Bihar Board Class 6 Social Science Ch 3 शहरी जीवन-यापन के स्‍वरूप | Sahar Jivan Yapan Ke Swaroop Class 6th Solutions

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 6 सामाजिक विज्ञान के पाठ 3. शहरी जीवन-यापन के स्‍वरूप (Sahar Jivan Yapan Ke Swaroop Class 6th Solutions)के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

3. शहरी जीवन-यापन के स्‍वरूप

पाठ के अन्दर आये प्रश्न तथा उनके उत्तर

( पृष्ठ 29 )

प्रश्न 1. किन आधारों पर कहेंगे कि फुटपाथ या पटरी पर काम करने वाले स्वरोजगार में लगे होते हैं ?
उत्तर—चूँकि फुटपाथ या पटरी पर काम करने वाले अर्थात् दुकान चलाने वाले किसी के अधीन काम नहीं करते। वे अपनी पूँजी लगाते हैं और अपने स्वयं श्रम करते हैं। आवश्यकतानुसार ये श्रम खरीदते भी हैं । इन्हीं आधारों पर हम कह सकते हैं कि फुटपाथ या पटरी पर काम करने वाले ‘स्वरोजगार’ में लगे होते हैं । वे किसी की गुलामी नहीं करते ।

प्रश्न 2. अपने आस-पास के फुटपाथ पर फल की दुकान लगाने वाले किसी व्यक्ति से पूछकर बताइए कि उसकी दिनचर्या जैसे वह फल कहाँ से एवं कब खरीदता है ? वह सुबह दुकान कब चलाता है ? शाम को दुकान कब उठाता है ? यानी वह दिन भर में कितने घंटे काम करता है ? इस काम में उसके परिवार के सदस्य उसकी क्या मदद करते हैं ?
उत्तर – एक फुटपाथी फल वाले से फल वाली सारी बातें पूछीं । उसने बताया कि सुबह 6 से 7 बजे तक वह फलं की थोक मंडी में चला जाता है । वहाँ वह फलों का चुनाव करता है और दिन भर बेचने योग्य फल थोक में खरीदकर दुकान लगाने की जगह पहुँच जाता है । इसके पहले उसका पुत्र बचे हुए फल रखकर बिक्री प्रारंभ कर चुका रहता है । मेरे पहुँचने पर वह स्कूल चला जाता है । अब आज लाये फलों को सजा कर मैं बैठ जाता हॅू। मेरा छोटा बेटा और बेटी दोपहर में चले आते हैं। उनपर दुकान छोड़कर मैं घर जाता हूँ और भोजन कर थोड़ा आराम करता हूँ और फिर दुकान पहुँच जाता हूँ । बेटा-बेटी घर चले जाते हैं सात-आठ बजे रात तक दुकान पर रहता हूँ । बचे हुए फल को टोकरी में रखकर घर चला जाता हूँ । दूसरे दिन मेरी पत्नी सड़े-गले फलों और अच्छे फलों की छँटाई कर देती है । फिर दूसरे दिन का काम पहले दिन जैसे शुरू हो जाता है परिवार के सदस्य मेरी क्या मदद करते हैं, उसकी चर्चा ऊपर हो चुकी है।

( पृष्ठ 30 )

प्रश्न 1. श्यामनारायण कुछ समय शहर में रहता है एवं कुछ समय गाँव में रहता है । क्यों ?
उत्तर – श्यामनारायण गाँव का एक कृषक मजदूर है। इसे अपनी कृषि भूमि नहीं, जिस कारण इसे दूसरों के खेत में काम करना पड़ता है । लेकिन खेतों में अधिक दिनों तक लगातार काम नहीं रहता। इसी खाली समय में आय अर्जित करने के लिए उसे शहर आ जाना पड़ता है । यही कारण है कि श्यामनारायण कुछ समय शहर में रहता है और कुछ समय गाँव में रहता है ।

प्रश्न 2. श्यामनारायण रैन बसेरा में क्यों रहता है ?
उत्तर—श्यामनारायण रैन बसेरा में इसलिए रहता है क्योंकि शहर में रहने या रात बिताने का कोई स्थान नहीं है। सरकार ने ऐसे ही बेघरवालों के लिए रैन- बसेरा बना रखा है । इसी कारण श्यामनारायण रैन बसेरा में रहता है। इससे उसे जाड़ा और बरसात से रक्षा हो जाती है ।

( पृष्ठ 32 )

प्रश्न 1. जो बाजार में सामान बेचते हैं और जो सड़कों पर सामान बेचते हैं उनमें क्या अन्तर है ?
उत्तर— जो बाजार में सामान बेचते हैं और जो सड़कों किनारे सामान बेचते हैं उनमें यह अन्तर है कि बाजार वालों के पास स्थायी मकान होता है। वह मकान नीज का या किराया का हो सकता है। लेकिन सड़क किनारे वालों को अपना स्थायी स्थान नहीं होता है । इसका परिणाम होता है कि नगर निगम वाले या पुलिस के सिपाही उसे हमेशा तंग करते रहते हैं । रोज उन्हें कुछ-न-कुछ नगद रुपया देना होता है। वर्षा धूप से भी इन्हें कोई खास सुरक्षा नहीं मिलती ।

प्रश्न 2. प्रमोद और अंशु ने एक बड़ी दुकान क्यों शुरू की ? उनको यह दुकान चलाने के लिए कौन-कौन से कार्य करने पड़ते हैं?
उत्तर – प्रमोद के पिता एक छोटे दुकानदार थे । प्रमोद के चाचा भी दुकान काम करते थे। छुट्टी के दिनों में प्रमोद भी दुकान पर बैठता था। उसकी माँ भी उसके साथ रहती थी । ये लोग दुकानदारी में मदद किया करते थे । उस समय प्रमोद कॉलेज का छात्र था । स्तामक की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद उसकी इच्छा बड़ी दुकान खोलने की हुई। उसने एक बड़ा शोरूम चालू कर दिया। दुकान चल निकली। अब वह अपनी पत्नी अंशु को भी दुकान पर बैठाने लगा और दोनों मिलकर एक नामी शोरूम के मालिक बन गये ।

अंशु चूँकि एक ट्रेंड ड्रेस डिजाइनर है, अतः वह नये-नये डिजाइन के वस्त्र तैयार करने लगी। युवा वर्ग उसके वस्त्रों को पसन्द करने लगा। इस रेडीमेड दुकान के लिए वे दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद और कभी विदेशों से भी कपड़े मँगवाने लगे। शोरूम के प्रचार के लिए विज्ञापन भी निकाला जाने लगा। अब वह शोरूम शहर का एक नामी शोरूम बन चुका है ।

आज उनके पास अपना रिहायशी मकान है। अपनी कार है। कुल मिलाकर दोनों पति-पत्नी सुखी जीवन व्यतीत करते हैं ।

(पृष्ठ 35 )

प्रश्न 1. आकांक्षा जैसे लोगों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है । ऐसा आप किस आधार पर कह सकते हैं ?
उत्तर – चूँकि आकांक्षा फैक्ट्री में अस्थायी रूप से नियुक्त है। जबतक काम रहता है तबतक काम लिया जाता है और बाद में छुट्टी दे दी जाती है । इस खाली समय के लिए आकांक्षा को कोई अन्य काम ढूँढ़ना पड़ता है। चूँकि आकांक्षा को सालों भर लगातार नहीं रखा जाता। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि आकांक्षा और उसके तरह और लोगों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है ।

प्रश्न 2. आकांक्षा जैसे लोग अनियमित रूप से काम पर रखे जाते हैं । ऐसा क्यों है ?
उत्तर—आकांक्षा जैसे लोग अनियमित रूप से काम पर रखे जाते हैं। ऐसा इसलिए है कि काम की कमी है। काम की कमी के कारण ही फैक्ट्री वालों को ऐसा करना पड़ता है। काम की कमी और कामगारों की अधिकता के कारण ही ऐसा होता है ।

( पृष्ठ 37 )

प्रश्न 1. दूसरों के घरों में काम करने वाली एक कामगर महिला के दिन भर के काम का विवरण दीजिए ।
उत्तर—दूसरों के घरों में काम करने वाली एक कामगार महिला सूर्योदय के पहले या तुरत बाद घर में पहुँच जाती है। रात के जूठे बर्त्तनों को एकत्र करती है। बाद में पूरे घर की सफाई करती है और पोंछा लगाती है। तब बर्तन माँजने बैठती है। बर्तन माँजने के बाद वह यही काम करने दूसरे घर में चली जाती है । फिर शाम में 3 बजे आती है और वही काम दोहराती है। किसी-किसी घर में उसे बच्चों को स्कूल या स्कूल बसों तक छोड़ना और शाम में लाना भी पड़ता है ।

प्रश्न 2. दफ्तर में काम करने वाली महिला और कारखाने में काम करने वाली महिला में क्या- क्या अन्तर है ?
उत्तर- दफ्तर में काम करने वाली महिला और कारखानों में काम करने वाली महिला में काफी अंतर है । दफ्तर में काम करने वाली महिला स्थायी रूप में नियुक्त रहती हैं। इन्हें नौकरी से निकाले जाने की कोई आशंका नहीं होती । इन्हें समय पर वेतन मिल जाता है। भविष्य निधि में सदैव जमा होता रहता है, जो रिटायर होने पर एक मुस्त मिल जाता है । मासिक पेंशन मिलता है सो अलग ।

कारखाने में काम करने वाली महिला अनियमित रूप में नियुक्त होती हैं। जबतक काम रहता है तबतक तो इन्हें रखा जाता है, काम नहीं रहने की स्थिति में इन्हें हटा दिया जाता है । हालाँकि साप्ताहिक छुट्टी मिलती है और अधिक देर तक काम के एवज में अतिरिक्त भुगतान भी मिलता है । लेकिन काम के. स्थायित्व का कोई ठिकाना नहीं रहता ।

प्रश्न 3. क्या भविष्यनिधि, अवकाश या चिकित्सा सुविधा शहर में स्थायी नौकरी के अलावा दूसरे काम करने वालों को मिल सकती है। चर्चा करें ।
उत्तर – स्थायी नौकरी के अलावा अस्थायी रूप से काम करने वालों को प्रश्न में बतायी कोई सुविधा नहीं मिलती।

अभ्यास : प्रश्न और उनके उत्तर

प्रश्न 1. अपने अनुभव तथा बड़ों से चर्चा कर शहरों में जीवन-यापन के विभिन्न स्वरूपों की सूची बनाएँ:
उत्तर – शहर में जीवन-यापन करने वाले के स्वरूप में काफी भिन्नता है । कोई तो काफी सुखी – सम्पन्न जीवन व्यतीत करते हैं तो किसी को रैन बसेरों में गुजारा करना पड़ता है ।
कुछ पूँजीपति जहाँ बड़ी-बड़ी दुकानें और शोरूम चलाते हैं वहीं कुछ लोग फुटपाथों, ठेलों और टोकरी में सामन लेकन घूम-घूमकर अपने सामान बेचते हैं ।
बड़े दुकानदार जहाँ अपने मकानों में रहते हैं और यात्रा के लिए मोटर कार रखते हैं तो फुटपाथी और ठेले वाले मुश्किल से अपना गुजारा कर पाते हैं । ये किराये के एक या दो कमरे में रहते हैं तथा सायकिल से या पैदल यात्रा करते हैं ।
कुछ ऐसे लोग हैं जो कुछ दिनों के लिए गाँवों से आते हैं और कमाई कर घर लौट जाते हैं ।

प्रश्न 2. अपने अनुभव के आधार पर नीचे दी गई तालिका के खाली स्थान को भरें :

उत्तर :

प्रश्न 3. पटरी पर के दुकानदार एव अन्य दुकानदारों की स्थिति में क्या अंतर है ?
उत्तर- पटरी पर के दुकानदारों की स्थिति रोज कमाने-खाने की रहती है, मुश्किल से ये वर्ष में 20-25 हजार रुपया कमा पाते हैं । दूसरी अन्य दुकानदारों की स्थिति यह है कि ये अधिक पूँजी वाले होते हैं और दिनों-दिन इनकी पूँजी बढ़ती ही जाती है । ये आयकर भी देते हैं ।

प्रश्न 4. एक स्थायी और नियमित नौकरी, अनियमित काम से किस तरह अलग है ?
उत्तर – एक स्थायी और नियमित नौकरी अनियमित नौकरी से काफी भिन्न है स्थायी और नियमित नौकरी वाले को एक निश्चित समय तक ही काम करना पड़ता है। बीच में लंच के लिए छुट्टी मिलती है। काम के घन्टे जब बढ़ते हैं तो ओवर टाइम का भुगतान मिलता है।
सभी नियमित छुट्टियाँ मिलती हैं। वर्ष में एक बार वार्षिक छुट्टी भी मिलती है । बोनस मिलता है। हर महीने वेतन से प्रोविडेन्ट फण्ड के लिए कुछ रुपया कटता है जो काम छोड़ते समय ब्याज सहित मिल जाता है। एक निश्चित अवधि के बाद रिटायर हो जाना पड़ता है ।
अनियमित नौकरी में काम के घंटे निश्चित नहीं होते । मालिक की मर्जी के अनुसार काम करना पड़ता है । छुट्टी केवल रविवार और राष्ट्रीय छुट्टियों के दिन ही मिलती है। अधिक काम करने के एवज में कुछ नहीं मिलता। यदि माँग की जाती है तो नौकरी से निकाल दिया जाता है ।

प्रश्न 5. निम्नलिखित तालिका को पूरा कीजिए :
उत्तर :

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प्रश्न 6. एक स्थायी और नियमित नौकरी करने वालों को वेतन के अलावा और कौन-कौन से लाभ मिलते हैं ?
उत्तर- एक स्थायी एवं नियमित नौकरी करने वालों को वेतन के अलावा साप्ताहिक छुट्टी मिलती है । हर पर्व-त्योहार पर सवेतन छुट्टी मिलती है। उनके वेतन से काटकर रुपया भविष्य निधि में जमा होता है। रियाटर होने पर वह एक मुस्त मिल जाता है । अब सरकार उन्हें मासिक पेंशन भी देने लगी है ।

कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न तथा उनके उत्तर

प्रश्न 1. सड़क पर काम करनेवाले कौन-कौन से कार्य करते हैं?
उत्तर – सड़क पर काम करने वाले अनेक काम करते हैं । जैसे— सायकिल मरम्मत करना, जूते मरम्मत करना, सब्जी बेचना, फल बेचना, अखबार बेचना, चाय की छोटी-मोटी दुकान चलाना, फूल बेचना, फूल वाले अधिकतर मंदिरों के पास बैठते हैं । मैंगजीन और पत्र-पत्रिका बेचनेवाले भी सड़क के फुटपाथ पर दिख जाते हैं। रिक्शा हो या ऑटो रिक्शा – ये सड़क की कमाई ही खाते हैं। शहर में लाखों लोग सड़क किनारे और फुटपाथ पर बैठकर अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं ।

प्रश्न 2. प्रमोद और अंशु को शो रूम चलाने के लिए किन चीजों की जरूरत होती है ?
उत्तर – प्रमोद और अंशु को शोरूम चलाने के लिए सर्वप्रथम तो इस बात की जानकारी की जरूरत है कि किस तरह के कपड़ों की माँग हो सकती है या आज का फैशन क्या है । फिर शोरूम चलाने के लिए चालू सड़क पर एक अच्छा- सा मकान चाहिए, जिसमें शोरूम खोला जा सके। कपड़े मंगवाने के लिए पूंजी चाहिए । रेडीमेड कपड़े बनवाने के लिए कपड़ा काटने और सीने वाले कारीगरों के साथ सीने की मशीनें चाहिए । शोरूम में भड़कदार आलमारी चाहिए। दरवाजे पर ही एक ऐसा काँच का शो-केश चाहिए, जिसमें नए डिजाइन के कपड़े सजाए जा सकें। दुकान की साफ-सफाई के साथ कपड़े दिखाने और पैक करने वाले कर्मचारी चाहिए ।

प्रश्न 3. शोरूम और फुटपाथ के सामान में क्या अंतर है ?
उत्तर – सामान्यतः हम सोचते हैं कि शोरूम में अच्छे सामान मिलते हैं और फुटपाथ पर मामूली । लेकिन सदैव ऐसी बात नहीं होती । कभी-कभी फुटपाथ पर भी अच्छा से अच्छा सामान मिल जाता है और सस्ता भी । लेकिन धनी-मानी लोग फुटपाथ से सामान खरीदना अपमान की बात मानते हैं और शोरूम से ही सामान खरीदते हैं। शोरूम में अधिक मोल तोल नहीं होता। हर वस्तु पर मूल्य अंकित रहता है। इसलिए ठग लिए जाने की आशंका नहीं रहती । फुटपाथ वाले बहुत मोल-तोल करते हैं। जिस वस्तु का मूल्य 100 रुपया बताते हैं उसको मोल- तोल के बाद 40 या 50 रु. में भी दे देते हैं । सब मिला-जुलाकर यही कहा जा सकता है कि फुटपाथ पर मामूली और सस्ती वस्तुएँ मिलती हैं। हम टी० वी० और फ्रिज तो फुटपाथ से नहीं खरीद सकते। और वे वस्तुएँ फुटपाथ पर मिलेंगी भी नहीं ।

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Bihar Board Class 6 Social Science Ch 2 ग्रामीण जीवन-यापन के स्‍वरूप | Gramin Jivan Yapan Ke Swarup Class 6th Solutions

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 6 सामाजिक विज्ञान के पाठ 2. ग्रामीण जीवन-यापन के स्‍वरूप (Gramin Jivan Yapan Ke Swarup Class 6th Solutions)के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

2. ग्रामीण जीवन-यापन के स्‍वरूप

पाठ के अन्दर आये प्रश्न तथा उनके उत्तर

(पृष्ठ 16)

प्रश्न 1. एक मध्यम किसान परिवार को आमतौर पर आजीविका चलाने हेतु कितनी भूमि की आवश्यकता होती है, शिक्षक के साथ चर्चा करें ।
उत्तर – एक मध्यम किसान परिवारा को आमतौर पर आजीविका चलाने हेतु न्यूनतम 5 एकड़ जो 8 विघा के करीब होता है, भूमि की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 2. मध्यम किसान दूसरे के खेतों में काम क्यों करते हैं?
उत्तर—मध्यम किसानों को दूसरों के खेतों में इसलिये काम करना पड़ता है क्योंकि अपनी भूमि की आय से उनके परिवार का खर्च पूरा नहीं पड़ पाता ।

प्रश्न 3. ललन की पारिवारिक आय में वृद्धि होने के अन्य तीन स्रोत बताएँ ।
उत्तर – ललन की पारिवारिक आय में वृद्धि होने के अन्य तीन स्रोत निम्नलिखित हो सकते हैं :
(i) मुर्गी फार्म चलाना, (ii) गाय और भैंस पालना तथा (iii) निकट के शहर में मजदूरी करने जाना ।

( पृष्ठ 18 )

प्रश्न 1. सीमान्त किसान कृषि कार्य के अलावे कौन-कौन से कार्य करते हैं, सूची बनाइये ।
उत्तर – सीमान्त किसान कृषि कार्य के अलावा निम्नलिखित कार्य करता है

(i) चांवल मिलों में मजदूरी करना, (ii) दूसरों के खेतों में काम करना, दूध बेचना  (iii) गाय-भैंस पालना है और डेयरी में

प्रश्न 2. कृपाशंकर जैसे किसानों को खाद-बीज के लिये कर्ज कहाँ-कहाँ से मिल जाता है ? इस कर्ज को कब और कैसे वापस करना होता है ?
उत्तर—कृपाशंकर जैसे किसानों को खाद-बीज के लिये कर्ज महाजनों तथा साहूकारों के यहाँ से मिल जाता है। फसल कटते ही उसे औने-पौने भाव पर बेचकर महाजन या साहूकारों को कर्ज वापस कर देना पड़ता है। यदि वे देर करेंगे तो ब्याज की रकम बढ़ जाती है ।

प्रश्न 3. कृपाशंकर को डेयरी में दूध बेचने से कितनी आय प्राप्त होती होगी ? अनुमान लगाएँ ।
उत्तर – हमारा अनुमान है कि कृपाशंकर को डेयरी में दूध बेचने से खर्च – बर्च काटकर लगभग दस हजार रुपया प्रतिवर्ष आय प्राप्त हो जाती होगी ।

प्रश्न 4. मध्यम किसान और कृपाशंकर के काम में क्या क्या अन्तर है ?
उत्तर – मध्यम किसान और कृपाशंकर के काम में यह अंतर है कि मध्यम किसान को दूसरों के खेत में काम नहीं करना पड़ता, जबकि कृपाशंकर को ऐसा करना पड़ता है । मध्यम किसान जहाँ मुर्गी पालन करता है वहीं कृपाशंकर गाय- भैंस पालता है । कुल मिला-जुलाकर दोनों सदैव आर्थिक तंगी में रहा करते हैं ।

( पृष्ठ 20 )

प्रश्न 1. सीमान्त किसान, मध्यम किसान, बड़ा किसान जरूरत पड़ने पर कर्ज कहाँ से लेते हैं?
उत्तर – सीमान्त किसान और मध्यम किसान जरूरत पड़ने पर ग्रामीण महाजन या साहूकारों से कर्ज प्राप्त करते हैं, जिन पर अधिक ब्याज दर देना पड़ता बड़े किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये बैंकों से पर्याप्त ऋण मिल जाता है, जिनका ब्याज दर सरकारी दर पर अर्थात कम होता है ।

प्रश्न 2. आप अपने अनुभव से बताइए कि आप के यहाँ बड़े जोतदार किसान खेती के अलावे क्या-क्या करते हैं ?
उत्तर –हमारे यहाँ के बड़े जोतदार किसान खेती के अलावे चावल की मिल चलाते हैं और अतिरिक्त आय प्राप्त करते हैं। मध्यम किसान उन्हीं चावल मिलों में काम करते हैं और चावल की खरीद बिक्री में मध्यस्थता कर कुछ आय प्राप्त कर लेते हैं । ये मुर्गी पालन भी करते हैं। सीमान्त किसान अतिरिक्त आय के लिए दूसरों के खेत में काम करते हैं और गाय-भैंस पालकर डेयरी के हाथ दूध बेचते हैं।

प्रश्न 3. एक बड़े किसान और सीमान्त किसान के खेती के कार्य के तरीकों में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर – एक बड़ा किसान खेती में आधुनिक उपकरणों का उपयोग करता है, जिस कारण कम मजदूरों की आवश्यकता पड़ती है। कृषि उपकरण खरीदने के लिए भले ही वह बैंक से ऋण लेता है, लेकिन खाद, बीज, कीटनाशक के लिये उसे कर्ज की आवश्यकता नहीं पड़ती। ठीक इसके विपरीत सीमान्त किसान को सभी काम परम्परागत तरीके से करना पड़ता है। उसे हल-बैल और कुदाल से कृषि कार्य करनी पड़ती है। वह मजदूर नहीं रख सकता अतः अपने घर के सदस्यों के साथ स्वयं खेत में काम करता है। खाद-बीज आदि के लिए महाजन या साहूकारों से अधिक ब्याजदर पर कर्ज लेता है। कर्ज को पूरा करने के लिए उसे दूसरों के खेत में मजदूरी करनी पड़ती है।

प्रश्न 4. एक बड़े किसान उत्पादित अनाज को क्या करते हैं, शिक्षक के साथ चर्चा करें ।
उत्तर— एक बड़ा किसान उत्पादित अनाज को तुरंत नहीं बेचकर अपने घर में एकत्र कर रख लेते हैं । जब भाव ऊँचा होता है तब उसे बेचते हैं । इस प्रकार वे अधिक लाभ में रहते हैं ।

( पृष्ठ 22 )

प्रश्न 1. कृषक मजदूर एवं सीमान्त किसान में क्या समानता और अंतर है ?
उत्तर – कृषक मजदूर एवं सीमान्त किसान में यह समानता है कि दोनों को दूसरों के खेत में काम करना पड़ता है, मजदूरी करनी पड़ती है । अंतर यह है कि कृषक मजदूर को थोड़ी भी कृषि भूमि नहीं होती, वहीं सीमान्त किसान को कुछ- न कुछ भूमि होती है।

प्रश्न 2. आमतौर पर कृषक मजदूर को कर्ज कहाँ से और कैसे प्राप्त होता है?
उत्तर – आमतौर पर कृषक मजदूर को कर्ज गाँव के महाजनों से मिलता है । उन्हें इसके लिए ऊँची ब्याज दर पर भुगतान करना पड़ता है ।

प्रश्न 3. पशु पालने का क्या कारण है ?
उत्तर – पशु पालने का कारण है कि उनके दूध बेचकर आय प्राप्त की जाती है। बैल और भैंसा इसलिए पाले जाते हैं क्योंकि इनसे हलवाही का काम लिया जाता है और ये गाड़ी में जोते जाते हैं ।  

प्रश्न 4. कृषक मजदूरों को किन-किन महीनों में काम नहीं मिलता है? अपनी कक्षा के चार-पाँच सहपाठियों की टोली बनाकर सर्वेक्षण कीजिए।
संकेत : यह परियोजना कार्य है। छात्रों को स्वयं करना है ।.

अभ्यास : प्रश्न और उनके उत्तर

प्रश्न 1. आपके गाँव में किन-किन फसलों की खेती की जाती है ? सूची बनाइए ।
उत्तर—मेरे गाँव में निम्नलिखित फसलों की खेती की जाती है

(i) धान, (ii) मडुआ, (iii) मकई, (iv) गेहूँ, (v) तीसी, (vi) सरसों, (v) तीसी, (vi) मटर, (vii) चना, (viii) अरहर, (ix) उड़द, (x) मसूर इत्यादि ।

प्रश्न 2. मध्यम किसान खेती के काम के लिए किन-किन माध्यमों से धन उपलब्ध करते हैं ?
उत्तर—मध्यम किसानों के पास खेती के लिए धन उपलब्ध करने के कोई अधिक माध्यम नहीं होते। बस गाँव के महाजन या साहूकार ही हैं, जो इन्हें अधिक ब्याज दर पर खेती के लिए धन उपलब्ध कराते हैं ।

प्रश्न 3. आमतौर पर आपके गाँव में एक किसान परिवार की खेती से गुजारा करने के लिए कितनी एकड़ जमीन की आवश्यकता होती है, जिससे उन्हें या उनके परिवार के सदस्यों को दूसरों के यहाँ मजदूरी नहीं करना पड़े ?
उत्तर – आमतौर पर हमारे गाँव में एक किसान परिवार के पास 30-40 एकड़ जमीन रहे तो उसके परिवार के किसी सदस्य को दूसरों के यहाँ मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी। वैसे यदि परिवार छोटा हो तो 15 एकड़ से भी काम चल सकता है । प्रश्न 4. महाजन या साहूकार के यहाँ कर्ज़ की ब्याज दर ऊँची क्यों होती है ?

उत्तर—महाजन या साहूकार इस बात को जानते हैं कि कर्ज लेने वाला कहीं कर्ज नहीं मिलने की स्थिति में ही हमारे पास आया है। इस प्रकार कर्ज लेने वाले की मजबूरी का लाभ उठाते हुए वह ब्याज की दर ऊँची लेता है । यह महाजनों की हैवानियम कहा जाएगा ।

प्रश्न 5. एक व्यक्ति को अमूमन एक वर्ष में कितने समय कृषक मजदूर के रूप में काम मिलता है एवं बाकी दिनों में वह आजीविका संबंधी कौन- कौन सा कार्य करता है ?
उत्तर —अनुमान है कि एक व्यक्ति को एक वर्ष में कृषक मजदूर के रूप में लगभग छः महीने ही काम मिलता है, वह भी लगातार नहीं । इन बाकी दिनों में वह निकट के शहर में जाकर रोजदारी या ठेकेदारी पर काम करता है । कुछ मजदूर तो दूर-दराज के राज्यों तक में चल जाते हैं और रिक्शा भी खींच लेते हैं। बच्चे कहीं चाय की दूकान पर काम करते हैं और पत्नी घर-घर में चौका- बर्तन करती हैं ।

प्रश्न 6. संतोष और प्रमोद के परिवारों में क्या अंतर है ?
उत्तर- संतोष और प्रमोद के परिवारों मे यह अन्तर है कि संतोष का परिवार एक कृषक-मजदूर परिवार है, जबकि प्रमोद एक बड़ा किसान है। उसके पास 15 एकड़ कृषि भूमि है, जबकि संतोष के पास कुछ भी कृषि भूमि नहीं है । वह और उसके परिवार के सदस्य दूसरों के खेत में मजदूरी करते हैं, जबकि प्रमोद दूसरों से अपने खेत में मजदूरी करवाता है ।

प्रश्न 7. गैर कृषि कार्य के अन्तर्गत आपके गाँव के लोग कौन-कौन से कार्य करते हैं?
उत्तर — गैर कृषि कार्य के अंतर्गत मेरे गाँव में निम्नलिखित कार्य होते हैं :
कारीगरी के कार्य, जैसे बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, राजमिस्त्री, दर्जी, मिट्टी के बर्तन, खिलौना, दीपक, ईंट, टोकरी, सूप, दौरा, दौरी बनाकर लोग अपनी आजीविका चलाते हैं । कुछ बुनकर परिवार भी हैं जो कपड़ा, कम्बल, लोई, चादर, जरी और गोटा लगाने का काम करते हैं । सायकिल मरम्मत, राशन या किराने की दुकान चलाने वाले भी हैं । कुछ लोग शिक्षक, कर्मचारी, आँगनबाड़ी सेविका, डॉक्टर, नर्स, डाकिया के रूप में कार्य करते हैं ।

प्रश्न 8. गैर कृषि कार्य किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित उत्तर दें ।

उत्तर—कृषि कार्य से अलग करनेवाले कार्य को गैर कृषि कार्य कहते हैं । कारीगरी के कार्य, जैसे बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, राजमिस्त्री, दर्जी, मिट्टी के बर्तन, खिलौना, दीपक, ईंट, टोकरी, सूप, दौरा, दौरी बनाकर लोग अपनी आजीविका चलाते हैं। कुछ बुनकर परिवार भी हैं जो कपड़ा, कम्बल, लोई, चादर, ‘जरी और गोटा लगाने का काम करते हैं । सायकिल मरम्मत, राशन या किराने की दुकान चलाने वाले भी हैं । कुछ लोग शिक्षक, कर्मचारी, आँगनबाड़ी सेविका, डॉक्टर, नर्स, डाकिया के रूप में कार्य करते हैं ।

प्रश्न 9. आप बड़ा होकर जीवन-यापन संबंधी कौन से कार्य करना चाहते हैं और क्यों ?
उत्तर – यदि मेरे पास पुश्तैनी कृषि भूमि होगी तब तो मैं कृषक बनना ही चाहूँगा क्यों कि कामों में कृषि को उत्तम माना गया है।
उत्तम खेती मध्यम बान,
नीच चाकरी भीख निदान ।

कृषि भूमि नहीं रहने की स्थिति में कुझे जो भी काम मिलेगा, उसे सहर्ष करूँगा । कारण कि मेरी दृष्टि में कोई भी काम छोटा नहीं होता। लेकिन वह काम मेरी योग्यता के अनुरूप हो तो अच्छा ।

प्रश्न 10. आपने पाठ में अलग-अलग किसानों के बारे में जाना । खाली स्थानों पर उनकी स्थितियों के बारे में भरें ।
उत्तर :

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कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न तथा उनके उत्तर

प्रश्न 1. ग्रामीण जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर— ग्रामीण जीवन के बारे में हम जानते हैं कि वहाँ के लोग एक-दूसरे का सहयोग कर अपना जीवन यापन करते हैं । वहाँ रामजीवन जैसे बड़े जोतदार हैं तो हरिहर जैसे छोटे जोतदार भी हैं। प्रभावती की तरह खेतीहर मज़दूरों की भी कमी नहीं है। खेती में सालों भर काम नहीं मिलने के कारण ये बाहर मजदूरी करने चले जाते हैं। महिलाएँ पशुपालन कर आय अर्जित करती हैं । ये खेतों में मजदूरी करते हुए अपने घर के भी काम कर लेती हैं और पशुओं को चारा-पानी भी दे देती हैं। पशुओं की देखभाल में ये मर्दों का हाथ बटाती है। धनी गरीब सब मिलजुल कर रहते हैं ।

प्रश्न 2. सीमान्त और बड़ा जोतदार में क्या अंतर है?
उत्तर — सीमान्त और बड़ा जोतदार में अंतर यह है कि सीमान्त जोतदार के पास अधिकतम दो-ढाई एकड़ जमीन रहती है जबकि बड़े जोतदार के पास बीस एकड़ से भी अधिक जमीन होती है। सीमान्त जोतदार मज़दूर नहीं रखते। वे स्वयं काम करते हैं या अपने जैसे अन्य सीमान्त जोतदारों को मदद देते हैं और बदले में उनकी मदद लेते हैं। बड़े जोतदार मजदूरों से खेती कराते हैं। सीमान्त जोतदार की उपज या तो खेत में ही बिक जाती है या कुछ महीने ही घर खर्च चला पाती है। शेष दिनों में ये शहर में मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं। ये पशुपालन भी करते हैं। बड़े किसान बैंक द्वारा आसानी से ऋण प्राप्त कर लेते हैं और खेती के आधुनिकतम यंत्र रखते हैं। ये फसल को शहर में बेच देते हैं, फिर भी सालों भर के लिए इनके पास अन्न बच जाता है । सीमान्त किसान धान मिल में काम करते हैं, कुछ शहरों में मजदूरी करते हैं । लेकिन बड़े किसान स्वयं का धान मिल रखते हैं और चावल बेचते हैं । कूटने के लिए ये धान की खरीद भी करते हैं ।

प्रश्न 3. गाँव में जीवन-यापन के लिए कौन-कौन काम किये जाते हैं ?
उत्तर – गाँव में जीवन यापन के लिए अनेक काम किये जाते हैं। खेती का काम होता है। दस्तकारी के अनेक काम किये जाते हैं। कुछ लोग टोकरी, झाडू, चटाई आदि बनाते हैं । कुम्हार मिट्टी के बरतन बनाते हैं। दीपावली और छठ के अवसर पर आवश्यक मिट्टी का दीया और कोसी आदि बनाते हैं । ये मिट्टी के खिलौने और मूर्तियाँ भी बनाते हैं। बुनकर कपड़ा बुनते हैं। कुछ लोग सिलाई और कढ़ाई के काम में लगे हैं । जीवन-यापन के लिए पशुपालन के साथ मुर्गीपालन भी होता है । कुछ लोग मधुमक्खी भी पाते हैं ।

प्रश्न 4. गाँव के भूमिहीन लोग काम की तलाश में कहाँ जाते हैं ?
उत्तर — गाँव के भूमिहीन लोग जब गाँव में खेती का काम नहीं रहता तो गाँव के निकट के कस्बों या शहरों में काम के लिए जाते हैं। वहाँ रोजदारी पर काम करते हैं और संध्या तक गाँव लौट आते हैं। जिस परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक है वे दूर-दूर तक काम की तलाश में चले जाते हैं। खासकर ये दिल्ली, पंजाब, गुजरात आदि राज्यों में जाते हैं और जो काम मिला उसे कर आय कमाते हैं ।

Gramin Jivan Yapan Ke Swarup Class 6th Solutions

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Bihar Board Class 6 Social Science Ch 1 विविधता की समझ | Vividhata ki Samajh Class 6th Solutions

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 6 सामाजिक विज्ञान के पाठ 1. विविधता की समझ (Vividhata ki Samajh Class 6th Solutions)के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

1. विविधता की समझ

पाठ के अन्दर आये प्रश्न तथा उनके उत्तर

( पृष्ठ 2 )

प्रश्न 1. निशान और निशान अहमद में दो या तीन अन्तर कौन-कौन से हैं ?
उत्तर—निशान और निशान अहमद में अन्तर :
(i) दोनों की उम्र में अन्तर है।
(ii) दोनों के धर्म में अन्तर है ।
(iii) दोनों की पढ़ाई-लिखाई में अन्तर है

प्रश्न 2. उन त्योहारों की सूची बनाइए जो निशान अहमद और निशान भनाते होंगे ।

उत्तर :                                                                ( पृष्ठ 2)

प्रश्न 3. शिक्षक की सहायता से बिहार के अलग-अलग जिलों के प्रसिद्ध व्यंजनों को सूची तैयार करें। (पृष्ठ 3)
उत्तर- बिहार के अलग-अलग जिलों के प्रसिद्ध व्यंजन निम्नांकित हैं :
(i) छपरा जिला                      लिट्टी-चोखा
(ii) मिथिलांचल                     दही-चूड़ा, माछं, मखाना
(iii) मगध क्षेत्र                      रोटी, दाल, सब्जी
(iv) भोजपुर क्षेत्र                   चावल, दाल, सब्जी
(v) चम्पारण                          चावल, दाल, मछली
पूरे बिहार में लगभग ये सभी व्यंजन खाये ही जाते हैं। लेकिन ऊपर प्रसिद्ध व्यंजनों के नाम दिये गये हैं।

प्रश्न 4. विविधता हमारे जीवन को कैसे समृद्ध करती है? शिक्षण के साथ चर्चा कर लिखें ।   ( पृष्ठ 5 )
उत्तर—मेरी समझ से विविधता हमारे जीवन को उसी प्रकार समृद्ध करती है जिस प्रकार भांति-भांति के फूल फुलवारी को समृद्ध करते हैं और लोग लालसा भरी नजरों से इस फुलवारी में टहलना चाहते हैं । राष्ट्रपति भवन के अहाते का मुगल गार्डेन अपने विविध फूलों के कारण ही प्रसिद्ध है और इसी कारण लोग उसे देखने के लिए टूट पड़ते हैं। हमारो देश भी इसी प्रकार का ‘गार्डेन’ है, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग विभिन्न पोशाकों में विभिन्न त्योहार मनाते हैं । इन अवसरों पर लगभग सभी लोग उसमें सम्मिलित होते हैं। यदि सम्मिलित नहीं भी होते तो हसरत भरी निगाहों से देखते अवश्य हैं । इस प्रकार विविधता हमारे देश को समृद्ध करती ही है, हममें एकता का भाव भी उत्पन्न करती है

संकेत : पृष्ठ 6 पर के दोनों प्रश्न परियोजना कार्य हैं । अतः छात्र स्वयं करें ।

तालिका भरें                               ( पृष्ठ 7 )

प्रश्न 5. क्या आपको लगता है कि लड़कियों के साथ भेदभाव होना चाहिए ? (पृष्ठ 8.)
उत्तर- नहीं, मुझे लगता है कि लड़कियों के साथ भेदभाव चाहिए। शिक्षित समाज में आज लड़कियों के साथ भेदभाव होता भी नहीं । दकियानूस विचार के पिछड़े लोग ही उनके साथ भेदभाव करते हैं, जो सर्वदा निन्दनीय हैं।

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( पृष्ठ 10 )

प्रश्न 1. क्या आपने किसी के साथ भेद-भाव होते हुए देखा है ? उदाहरण के साथ बताइए !
उत्तर—मेरे वर्ग में संतोष एक दलित जाति से आता है। वह मेरा मित्र है। हम दोनों में परस्पर बहुत मेल रहता है। हमलोग एक साथ स्कूल जाते हैं, एक साथ टिफीन खाते हैं और छुट्टी होने पर एक साथ घर लौटते हैं। हालाँकि गाँव के कई तथाकथित उच्च जाति के लोगों को यह नागवार लगता है ।
एक समय की बात है कि मैं एक बारात में जाने वाला था । मेरे पड़ोसी के लड़के का विवाह था। मैंने अपने साथ अपने दलित मित्र को भी ले लिया । लड़कीवाले के यहाँ जब भोजन का समय आया तो मेरा मित्र भी मेरे बगल में बैठ गया। किसी ने लड़की वाले से बता दिया कि अमुक लड़का दलित परिवार का है। लड़की पक्ष का एक व्यक्ति आया और मेरे मित्र से पूछताछ करने लगा । मेरा मित्र कुछ जवाब देता उसके पहले ही मैंने कहा कि यह दलित परिवार का है और मेरा मित्र है । यह मेरे साथ ही खाएगा । लड़की पक्ष वाले ने कड़ा विरोध जताया। मैंने कहा कि पांत से यदि इसे उठाइएगा तो मैं भी उठ जाऊँगा और भोजन नहीं करूँगा । लेकिन वे लोग नहीं माने। मेरे गाँव वाले भी चुपचाप मजा ले रहे थे। हम दोनों उठकर चल दिए और उस रात हम भोजन नहीं कर सकें । सुबह में जब सबलोग सोए ही थे कि हम उठ कर अपने घर को रवाना हो गए। मैं अपने मित्र का अपमान बरदाश्त नहीं कर सकता था ।

प्रश्न 2. अगर किसी के साथ भेदभाव होता है तो क्या इस स्थिति में आपने उसकी मदद करने का प्रयास किया ?
संकेत : इस प्रश्न का भी उत्तर, प्रश्न 1 के उत्तर के दूसरे अनुच्छेद में आ चुका है।

प्रश्न 3. आपकी समझ से इस समाज में किस प्रकार के भेदभाव होते हैं?
उत्तर – मेरी समझ से शहरों में तो नहीं, लेकिन गाँवों में अभी भी काफी भेदभाव होता है । सवर्णों के कुएँ से दलितों को पानी नहीं निकालते दिया जाता । मन्दिरों प्रवेश से भी उन्हें रोका जाता है। छुआछूत का भूत अभी भी उनके सिर पर चढ़कर बोलता है। पढ़े लिखे नवयुवक तो कम, लेकिन पुराने रूढ़िवादी लोग काफी भेदभाव करते हैं । यह मुझे अच्छा नहीं लगता। लेकिन बड़े समूह के आगे अकेला क्या कर सकता हूँ ।

प्रश्न 4. समाज में भेदभाव क्यों होता है ?
उत्तर— आज की स्थिति में हम देखते हैं आर्थिक पिछड़ापन के कारण ही समाज में भेदभाव होता है। यदि दलित वर्ग का व्यक्ति धनी है और पढ़ा-लिखा है तो उसका सम्मान सवर्ण भी करते हैं । अतः स्पष्ट है कि समाज में शिक्षा की कमी और आर्थिक पिछड़ापन ही भेदभाव के कारण हैं 

अभ्यास : प्रश्न और उनके उत्तर

प्रश्न 1. किस आधार पर आप कह सकते हैं कि रामजीवन अपने बेटा एवं बेटियों के बीच भेदभाव करता था ?
उत्तर – रामजीवन के साथ ही उसकी पत्नी भी दोनों बेटियों की अपेक्षा बेटे के रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, खेल-कूद आदि पर विशेष ध्यान देता था, जबकि बेटियों से घर का सारा काम करवाता था । बेटियों को बर्तन माँजने से लेकर झाड़ू- पोंछा तक करना पड़ता था । वे सारा काम निबटाकर ही विद्यालय जाती थीं और विद्यालय से लौटने पर भी उसी काम में जुड़ जाना पड़ता था । वे इन सब कामों के बाद अपनी पढ़ाई पर खुद ध्यान देती थीं। ठीक इसके विपरीत बेटा से कोई काम नहीं लिया जाता । खेलने-कूदने की पूरी छूट दी जाती है, घर पर पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे । स्कूल वह कभी जाता और कभी नहीं भी जाता । इसके सारे अवगुणों को गुण समझा जाता था । इससे वह उदंड भी हो चला था ।

प्रश्न 2. व्यक्तियों के बीच विभिन्नताओं के कौन-कौन से आधार हैं ?
उत्तर—समाज में व्यक्तियों के बीच विभिन्नताओं के अनेक आधार हैं। कुछ लोग अपने को श्रेष्ठ और अन्य को हीन समझते हैं। वे अपने विचारों को ही श्रेष्ठ समझते हैं और दूसरों को हीन दृष्टि से देखते हैं। समाज में व्याप्त अशिक्षा. अविश्वास, अंधविश्वास, गरीबी, स्वार्थपरायणता आदि के कारण समाज में व्यक्तियों के बीच विभिन्नता देखी जाती है । अमीरी-गरीबी, शिक्षित और अशिक्षित सवर्ण एवं दलित, महिला और पुरुष आदि के आधार पर भी समाज में व्यक्तियों के बीच विभिन्नता देखी जाती है ।

प्रश्न 3. भारतीय संविधान के आठवीं अनुसूची में कितनी भाषाओं का उल्लेख किया गया है ?
उत्तर—भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं का उल्लेख किया गया है ।

प्रश्न 4. आपके विचार में बिहार की समृद्ध विविधता एवं विरासत आपके जीवन को कैसे बेहतर बनाती है ?
उत्तर – मेरे विचार से बिहार की समृद्ध विविधता एवं विरासत हमारे जीवन को अनेक प्रकार से बेहतर बनाती है। बिहार में प्राचीन विरासतों की कमी नही है । ये विरासत हिन्दू, बौद्ध तथा इस्लाम आदि धर्मो से सम्बद्ध हैं, लेकिन यहाँ दर्शनार्थ पर्यटकों का तांता लगा रहता है । सभी विरासतों को देखने, सभी धर्मावलम्बी आते हैं। इससे यहाँ के लोगों को आर्थिक आय होती है । बोध गया, राजगृह. नालन्दा, मनेर शरीफ, फुलवारी शरीफ, सासाराम के शेरशाह का मकबरा आदि विरासत बिहार को समद्ध बनाते हैं ।

प्रश्न 5. आपके अनुसार जिस व्यक्ति के साथ भेदभाव होता है, उसे कैसा महसूस होता है ?
उत्तर—मेरे अनुसार समाज के जिस व्यक्ति के साथ भेदभाव होता है, व्यक्ति को ग्लानि महसूस होती है । उसमें हीनता का भाव उत्पन्न होने लगता है इस कारण वह ‘डिप्रेस्ड’ रहने लगता है ।

प्रभा 6. दो व्यक्तियों के चित्र एकत्र करें जिन्होंने भेद-भाव एवं असमानता के विरुद्ध कार्य किया है ।
उत्तर :

                             
    ईश्वरचन्द्र विद्यासागर                                                  स्वामी दयानन्द सरस्वती 

प्रश्न 7. पाँच लड़कियों के नाम एकत्र करें जिन्होंने अपने देश का नाम रौशन किया है ।
उत्तर- निम्नलिखित लड़कियों ने अपने देश का नाम रोशन किया :

(i) कल्पना चावला, (ii) पी. टी. उषा, (iii) सानिया मिर्जा, (iv) सायना नेहवाल, (v) किरण वेदी ।

कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न तथा उनके उत्तर.

प्रश्न 1. लड़कियाँ माँ-बाप के लिए बोझ हैं, यह रूढ़िवादी धारणा एक लड़को के जीवन को किस तरह प्रभावित करती है ? उसके अलग-अलग पाँच प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – रूढ़िवादी धारणा के कारण लड़कियों पर पड़ने वाले पाँच प्रभाव :
(i) लड़कियाँ अन्दर ही अन्दर कुंठित होती रहती हैं।
(ii) उनका मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
(iii) उनमें हीनताजन्य रोग उत्पन्न होने का खतरा रहता है।
(iv) वे डरपोक और दब्बू-सी बनी रहती हैं।
(v) वे अपने छोटे भाइयों तक के अत्याचार को सहने की आदी हो जाती हैं।

प्रश्न 2. भारत का संविधान समानता के बारे में क्या कहता है ? आपको यह क्यों लगता है कि सभी लोगों में समानता होनी जरूरी है ?
उत्तर—भारत का संविधान समानता के बारे में कहता है कि देश में सभी स्त्री- पुरुष को बराबरी का हक है। जाति, रंग, लिंग के आधार पर किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा । संविधान स्त्री या पुरुष, लड़की या लड़का किसी में कोई भेद . नहीं करता । स्कूल-कॉलेजों में जिस प्रकार लड़के पढ़ते हैं वैसे ही लड़कियाँ भी पढ़ेंगी। लड़कियों को पढ़ने से रोका नहीं जाएगा।

हमें यह लगता है कि देश भर के लोगों में एकता लाने के लिए सबमें समानता का होना अति आवश्यक है। किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं किया जाय ।

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प्रश्न 3. कई बार लोग हमारी उपस्थिति में ही पूर्वाग्रह से भरा आचरण करते हैं। ऐसे में अक्सर हम विरोध करने की स्थिति में नहीं रहते, क्योंकि मुँह पर तुरंत कुछ कहना मुश्किल जान पड़ता है। अपनी कक्षा को दो समूहों में बाँटिए और प्रत्येक समूह इस पर चर्चा करे कि दी गई परिस्थिति में वे क्या करेंगे :

(क) गरीब होने के कारण सहपाठी को आपका दोस्त चिढ़ा रहा है।
उत्तर- अपने दोस्त को मैं समझाऊँगा कि विद्यालय में सभी को समान समझना चाहिए। गरीबी के लिए सहपाठी दोषी है न कि समाज ?

(ख) आप अपने परिवार के साथ टी० वी० देख रहे हैं और उनमें से कोई सदस्य किसी खास धार्मिक समुदाय पर पूर्वाग्रह ग्रस्त टिप्पणी करता है।
उत्तर – ऐसी स्थिति में उस सदस्य को समझाऊँगा कि हमारा देश बहुभाषी और बहुधार्मिक है। यहाँ सभी धर्मों को संविधान में बराबरी का दर्जा दिया हुआ है। अतः पूर्वाग्रही टिप्पणी जायज नहीं है।

(ग) आपकी कक्षा के बच्चे एक लड़की के साथ मिलकर खाना खाने से इंकार कर देते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि वह गंदी है।
उत्तर – केवल किसी के सोच लेने से कोई गन्दा नहीं हो जाता, सहपाठियों को समझाऊँगा कि उन्हें किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। यदि वह लड़की वास्तव में गन्दी होगी तो उसे समझाऊँगा कि आगे से वह साफ-सुथरा होकर विद्यालय आए।

(घ) किसी समुदाय के खास उच्चारण का मजाक उड़ाते हुए कोई आपको चुटकुला सुनाता है।
उत्तर- मैं चुटकुला सुनाने वाले को समझाऊँगा कि ऐसी प्रवृत्ति देश में एकता स्थापित रखने में कठिनाई हो सकती है। अत: भविष्य में ऐसा नहीं करने के लिए मैं उससे कहूँगा ।

(ङ) लड़के, लड़कियों पर टिप्पणी कर रहे हैं कि लड़कियाँ उनकी तरह नहीं खेल सकतीं।
उत्तर- मैं लड़कों को समझाऊँगा कि तुम्हारी यह धारणा गलत है। देश में हर खेल में लड़कियाँ लड़कों की बराबरी कर रही हैं।

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Bihar Board Class 7 Social Science Ch 2 राज्‍य सरकार | Raj Sarkar Class 7th Solutions

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 7 सामाजिक विज्ञान के पाठ 1 राज्‍य सरकार (Raj Sarkar Class 7th Solutions) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Raj Sarkar Class 7th Solutions

2. राज्‍य सरकार

पाठ के अंदर आए प्रश्न तथा उनके उत्तर

प्रश्न 1. अपने आस-पास सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्य की एक सूची बनाएँ ।  ( पृष्ठ 11 )
उत्तर—हमारे आस-पास के गाँवों में सरकार द्वारा निम्नलिखित काम किये गये हैं :
(i) गाँवों को मुख्य मार्ग तक जोड़ने की सड़क का पक्कीकरण किया गया है।
(ii) गाँवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये हैं ।
(iii) मुख्य मार्ग के पहुँच पथ पर कहीं-कहीं पुल और पुलिया बनाये गए हैं।
(iv) गाँव में कुएँ खुदवाये गये हैं, जिसकी देख-रेख और साफ-सफाई का काम ग्राम पंचायत देखती है।
(v) कहीं-कहीं नलकूप की व्यवस्था की गई है।
(vi) किसी-किसी गाँव में प्राथमिक विद्यालय खोले गये हैं ।
(vii) प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों को दिन का भोजन दिया जाता है।
(viii) कहीं-कहीं मध्य विद्यालय भी है और वहाँ छात्र भी हैं, लेकिन शिक्षकों की कमी बहुत खलती है। पढ़ाई ढंग से नहीं हो पाती ।
(ix) दस-पन्द्रह गाँवों के लिए एक उच्च विद्यालय की व्यवस्था है । वर्ग 9 की सभी छात्राओं को सायकिल तथा लिवास मुफ्त में दिये गये हैं ।
(x) बिजली के खंभे और तार तो हैं, लेकिन बिजली नहीं आता । सरकार की ओर से आश्वासन मिलता है कि शीघ्र ही बिजली आने लगेगी ।

प्रश्न 1. शिक्षक की सहायता से अपने जिले के मानचित्र में अपने विधान सभा क्षेत्र को दर्शाएँ एवं उम्मीदवारऔर पार्टीका अर्थ समझाएँ । ( पृ० 13 )
उत्तर — जिले का मानचित्र तथा विधान सभा क्षेत्र शिक्षक महोदय दिखाएँगे ।
उम्मीदवार- उम्मीदवार से मतलब है, वह व्यक्ति जो विधान सभा का सदस्य बनना चाहता है । वह व्यक्ति किसी पार्टी द्वारा खड़ा किया जाता है। यदि उस व्यक्ति को कोई पार्टी अपना उम्मीदवार नहीं बनाती और वह व्यक्ति विधान सभा चुनाव लड़ना ही चाहे तो वह निर्दलीय खड़ा हो सकता है। अनेक निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव जीतते देखा गया है ।
पार्टी पार्टी से मतलब उस राजनीतिक पार्टी से है, जो इसी काम के लिए राजनीतिक रूप से गठित है। बिहार में अनेक राजनीतिक पार्टियाँ हैं । इनमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय दल हैं। राष्ट्रीय दल का अर्थ है कि उसकी शाखाएँ देश भर के सभी राज्यों में हैं। जनता दल युनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी आदि स्थानीय दल हैं। स्थानीय दल का अर्थ कि इनका फैलाव मात्र बिहार राज्य तक ही सीमित है। लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों का बहुत महत्व है। पार्टी के ही सदस्य विधायक बनकर जनता की आवाज बनते हैं ।

प्रश्न 2. चुनाव प्रचार क्यों किया जाता है ? चर्चा करें । ( पृष्ठ 14 )
उत्तर- चुनाव प्रचार इसलिये किया जाता है, जिससे मतदाता यह जान-समझ सके कि किस पार्टी से कौन उम्मीदवार उनके विधान सभा क्षेत्र से खड़ा है। उसका चुनाव चिह्न क्या है। पार्टी के अलावा उम्मीदवार का व्यक्तित्व भी बहुत महत्व रखता है । चुनाव प्रचार का एक मकसद यह भी रहता है कि मतदाता यह जान सकें कि किस पार्टी से कौन उम्मीदवार खड़ा है। चुनाव प्रचार के दौरान ही मतदाता यह मन बना पाते हैं कि उसे या उन्हें किसके पक्ष में मतदान करना है।

प्रश्न 3. अलग-अलग उम्मीदवार क्यों होते हैं? इससे क्या फायदा होता है ?  ( पृष्ठ 14 )
उत्तर- पार्टियाँ जब अलग-अलग होती हैं तो उनके उम्मीदवार तो अलग-अलग होंगे ही। पार्टियों के अलावा कुछ निर्दलीय उम्मीदवार भी तो होते हैं । इसी कारण उम्मीदवार अलग-अलग होते हैं।
अलग-अलग उम्मीदवारों के होने से मतदाताओं को अपने मन की पार्टी को जानने का अवसर मिलता है । फलतः वे जिस पार्टी को अच्छा या जिस उम्मीदवार को कर्मठ और ईमानदार समझते हैं, उसी के पक्ष में मतदान करते हैं। इतना ही नहीं, वे अपने साथियों को अपनी पसन्द बनाकर उसी को अपना मत देने के लिए प्रेरित करता है। अलग-अलग उम्मीदवार होने से ये ही सब फायदे हैं ।

प्रश्न 4. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (E.V.M.) के द्वारा मत कैसे दिया जाता है ? शिक्षक के साथ चर्चा करें । ( पृष्ठ 14 )
उत्तर— इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (E.V.M.) जैसा कि नाम से ही प्रकट होता है कि यह एक विद्युतीय उपकरण है, जो टाईपराइटर के आकार का होता है। क्षेत्र विशेष से जितने उम्मीदवार होते हैं, उतने ही चित्र (चुनाव चिह्न) उसपर बना रहता हैं ।  मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवार के चुनाव चिह्न वाला बटन दबाते हैं । बटन दबाते ही एक सीटी जैसी आवाज होती है और उम्मीदवार के नाम पर वह मत चिह्नित होता है और एक मतदाता का मतदान पूर्ण हो जाता है। ऐसे ही बारी-बारी से मतदाता अपना-अपना मतदान करते जाते हैं। मतदान समाप्त होने के पश्चात उम्मीदवारों के एजेंटों के सामने EVM सील कर दिया जाता है और इसे जिला कलक्टर के हवाले कर दिया जाता है ।

प्रश्न 5. आप अपने क्षेत्र के वर्तमान एवं पूर्व विधायक के नाम लिखें ।  ( पृष्ठ 14 )
उत्तर – बिहार की चौदहवीं विधान सभा का चुनाव 2005 में हुआ था और पन्द्रहवीं लोकसभा का चुनाव अभी हाल में ही नवम्बर, 2010 में सम्पन्न हुआ हैं । हमारे क्षेत्र से जो उम्मीदवार 2005 में विजयी हुए थे, वे ही 2010 में भी वे ही विजय प्राप्त किये हैं । इसका अर्थ है अभी हमारे क्षेत्र के वर्तमान विधायक ‘अबस’ हैं और पूर्व विधायक भी वही हैं।

प्रश्न 6. चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से समाप्ति तक की पूरी प्रक्रिया को विद्यालय में टोलियाँ बनाकर नाटक के रूप में प्रस्तुत करें। (पृष्ठ 14 )
उत्तर- संकेत : नाटक छात्रों को ही प्रस्तुत करना है
प्रक्रिया- चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा — इसी के द्वारा तिथियों को निश्चित किया जाना – राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा पत्र का प्रकाशन -उनके द्वारा उम्मीदवारों को टिकट देना—उम्मीदवारों द्वारा नामांकन पत्र दाखिल करना – नामांकन पत्र की जॉन-जॉच में सही पाये गये नामांकित उम्मीदवार को चुनाव में भाग लेने की चुनाव आयोग द्वारा अनुमति उम्मीदवारों द्वारा प्रचार अभियान — निश्चित तिथि .को मतदान — निश्चित तिथि को मतों की गिनती- सर्वाधिक मन प्राप्त करने वाले उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाना – चुनाव आयोग द्वारा विजयी उम्मीदवार को सर्टिफिकेट दिया जाना ।

प्रश्न 1. हिमाचल प्रदेश विधानसभा में 68 सदस्य हैं। किसी भी दल अथवा गठबंधन को बहुमत प्राप्त करने के लिए कितने सदस्यों की आवश्यकता होगी ?    ( पृष्ठ 16 )
उत्तर—चूँकि हिमाचल प्रदेश विधान सभा में 68 सदस्य हैं अतः किसी दल या गठबंधन को कम-से-कम 35 सदस्यों का होना नितांत आवश्यक है। इससे अधिक हो तो और भी अच्छा ।

प्रश्न 2. किस दल या गठबंधन की सरकार बनेगी यह तय करने के लिये बहुमत के नियम से क्यों चलना चाहिए ? चर्चा करें । ( पृष्ठ 17 )
उत्तर—किस दल या गठबंधन की सरकार बनेगी, यह तय करने के लिए बहुमत के नियम से इसलिये चलना चाहिये क्योंकि लोकतंत्र में यही एकमात्र मापदंड है, जिससे सरकार या सरकारों का गठन होता है । न केवल सरकार के गठन में, बल्कि सभी कामों में लोकतांत्रिक पद्धति में बहुमत को प्रमुखता दी जाती है ।

प्रश्न 3. क्या कुछ ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जहाँ आपको लगता है कि बहुमत के अनुसार निर्णय होना चाहिए ? चर्चा करें ।  (पृष्ठ 17 )
उत्तर — बहुमत के अनुसार निर्णय होना चाहिए -इसके लिए तो लोकतंत्र में उदाहरण भरे पड़े हैं । सर्वप्रथम तो विधायक का चुनाव ही ऐसा उदाहरण है, जिसका निर्वाचन बहुमत से होता है। इसके बाद बहुमत के आधार पर मुख्यमंत्री का चुनाव होता है। विधान सभा में जितने कार्य होते हैं, वे सभी बहुमत से ही निर्णय होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमें लगता है कि व्यवस्थापिका में सभी कार्य बहुमत के अनुसार ही होने चाहिए ।

प्रश्न 4. अपने शिक्षक की सहायता से बिहार विधान सभा चुनाव वर्ष 2010 में विभिन्न राजनीतिक दलों के परिणाम की जानकारी प्राप्त कर तालिका के रूप में दर्शाइए ।
उत्तर :

प्रश्न 1. अगर आप विधायक होते तो अपने क्षेत्र की कौन-सी समस्या उठाते और क्यों ?  ( पृष्ठ 20 )
उत्तर – यदि मैं विधायक होता तो विधान सभा में अपने क्षेत्र के प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली की समस्या उठाता । क्योंकि आजकल इन विद्यालयों की हालत बहुत बदहाल है। अधिकांश विद्यालयों के भवन खस्ता हाल है। वर्षा में इतना पानी चूता है कि छात्रों को कौन कहें, अध्यापकों के बैठने की भी जगह नहीं होती । शिक्षकों के विद्यालय पहुँचने का कोई समय नहीं होता और वे कब चल देंगे, वह भी वे ही जानते हैं। यदि शिक्षक आते हैं तो छात्र गायब रहते हैं। जिन विद्यालयों में सब कुछ ठीक-ठाक है, वहाँ मध्याह्न भोजन वाला अन्न खाने लायक नहीं होता । वैसा भोजन खाकर अनेक छात्र बीमार पड़ जाते हैं। मैं माननीय मंत्री से माननीय अध्यक्ष के माध्यम से यह अनुरोध करूँगा कि वे विद्यालयों की इन कुव्यवस्थाओं को दूर कराने की कृपा करें, जिससे छात्रों को उचित ढंग से पढ़ाया जा सके । अधिकांश विद्यालयों में शौचालय और चापाकल नहीं हैं। हैं भी वे बदहाल स्थिति में हैं । इस कारण छात्राओं को बड़ी कठिनाई होती है। इनको भी सुधारा जाय ।

प्रश्न 2. आपकी नजर में एक विधायक और उस विधायक में, जो मंत्री भी हैं, में क्या अंतर है ?
उत्तर— मेरी नजर में एक विधायक और उस विधायक में, जो मंत्री हैं, में यह अंतर है कि विधायक के काम करने का अधिकार या कर्तव्य अपने क्षेत्र तक ही है, जबकि मंत्री बने विधायक को पूरे राज्य पर नजर रखनी पड़ती है। विधायक को अपने क्षेत्र की सभी आवश्यकताओं को विधानसभा में उठाना है, जबकि मंत्री बने विधायक को पूरे राज्य की सभी समस्याओं के हल निकालने हैं। खासकर उन विषयों के जिस विभाग के वे मंत्री हैं ।

प्रश्न 3. विधान सभा में बहस करने की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर — विधान सभा में बहस करने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि बहस कराने में ही सरकार और उसके मंत्रियों तक क्षेत्र विशेष की कमियों-कठिनाइयों की जानकारी पहुँच पाती है। खबर अखबारों में छपता है तथा रेडियो-टेलीविजन पर आता है। सरकार की बदनामी न हो, इसलिए मंत्री इन कमियों और कठिनाइयों को जल्दी ही दूर कराने का प्रयास करते हैं ।

अभ्यास : प्रश्न तथा उनके उत्तर

प्रश्न 1. अपने शिक्षक की सहायता से पता लगाइए कि निम्नांकित सरकारी -विभाग क्या काम करते हैं और उन्हें तालिका में दिये गये रिक्त स्थानों में भरिये ।
उत्तर :

प्रश्न 2. निर्वाचन क्षेत्र व प्रतिनिधि शब्दों का उपयोग करते हुए स्पष्ट कीजिए कि विधायक कौन होता है और उनका चुनाव किस प्रकार होता है ?
उत्तर — राज्य को निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा जाता है और हर निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि का चुनाव होता है। यही चुने गये प्रतिनिधि विधायक होते हैं। विधायक को एम. एल. ए. ( मेम्बर ऑफ लेजिस्लेटिव एसेम्बली) भी कहते हैं ।
विधायकों का निर्वाचन बालिग मताधिकार के आधार पर विधान सभा क्षेत्र के उन सभी मतदाताओं द्वारा होता है, जिनका नाम मतदाता सूची में दर्ज है और उस मतदाता के पास फोटो लगा पहचान पत्र भी है।
विधिवत निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव की घोषणा होती हैं, तिथि तय की जाती है । नियत तिथि के अन्दर उम्मीदवार को नामांकन करना होता है । नियत तिथि को मतदान होता है और नियत तिथि को ही मतों की गिनती होती है। सर्वाधिक मत प्राप्त किये हुए उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया जाता है और जीत का सर्टिफिकेट दिया जाता है ।

प्रश्न 3. विधान सभा सदस्यों द्वारा विधायिका में किये गए कार्यों और शासकीय विभागों द्वारा किए गए कार्यों के बीच क्या अंतर है ?
उत्तर — विधान सभा के सदस्य विधायिका में बैठकर केवल नीति का निर्धारण करते हैं । कहाँ पर कौन काम होगा, इसका आदेश देते हैं ।
विधायिका द्वारा किये गये नीति निर्धारण और स्वीकृत किये गये कार्यों को पूरा करने के लिए एक अलग प्रशासनिक विभाग हैं । इसका सर्वोच्च अधिकारी ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ (I.A.S.) रैंक का अधिकारी होता है। उसके नीचे अनेक अफसर और कर्मचारी – किरानी आदि होते हैं। वास्तव में किसी भी काम को कार्य रूप देना इन्हीं अधिकारियों का दायित्व होता है । इसी कारण इसे ‘कार्यपालिका’ कहा जाता है । विधायिका और कार्यपालिका के तालमेल से ही किसी प्रस्ताव को कार्य रूप में परिणत किया जाता है ।

प्रश्न 4. क्या आपके विचार से विधान सभा में बहस कुछ अर्थों में उपयोगी रही? कैसे ? चर्चा कीजिए ।
उत्तर – हाँ, मेरे विचार से विधान सभा में की गई बहस बहुत अर्थों में सफल रही। बहस के बाद ही मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री तथा ग्रामीण विकास मंत्री के साथ विधायक द्वारा सदन में उठाये गये मामले पर विचार करने के लिये बैठक होती है। उसके बाद ग्रामीण विकास मंत्री के साथ उस विधायक के निर्वाचन क्षेत्र के दौरे पर जाने की योजना बनती है। वहाँ की सड़कों की हालत जर्जर पाकर उसे ठीक कराने के लिए मंत्री जी टेंडर करवाते हैं और सड़क की मरम्मत कर दी जाती है स्वास्थ्य मंत्री को निर्देश मिलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की उपस्थिति सुनिश्चित करने का उपाय करें, जिससे ग्रामीण जन इलाज की सुविधा प्राप्त कर सकें।

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Bihar Board Class 7 Social Science Ch 1 लोकतंत्र में समानता | Loktantra Me Samanta Class 7th Solutions

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 7 सामाजिक विज्ञान के पाठ 1 लोकतंत्र में समानता (Loktantra Me Samanta Class 7th Solutions) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Loktantra Me Samanta Class 7th Solutions

1. लोकतंत्र में समानता

पाठ के अन्दर आए हुए प्रश्न तथा उनके उत्तर

 प्रश्न 1. वोट देने का अधिकार किसे कहते हैं ? (पृष्ठ 2) 
उत्तर – राज्य के विधान सभा या स्थानीय शासन के लिए चुने जाने वाले प्रतिनिधि को चुनने के लिए मिले अधिकार को ‘वोट देने का अधिकार’ कहते हैं ।

प्रश्न 2. कतार में खड़ा होकर क्या कहीं पूनम को समानता का अनुभव हो रहा है? कैसे ?  ( पृष्ठ 2 )
उत्तर—कतार में खड़ा होकर निश्चित रूप से पूनम को समानता का अनुभव हो रहा है। कारण कि वहाँ जो पहले आता है वह कतार में खड़ा हो जाता है। वहाँ जाति-पांति या धनी गरीब का ख्याल नहीं किया जाता। सबको समान अधिकार का उयोग करने का मौका मिलता है।

प्रश्न 3. वोट देने के अधिकार में क्या आपको काम, शिक्षा, पैसे या धर्म व जाति से कोई फर्क पड़ता है? चर्चा करें ( पृष्ठ 2 )
उत्तर— नहीं, वोट देने के अधिकार में हमें काम, शिक्षा, पैसा या धर्म व जाति से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो पहले आता है वह पहले वोट देता है, चाहे वह कोई भी हो। लेकिन वोटर लिस्ट में नाम और साथ में फोटो लगा पहचान पत्र होना चाहिए । 18 वर्ग के या इससे ऊपर आयु के सभी को वोट देने का अधिकार है ।

प्रश्न 4. फोटो पहचान पत्र की जरूरत और कहाँ पड़ सकती है ? ( पृ. 2 )
उत्तर—फोटो पहचान पत्र की आवश्यकता वोट देने के अलावा राशन कार्ड बनवाने में पहले पहल रसोई गैस सलेंडर लेने में मोबाइल फोन लेने में किसी अनजान जगह जाने पर अपना पहचान करवाने आदि में फोटो पहचान पत्र की आवश्यकता पड़ती है या पड़ सकती है। किसी अनजान शहर में बिना फोटो पहचान पत्र के न तो किसी धर्मशाला में और न ही होटल या लॉज में ठहरने की अनुमति मिल सकती है

प्रश्न 1. अब तक रमा स्कूल क्यों नहीं गई ?                ( पृष्ठ 3 )
उत्तर- परिवार की गरीबी के कारण रमा अभी तक स्कूल नहीं गई, जबकि उसकी आयु 7 वर्ष हो चुकी है।

प्रश्न 2. पूनम को असमानता का अहसास क्यों होता है ? ( पृष्ठ 3 )
उत्तर- पूनम को असमानता का अहसास अपनी गरीबी को लेकर होता है कारण कि इसे ज्योति के घर में नौकरानी का काम करना पड़ता है। गरीबी के कारण वह रमा को स्कूल नहीं भेज पाती । ज्योति के घर वाले आराम का जीवन जीते हैं जबकि पूनम को सदैव खटना पड़ता है।

प्रश्न 3. आपके आस-पास किस-किस प्रकार के स्कूल हैं ? ( पृष्ठ 3 )
उत्तर—हमारे आस-पास दो प्राइवेट स्कूल हैं तथा गाँव के बाहर सरकारी प्राथमिक पाठशाला है। प्राइवेट स्कूलों में तो पढ़ाई बहुत अच्छी होती है। शिक्षक
समय पर आते हैं और समय पर जाते हैं। लेकिन सरकारी स्कूल की स्थिति ठीक नहीं है। शिक्षकों के आने का कोई निश्चित समय नहीं है । वे आते भी हैं तो पढ़ाई ठीक से नहीं कराते । सरकारी स्कूल में दोपहर का मुफ्त भोजन तो मिलता है, लेकिन घटिया किस्म का ।

प्रश्न 4. अच्छा स्कूल आप किसे मानेंगे ?    ( पृष्ठ 3 )
उत्तर—अच्छा स्कूल हम उसे मानेंगे, जिसका भवन अच्छा हो । बरसात में पानी चूता नहीं हो । शिक्षक समय पर आते हों और बच्चों को मन से पढ़ाते हो । दोपहर का भोजन अच्छा मिलता हो । स्कूल समय पर खुलता हो और समय पर बन्द होता हो । स्कूल के पास शौचालय हो तथा पानी के लिए हैंड पम्प हो ।

प्रश्न 1. बाल संसद के लिये चुनाव करवाना क्यों जरूरी है ? ( पृष्ठ 4 )
उत्तर- बाल संसद के लिये चुनाव करवाना इसलिए जरूरी है कि छात्रों में जागरूकता का विकास हो और चुनाव के महत्त्व को वे समझ सकें ।

प्रश्न 2. यदि शिक्षक द्वारा प्रतिनिधि मनोनीत कर दिया जाता तो क्या फर्क पड़ता ? ( पृष्ठ 4 )
उत्तर – यदि शिक्षक द्वारा प्रतिनिधि मनोनीत कर दिया जाता तो बहुत फर्क पड़ता । छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास नहीं होता । मनोनीत प्रतिनिधि में घमंड की भावना आ जाती और वह ठीक से काम नहीं कर पाता । छात्र चुनाव के महत्व से भी अनजान रह जाते ।

प्रश्न 3. क्यां चुनाव प्रक्रिया में एक व्यक्ति एक मतके सिद्धांत का प्रयोग हुआ ? समझाएँ । ( पृष्ठ 4 )
उत्तर- हाँ, चुनाव प्रक्रिया में ‘एक व्यक्ति एक मत’ के सिद्धांत का प्रयोग हुआ । इससे लाभ हुआ कि छात्रों में समानता के भाव का समावेश हुआ। इस प्रक्रिया में धनी बाप के बेटे और गरीब बाप के बेटे या दलितों के बेटों या सवर्णो के बेटी को बराबरी में रहने की शिक्षा मिली ।

प्रश्न 4. एक व्यक्ति एक मत के नियम से क्या लाभ है ? ( पृष्ठ 4 )
उत्तर- ‘एक व्यक्ति एक मत’ के नियम से लाभ है कि इससे समानता का अहसास होता है । व्यक्ति धनी हो या गरीब, दलित हो या सवर्ण, निरक्षर हो या शिक्षित – यहाँ सभी का महत्व समान समझा जाता है। वास्तव में लोकतंत्र का यही तो मूलमंत्र है ।

प्रश्न 5. आपके विद्यालय में बाल संसद ने क्या काम किया और क्या कर सकती है ? अपनी राय लिखें ।  (पृष्ठ 4 )
उत्तर- हमारे विद्यालय के बाल संसद ने मुख्य काम यह किया कि पूरे विद्यालय भवन की पूरी सफाई का भार वहन किया। वर्ग कक्षों से लेकर कार्यालय को भी नित्य सफाई का जिम्मा टोली विशेष को दी गई है। इससे स्कूल भवन काफी साफ- सुथरा दिखने लगा है।
बाल संसद कुछ और करना चाहे तो वह स्कूल भवन के आगे फूलों के पौधे रोप सकती है। यदि मैदान है तो उसकी सफाई भी की जाय । यदि विद्यालय के चारों ओर खाली जमीन हो तो वृक्षारोपण किया जाय। उनमें समयानुसार पानी दिया जाय और उनकी देखभाल की जाय ।

प्रश्न 1. दक्षिण अफ्रीका में रेल यात्रा के दौरान गाँधीजी की गरिमा को किस प्रकार ठेस पहुँची ? ( पृष्ठ 6 )
उत्तर-दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय गाँधीजी को एक दिन रेलयात्रा करनी पड़ी । उन्होंने प्रथम दर्जे का टिकट लिया और उसी दर्जा में सवार भी हो गए। एक गोरे को काले का अपने डब्बे में देखकर नागवार लगा और उनको गाड़ी से उतर जाने का निर्देश दिया। लेकिन गाँधीजी ने गाड़ी से उतरने से इंकार कर दिया, क्योंकि उनके पास प्रथम दर्जे का टिकट था । गोरे ने पुलिस बुलवा कर गाँधीजी का सामान डब्बे से बाहर फेंकवा दिया। इसपर भी गाँधीजी डब्बे से उतरने को तैयार नहीं थे । इस पर उन्हें भी सामान की तरह उठा कर डब्बे से बाहर फेंक दिया गया। इस प्रकार गाँधीजी को उनकी गरिमा को ठेस पहुँची ।

प्रश्न 2. आपबीती के लेखक को अपने सम्बंधी के यहाँ किन बातों से ठेस पहुँची ? (पृष्ठ 6 )
उत्तर- आपबीती के लेखक को अपने सम्बंधी के यहाँ इन बातों से ठेस पहुँची कि मूल्यवान कपड़े पहने सम्बंधियों की खातिरदारी में सभी लगे हुए थे। वहीं साधारण कपड़ा पहने होने के कारण लेखक से किसी ने बैठने तक के लिये नहीं कहा। यहाँ तक कि उसे न तो जलपान कराया गया और न भोजन के लिये पूछा गया। सोने का भी उचित प्रबंध नहीं हुआ और लेखक को रात भर मच्छरों से जूझना पड़ा

प्रश्न 3. क्या आपके साथ भी ऐसी कोई घटना हुई है, जिससे आपकी गरिमा को ठेस पहुँची हो ?
उत्तर- हाँ, मेरी गरिमा को भी एक बार विद्यालय में ही ठेस पहुँची थी। हुआ था यह कि मेरे एक सहपाठी की पुस्तक गुम हो गई थी। पुस्तक दूसरे दिन उसने शिक्षक से शिकायत की और मुझपर ही चोरी का इल्जाम लगाया, जबकि मैं इस सम्बंध में पूर्णतः अनजान था। शिक्षक ने मुझे बुरी तरह प्रताड़ित किया। मैं लगातार रोता रहा और रोते-रोते ही मैं घर पहुँचा। फिर भी अपने अभिभावकों से मैने कुछ नहीं कहा। तीन दिन बाद पता चला कि वह पुस्तक उस सहपाठी के घर ही छूट गई थी ।

प्रश्न 1. इन विज्ञापनों ( पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ 6 के विज्ञापनों ) में जाति एवं सामाजिक असमानता के सूचक शब्दों को रेखांकित करें। (पृष्ठ 7)
उत्तर- 1. कायस्थ लड़का, 2 मैथिल ब्राह्मण लड़की, 3. यादव लड़की

प्रश्न 1. मध्याह्न भोजन योजना का उद्देश्य क्या है ( पृष्ठ 8 )
उत्तर- गम्याह भोजन योजना का उद्देश्य है कि गरीब बच्चे भी कम-से-कम जन के लालच से विद्यालय से जुड़ सके और पढ़ सके ।

प्रश्न 2. मध्याह्न भोजन और विद्यालय से सम्बंधित अंशों से समानता दर्शाने वाले वाक्य चुनें और लिखें । ( पृष्ठ 8 )
उत्तर – मध्याह्न भोजन योजना में बच्चों को भोजन तो मिलता ही है, उनके बीच की सामाजिक दूरियों को भी कम करने का प्रयास किया जाता है। सभी बच्चे एक ही प्रकार के भोजन करते हैं, चाहे उनकी जाति कोई भी क्यों न हो ।
इसी प्रकार भोजन बनाने के लिये किसी भी जाति के लोग नियुक्त किये जा सकते हैं, चाहे वे दलित या महादलित ही क्यों न हो ?

प्रश्न 3. क्या आपने कभी मध्याह्न भोजन के दौरान असमानता का अनुभव किया हैं ? ( पृष्ठ 8 )
उत्तर- नहीं, मैंने कभी मध्याह्न भोजन के दौरान कभी भी असमानता का अनुभव नहीं किया ।

प्रश्न 1. बाल संसद समानता के लिये क्या कर सकती है। चर्चा कीजिए । ( पृष्ठ 9 )
उत्तर – बाल संसद समानता के लिए सहभोज’ का आयोजन कर सकती है। सभी मिलकर भोजन बनाएँगे और सभी एक पंक्ति में बैठकर खाएँगे ।

अभ्यास : प्रश्न तथा उनके उत्तर

प्रश्न 1. अपने पास-पड़ोस से समानता और असमानता दर्शाने वाले किन्हीं तीन व्यवहारों का उल्लेख करें ।
उत्तर :

प्रश्न 2. क्या आपने कभी किसी के साथ असमान व्यवहार किया है ? यदि हाँ तो कब ?
उत्तर- नहीं, मैंने किसी के साथ कभी असमान व्यवहार नहीं किया है।

प्रश्न 3. क्या आपको किसी के व्यवहार से ठेस पहुँची
उत्तर- संकेत : पृष्ठ 8 पर प्रश्नोत्तर 2 देखें।.

प्रश्न 4. यदि आप रोजा पार्क्स की जगह दक्षिण अफ्रीका में रहते तो क्या करते ?
उत्तर— मैं भी वही करता जो रोजा पार्क्स ने किया था ।

प्रश्न 5. क्या कभी आपने पंक्ति में खड़े लोगों के बाद में आने के बावजूद आगे होने का प्रयास किया है ? यदि हाँ तो क्यों ?
उत्तर- नहीं, मैंने कभी पंक्ति में खड़े लोगों के बाद आने के बावजूद आगे होने का प्रयास नहीं किया । यह इसलिये कि यह नियम के अनुकूल नहीं होता ।

प्रश्न 6. असमानता के कई रूप हैं ? यह कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर – हाँ, असमानता के कई रूप हैं। इन्हें हम इस प्रकार कह सकते हैं
(i) जाति के रूप में, (ii) धन बल के रूप में, (iii) बाहुबल के रूप में, (iv) रंग के रूप में, (v) देशी और विदेशी के रूप में, (vi) शैक्षिक योग्यता के रूप में(vii) पद के रूप में, (vii) सवर्ण तथा दलित के रूप में, (viii) दलितों में दलित और महादलित के रूप में ।

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अध्‍याय 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव | Bhartiya rajniti naye badlav Class 12th Notes

Bhartiya rajniti naye badlav Class 12th Notes

अध्‍याय 9
भारतीय राजनीति : नए बदलाव

1990 का दशक

1980 के दशक के आखिर के सालों में देश में ऐसे पाँच बड़े बदलाव आए, जिनका हमारी आगे की राजनीति पर गहरा असर पड़ा।

पहला, इस दौर की एक महत्त्‍वपूर्ण घटना 1989 के चुनाव में कांग्रेस की हार है। जिस पार्टी ने 1984 में लोकसभा की 415 सीटें जीती थीं वह इस चुनाव में महज 197 सीटें ही जीत सकी। 1991 में एक बार फिर मध्‍यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस इस बार अपना आँकड़ा सुधारते हुए सत्ता में आयी।

दूसरा बड़ा बदलाव राष्‍ट्रीय राजनीति में ‘मंडल मुद्दे’ का उदय था। 1990 में राष्‍ट्रीय मोर्चा की नयी सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इन सिफारिशों के अंतर्गत प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार की नौकरियों में ‘अन्‍य पिछड़ा वर्ग’ को आरक्षण दिया जाएगा। सरकार के इस फैसले से देश के विभि‍न्‍न भागों में मंडल-विरोधी हिंसक प्रदर्शन हुए। अन्‍य पिछड़ा वर्ग को मिले आरक्षण के समर्थक और विरोधियों के बीच चले विवाद को ‘मंडल मुद्दा’ कहा जाता है।

तीसरा, विभिन्‍न सरकारों ने इस दौर में जो आर्थिक नीतियाँ अपनायीं, वे बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। इसे ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम अथवा नए आर्थिक सुधार के नाम से जाना गया। इनकी शुरूआत राजीव गाँधी की सरकार के समय हुई और 1991 तक ये बदलाव बड़े पैमाने पर प्रकट हुए।

चौथे, घटनाओं के एक सिलसिले की परिणति अयोध्‍या स्थित एक विवादित ढाँचे (बाबरी मस्जिद के रूप में प्रसिद्ध) के विध्‍वंस के रूप में हुई। यह घटना 1992 के दिसंबर महीने में घटी। इस घटना ने देश की राजनीति में कई परिवर्तनों को जन्‍म दिया और उनका प्रतीक बनी। इस घटना से भारतीय राष्‍ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता पर बहस तेज हो गई। इस सिलसिले की आखिरी बात यह है कि मई 1991 में राजीव गाँधी की हत्या कर दी गई और इसके परिणामस्‍वरूप कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। राजीव गाँधी चुनाव अभियान के सिलसिले में तमिलनाडु के दौर पर थे। तभी लिट्टे से जुड़े श्रीलंकाई तमिलों ने उनकी हत्‍या कर दी। राजीव गाँधी की मृत्‍यु के बाद कांग्रेस पार्टी ने नरसिम्‍हा राव को प्रधानमंत्री चुना।

गठबंधन का युग

1989 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार हुई थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि किसी दूसरी पार्टी को इस चुनाव में बहुमत मिल गया था। कांग्रेस अब भी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत में न होने के कारण उसने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। राष्‍ट‍्रीय मोर्चे को (यह मोर्चा जनता दल और कुछ अन्‍य क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बना था) परस्‍पर विरूद्ध दो राजनीतिक समूहों –भाजपा और वाम मोर्चे – ने समर्थन दिया। इस समर्थन के आधार पर राष्‍ट्रीय मोर्चा ने एक गठबंधन सरकार बनायी, लेकिन इसमें भाजपा और वाम मोर्चे ने शिरकत नहीं की।

Bhartiya rajniti naye badlav Class 12th Notes

कांग्रेस का पतन

कांग्रेस की हार के साथ भारत की दलीय व्‍यवस्‍था से उसका दबदबा खत्‍म हो गया। 1960 के दशक के अंतिम सालों में कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौ‍ती मिली थी, लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्‍व में कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभुत्‍व फिर से कायम किया। नब्‍बे के दशक में कांग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली।

इस दौर में कांग्रेस के दबदबे के खात्मे के साथ बहुदलीय शासन-प्रणाली का युग शुरू हुआ। 1989 के बाद से लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी एक पार्टी को 2014 तक पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस बदलाव के साथ केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ और क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन सरकार बनाने में महत्त्‍वपूर्ण भूमिका निभायी।

गठबंधन की राजनीति 

नब्‍बे का दशक कुछ ताकतवर पार्टियों और आंदोलनों के उभार का साक्षी रहा। और आंदोलनों ने दलित तथा पिछड़े वर्ग (अन्‍य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी) की नुमाइंदगी की। 1996 में बनी संयुक्‍त मार्चे की सरकार में इन पार्टियों ने अहम किरदार निभाया। संयुक्‍त मार्चा 1989 के राष्‍ट्रीय मोर्चे के ही समान था। क्‍योंकि इसमें भी जनता दल और कई क्षेत्रीय पार्टियाँ शामिल थीं। इस बार भाजपा ने सरकार को समर्थन नहीं दिया। संयुक्‍त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था।

1989 में भाजपा और वाम मोर्चा दोनों ने राष्‍ट्रीय मोर्चा की सरकार को समर्थन दिया था। क्‍योंकि ये दोनों कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखना चाहते थे। इस बाद वाममोर्चा ने गैर-कांग्रेस सरकार को अपना समर्थन जारी रखा, लेकिन संयुक्‍त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस पार्टी ने भी समर्थन दिया। दरअसल, कांग्रेस और वाममोर्चा दोनों इस बार भाजपा को सत्ता से बाहर रखना चाहते थे।

भाजपा ने 1991 तथा 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्‍यौता मिला। लेकिन अधिकांश दल, भाजपा की नीतियों के खिलाफ थे और इस वजह से भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। आखिकार भाजपा एक गठबंधन (राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आयी और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रही। फिर 1999 के अक्‍टूबर में इस गठबंधन ने दोबारा सत्ता हासिल की। राजग की इन दोनों सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 1999 की राजग सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया।

इस तरह 1989 के चुनावों से भारत में गठबंधन की राजनीति के एक लंबे दौर की शुरूआत हुई। इसके बाद से केंद्र में 11 सरकारें बनी। ये सभी या तो गठबंधन की सरकारें थीं अथवा दूसरे दलों के समर्थन पर टिकी अल्‍पमत की सरकारें थीं जो इन सरकारों में शामिल नहीं हुए।

अन्‍य पिछड़ा वर्ग का राजनीतिक उदय

इस अ‍वधि का एक दूरगामी बदलाव था-अन्‍य पिछड़ा वर्ग का उदय। यह अनूसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति से अलग एक कोटि है, जिसमें शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों की गणना की जाती है। इन समुदोयों को ‘पिछड़ा वर्ग’ भी कहा जाता है।

‘मंडल’ का लागू होना

1980 के दशक में अन्‍य पिछड़ा वर्गों के बीच लोकप्रिय ऐसे ही राजनीतिक समूहों को जनता दल ने एकजूट किया। राष्ट्रीय मार्चा की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया। नौकरी में आरक्षण के सवाल पर तीखे वाद-विवाद हुए और इन विवादों से ‘अन्‍य पिछड़ा वर्ग’ अपनी पहचान को लेकर ज्‍यादा सजग हुआ।

राजनीतिक परिणाम

1978 में ‘बामसेफ’ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्‍युनिटीज एम्‍पलाइज फेडरेशन) का गठन हुआ। यह सरकारी कर्मचारियों का कोई साधाण-सा ट्रेड यूनियन नहीं थी। इस संगठन ने ‘बहुजन’ यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्‍पसंख्‍यकों की राजनीतिक सत्ता की जबरदस्‍त तरफदारी की। इसी का परवर्ती विकास ‘दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति’ है, जिससे बाद के समय में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ। इस पार्टी की अगुवाई कांशीराम ने की।

1989 और 1991 के चुनावों में इस पार्टी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली। बहुजन (यानी अनुसूचित जाति, अनु‍सूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्‍पसंख्‍यक) देश की आबादी में सबसे ज्‍यादा हैं इस पार्टी का सबसे ज्‍यादा समर्थन दलित मतदाता करते हैं,

सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र

आपातकाल के बाद भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी में शामिल हो गया था। जनता पार्टी के पतन और बिखराव के बाद भूतपूर्व जनसंघ के समर्थकों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बनाई। इसने ‘गाँधीवादी समाजवाद’ को अपनी विचारधारा के रूप में स्‍वीकार किया। भाजपा को 1980 और 1984 के चुनावों में खास सफलता नहीं मिला। 1986 के बाद इस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिंदु राष्‍ट्रवाद के तत्त्‍वों पर जोर देना शुरू किया। भाजपा ने ‘हिंदुत्‍व’ की राजनीति का रास्‍ता चुना और हिंदुओं को लामबंद करने की रणनीति अपनायी।

‘हिंदुत्‍व’ अथवा ‘हिंदुपन’ शबद को वी.डी. सावरकर ने गढ़ा था और इसको परिभाषित करते हुए उन्‍होंने इसे भारतीय (और शब्‍दों में हिंदू) राष्‍ट्र की बुनियाद बताया।

1986 में ऐसी दो बातें हुईं, जो एक हिंदूवादी पार्टी के रूप में भाजपा की राजनीति के लिहाज से प्रधान हो गईं । इसमें पहली बात 1985 के शाहबानो मामले से जुड़ी है। यह मामला एक 62 वर्षीया तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो का था। उसने अपने भूतपूर्व पति से गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए अदालत में अर्जी दायर की थी। सर्वोच्‍च अदालत ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया। पुरातनपंथी मुसलमानों ने अदालत के इस फैसले को अपने ‘पर्सनल लॉ’ में हस्‍तक्षेप माना। कुछ मुस्लिम नेताओं की माँग पर सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम (1986) (तलाक से जुड़े अधिकरों) पास किया। इस कदम का कई महिला संगठनों, मुस्लिम महिलाओं की जमात तथा अधिकांश बुद्धिजीवियों ने विरोध किया। भाजपा ने कांग्रेस सरकार के अस कदम की आलोचना की और इसे अल्‍पसंख्‍यक समुदाय को दी गई अनावश्‍यक रियायत तथा ‘तुष्टिकरण’ करार दिया।

अयोध्‍या विवाद

दसरी बात का संबंध फैजाबाद जिला न्यायालय द्वारा फरवरी 1986 में सुनाए गए फैसले से है। इस अदालत ने फैसला सुनाया था कि बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खोल दिया जाना चाहिए, ताकि हिंदू यहाँ पूजा पाट कर सकें, क्‍योंकि वे इस जगह को पवित्र मानते हैं। अयोध्‍या स्थित बाबरी मस्जिद को लेकर दशकों से विवाद चला आ रहा था। बाबरी मस्जिद का निर्माण अयोध्या में मीर बाकी ने करवाया था। यह मस्जिद 16वीं सदी में बनी थी। मीर बाकी मुगल शासक बाबर का सिपहसलार था।

जैसे ही बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खुला, वैसे ही दोनों पक्षों में लामबंदी होने लगी। अनेक हिंदू और मुस्लिम संगठन इस मसले पर अपने-अपने समुदाय को लामबंद करने की कोशिश में जुट गए। भाजपा ने इसे अपना बहुत बड़ा चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनाया। राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्‍व हिंदू परिषद् जैसे कुछ संगठनों के साथ भाजपा ने लगातार प्रतीकात्‍मक और लामबंदी के कार्यक्रम चलाए। उसने जनसमर्थन जुटाने के लिए गुजरात स्थित सोमनाथ से उत्तर प्रदेश स्थित अयोध्‍या तक बड़ी ‘रथयात्रा’ निकाली।

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विध्‍वंस और उसके बाद

जो संगठन राम मंदिर के निर्माण का समर्थन कर रहे थे, उन्‍होंने 1992 के दिसंबर में एक ‘कारसेवा’ का आयोजन किया। इसके अंतर्गत ‘रामभक्‍तों’ से आह्वान किया गया कि वे ‘राम मंदिर’ के निर्माण में श्रमदान करें। पूरे देश में माहौल तनावपूर्ण हो गया। अयोध्‍या में यह तनाव अपने चरम पर था। सर्वोच्च न्‍यायालय ने राज्‍य सरकार को आदेश दिया कि वह ‘विवादित स्‍थल’ की सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। बहरहाल 6 दिसंबर 1992 को देश के विभिन्‍न भागों से लोग आ जुटे और इन लोगों ने मस्जिद को गिरा दिया। मस्जिद के विध्‍वंस की खबर से देश के कई भागों में हिंदू और मुसलमानों के बीच झड़प हुई। 1993 के जनवरी में एक बार फिर मुंबई में हिंसा भड़की और अगले दो हफ्तों तक जारी रही।

अयोध्‍या की घटना से कई बदलाव आए। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन भाजपा की राज्‍य सरकार को केंद्र ने बर्खास्‍त कर दिया। इसके साथ ही दूसरे राज्‍यों में भी, जहाँ भाजपा की सरकार थी, राष्‍ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। चूँकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस बात का हलफनामा दिया था कि ‘विवादित ढाँचे’ की रक्षा की जाएगी। इसलिए सर्वोच्‍च न्‍यायालय में उनके खिलाफ अदालत की अवमानना  का मुकदमा दायर हुआ। भाजपा ने आधिकारिक तौर पर अयोध्‍या की घटना पर अफसोस जताया।

अधिकतर राजनीतिक दलों ने मस्जिद के  विध्‍वंस की निंदा की और इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के विरूद्ध बताया। लोकतांत्रिक राजनीति इस वायदे पर आधारित है कि सभी धार्मिक समुदाय किसी भी पार्टी में शामिल होने के लिए स्‍वतंत्र हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल धार्मिक समुदाय पर आधारित दल नहीं होगा।

गुजरात के दंगे

2002 के फरवरी-मार्च में गुजरात में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। गोधरा स्‍टेशन पर घटी एक घटना इस हिंसा का तात्‍कालिक उकसावा साबित हुई। अयोध्‍या की ओर से आ रही एक ट्रेन की बोगी कारसेवकों से भरी हुई थी और इसमें आग लग गई। सत्तावन व्‍यक्ति इस आग में मर गए। यह संदेह करके कि बोगी में आग मु‍सलमानों ने लगायी होगी। अगले दिन गुजरात के कई भागों में मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंसा का यह तांडव लगभग एक महीने तक जारी रहा। लगभग 1100 व्‍यक्ति, जिनमें ज्‍यादातर मुसलामन थे, इस हिंसा में मारे गए। 1984 के सिख-विरोधी दंगों के समान गुजरात के दंगों से भी यह जाहिर हुआ कि सरकारी मशीनरी सांप्रदायिक भावनाओं के आवेग में आ सकती है। गुजरात में घटी ये घटनाएँ हमें आगाह करती हैं कि राजनीतिक उद्देश्‍यों के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना खतरनाक हो सक‍ता है। इससे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति को खतरा पैदा हो सकता है।

एक नयी स‍हमति का उदय

1989 के बाद की अवधि को कभी-कभार कांग्रेस के पतन और भाजपा के अभ्युदय की भी अ‍वधि कहा जाता है

2004 के लोकसभा चुनाव

2004 के चुनावों में कांग्रेस भी पूरे जोर के साथ गठबंधन में शामिल हुई। राजग की हार हुई और संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस ने किया। संप्रग को वाम मोर्चा ने समर्थन दिया। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस का पुनरूत्‍थान भी हुआ। 1991 के बाद इस दफा पार्टी की सीटों की संख्‍या एक बार फिर बढ़ी।

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अध्‍याय 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ | Kshetriya akanshaye class 12 political science Notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 राजनीति विज्ञान के पाठ 8 ‘क्षेत्रीय आकांक्षाएँ (Kshetriya akanshaye class 12 political science Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Kshetriya akanshaye class 12 political science

अध्‍याय 8
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

क्षेत्र और राष्‍ट्र

1980के दशक को स्‍वायत्तता की माँग के दशक के रूप में भी देखा जा सकता है। इस दौर में देश के कई हिस्‍सों से स्‍वायत्तता की माँग उठी और इसने संवैधानिक हदों को भी पार किया। इन आंदोलनों में शामिल लोगों ने अपनी माँग के पक्ष में हथियार उठाए; सरकार ने उनको दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की और इस क्रम में राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया अवरूद्ध हुई। इन संघर्ष पर विराम लगाने के लिए केंद्र सरकार को सुलह की बातचीत का रास्‍ता अख्तियार करना पड़ा। अथवा स्‍वायत्तता के आंदोलन की अगुवाई कर रहे समूहों से समझौते करने पड़े। बातचीत का लक्ष्‍य यह एक लंबि प्रक्रिया के बाद ही दोनों पक्षों के बीच समझौता हो सका।

भारत सरकार का नजरिया

भारतीय राष्‍ट्रवाद ने एकता और विविधता के बीच संतुलन साधने की कोशिश की है। राष्‍ट्र का मतलब यह नहीं है कि क्षे‍त्र को नाकर दिया जाए। भारत ने विविधता के सवाल पर लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया। लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्‍यक्ति की अनुमति है और लोकतंत्र क्षेत्रीयता को राष्‍ट्र-विरोध नहीं मानता। इसके अतिरिक्‍त लोकतांत्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्‍न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी खास क्षेत्रीय समस्‍या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी करें।

तनाव के दायरे

देश और विदेश के अनेक पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि भारत एकीकृत राष्‍ट्र के रूप में ज्‍यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा। आजादी के तुरंत बाद जम्‍मू-कश्‍मीर का मसला सामने आया। ठीक इसी तरह पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैंड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए जोरदार आंदोलन चले। दक्षिण भारत में भी द्रविड़ आंदोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्‍ट्र की बात उठायी थी।

1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से पंजाबी-भाषा लोगों ने अपने लिए एक अलग राज्‍य बनाने की आवाज उठानी शुरू कर दी। उन‍की माँग आखिकार मान ली गई और 1966 में पंजाब और हरियाणा नाम से राज्‍य बनाए गए।

कश्‍मीर और नगालैंड जैसे कुछ क्षेत्रों में चुनौतियाँ इतनी विकट और जटिल थीं कि राष्‍ट्र-निर्माण के पहले दौर में इनका समाधान नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्‍त पंजाब, असम और मिजोरम में नई चुनौतियाँ उभरीं।

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जम्‍जू एवं कश्‍मीर 

‘कश्‍मीर मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा मुद्दा रहा है। जम्‍मू एवं कश्‍मीर में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र शामिल हैं – जम्‍मू, कश्‍मीर और लद्दाख।  कश्‍मीर घाटी को कश्‍मीर के दिल के रूप में देखा जाता है। कश्‍मीरी बोली बोलने वाले ज्‍यादातर लोग मुस्लिम हैं। जम्‍मू क्षेत्र पहाड़ी तलहटी एवं मैदानी इलाके का मिश्रण है जहाँ हिंदू, मुस्लिम और सिख यानी कई धर्म और भाषाओं के लोग रहते हैं।

लद्दाख पर्वतीय इलाका है, जहाँ बौद्ध एवं मुस्लिमों की आबादी है, लेकिन यह आबादी ब‍हुत कम है।

‘जम्‍मू मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इसमें कश्‍मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्‍मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है।

समस्‍या की जड़े

1947 से पहले जम्‍मू एवं कश्‍मीर में राजशाहि थी। इसके हिंदू शासक हरि सिंह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्‍होंने अपने स्‍वतंत्र राज्‍य के लिए भारत और पाकिस्तान से साथ समझौता करने की कोशिश की। पाकिस्तानी नेता सोचते थे कि कश्‍मीर, पाकिस्‍तान से संबद्ध है, क्‍योंकि राज्य की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है। राज्‍य में नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्‍दुल्‍ला के नेतृत्‍व में जन आंदोलन चला। शेख अब्‍दुल्‍ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्‍तान में शामिल होने के खिलाफ थे। नेशनल कांफ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और इसका कांग्रेस के साथ काफी समय तक गठबंधन रहा।

अक्‍टूबर 1947 में पाकिस्‍तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी तरफ से कश्‍मीर पर कब्‍जा करने भेजा। ऐसे में कश्‍मीर के महाराजा भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्‍य मदद उपलब्‍द कराई और कश्‍मीर घाटी से घुसपैटियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्‍तावेज पर हस्‍ताक्षर करा लिए। मार्च 1948 में शेख अब्‍दुल्‍ला जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य के प्रधानमंत्री बने (राज्‍य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमंत्री कहा जाता था) । भारत, जम्‍मू एवं कश्‍मीर की स्‍वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।

बा‍हरी और आंतरिक विवाद

उस समय से जम्‍मू एवं कश्‍मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्‍त एवं संघर्षयुक्‍त रही। इसके बाहरी एवं आं‍तरिक दोनों कारण हैं। कश्‍मीर समस्‍या का एक कारण पाकिस्‍तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्‍मीर घाटी पाकिस्‍तान का हिस्‍सा होना चाहिए। 1947 में इस राज्‍य में पाकिस्‍तान ने कबायली हमला करवाया था। इसके परिणामस्‍वरूप राज्‍य का एक हिस्‍सा पाकिस्‍तान नियंत्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्‍तान ने इस क्षेत्र को ‘आजाद कश्‍मीर’कहा। 1947 के बाद कश्‍मीर भारत और पाकिस्‍तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है।

राजनीति : 1948 के बाद से

प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद शेख अब्‍दुल्‍ला ने भूमि-सुधार की बड़ी मुहिम चलायी। उन्‍होंने इसके साथ-साथ की जन-कल्‍याण की कुछ नीतियाँ भी लागू कीं। इन सबसे यहाँ की जनता को फायदा हुआ। बहरहाल, कश्‍मीर की हैसियत को लेकर शेख अब्‍दुल्‍ला के विचार केंद्र सरकार से मेल नहीं खाते थे। इससे दोनों के बीच मतभेद पैदा हुए। 1953 में शेख अब्‍दुल्ला को बर्खास्‍त कर दिया गया। कई सालों तक उन्‍हें नजरबंद रखा गया। शेख अब्‍दुल्‍ला के बाद जो नेता सत्तासीन हुए वे शेख की तरह लोकप्रिय नहीं थे। केंद्र के समर्थन के दम पर ही वे राज्‍य में शासन चला सके।

1953 से लेकर 1974 के बीच अधिकांश समय इस राज्‍य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। कमजोर हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस (शेख अब्‍दुल्ला के बिना) कांग्रेस के समर्थन से राज्‍य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में वह कांग्रेस में मिल गई। इस तरह राज्‍य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियंत्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्‍दुल्‍ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही। आखिरकार 1974 में इंदिरा गाँधी के साथ शेख अब्‍दुल्ला ने एक समझौते पर हस्‍ताक्षर किए और वे राज्‍य के मुख्‍यमंत्री बने। उन्‍होंने नेशनल कांफ्रेंस को सन् 1982 में शेख अब्‍दुल्‍ला की मृत्‍यु हो गई और नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्‍व की कमान उनके पुत्र फारूख अब्‍दुल्‍ला ने संभाली। फारूख अब्‍दुल्‍ला भी मुख्‍यमंत्री बने। बहरहाल, राज्‍यपाल ने जल्‍दी ही उन्‍हें बर्खास्‍त कर दिया और नेशनल कांफ्रेंस से एक टूटे हुए गुट ने थोड़े समय के लिए राज्‍य की सत्ता संभाली।

केंद्र सरकार के हस्‍तक्षेप से फारूख अब्‍दुल्‍ला की सरकार को बर्खास्‍त किया गया था। 1986 में नेशनल कांफ्रेंस ने केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया।

विद्रोही तेवर और उसके बाद

इसी माहौल में 1987 के विधानसभा चुनाव हुए। आधिकारिक नतींजे बता रहे थे कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को भारी जीत मिली है। फारूख अब्‍दुल्‍ला मुख्‍यमंत्री बने। बहरहाल, लोग-बाग यह मान रहे थे कि चुनाव में धाँधली हुई है 1980 के दशक से ही यहाँ के लोगों में प्रशासनिक अक्षमता को लेकर रोष पनप रहा था। लोगों के मन का गुस्‍सा यह सोचकर और भड़का केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ हेरा-फेरी की जा रही है। इन सब बातों से कश्‍मीर में राजनीतिक संकट उठ खड़ा हुआ। इस संकट ने राज्‍य में जारी उग्रवादी के बीच गंभीर रूप धारण किया। 1989 तक यह राज्य उग्रवादी आंदोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आंदोलन में लोगों को अलग कश्‍मीर राष्‍ट‍्र के नाक पर लामबंद किया जा रहा था। उग्रवादीयों को पाकिस्तान ने नैतिक, भौतिक और सैन्‍य सहायता दी। कई सालों तक इस राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन लागू रहा। राज्‍य पर सेना को नियंत्रण रखना पड़ा।

1990 से बाद के समय में इस राज्य के लोगों को उग्रवादीयों और सेना की हिंसा भूगतनी पड़ी। 1996 में एक बार फिर इस राज्‍य में विधानसभा के चुनाव हुए। फारूख अब्‍दुल्ला के नेतृत्‍व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्‍मू-कश्‍मीर के लिए क्षेत्रीय स्‍वायत्तता की माँग की। जम्‍मू-कश्‍मरी में 2002 के चुनाव बड़े निष्‍पक्ष ढंग से हुए। नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत नहीं मिल पाया। इस चुनाव में पीपुल्‍स डेकोक्रेटिक अलायंस (पीडीपी) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार सत्ता में आई।

अलगाववाद और उसके बाद

अलगाववादियों का एक तबका कश्‍मरी को अलग राष्‍ट्र बनाना चाहता है यानी एक ऐसा कश्‍मीर जो न पाकिस्‍तान का हिस्‍सा हो और न भारत का। कुछ अलगाववादी समूह चाहते हैं कि कश्‍मीर का विलय पाकिस्‍तान में हो जाए। अलगाववादी राजनीति की एक तीसरी धारा भी है। इस धारा के समर्थक चाहते हैं कि कश्‍मीर भारत संघ का ही हिस्‍सा रहे लेकिन उसे और स्‍वायत्तता दी जाय। केंद्र ने विभिन्‍न अलगाववादी समूहों से बातचीत शुरू कर दी है। अलग राष्‍ट्र की माँग की जगह अब अगाववादी समूह अपनी बातचीत में भारत संघ के साथ कश्‍मीर के रिश्‍ते को पुर्नर्परिभाषित करने पर जोर दे रहे हैं।

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पंजाब

1980 के दशक में पंजाब में भी बड़े बदलाव आए। बाद में इसके कुछ हिस्‍सों से हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नामक राज्‍य बनाए गए। सिखों की राजनीतिक शाख के रूप में 1920 के दशक में अकाली दल का गठन हुआ था।

राजनीतिक संदर्भ

पंजाब सूबे पुनर्गठन के बाद अकाली दल ने यहाँ 1967 और इसके 1977 में सरकार बनायी। दोनों ही मौके पर गठबंधन  सरकार बनी। अकालियों के आगे यह बात स्‍पष्‍ट हो चुकी थी कि सूबे के नए सीमाकन के बावजूद उनकी राजनीतिक स्थिति डावाडोल है। पहली बात तो यही कि उनकी सरकार को केंद्र ने कार्यकाल पूरा करने से पहले बर्खास्‍त कर दिया था। दूसरे, अकाली दल को पंजाब के हिंदुओं के बीच कुछ खास समर्थन हासिल नहीं था। तीसरे, सिख समुदाय भी दूसरे धार्मिक समुदायों की तरह जाति और वर्ग के धरातल पर बँटा हुआ था। कांग्रेस को दलितों के बीच चाहे वे सिख हो या हिंदू-अकालियों से कहीं ज्‍यादा समर्थन प्राप्‍त था।

इन्‍हीं परिस्थितियों के मद्देनजर 1970 के दशक में अ‍कालियों के एक तबके ने पंजाब के लिए स्‍वायत्तता की माँग उठायी। 1973 में, आनंदपुर साहिब प्रस्‍ताव में क्षेत्रीय स्‍वायत्तता की बात उठायी गई थी।

इस प्रस्‍ताव में सिख’कौम'(नेशन या समुदाय) की  आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के ‘बोलबाला’ (प्रभुत्‍व या वर्चस्‍व) का ऐलान किया गया। यह प्रस्‍ताव संघवाद को मजबूत करने की अपील करता है। लेकिन इसे एक अलग सिख राष्‍ट्र की माँग के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।

धार्मिक नेताओं के एक तबके ने स्‍वायत्त सिख पहचान की बात उठायी। कुछ चरमपंथी तबकों ने भारत से अलग होकर ‘खालिस्‍तान’ बनाने की वकालत की।

हिंसा का चक्र

जल्‍दी ही आंदोलन का नेतृत्‍व नरमपंथी अकालि‍यों के हाथ से निकलकर चरमपंथी तत्त्‍वों के हाथ में चला गया और आंदोलन ने सशस्‍त्र विद्रोह का रूप ले लिया। उग्रवादियों ने अमृतसर स्थित सिखों के तीर्थ स्‍वर्णमंदिर में अपना मुख्‍यालय बनाया और स्‍वर्णमंदिर एक हथियारबंद किले में तब्‍दील हो गया। 1984 के जून माह में भारत सरकार ने ‘ऑपरेशन ब्‍लू स्‍टार’ चलाया। यह स्‍वर्णमंदिर में की गई सैन्‍य कर्रवाई का कूट नाम था। इस सैन्य-अभियान में सरकार ने उग्रवादियों को तो सफलतापूर्वक मार भागाया। इससे सिखों की भावनाओं को गहरी चोट लगी। भारत और भारत से बाहर बसे अधिकतर सिखों ने सैन्य-अभियान को अपने धर्म-विश्‍वास पर हमला माना। इन बातों से उग्रवादी और चरमपंथी समूहों को और बल मिला। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्‍तूबर 1984 के दिन उनके आवास के बाहर उन्‍हीं के अंगरक्षकों ने हत्‍या कर दी। ये अंगरक्षक सिख थे और ऑपरेशन ब्‍लू स्‍टार का बदला लेना चाहते थे। एक तरफ पूरा देश इस घटना से शोक-संतत्‍प था तो दूसरी तरफ दिल्‍ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्‍सों में सिख समुदाय के विरूद्ध हिंसा भड़क उठी। दो हजार से ज्‍यादा की तादाद में सिख, दिल्ली में मारे गए। देश की राजधनी दिल्‍ली इस हिंसा से ज्यादा प्रभावित हुई थी। कानपुर, बोकारो और चास जैसे देश के कई जगहों पर सैकड़ों सिख मारे गए। कई सिख-परिवारों में कोई भी पुरूष न बचा। सिखों को सबसे ज्‍यादा दुख इस बात का था कि सरकार ने स्थिति को सामान्‍य बनाने के लिए बड़ी लोगों को कारगर तरीके से दंड भी नहीं दिया गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में संसद में अपने भाषण के दौरान इस रक्‍तपात पर अफसोस जताया और सिख-विरोधी हिंसा के लिए देश से माफी माँगी।

शांति की ओर

1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने पर नए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत की शुरूआत की। अकाली दल के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष हरचंद सिंह लोगोंवाल के साथ 1985 के जुलाई में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गाँधी लोगौंवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा जाता है। इस बात पर स‍हमति हुई कि चंडीगढ़ पंजाब को दे दिया जाएगा। और पंजाब तथा हरियाणा के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी तय हुआ कि पंजाब-ह‍रियाणा-राजस्थान के बीच रावी-व्‍यास के पानी के बँटवारे के बारे में फैसला करने के लिए एक ट्रिब्यूनल (न्‍यायाधिकरण) बैठया जाएगा। समझौते के अंतर्गत सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने और उनके साथ बेहतर सलूक करने पर राजी हुई। पंजाब में न तो अमन आसानी से कायम हुआ न ही समझौते के तत्‍काल बाद। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केंद्र सरकार को राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन करना पड़ा। 1992 में पंजाब में चुनाव हुए तो महज 24 फीसदी मतदाता वोट डालने के लिए आए।  उग्रवाद को सुरक्षा बलों ने आखिरकार दबा दिया लेकिन पंजाब के लोगों ने, चाहे वे सिख हो या हिंदू, इस क्रम में अनगिनत दुख उठाए। 1990 के दशक के मध्‍यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति बहाल हुई। 1997 में अकाली दल, (बादल) और भाजपा के गठबंधन को विजय मिली। उग्रवाद के खात्‍मे के बाद के दौर में यह पंजाब का पहला चुनाव था। धार्मिक पहचान यहाँ की जनता के लिए लगातार प्रमुख बनी हुई है लेकिन राजनीति अब धर्मनिरपेक्षता की राह पर चल पड़ी है।

पूर्वोत्तर

पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ 1980 के दशक में एक निर्णायक मोड़ पर आ गई थीं। क्षेत्र में सात राज्‍य हैं और इन्‍हें ‘सात बहनें’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में देश की कुल 4 फीसदी आबादी निवास करती है। 22 किलो‍मीटर लंबी एक पतली-सी राहदारी इस इलाके को शेष भारत से जोड़ती है यह इलाका भारत के लिए एक तरह से दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रवेश-द्वार है।

इस इलाके में 1947 के बाद से अनेक बदलाव आए हैं। त्रिपुरा, मणिपुर और मेघालय का खासी पहाड़ी क्षेत्र, पहले अलग-अलग रियासत थे। आजादी के बाद भारत संघ में इनका विलय हुआ।

नगालैंड को 1963 में राज्‍य बनाया गया। मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय 1972 में राज्‍य बने ज‍बकि मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश को 1987 में राज्य का दर्जा दिया गया। 1947 के भारत-विभाजन से पूर्वोतर के इलाके भारत के शेष भागों से एकदम अलग-थलग पड़ जाने के कारण इस इलाके में विकास पर ध्‍यान नहीं दिया जा सका।

पूर्वोत्तर के राज्‍यों में राजनीति पर तीन मुद्दे हावी हैं:स्‍वायत्तता की माँग, अलगाव के आंदोलन और ‘बाहरी’ लोगों का विरोध।

स्‍वायत्तता की माँग

आजादी के वक्‍त मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़ दें तो यह पूरा इलाका असम कहलाता था। गैर-असमी लोगों को जब लगा कि असम की सरकार उन पर असमी भाषा थोप रही है तो इस इलाके से राजनीतिक स्वायत्तता की माँग उठी। पूरे राज्‍य में असमी भाषा को लादने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और दंगे हुए। बड़े जनजाति समुदाय के नेता असम से अलग होना चाहते थे। इन लोगों ने ‘ईस्‍टर्न इंडिया ट्राइबल यूनियन’ का गठन किया जो 1960 में कहीं ज्यादा व्‍यापक ‘ऑल पार्टी हिल्‍स कांफ्रेंस’ में तब्‍दील हो गया। इन नेताओं की माँग थी कि असम से अलग एक जनजाति राज्‍य बनया जाए।  केंद्र सरकार ने अलग-थलग वक्‍त पर असम को बाँटकर मेघालय, मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश बनाया। त्रिपुरा और मणिपुर को भी राज्‍य का दर्जा दिया गया।

1972 तक पूर्वोत्तर का पुनर्गठन पूरा हो चुका था। लेकिन, स्‍वायत्तता की माँग खत्‍म न हुई। उदाहरण के लिए, असम के बोडो, करबी और दिमसा जैसे समुदायों ने अपने लिए अलग राज्य की माँग की। करबी और दिमसा समुदायों को जिला-परिषद् के अंतर्गत स्‍वायत्तता दी गई जबकि बोडो जन‍जाति को हाल ही में स्‍वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया है।

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अलगाववादी आंदोलन

जब कुछ समूहों ने अलग देश बनाने की माँग की और वह भी किसी क्षणिक आवेश में नहीं बल्कि सिद्धांततगत तैयारी के साथ, तो इस माँग से निपटना मुश्किल हो गया।

आजादी के बाद मिजो पर्वतीय क्षेत्र को असम के भीतर ही एक स्‍वायत्त जिला बना दिया गया था। कुछ मिजो लोगों का मानना था कि वे कभी भी ‘ब्रिटिश इंडिया’ के अंग नहीं रहे इसलिए भारत संघ से उनका कोई नाता नहीं है। 1959 में मिजो पर्वतीय इलाके में भारी अकाल पड़ा। असम की सरकार इस अकाल में समुचित प्रबंध करने में नाकाम रही। मिजो लोगों ने गुस्‍से में आकर लालडेंगा के नेतृत्‍व में मिजो नेशनल फ्रंट बनाया।

1966 में मिजो नेशनल फ्रंट ने आजादी की माँग करते हुए सशस्‍त्र अभियान शुरू किया। मिजो नेशनल फ्रंटने गुरिल्ला युद्ध किया। उसे पाकिस्‍तान की सरकार ने समर्थन दिया था और तत्‍कालीन पूर्वी पाकिस्‍तान में मिजो विद्रोहियों ने अपने ठिकाने बनाए। भारतीय सेना ने विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की।

दो दशकों तक चले बगावत में हर पक्ष को हानि उठानी पड़ी। इसी बात को भाँपकर दोनों पक्षों के नेतृत्‍व ने समझदारी से काम लिया। पाकिस्‍तान में निर्वासित जीवन जी रहे लालडेंगा भारत आए और उन्‍होंने भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू की। 1986 में राजीव गाँधी और लालडेंगा के बीच एक शांति समझौता हुआ। समझौते के अंतर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्‍य का दर्जा मिला और उसे कुछ विशेष अधिकार दिए गए। मिजो नेशनल फ्रंट अलगाववादी संघर्ष की राह छोड़ने पर राजी हो गया। लालडेंगा मुख्‍यमंत्री बने। यह समझौता मिजोरम के इतिहास में एक निर्णायक साबित हुआ। आज मिजोरम पूर्वोत्तर का सबसे शांतिपूर्ण राज्‍य है।

नगालैंड की कहानी भी मिजोरम की तरह है लेकिन नगालैंड का अलगावादी आंदोलन ज्‍यादा पुराना है और अभी इसका मिजोरम की तरह खुशगवार हल नहीं निकल पाया है। अंगमी जापू फ्रिजो के नेतृत्‍व में नगा लोगों के एक तबके ने 1951 में अपने को भारत से आजाद घोषित कर दिया था। फ्रिजो ने बातचीत के कई प्रस्‍ताव ठुकराए। हिंसक विद्रोह के एक दौर के बाद नगा लोगों के एक तबके ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर दस्‍तखत किए लेकिन अन्य विद्रोहियों ने इस समझौते को नहीं माना। नगालैंड की समस्‍या का समाधान होना अब भी बाकी है।

बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन

पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर आप्रवासी आए हैं। इससे एक खास समस्‍या पैदा हुई है। स्‍थानीय जनता इन्‍हें ‘बाहरी’ समझती है और ‘बाहरी’ लोगों के खिलाफ उसके मन में गुस्‍सा है। स्‍थानीय लोग बाहर से आए लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं।

1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन बाहरी लोगों के खिलाफ चले आंदोलनों का सबसे अच्‍छा उदाहरण है असमी लोगों के संदेह था कि बांग्‍लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्‍हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्‍थानीय असमी जनता अल्‍पसंख्‍यक हो जाएगी।

1979 में ऑल असम स्‍टूडेंटस् यूनियन (आसू-AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोनल चलाया। ‘आसू’ एक छात्र-संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था। ‘आसू’ का आंदोलन अवैध आप्रवासी, बंगाली और अन्‍य लोगों के दबदबे तथा मतदाता सूची में लाखों आप्रवासियों के नाम दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन के दौरान रेलगा‍ड़ीयों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति रोकने की भी कोशिश की गई।

छह साल की सतत अस्थिरता के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्‍व वाली सरकार ने ‘आसू’ के नेताओं से बातचीत शुरू की। इसके परिणामस्‍वरूप 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्‍हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की कामयाबी के बाद ‘आसू’ और असम गण संग्राम परिषद् ने साथ मिलाकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम ‘असम गण परिषद्’ रखा गया।

असम-समझौते से शांति कायम हुई और प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला लेकिन ‘आप्रवास’ की समस्या का समाधान नहीं हो पाया।

समाहार और राष्‍ट्रीय अखंडता

हम इन उदाहरणों से क्‍या सबक सीख सकते हैं। पहला और बुनियादी सबक तो यही है कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ राजनीति का अभिन्‍न अंग हैं। क्षेत्रीय मुद्दे की अभिव्‍यक्ति कोई असामान्‍य अथवा लोकतांत्रिक राजनीति के व्‍याकरण से बाहर की घटना नहीं हैं। भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ विभिन्‍नताएँ भी बड़े पैमाने पर हैं। अत: भारत को क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की तैयारी लगातार रखनी होगी।

दूसरी सबक यह है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दबाने की जगह उनके साथ लोकतांत्रिक बातचीत का तरीका अपनाना सबसे अच्‍छा होता है।

तीसरा सबक है सत्ता की साझेदारी के महत्त्‍व को समझना। सिर्फ लोकतांत्रिक ढाँचा खड़ा कर लेना ही काफी नहीं है। इसके साथ ही विभिन्‍न क्षेत्रों के दलों और समूहों को केंद्रीय राजव्‍यवस्‍था में हिस्‍सेदार बनाना भी जरूरी है।

चौथा सबक यह है कि आर्थिक विकास के एतबार से विभिन्‍न इलाकों के बीच असमानता हुई तो पिछड़े इलाकों को लगे कि उनके पिछड़पेन को प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिए।

सबसे आखिरी बात यह कि इन मामलों से हमें अपने संविधान निर्माताओं की दूरदृष्टि का पता चलता है। भारत ने जो संघीय प्रणाली अपनायी है वह बहुत तचीली है। अगर अधिकतर राज्‍यों के अधिकार समान हैं तो जम्‍मू-कश्‍मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्‍यों के लिए विशेष प्रावधान भी किए गए हैं।

भारत का संवैधानिक ढाँचा ज्यादा लचीला और सर्वसमावेशी है। जिस तरह की चुनौतियाँ भारत में पेश आयीं वैसी कुछ दूसरे देशों में भी आयी लेकिन भारत का संवैधानिक ढाँचा अन्‍य देशों के मुकाबले भारत को विशिष्‍ट बनाता है। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को यहाँ अलगाववाद की राह पर जाने का मौका नहीं मिला।

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Political Science Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय | Jan andolan ka uday class 12 Notes

 

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 राजनीति विज्ञान के पाठ 7 ‘जन आंदोलनों का उदय (Jan andolan ka uday class 12 Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Jan andolan ka uday class 12

अध्‍याय 7
जन आंदोलनों का उदय

जन आंदोलनों की प्रकृति

यह घटना 1973 में घटी जब मौजूदा उत्तराखंड के एक गाँव के स्‍त्री-पुरूष एकजुट हुए और जंगलों की व्‍यासायिक कटाई का विरोध किया। सरकार ने जंगलों की कटाई के लिए अनु‍मति दी थी। इन लोगों ने पेडों को अपनी बाँहों में घेर लिया ताकि उन्‍हें कटने से बचाया जा सके। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरण आंदोलन के रूप में परिणत हुआ और ‘चिपको-आंदोलन’ के नाम से विश्‍वप्रसिद्ध हुआ।

चिपको आंदोलन

इस आंदोलन की शुरूआत उतराखंड के दो-तीन गाँव से हुई थी!गाँव वालों ने वन विभाग से कहा कि खेती-बाडी के औजारबनानेके लिए हमें अंगू के पेड काटने की अनुमति दी जाए । वन विभाग ने अनु‍मति देने से इनकार कर दिया। बहरहाल, विभाग ने खेल-सामग्री के एक विनिर्माता को जमीन का यही टुकडा व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल के लिए आबंटित कर दिया। इससे गाँव वालों में रोष पैदा हुआ और उन्‍होंने सरकार के इस कदम का विरोध किया। गाँववासियों ने माँग की कि जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्‍यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए और स्‍थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।

चिपको आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। इलाके में सक्रिय जंगल कटाई के ठेकेदार यहाँ के पुरूषों को शराब की आपूर्ति का भी व्‍यवसाय करते थे। महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी लगातार आवाज उठायी। इससे आंदोलन का दायरा विस्‍तृत हुआ और उसमें कुछ और सामाजिक मसले आ जुडे। आखिरकार इस आंदोलन को सफलता मिली और सरकार ने पंद्रह सालों के लिए हिमालयी क्षेत्र में पेडों की कटाई पर रोक लगा दी ताकि इस अवधि में क्षत्र का वनाच्‍छादन फिर से ठीक अवस्‍था में आ जाए।

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दल-आधारित आंदोलन

जन आंदोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आंदोलन का रूप ले सकते हैं और अकसर ये आंदोलन दोनों ही रूपों के मेल से बने नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, हम अपने स्‍वाधीनता आंदोलन को ही लें। यह मुख्‍य रूप से राजनीतिक आंदोलन था। लेकिन हम जानते हैं कि औपनिवेशिक दौर में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मंथन चला जिससे अनेक स्‍वतंत्र सामाजिक आंदोलनों का जन्‍म हुआ, जैसे-जाति प्रथा विरोधी आंदोलन, किसान सभा आंदोलन और मजदूर संगठनों के आंदोलन।

ऐसे कुछ आंदोलन आजादी के बाद के दौर में भी चलते रहे। मुंबई, कोलकाता और कानपुर जैसे बडे शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आंदोलन का बडा जोर था।

किसान और मजदूरों के आंदोलन का मुख्‍य जोर आर्थिक अन्‍याय तथा असमानता के मसले पर रहा। ऐसे आंदोलनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका नजदी‍की रिश्‍ता कायम हुआ।

राजनीतिक दलों से स्‍वतंत्र आंदोलन

‘सतर’ और ‘अस्‍सी’ के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार-व्‍यवहार से मोहभंग हुआ। इसका तात्‍कालिक कारण तो यही था कि जनता पार्टी के रूप में गैर-कांग्रेसवाद का प्रयोग कुछ खास नहीं चल पाया और इसकी असफलता से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल भी कायम हुआ था। देश ने आजादी के बाद नियोजित विकास का मॉडल अपनाया था। इस मॉडल को अपनाने के पीछे दो लक्ष्‍य थे-आर्थिक संवृद्धि और आय का समतापूर्ण बँटवारा। आजादी के शुरूआती 20 सालों में अर्थव्‍यवस्‍था के कुछ क्षेत्रों में उल्‍लेखनीय संवृद्धि हुई, लेकिन इसके बावजूद गरीबी और असमानता बडे पैमाने पर बरकरार रही।

राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्‍वास लोकतांत्रिक संस्‍थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध को स्‍वर देने के लिए इन्‍होंने आवाम को लामबंद करना शुरू किया। मध्‍यवर्ग के युवा कार्यकर्ताओं ने गाँव के गरीब लोगों के बीच रचनात्‍मक कार्यक्रम तथा सेवा संगठन चलाए। इन संगठनों के सामाजिक कार्यो की प्रकृति स्‍वयंसेवी थी इसलिए इस संगठनों को स्‍वयंसेवी संगठन या स्‍वयंसेवी क्षेत्र के संगठन कहा गया।

ऐसे स्‍वयंसेवी संगठनों ने अपने को दलगत राजनीति से दूर रखा। स्‍थानीय अथवा क्षेत्रीय स्‍तर पर ये संगठन न तो चुनाव लडे और न ही इन्‍होंने किसी एक राजनीतिक दल को अपना समर्थन दिया। ऐसे अधिकांश संगठन राजनीति में विश्‍वास करते थे और उसमें भागीदारी भी करना चाहते थे, लेकिन इन्‍होंने राजनीतिक भागीदारी के लिए राजनीतिक दलों को नहीं चुना। इसी कारण इन संगठनों को ‘स्‍वतंत्र राजनीतिक संगठन’ कहा जाता है। इन संगठनों का मानना था कि स्‍थानीय मसलों के समाधान में स्‍थानीय नागरिकों की सीधी और सक्रिय भागीदारी राजनीतिक दलों की अपेक्षा कहीं ज्‍यादा कारगर होगी।

अब भी ऐसे स्‍वयंसेवी संगठन शहरी और ग्रामीण इलाकों सक्रिय हैं। बहरहाल, अब इनकी प्रकृति बदल गई है।

उदय

सातवें दशक के शुरूआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें ज्‍यादातर शहर की झुग्गी-बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्‍ट्र में 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन ‘दलित पैंथर्स’ बना। आजादी के बाद के सालों में दलित समूह मुख्‍यतया जाति-आधारित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्‍याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में जाति-आधारित किसी भी तरह के भेदभाव के विरूद्ध गारंटी दी गई है। आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्‍याय की ऐसी ही नीतियों का कारगर क्रियान्‍वयन इनकी प्रमुख माँग थी।

भारतीय संविधान में छुआछुत की प्रथा को समाप्‍त कर दिया गया है। सरकार ने इसके अंतर्गत ‘साठ’ और ‘सत्तर’ के दशक में कानून बनाए। इसके बावजूद पुराने जमाने में जिन जातियों को अछुत माना गया था, उनके साथ इस नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बरताव कई रूपों में जारी रहा। दलितों की बस्तियाँ मुख्‍य गाँव से अब भी दूर होती थीं। दलित महिलाओं के साथ दुर्व्‍यवहार होते थे। दलितों के सामाजिक और आर्थिक उत्‍पीड़न को रोक पाने में कानून की व्‍यवस्‍था नाकाफी साबित हो रही थी। दूसरी तरफ, दलित जिन राजनीतिक दलों का समर्थन कर रहे थे जैसे-रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, वे चुनावी राजनीति में सफल नहीं हो पा रही थीं। इन वजह से ‘दलित पैंथर्स’ ने दलित अधिकारों की दावेदारी क‍रते हुअ जन-कार्रवाई का रास्‍ता अपनाया।

गतिविधि

महाराष्‍ट्र के विभिन्‍न इलाकों में दलितों पर बढ़ रहे अत्‍याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की अन्‍य मुख्‍य गतिविधि थी। दलित पैंथर्स तथा इसके समधर्मा संगठनों ने दलितों पर हो रहे अत्‍याचार के मुद्दे पर लगातार विरोध आंदोलन चलाया। इसके परिणामस्‍वरूप सरकार ने 1989 में एक व्‍यापक कानून बनाया। इस कानून के अंतर्गत दलित पर अत्‍याचार करने वाले के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया।

भारतीय किसान यूनियन

सत्तर के देशक से भारतीय समाज में कई तर‍ह के असंतोष पैदा हुए। अस्‍सी के दशक का कृषक-संघर्ष इसका एक उदाहरण है

उदय

1988 के जनवरी में उत्तर प्रदेश के एक शहर मेरठ में लगभग बीस हजार किसान जमा हुए। ये किसान सरकार द्वारा बिजली की दर में की गई बढ़ोतरी का विरोधी कर रहे थे। किसान जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी माँग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धरना था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गाँवों से उन्‍हें निरंतर राशन-पानी मिलता रहा। धरने पर बैठे किसान, भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के सदस्‍य थे।

1980 के दशक के उत्तरार्ध से भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के उदा‍रीकरणस के प्रयास हुए और क्रम में नगदी फसल के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन ने गन्‍ने और गेहूँ के सरकारी खरीद मूल्‍य में बढ़ोतरी करने, कृषि उत्‍पादों के अंतर्राज्‍यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने, समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की माँग की।

ऐसी माँग देश के अन्‍य किसान संगठनों ने भी उठाईं। महाराष्‍ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आंदोलन को ‘इंडिया’ की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया। आप तीसरे अध्‍याय में यह बात पढ़ ही चुके हैं कि भारत में अपनाए गए विकास के मॉडल से जुड़े विवादों में कृषि बनाम उद्योग का विवाद प्रमुख था।

विशेषताएँ

सरकार पर अपनी माँग को मानने के लिए दबाव डालने के क्रम में बीकेयू ने रैली, धरना, प्रदर्शन और जेल भरो अभियान का स‍हारा लिया। पूरे अस्‍सी के दशक भर बीकेयू ने राज्‍य के अनेक जिला मुख्‍यालयों पर इन किसानों की विशाल रैली ओयोजित की। देश की राजधानी दिल्‍ली में भी बीकेयू ने रैली का आयोजन किया।

1990 के दशक के शुरूआती सालों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्‍य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँग मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में किसान आंदोलन अस्‍सी के दशक में सबसे ज्‍यादा सफल सामाजिक आंदोलन की सफलता के पीछे इसके सदस्‍यों की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता का हाथ था।

महिलाओं ने शराब माफिया को हराया

चित्तूर जिले के कलिनारी मंडल स्थित गुंडलुर गाँव की महिलाएँ अपने गाँव में ताड़ी की बिक्री पर पाबंदी लगाने के लिए एकजुट हुईं। उन्होंने अपनी बात गाँव के ताड़ी विक्रेता तक पहुँचाई। महिलाओं ने गाँव में ताड़ी लाने वाली जीप की वापस लौटने पर मजबूर कर दिया। जब गाँव के ताड़ी-बिक्रेता ने ठेकेदार को इसकी सूचना दी तो ठेकेदार ने उसके साथ गुंडों का एक दल भेजा। गाँव की महिलाएँ इससे भी नहीं डरीं। ठेकेदार ने पुलिस को बुलाया लेकिन पुलिस भी पीछे हट गई। एक सप्‍ताह बाद ताड़ी की बिक्री का विरोध करने वाली महिलाओं पर ठेकेदार के गुंडो ने सरियों और घातक हथियारों से हमला किया। लेकि‍न गुंडों को हार माननी पड़ी। फिर महिलाओं ने तीन जीप ताड़ी फेंक दिया।

ताड़ी-विरोधी आंदोलन

एक अलग तरह का आंदोलन दक्षिणी राज्‍य आंध्र प्रदेश में आकार ले रहा था। यह महिलाओं का एक स्‍वत:स्फूर्त आंदोलन था। ये महिलाएँ अपने आस-पड़ोस में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थीं।

वर्ष 1992 के सितंबर और अक्‍तूबर माह में इस तरह की खबरें प्रेस में लगभग रोज दिखती थी। ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। यह लड़ाई माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आंदोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्‍य में ताड़ी-विरोधी आंदोलन के रूप में जाना गया।

उदय 

आंध्र प्रदेश के नेल्‍लौर जिले के एक दूर-दराज के गाँव दुबरगंटा में 1990 के शुरूआती दौर में महिलाओं के बीच प्रौढ़-साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्‍या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाएँ घर के पुरूषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने की शिकायतें करती थीं। ग्रामीणों के शराब की गहरी लत लग चुकी थी। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था बुरी तर‍ह प्रभावित हो रही थी। शराबखोरी से सबसे ज्यादा दिक्‍कत महिलाओं को हो रही थी। इससे परिवार की अर्थव्‍यवस्‍था चरमराने लगी।

नेल्लोर में महिलाएँ ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आई और उन्‍होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। यह खबर तेजी से फैली और करीब 5000 गाँवों की महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेना शरू कर दिया। प्रतिबंध संबंधी एक प्रस्‍ताव को पास कर इसे जिला कलेक्‍टर को भेजा गया। नेल्‍लोर जिले में ताड़ी की नीलामी 17 बार रद् हुई। नेल्‍लोर जिले का यह आंदोलन धीरे-धीरे पूने राज्‍य में फैल गया। 

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आंदोलन की क‍ड़ीयाँ

ताड़ी-विरोध आंदोलन का नारा बहुत साधारण था-‘ताड़ी की बिक्री बंद करो।’ राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से काफी राजस्व की प्राप्ति होती थी इसलिए वह इस पर प्रतिबंध नहीं लगा रही थी। स्‍थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दे को अपने आंदोलन में उठाना शुरू किया। वे घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर बोलने का मौका दिया।

इस तरह ताड़ी-विरोध आंदोलन महिला का एक हिस्सा बन गया। आठवें दशक के दौरान महिला आंदोलन परिवार के अंदर और उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केंद्रित रहा। धीरे-धीरे महिला आं‍दोलन कानूनी सुधारों से हटकर सामाजिक टकराव के मुद्दों पर भी खुले तौर पर बात करने लगा। नवें दशक तक आते-आते महिला आंदोलन समान राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व की बात करने लगा था। संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत महिलाओं को स्थानीय राजनीतिक निकायों में आरक्षण दिया गया है। इस व्‍यवस्था को राज्‍यों की विधानसभाओं तथा संसद में भी लागू करने की माँग की जा रही है।

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नर्मदा बचाओं आंदोलन

वे सभी सामाजिक आंदोलन जिनके बारे में हमने अभी तक चर्चा की है, देश में आजादी के बाद अपनाए गए आर्थिक विकास के मॉडल पर सवालिया निशान लगाते रहे हैं। एक ओर जहाँ चिपको आंदोलन ने इस मॉडल में निहित पर्यावरणीय विनाश के मुद्दे को सामने रखा, वहीं दूसरी ओर, किसानों ने कृषि क्षेत्र की अनदेखी पर रोष प्रकट किया। इसी तरह जहाँ दलित समुदायों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ उन्‍हें जन-संघर्ष की ओर ले गई वहीं ताड़ी-बंदी आंदोलन ने विकास के नकारात्‍मक पहलुओं की ओर इशारा किया।

सरदार सरोवर परियोजना 

आठवें दशक के प्रारंभ में भारत के मध्‍य भाग में स्थित नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के तहत मध्‍य प्रदेश, गुजरातऔर महाराष्‍ट्र से गुजरने वाली नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मझोले तथा 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्‍ताव रखा गया। गुजरात के सरदार सरोवर और मध्‍य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे बड़ी और बहु-उद्देश्‍यीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आंदोलन चला।

सरदार सरोवर परियोजना के अंतर्गत एक बहु-उद्देश्‍यीय विशाल बाँध बनाने का प्रस्‍ताव है। बाँध समर्थकों का कहना है कि इसके निर्माण से गुजरात के एक बहुत बड़े हिस्‍से सहित तीन पड़ोसी राज्‍यों में पीने के पानी, सिंचाई और बिजली के उत्‍पादन की सुविधा मुहैया कराई जा सकेगी तथा कृषि की उपज में गुणात्‍मक बढ़ोतरी होगी।

प्रस्‍तावित बाँध के निर्माण से संबंधित राज्‍यों के 245 गाँव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे। अत: प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सबसे पहले स्‍थानीय कार्यकर्ताओं ने उठाया।

वाद-विवाद और संघर्ष

आंदोलन के नेतृत्‍व ने इस बात की ओर ध्‍यान दिलाया कि इस परियोजनाओं का लोगों के पर्यावास, आजीविका, संस्‍कृति तथा पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्‍थानीय समुदायों की भागीदारी होनी चाहिए और जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उनका प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का गुजरात जैसे राज्‍यों में तीव्र विरोध हुआ है। परंतु अब सरकार और न्‍यायपालिका दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि लोगों को पुनर्वास मिलना चाहिए। सरकार द्वारा 2003 में स्‍वीकृत राष्‍ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ जैसे सामाजिक आंदोलन की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार को बाँध का काम आगे बढ़ाने की हिदायत दी है लेकिन साथ ही उसे यह आदेश भी दिया गया है कि प्रभावित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से किया जाए। नर्मदा बचाओ आंदोलन दो से भी ज्‍यादा दशकों तक चला। नवें दशक के अंत तक पहुँचते नर्मदा बचाओ आंदोलन से कई अन्‍य स्‍थानीय समूह और आंदोलन भी आ जुड़े।

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जन आंदोलन के सबक

जन आंदोलन का इतिहास हमें लोकतांत्रिक राजनीति को बेहतर ढंग से समझने में मदद देता है। सामाजिक आंदोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्‍याओं को अभिव्‍यक्ति दी जो अपनी दिक्‍कतों को चुनावी राजनीति के जरिए हल नहीं कर पा रहे थे।

इन आंदोलनों के आलोचक अकसर यह दलील देते हैं कि हड़ताल, धरना और रैली जैसी सामूहिक कार्रवाईयों से सरकार के कामकाज पर बुरा असर पड़ता है।

सुचना के अधिकार का आंदोलन

सुचना के अधिकार का आंदोलन जन आंदोलनों की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। यह आंदोलन सरकार से एक बड़ी माँग को पूरा कराने में सफल रहा है। इस आंदोलन की शुरूआत 1990 में हुई और इसका नेतृत्‍व किया मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने। राजस्‍थान में काम कर रहे इस संगठन ने सरकार के सामने यह माँग रखी कि अकाल राहत कार्य और मजदूरों को दी जाने वाली पगार के रिकॉर्ड का सार्वजनिक खुलासा किया जाए।

इस मुहिम के तहत ग्रामीणों ने प्रशासन से अपने वेतन और भुगतान के बिल उपलब्‍ध कराने को कहा। दरअसल, इन लोगों को लग रहा था कि स्‍कूलों, डिस्‍पेंसरी, छोटे बाँधों तथा सामुदायिक केंद्रों के निर्माण कार्य के दौरान उन्‍हें दी गई मजदूरी में भारी घपला हुआ है। कहने के लिए के विकास परियोजनाएँ पूरी हो गई हो गई थीं लेकिन लोगों का मानना था कि सारे काम में धन की हेराफेरी हुई है। पहले 1994 और उसके बाद 1996 में मजदूर किसान शक्ति संगठन ने जन-सुनवाई का आयोजन किया और प्रशान को इस मामले में अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करने को कहा।

आंदोलन के दबाव में सरकार को राजस्‍थान पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करना पड़ा। नए कानून के तहत जनता को पंचायत के दस्‍तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिप प्राप्‍त करने की अनुमति मिल गई। संशोधन के बाद पंचायतों के लिए बजट, लेखा, खर्च, नीतियों और लाभार्थियों के बारे में सार्व‍जनिक घोषणा करना अनिवार्य कर दिया गया। 1996 में एमकेएसएस ने दिल्‍ली में सुचना के अधिकार को लेकर राष्‍ट्रीय समिति का गठन किया। इस कार्रवाई का लक्ष्‍य सूचना के अधिकार को राष्‍ट्रीय अभियान का रूप देना था। इससे पहले, कंज्‍यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर (उपभोक्‍ता शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र), प्रेस काउंसिल तथा शौरी समिति ने सुचना के अधिकार का एक मसौदा तैयार किया था। 2002 में ‘सूचना की स्वतंत्रता’ नाम का एक विधेयक पारित हुआ था। यह एक कमजोर अधिनियम था और इसे अमल में नहीं लाया गया। सन् 2004 में सूचना के अधिकार के विधेयक को सदन में रखा गया। जून 2005 में विधेयक को राष्‍ट्रपति की मंजूरी हासिल हुई।

आंदोलन का म‍तलब सिर्फ धरना-प्रदर्शन या सामूहिक कार्रवाई नहीं होता। इसके अंतर्गत किसी समस्‍या से पी‍ड़ीत लोगों का धीरे-धीरे एकजुट होना और समान अपेक्षाओं के साथ एक-सी माँग उठाना जरूरी है। इसके अतिरिक्‍त, आंदोलन का एक काम लोगों को अपने अधिकारों को लेकर जागरूक बनाना भी है ताकि लोग यह समझें कि लोकतंत्र की संस्‍थाओं से वे क्‍या-क्‍या उम्‍मीद कर सकते हैं।

समकाली सामाजिक आंदोलन किसी एक मुद्दे के इर्द-गिर्द ही जनता को लामबंद करते हैं। इस तरह वे समाज के किसी एक वर्ग का ही प्रतिनिधित्‍व कर पाते हैं। इसी सीमा के चलते सरकार इन आंदोलनों की जायज माँगों को ठुकराने का साहस कर पाती है।

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Bihar Board Class 12th Book Notes and Solutions

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अध्‍याय 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ | Kshetriya Akanshaye Class 12 Political Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12th राजनितिक विज्ञान के पाठ 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ  (Kshetriya Akanshaye Political Science 12th Class Notes) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

 

अध्‍याय 8
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

क्षेत्र और राष्‍ट्र

1980 के दशक को स्‍वायत्तता की माँग के दशक के रूप में भी देखा जा सकता है। इस दौर में देश के कई हिस्‍सों से स्‍वायत्तता की माँग उठी और इसने संवैधानिक हदों को भी पार किया। इन आंदोलनों में शामिल लोगों ने अपनी माँग के पक्ष में हथियार उठाए; सरकार ने उनको दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की और इस क्रम में राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया अवरूद्ध हुई। इन संघर्ष पर विराम लगाने के लिए केंद्र सरकार को सुलह की बातचीत का रास्‍ता अख्तियार करना पड़ा। अथवा स्‍वायत्तता के आंदोलन की अगुवाई कर रहे समूहों से समझौते करने पड़े। बातचीत का लक्ष्‍य यह एक लंबि प्रक्रिया के बाद ही दोनों पक्षों के बीच समझौता हो सका।

भारत सरकार का नजरिया   

भारतीय राष्‍ट्रवाद ने एकता और विविधता के बीच संतुलन साधने की कोशिश की है। राष्‍ट्र का मतलब यह नहीं है कि क्षे‍त्र को नाकर दिया जाए। भारत ने विविधता के सवाल पर लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया। लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्‍यक्ति की अनुमति है और लोकतंत्र क्षेत्रीयता को राष्‍ट्र-विरोध नहीं मानता। इसके अतिरिक्‍त लोकतांत्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्‍न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी खास क्षेत्रीय समस्‍या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी करें।

तनाव के दायरे  

देश और विदेश के अनेक पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि भारत एकीकृत राष्‍ट्र के रूप में ज्‍यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा। आजादी के तुरंत बाद जम्‍मू-कश्‍मीर का मसला सामने आया। ठीक इसी तरह पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैंड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए जोरदार आंदोलन चले। दक्षिण भारत में भी द्रविड़ आंदोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्‍ट्र की बात उठायी थी।

1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से पंजाबी-भाषा लोगों ने अपने लिए एक अलग राज्‍य बनाने की आवाज उठानी शुरू कर दी। उन‍की माँग आखिकार मान ली गई और 1966 में पंजाब और हरियाणा नाम से राज्‍य बनाए गए।

कश्‍मीर और नगालैंड जैसे कुछ क्षेत्रों में चुनौतियाँ इतनी विकट और जटिल थीं कि राष्‍ट्र-निर्माण के पहले दौर में इनका समाधान नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्‍त पंजाब, असम और मिजोरम में नई चुनौतियाँ उभरीं।

जम्‍जू एवं कश्‍मीर 

‘कश्‍मीर मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा मुद्दा रहा है। जम्‍मू एवं कश्‍मीर में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र शामिल हैं – जम्‍मू, कश्‍मीर और लद्दाख।  कश्‍मीर घाटी को कश्‍मीर के दिल के रूप में देखा जाता है। कश्‍मीरी बोली बोलने वाले ज्‍यादातर लोग मुस्लिम हैं। जम्‍मू क्षेत्र पहाड़ी तलहटी एवं मैदानी इलाके का मिश्रण है जहाँ हिंदू, मुस्लिम और सिख यानी कई धर्म और भाषाओं के लोग रहते हैं।

लद्दाख पर्वतीय इलाका है, जहाँ बौद्ध एवं मुस्लिमों की आबादी है, लेकिन यह आबादी ब‍हुत कम है।

‘जम्‍मू मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इसमें कश्‍मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्‍मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है।

समस्‍या की जड़े

1947 से पहले जम्‍मू एवं कश्‍मीर में राजशाहि थी। इसके हिंदू शासक हरि सिंह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्‍होंने अपने स्‍वतंत्र राज्‍य के लिए भारत और पाकिस्तान से साथ समझौता करने की कोशिश की। पाकिस्तानी नेता सोचते थे कि कश्‍मीर, पाकिस्‍तान से संबद्ध है, क्‍योंकि राज्य की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है। राज्‍य में नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्‍दुल्‍ला के नेतृत्‍व में जन आंदोलन चला। शेख अब्‍दुल्‍ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्‍तान में शामिल होने के खिलाफ थे। नेशनल कांफ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और इसका कांग्रेस के साथ काफी समय तक गठबंधन रहा।

अक्‍टूबर 1947 में पाकिस्‍तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी तरफ से कश्‍मीर पर कब्‍जा करने भेजा। ऐसे में कश्‍मीर के महाराजा भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्‍य मदद उपलब्‍द कराई और कश्‍मीर घाटी से घुसपैटियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्‍तावेज पर हस्‍ताक्षर करा लिए। मार्च 1948 में शेख अब्‍दुल्‍ला जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य के प्रधानमंत्री बने (राज्‍य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमंत्री कहा जाता था) । भारत, जम्‍मू एवं कश्‍मीर की स्‍वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।

बा‍हरी और आंतरिक विवाद

उस समय से जम्‍मू एवं कश्‍मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्‍त एवं संघर्षयुक्‍त रही। इसके बाहरी एवं आं‍तरिक दोनों कारण हैं। कश्‍मीर समस्‍या का एक कारण पाकिस्‍तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्‍मीर घाटी पाकिस्‍तान का हिस्‍सा होना चाहिए। 1947 में इस राज्‍य में पाकिस्‍तान ने कबायली हमला करवाया था। इसके परिणामस्‍वरूप राज्‍य का एक हिस्‍सा पाकिस्‍तान नियंत्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्‍तान ने इस क्षेत्र को ‘आजाद कश्‍मीर’ कहा। 1947 के बाद कश्‍मीर भारत और पाकिस्‍तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है।

राजनीति : 1948 के बाद से

प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद शेख अब्‍दुल्‍ला ने भूमि-सुधार की बड़ी मुहिम चलायी। उन्‍होंने इसके साथ-साथ की जन-कल्‍याण की कुछ नीतियाँ भी लागू कीं। इन सबसे यहाँ की जनता को फायदा हुआ। बहरहाल, कश्‍मीर की हैसियत को लेकर शेख अब्‍दुल्‍ला के विचार केंद्र सरकार से मेल नहीं खाते थे। इससे दोनों के बीच मतभेद पैदा हुए। 1953 में शेख अब्‍दुल्ला को बर्खास्‍त कर दिया गया। कई सालों तक उन्‍हें नजरबंद रखा गया। शेख अब्‍दुल्‍ला के बाद जो नेता सत्तासीन हुए वे शेख की तरह लोकप्रिय नहीं थे। केंद्र के समर्थन के दम पर ही वे राज्‍य में शासन चला सके।

1953 से लेकर 1974 के बीच अधिकांश समय इस राज्‍य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। कमजोर हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस (शेख अब्‍दुल्ला के बिना) कांग्रेस के समर्थन से राज्‍य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में वह कांग्रेस में मिल गई। इस तरह राज्‍य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियंत्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्‍दुल्‍ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही। आखिरकार 1974 में इंदिरा गाँधी के साथ शेख अब्‍दुल्ला ने एक समझौते पर हस्‍ताक्षर किए और वे राज्‍य के मुख्‍यमंत्री बने। उन्‍होंने नेशनल कांफ्रेंस को सन् 1982 में शेख अब्‍दुल्‍ला की मृत्‍यु हो गई और नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्‍व की कमान उनके पुत्र फारूख अब्‍दुल्‍ला ने संभाली। फारूख अब्‍दुल्‍ला भी मुख्‍यमंत्री बने। बहरहाल, राज्‍यपाल ने जल्‍दी ही उन्‍हें बर्खास्‍त कर दिया और नेशनल कांफ्रेंस से एक टूटे हुए गुट ने थोड़े समय के लिए राज्‍य की सत्ता संभाली।

केंद्र सरकार के हस्‍तक्षेप से फारूख अब्‍दुल्‍ला की सरकार को बर्खास्‍त किया गया था। 1986 में नेशनल कांफ्रेंस ने केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया।

विद्रोही तेवर और उसके बाद

इसी माहौल में 1987 के विधानसभा चुनाव हुए। आधिकारिक नतींजे बता रहे थे कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को भारी जीत मिली है। फारूख अब्‍दुल्‍ला मुख्‍यमंत्री बने। बहरहाल, लोग-बाग यह मान रहे थे कि चुनाव में धाँधली हुई है 1980 के दशक से ही यहाँ के लोगों में प्रशासनिक अक्षमता को लेकर रोष पनप रहा था। लोगों के मन का गुस्‍सा यह सोचकर और भड़का केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ हेरा-फेरी की जा रही है। इन सब बातों से कश्‍मीर में राजनीतिक संकट उठ खड़ा हुआ। इस संकट ने राज्‍य में जारी उग्रवादी के बीच गंभीर रूप धारण किया। 1989 तक यह राज्य उग्रवादी आंदोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आंदोलन में लोगों को अलग कश्‍मीर राष्‍ट‍्र के नाक पर लामबंद किया जा रहा था। उग्रवादीयों को पाकिस्तान ने नैतिक, भौतिक और सैन्‍य सहायता दी। कई सालों तक इस राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन लागू रहा। राज्‍य पर सेना को नियंत्रण रखना पड़ा।

1990 से बाद के समय में इस राज्य के लोगों को उग्रवादीयों और सेना की हिंसा भूगतनी पड़ी। 1996 में एक बार फिर इस राज्‍य में विधानसभा के चुनाव हुए। फारूख अब्‍दुल्ला के नेतृत्‍व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्‍मू-कश्‍मीर के लिए क्षेत्रीय स्‍वायत्तता की माँग की। जम्‍मू-कश्‍मरी में 2002 के चुनाव बड़े निष्‍पक्ष ढंग से हुए। नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत नहीं मिल पाया। इस चुनाव में पीपुल्‍स डेकोक्रेटिक अलायंस (पीडीपी) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार सत्ता में आई।

अलगाववाद और उसके बाद

अलगाववादियों का एक तबका कश्‍मरी को अलग राष्‍ट्र बनाना चाहता है यानी एक ऐसा कश्‍मीर जो न पाकिस्‍तान का हिस्‍सा हो और न भारत का। कुछ अलगाववादी समूह चाहते हैं कि कश्‍मीर का विलय पाकिस्‍तान में हो जाए। अलगाववादी राजनीति की एक तीसरी धारा भी है। इस धारा के समर्थक चाहते हैं कि कश्‍मीर भारत संघ का ही हिस्‍सा रहे लेकिन उसे और स्‍वायत्तता दी जाय। केंद्र ने विभिन्‍न अलगाववादी समूहों से बातचीत शुरू कर दी है। अलग राष्‍ट्र की माँग की जगह अब अगाववादी समूह अपनी बातचीत में भारत संघ के साथ कश्‍मीर के रिश्‍ते को पुर्नर्परिभाषित करने पर जोर दे रहे हैं।

पंजाब  

1980 के दशक में पंजाब में भी बड़े बदलाव आए। बाद में इसके कुछ हिस्‍सों से हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नामक राज्‍य बनाए गए। सिखों की राजनीतिक शाख के रूप में 1920 के दशक में अकाली दल का गठन हुआ था।

राजनीतिक संदर्भ

पंजाब सूबे पुनर्गठन के बाद अकाली दल ने यहाँ 1967 और इसके 1977 में सरकार बनायी। दोनों ही मौके पर गठबंधन  सरकार बनी। अकालियों के आगे यह बात स्‍पष्‍ट हो चुकी थी कि सूबे के नए सीमाकन के बावजूद उनकी राजनीतिक स्थिति डावाडोल है। पहली बात तो यही कि उनकी सरकार को केंद्र ने कार्यकाल पूरा करने से पहले बर्खास्‍त कर दिया था। दूसरे, अकाली दल को पंजाब के हिंदुओं के बीच कुछ खास समर्थन हासिल नहीं था। तीसरे, सिख समुदाय भी दूसरे धार्मिक समुदायों की तरह जाति और वर्ग के धरातल पर बँटा हुआ था। कांग्रेस को दलितों के बीच चाहे वे सिख हो या हिंदू-अकालियों से कहीं ज्‍यादा समर्थन प्राप्‍त था।

इन्‍हीं परिस्थितियों के मद्देनजर 1970 के दशक में अ‍कालियों के एक तबके ने पंजाब के लिए स्‍वायत्तता की माँग उठायी। 1973 में, आनंदपुर साहिब प्रस्‍ताव में क्षेत्रीय स्‍वायत्तता की बात उठायी गई थी।

इस प्रस्‍ताव में सिख ‘कौम’ (नेशन या समुदाय) की  आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के ‘बोलबाला’ (प्रभुत्‍व या वर्चस्‍व) का ऐलान किया गया। यह प्रस्‍ताव संघवाद को मजबूत करने की अपील करता है। लेकिन इसे एक अलग सिख राष्‍ट्र की माँग के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।

धार्मिक नेताओं के एक तबके ने स्‍वायत्त सिख पहचान की बात उठायी। कुछ चरमपंथी तबकों ने भारत से अलग होकर ‘खालिस्‍तान’ बनाने की वकालत की।

हिंसा का चक्र

जल्‍दी ही आंदोलन का नेतृत्‍व नरमपंथी अकालि‍यों के हाथ से निकलकर चरमपंथी तत्त्‍वों के हाथ में चला गया और आंदोलन ने सशस्‍त्र विद्रोह का रूप ले लिया। उग्रवादियों ने अमृतसर स्थित सिखों के तीर्थ स्‍वर्णमंदिर में अपना मुख्‍यालय बनाया और स्‍वर्णमंदिर एक हथियारबंद किले में तब्‍दील हो गया। 1984 के जून माह में भारत सरकार ने ‘ऑपरेशन ब्‍लू स्‍टार’ चलाया। यह स्‍वर्णमंदिर में की गई सैन्‍य कर्रवाई का कूट नाम था। इस सैन्य-अभियान में सरकार ने उग्रवादियों को तो सफलतापूर्वक मार भागाया। इससे सिखों की भावनाओं को गहरी चोट लगी। भारत और भारत से बाहर बसे अधिकतर सिखों ने सैन्य-अभियान को अपने धर्म-विश्‍वास पर हमला माना। इन बातों से उग्रवादी और चरमपंथी समूहों को और बल मिला। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्‍तूबर 1984 के दिन उनके आवास के बाहर उन्‍हीं के अंगरक्षकों ने हत्‍या कर दी। ये अंगरक्षक सिख थे और ऑपरेशन ब्‍लू स्‍टार का बदला लेना चाहते थे। एक तरफ पूरा देश इस घटना से शोक-संतत्‍प था तो दूसरी तरफ दिल्‍ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्‍सों में सिख समुदाय के विरूद्ध हिंसा भड़क उठी। दो हजार से ज्‍यादा की तादाद में सिख, दिल्ली में मारे गए। देश की राजधनी दिल्‍ली इस हिंसा से ज्यादा प्रभावित हुई थी। कानपुर, बोकारो और चास जैसे देश के कई जगहों पर सैकड़ों सिख मारे गए। कई सिख-परिवारों में कोई भी पुरूष न बचा। सिखों को सबसे ज्‍यादा दुख इस बात का था कि सरकार ने स्थिति को सामान्‍य बनाने के लिए बड़ी लोगों को कारगर तरीके से दंड भी नहीं दिया गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में संसद में अपने भाषण के दौरान इस रक्‍तपात पर अफसोस जताया और सिख-विरोधी हिंसा के लिए देश से माफी माँगी।

शांति की ओर

1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने पर नए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत की शुरूआत की। अकाली दल के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष हरचंद सिंह लोगोंवाल के साथ 1985 के जुलाई में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गाँधी लोगौंवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा जाता है। इस बात पर स‍हमति हुई कि चंडीगढ़ पंजाब को दे दिया जाएगा। और पंजाब तथा हरियाणा के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी तय हुआ कि पंजाब-ह‍रियाणा-राजस्थान के बीच रावी-व्‍यास के पानी के बँटवारे के बारे में फैसला करने के लिए एक ट्रिब्यूनल (न्‍यायाधिकरण) बैठया जाएगा। समझौते के अंतर्गत सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने और उनके साथ बेहतर सलूक करने पर राजी हुई। पंजाब में न तो अमन आसानी से कायम हुआ न ही समझौते के तत्‍काल बाद। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केंद्र सरकार को राज्‍य में राष्‍ट्रपति शासन करना पड़ा। 1992 में पंजाब में चुनाव हुए तो महज 24 फीसदी मतदाता वोट डालने के लिए आए।  उग्रवाद को सुरक्षा बलों ने आखिरकार दबा दिया लेकिन पंजाब के लोगों ने, चाहे वे सिख हो या हिंदू, इस क्रम में अनगिनत दुख उठाए। 1990 के दशक के मध्‍यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति बहाल हुई। 1997 में अकाली दल, (बादल) और भाजपा के गठबंधन को विजय मिली। उग्रवाद के खात्‍मे के बाद के दौर में यह पंजाब का पहला चुनाव था। धार्मिक पहचान यहाँ की जनता के लिए लगातार प्रमुख बनी हुई है लेकिन राजनीति अब धर्मनिरपेक्षता की राह पर चल पड़ी है।

पूर्वोत्तर

पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ 1980 के दशक में एक निर्णायक मोड़ पर आ गई थीं। क्षेत्र में सात राज्‍य हैं और इन्‍हें ‘सात बहनें’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में देश की कुल 4 फीसदी आबादी निवास करती है। 22 किलो‍मीटर लंबी एक पतली-सी राहदारी इस इलाके को शेष भारत से जोड़ती है यह इलाका भारत के लिए एक तरह से दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रवेश-द्वार है।

इस इलाके में 1947 के बाद से अनेक बदलाव आए हैं। त्रिपुरा, मणिपुर और मेघालय का खासी पहाड़ी क्षेत्र, पहले अलग-अलग रियासत थे। आजादी के बाद भारत संघ में इनका विलय हुआ।

नगालैंड को 1963 में राज्‍य बनाया गया। मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय 1972 में राज्‍य बने ज‍बकि मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश को 1987 में राज्य का दर्जा दिया गया। 1947 के भारत-विभाजन से पूर्वोतर के इलाके भारत के शेष भागों से एकदम अलग-थलग पड़ जाने के कारण इस इलाके में विकास पर ध्‍यान नहीं दिया जा सका।

पूर्वोत्तर के राज्‍यों में राजनीति पर तीन मुद्दे हावी हैं:स्‍वायत्तता की माँग, अलगाव के आंदोलन और ‘बाहरी’ लोगों का विरोध।

स्‍वायत्तता की माँग  

आजादी के वक्‍त मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़ दें तो यह पूरा इलाका असम कहलाता था। गैर-असमी लोगों को जब लगा कि असम की सरकार उन पर असमी भाषा थोप रही है तो इस इलाके से राजनीतिक स्वायत्तता की माँग उठी। पूरे राज्‍य में असमी भाषा को लादने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और दंगे हुए। बड़े जनजाति समुदाय के नेता असम से अलग होना चाहते थे। इन लोगों ने ‘ईस्‍टर्न इंडिया ट्राइबल यूनियन’ का गठन किया जो 1960 में कहीं ज्यादा व्‍यापक ‘ऑल पार्टी हिल्‍स कांफ्रेंस’ में तब्‍दील हो गया। इन नेताओं की माँग थी कि असम से अलग एक जनजाति राज्‍य बनया जाए।  केंद्र सरकार ने अलग-थलग वक्‍त पर असम को बाँटकर मेघालय, मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश बनाया। त्रिपुरा और मणिपुर को भी राज्‍य का दर्जा दिया गया।

1972 तक पूर्वोत्तर का पुनर्गठन पूरा हो चुका था। लेकिन, स्‍वायत्तता की माँग खत्‍म न हुई। उदाहरण के लिए, असम के बोडो, करबी और दिमसा जैसे समुदायों ने अपने लिए अलग राज्य की माँग की। करबी और दिमसा समुदायों को जिला-परिषद् के अंतर्गत स्‍वायत्तता दी गई जबकि बोडो जन‍जाति को हाल ही में स्‍वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया है।

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अलगाववादी आंदोलन

जब कुछ समूहों ने अलग देश बनाने की माँग की और वह भी किसी क्षणिक आवेश में नहीं बल्कि सिद्धांततगत तैयारी के साथ, तो इस माँग से निपटना मुश्किल हो गया।

आजादी के बाद मिजो पर्वतीय क्षेत्र को असम के भीतर ही एक स्‍वायत्त जिला बना दिया गया था। कुछ मिजो लोगों का मानना था कि वे कभी भी ‘ब्रिटिश इंडिया’ के अंग नहीं रहे इसलिए भारत संघ से उनका कोई नाता नहीं है। 1959 में मिजो पर्वतीय इलाके में भारी अकाल पड़ा। असम की सरकार इस अकाल में समुचित प्रबंध करने में नाकाम रही। मिजो लोगों ने गुस्‍से में आकर लालडेंगा के नेतृत्‍व में मिजो नेशनल फ्रंट बनाया।

1966 में मिजो नेशनल फ्रंट ने आजादी की माँग करते हुए सशस्‍त्र अभियान शुरू किया। मिजो नेशनल फ्रंटने गुरिल्ला युद्ध किया। उसे पाकिस्‍तान की सरकार ने समर्थन दिया था और तत्‍कालीन पूर्वी पाकिस्‍तान में मिजो विद्रोहियों ने अपने ठिकाने बनाए। भारतीय सेना ने विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की।

दो दशकों तक चले बगावत में हर पक्ष को हानि उठानी पड़ी। इसी बात को भाँपकर दोनों पक्षों के नेतृत्‍व ने समझदारी से काम लिया। पाकिस्‍तान में निर्वासित जीवन जी रहे लालडेंगा भारत आए और उन्‍होंने भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू की। 1986 में राजीव गाँधी और लालडेंगा के बीच एक शांति समझौता हुआ। समझौते के अंतर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्‍य का दर्जा मिला और उसे कुछ विशेष अधिकार दिए गए। मिजो नेशनल फ्रंट अलगाववादी संघर्ष की राह छोड़ने पर राजी हो गया। लालडेंगा मुख्‍यमंत्री बने। यह समझौता मिजोरम के इतिहास में एक निर्णायक साबित हुआ। आज मिजोरम पूर्वोत्तर का सबसे शांतिपूर्ण राज्‍य है।

नगालैंड की कहानी भी मिजोरम की तरह है लेकिन नगालैंड का अलगावादी आंदोलन ज्‍यादा पुराना है और अभी इसका मिजोरम की तरह खुशगवार हल नहीं निकल पाया है। अंगमी जापू फ्रिजो के नेतृत्‍व में नगा लोगों के एक तबके ने 1951 में अपने को भारत से आजाद घोषित कर दिया था। फ्रिजो ने बातचीत के कई प्रस्‍ताव ठुकराए। हिंसक विद्रोह के एक दौर के बाद नगा लोगों के एक तबके ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर दस्‍तखत किए लेकिन अन्य विद्रोहियों ने इस समझौते को नहीं माना। नगालैंड की समस्‍या का समाधान होना अब भी बाकी है।

बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन

पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर आप्रवासी आए हैं। इससे एक खास समस्‍या पैदा हुई है। स्‍थानीय जनता इन्‍हें ‘बाहरी’ समझती है और ‘बाहरी’ लोगों के खिलाफ उसके मन में गुस्‍सा है। स्‍थानीय लोग बाहर से आए लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं।

1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन बाहरी लोगों के खिलाफ चले आंदोलनों का सबसे अच्‍छा उदाहरण है असमी लोगों के संदेह था कि बांग्‍लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्‍हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्‍थानीय असमी जनता अल्‍पसंख्‍यक हो जाएगी।

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1979 में ऑल असम स्‍टूडेंटस् यूनियन (आसू-AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोनल चलाया। ‘आसू’ एक छात्र-संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था। ‘आसू’ का आंदोलन अवैध आप्रवासी, बंगाली और अन्‍य लोगों के दबदबे तथा मतदाता सूची में लाखों आप्रवासियों के नाम दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन के दौरान रेलगा‍ड़ीयों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति रोकने की भी कोशिश की गई।

छह साल की सतत अस्थिरता के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्‍व वाली सरकार ने ‘आसू’ के नेताओं से बातचीत शुरू की। इसके परिणामस्‍वरूप 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्‍हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की कामयाबी के बाद ‘आसू’ और असम गण संग्राम परिषद् ने साथ मिलाकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम ‘असम गण परिषद्’ रखा गया।

असम-समझौते से शांति कायम हुई और प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला लेकिन ‘आप्रवास’ की समस्या का समाधान नहीं हो पाया।

समाहार और राष्‍ट्रीय अखंडता

हम इन उदाहरणों से क्‍या सबक सीख सकते हैं। पहला और बुनियादी सबक तो यही है कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ राजनीति का अभिन्‍न अंग हैं। क्षेत्रीय मुद्दे की अभिव्‍यक्ति कोई असामान्‍य अथवा लोकतांत्रिक राजनीति के व्‍याकरण से बाहर की घटना नहीं हैं। भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ विभिन्‍नताएँ भी बड़े पैमाने पर हैं। अत: भारत को क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की तैयारी लगातार रखनी होगी।

दूसरी सबक यह है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दबाने की जगह उनके साथ लोकतांत्रिक बातचीत का तरीका अपनाना सबसे अच्‍छा होता है।

तीसरा सबक है सत्ता की साझेदारी के महत्त्‍व को समझना। सिर्फ लोकतांत्रिक ढाँचा खड़ा कर लेना ही काफी नहीं है। इसके साथ ही विभिन्‍न क्षेत्रों के दलों और समूहों को केंद्रीय राजव्‍यवस्‍था में हिस्‍सेदार बनाना भी जरूरी है।

चौथा सबक यह है कि आर्थिक विकास के एतबार से विभिन्‍न इलाकों के बीच असमानता हुई तो पिछड़े इलाकों को लगे कि उनके पिछड़पेन को प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिए।

सबसे आखिरी बात यह कि इन मामलों से हमें अपने संविधान निर्माताओं की दूरदृष्टि का पता चलता है। भारत ने जो संघीय प्रणाली अपनायी है वह बहुत तचीली है। अगर अधिकतर राज्‍यों के अधिकार समान हैं तो जम्‍मू-कश्‍मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्‍यों के लिए विशेष प्रावधान भी किए गए हैं।

भारत का संवैधानिक ढाँचा ज्यादा लचीला और सर्वसमावेशी है। जिस तरह की चुनौतियाँ भारत में पेश आयीं वैसी कुछ दूसरे देशों में भी आयी लेकिन भारत का संवैधानिक ढाँचा अन्‍य देशों के मुकाबले भारत को विशिष्‍ट बनाता है। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को यहाँ अलगाववाद की राह पर जाने का मौका नहीं मिला।

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