लिए सुविधा की व्यवस्था कर देते।
धन्य हुंडरू! किस यग से किस महाकवि की वाणी, किस संगीत की स्वर-लहरी और किस प्रेमी की रुदन-ध्वनि से पिघलकर यह पाषाण बह रहा है, यह कह सकना असंभव है। पत्थर का अंतस्थल जैसे पिघलकर बह रहा है. वैसे यदि मनष्यों का अंतर द्रवित होकर बहने लगता तो संसार से कलह, कपट, स्वार्थ और छीना-झपटी का अंत हो जाता।
यहाँ दो तरह के पत्थर देखने में आए। एक वह पत्थर है जिसका अंतर फोड़कर विशाल झरना झर रहा है और एक वह भी पत्थर है जिस पर न जाने किस युग से पानी की यह धारा गिर रही है, पर वह जरा भी विचलित नहीं होता। ज्यों का त्यों खड़ा रहता है। घिसता भी नहीं, फँसता भी नहीं, खिसकता भी नहीं।
243 फुट का यह प्रपात निराला है।सुन्दरता यहाँ साकार हो गई है और वर्णन शक्ति को यहाँ और भावों की कमी हो गई है। विचित्र शोभा है, जो कभी पुरानी नहीं पड़ती और धन्य प्रपात है, जो सदा एक-सा बह रहा है। अविरल और अविचल दोनों का उदाहरण यहाँ एक बार में ही उपस्थित है।
दानी दान करता है तो गुमान करता है; पर युग-युग से न जाने कितना पानी यह पहाड़ दान कर चुका, पर इसको कोई अभिमान नहीं है।
अंधे आवाज सुन लें तो प्रवाह का अंदाज लगा लें और बहरे प्रवाह देख लें तो आवाज का अंदाज लगा लें। समुद्र गंभीरता के लिए प्रसिद्ध है, तो यह हुंडरू अपनी चपलता के चलते मशहूर है।
किंवदंती यह है कि इस हुंडरू से 7 मील पर कुछ लोगों ने एक प्रपात देखा है जो इससे कई गुना बड़ा है; पर वहाँ जाने का रास्ता इतना बीहड़, घनघोर और भयंकर है कि जंगल के उस भाग में पहुँच सकना दुशवार है। अगर बात सही है, तो जंगल विभाग को उसका ठीक पता लगाकर वहाँ तक मार्ग का निर्माण कर देना चाहिए, जिससे वह प्रपात भी जनता के सामने आ सके।
जो भी हो, हुंडरू दर्शनीय है। इसकी याद भूलने की नहीं। कितने दिन गुजर गए, लेकिन पानी आँखों के सामने उसी प्रकार उछल-कूद मचा रहा है।

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Class 10 Non Hindi Tu Jinda Hai To… – तू जिन्दा है तो… कविता

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 1 (Tu Jinda Hai To) “ तू जिन्दा है तो……..” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि शंकर शैलेन्द्र है |कविता परिचय- ’तू जिन्दा है तो……. ’ प्रस्‍तुत कविता गहरे जीवन राग और उत्साह को प्रकट करती है । 

tu jinda hai to

1. तू जिन्दा है तो…….. (Tu Jinda Hai To……..)
कवि – शंकर शैलेन्द्र
कविता परिचय- ’तू जिन्दा है तो……. ’ कविता गहरे जीवन राग और उत्साह को प्रकट करती है । इस जीवन राग में अतीत के दुखदायी पलों को भूलकर आशा और जीत की नई दुनिया का स्वागत करने की प्रेरणा है।
1. तू जिन्दा है तो…….. (Tu Jinda Hai To……..)
तू जिन्दा है तो……..
तू जिन्दा है तो जिन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गये हज़ार दिन
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
तू जिन्दा है तो…………
सुबह और शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,
तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूम कर
तू आ मेरा सिंगार कर तू आ मुझे हसीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिन्दा है तो….
हजार भेष घर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी, चली गई वो हारकर
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
तू जिन्दा है तो….
हमारे कारवां को मंजिलों का इंतजार
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिन्दा है तो……..
जमी के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये
मुसीबतों के सर कुचल, चलेंगे एक साथ हम
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
तू जिन्दा है तो…..
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इंकलाब ये
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू जिन्दा है तो…..

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