इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 23 (Kriyatam Etat) “ क्रियताम् एतत् ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
यदि किमपि करणीयम् इति इच्छा तर्हि परोपकारः क्रियताम् । यदि किमपि पालीनयम् इति इच्छा तर्हि धर्मः पाल्यताम् । यदि किमपि वक्तव्यम् इति इच्छा तर्हि सत्यम् उच्चताम् । यदि सङ्गः करणीयः इति इच्छा तर्हि सज्जनानां सङ्ग क्रियताम् । यदि व्यसने इच्छा अस्ति तर्हि दानव्यसनं पाल्यताम् । । यदि किमपि ग्रहीतव्यम् इति इच्छा सज्जनानां गुणाः गृह्यन्ताम्। यदि लोभः कोऽपि आस्थेयः तर्हि सद्गुणेषु लोभः स्थाप्यताम् । यदि निन्दा विना स्थातुं न शक्यते तर्हि स्वदोषाः निन्द्यन्ताम् । यदि कोपे तीवेच्छा तर्हि कोपविषये एव कृप्यताम्। यदि कस्माच्चित् दूरं गन्तव्यम् हि परिग्रहात् दूरे स्थीयताम् । यदि किमपि द्रष्टव्यम् इति इच्छा तर्हि आत्मा एव दृश्यताम् । यदि कोऽपि शत्रुभावेन द्रष्टव्यः तर्हि रागद्वेषौ शत्रुभावेन दृश्येताम् । यदि भेतव्य तर्हि स्वस्य कुकृत्येभ्यः भीयताम्।
अर्थ : यदि कुछ भी करने की इच्छा हो तो परोपकार करो। यदि कुछ भी पालने की इच्छा हो तो धर्म पालन करो । यदि कुछ भी बोलने की इच्छा हो तो सत्य बोलो । यदि संगति करने की इच्छा हो तो अच्छे लोगों की संगति करों। यदि आदत लगाने की इच्छा हो तो दान की आदत लगाओ यदि कुछ ग्रहण करने की इच्छा हो तो अच्छे लोगों का गुण ग्रहण करो।
यदि किसी चीज में लोभ हो तो सद्गुणों में लोभ करो।यदि निन्दा के बिना नहीं रह सकते तो अपने दोष की निन्दा करो। यदि गुस्सा में तेजी लाने की इच्छा हो तो गुस्सा के कारण पर ही गुस्सा करो। यदि किसी चीज से दूर हटना चाहते हो तो परिग्रह (लेने) की भावना से दूर हटो। यदि कुछ भी देखने की इच्छा हो तो अपने आपको देखो। यदि किसी को शत्रु भाव से देखना हो तो राग और द्वेष को शत्रु भाव से देखो। यदि डरना हो तो अपने कुकर्मों से डरो।।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 22 (Priyam Bharatam) “प्रियं भारतम्” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ- हमारा प्रिय भारत मेरे मन को अच्छा लगता है। भारत का स्वरूप सदैव चमकता रहे। जिसका मेखला विन्ध्य पर्वत, गोदावरी और गंगा जैसी पवित्र नदी हो। जिसका मस्तक हिमालय और जिसका घुघरू सागर हो। वह भारत मेरे मन को सदेव आनन्द देता रहे।
जो शिवि तथा दधीचि जैसे दानियों से सेवित रही है जो चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, विस्मिल जैसे लोगों के लिए प्रिय रहा है। जिसके लिए गाँधीजी ने अपना जीवन प्रदान कर दिया तथा प्राण सहित सर्वस्व दान कर के जिन्होंने अपने जीवन को कृतार्थ किया वह प्रिय भारत हमारे मन में सदैव आनन्द देता रहे।
स्वप्नदर्शी प्रजातंत्र के सम्पोषक विश्व के नेताओं के प्रिय पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, राजेन्द्र प्रसाद अब्दुल हमीद आदि महापुरुषों ने जन्म लेकर भारत को गौरवान्वित किया । वह प्रिय भारत मेरे मन में सदैव आनन्द देता रहे।
सैन्य दक्षता और विज्ञान प्रौद्योगिक क्षेत्र में विस्तार करने में अग्रणी जो सदैव रहा है। जहाँ के लोग श्रेष्ट राष्ट्र का चिन्तन करते हैं तथा जहाँ के लोग दिन-रात अपने श्रेष्ठ कर्म पर आरूढ़ रहकर हर्षित और खुशी दिखाई पड़ते हैं वह भारत मेरे मन में सदैव आनन्द देता रहे।
अभ्यास
प्रश्न: 1. भारत का विद्यां विस्तृतां कर्तुम अग्रेसरं वर्तते।
उत्तरम्- भारतं सैन्य दक्षतां विज्ञान-प्रौद्योगिकम् च क्षेत्रे विस्तृतां कर्तुम् अग्रेसरं वर्तते ।
प्रश्न: 2. महात्मा गाँधी किं कृत्वा स्वजीवनं कृतर्थी कृतवान् ?
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 21 (Bharatbhusha sanskritbhasha) “ भारतभूषा संस्कृतभाषा ( भारत की शोभा संस्कृत भाषा है ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
भारतभूषा संस्कृतभाषा विलसतु हृदये हृदये । संस्कृतिरक्षा राष्ट्रसमृद्धिः भवतु हि भारतदेशे। श्रद्धा महती निष्ठा सुदृढ़ा स्यान्नः कार्यरतानां स्वच्छा वृत्तिर्नव उत्साहो यत्नो विना विरामम् । न हि विच्छत्तिश्चित्तविकारः पदं निधद्यस्ततम् सत्यपि कष्टे विपदि कदापि वयं न यामो विरतिम् ॥1॥
अर्थ- संस्कृत भाषा भारत की शोभा बढ़ाने वाली है। यह हरेक भारतवासियों के हृदय में आनन्द प्रदान करता रहे। भारत देश में संस्कृति की रक्षा और राष्ट्र की समृद्धि हो । श्रेष्ठ श्रद्धा, सुदृढ़ निष्ठा हम सबों में हो, हमलोग कार्य में रत रहें। पवित्र हमारा पेशा हो, नवीन उत्साह हम सबों में हो। अविरल अपने कार्य में लगे रहें।
हममें मनोविकार पैदा न ले, निंदित कार्य के तरफ हमारा पैर न बढ़े । कष्ट में अथवा विपत्ति काल में भी हम सब सत्य से विचलित नहीं होवें। _हमारे प्रत्येक श्वास, प्रत्येक रोम और धमनियों में संस्कृतरूपी वीणा की झंकार होता रहे। हृदय, वाणी, प्राण शरीर सब प्रकार से हम संस्कृत के हित में सदैव लगे रहें। प्राण के श्वासों से प्रिय संस्कृत की वृद्धि के लिए लगा रहूँगा। संस्कृत वाणी को मैं प्रणाम करता हूँ। संस्कृत बोलने वालों की वृद्धि ही संतुष्टी हो । संस्कृत के जैसा कोई नहीं है।
मैं न मान की इच्छा रखता हूँ, न गौरव वृद्धि की इच्छा करता हूँ। नहीं सत्कार, नहीं धन, नहीं पदवी और न कोई भौतिक लाभ की इच्छा रखता हूँ। जिस दिन संस्कृत भाषा सम्पूर्ण संसार में दिखाई पड़ेगा उस दिन इस संसार में अद्भुत दृश्य देखने को मिलेगा जो कभी नहीं आँखों से देखा गया है।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 20 (Samaypragya) “ समयप्रज्ञा ( समय की पहचान ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ : कोई गाँव था। वहाँ एक युवक था। उसका नाम दुर्गा दास था । वह बुद्धिमान था।
एक दिन सभी ग्रामीण रात में निद्रा में मग्न थे। तब कहीं से चोर-चोर की आवाज सुनाई पड़ी। सभी ग्रामवासी उसको सुनकर शीघ्रता से उठकर लम्बे-लम्बे डण्डे इत्यादि हथियार लेकर जिधर की आवाज सुने थे वहाँ आ गये।।
वहाँ दुर्गादास को देखकर सबों ने कहा-चोर कहाँ है ? ऐसा पूछा । दुर्गादास निकट के बरगद वृक्ष को दिखाया । सभी बरगद पेड़ के चारों ओर इस प्रकार से खड़े हो गये जिससे चोर की भी भाग नहीं सकता था।
चन्द्रमा के प्रकाश में कोई चोर नहीं दिखाई पड़ा। किन्तु उस पेड़ की जड़ में कोई बाघ था। वह उठकर भागने के लिए तैयार था। तभी उसमें से एक व्यक्ति ने कहा- कुछ दिन पहले अन्धकार में एक आदमी को इसी ने मार दिया। दूसरे को घायल कर दिया। इसको अवश्य मारना चाहिए। उसी समय लोगों ने उसके ऊपर पत्थर के टुकड़े फेंकने लगे । वह बाघ पेड़ की जड में कुदने लगा । सबों ने मिलकर भाले और डण्डे से पीटकर उस बाघ को मार दिया। इसके बाद लोगों ने दुर्गादास को देखकर पूछा— क्यों! नर मांसभक्षी बाघ आया लेकिन तुमने चोर-चोर करके क्यों हल्ला किया?
दुर्गादास धीरे से मुस्कुराते हुए बोला— जब मैं चोर-चोर कहकर हल्ला किया तब आप लोग सभी हथियार के साथ घर से बाहर आये । लेकिन यदि मैं बाघ-बाघ कहकर हल्ला करता तो क्या आप लोग आते ? घर के दरवाजे को सही ढंग से बंद कर भीतर ही रह जाते । इसीलिए मैंने चोर-चोर कहकर हल्ला किया। सभी लोगों ने दुर्गादास की समय पर बुद्धि के प्रयोग की प्रशंसा की।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 19 (Jagran Gitam) “ जागरण-गीतम् ( जागरण-गीत ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 18 (Satyapriyta) “ सत्यप्रियता ( सत्य का प्रिय ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ (Satyapriyta) : विधानचन्द्र राय श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ और चिकित्सक थे। भारतरत्न से विभूषित वे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे थे। अत्यन्त बुद्धिमान वे छात्र जीवन में प्रत्येक परीक्षा में प्रथम स्थान पाते थे। लेकिन एक बार वे महाविद्यालय परीक्षा में फेल हो गये। वह कहानी ऐसी है –
एक बार विधानचन्द्र महाविद्यालय के प्रवेश द्वार के सामने खडे थे। उसी समय ही कॉलेज के प्राचार्य अपनी गाड़ी चलाते हुए कॉलेज आये थे। प्राचार्य सही ढंग से वाहन नहीं चला रहे थे
जिसके कारण रास्ते पर जाते हुए एक राही को धक्का मार दिया गया उनके यान के द्वारा राही जमीन पर घायल होकर गिर गया। भाग्य से उसका प्राण बच गया। उसी समय वहाँ सिपाही आया और प्राचार्य के विरुद्ध केस लिख लिया। विधानचन्द्र प्राचार्य के ही विद्यार्थी थे। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी (गवाह) वह ही एक थे। “मेरा छात्र मेरे विरूद्ध कोर्ट में गवाही नहीं देगा। ऐसा प्राचार्य को दृढ विश्वास था। लेकिन विधानचन्द्र ने न्यायालय में सही-सही कह दिया जिससे न्यायाधीश ने प्राचार्य को दण्डित किया। प्राचार्य गुस्सा हो गये। उनके मन में विधानचन्द्र के विषय में दुर्भावना उत्पन्न हो गयी। उस वर्ष में भी वार्षिक परीक्षा में विधानचन्द्र के द्वारा उत्तर सम्यक् ही लिखे गये। परन्तु वे कम अंक प्राप्त किये तथा परीक्षा में फेल हो गये। विधानचन्द्र इसका कारण भी जान गये। इसके बाद भी वे उस विषय में कुछ नहीं बोले । दूसरे वर्ष पुनः परीक्षा में लिखकर उत्तम अंक से उत्तीर्ण हुए।
प्राचार्य विधानचन्द्र को बुलाकर कहा- “विगत वर्ष में आप परीक्षा में असफल रहे। कारण जानते हो क्या?
“हाँ जानता हूँ। विगत वर्ष में न्यायालय में मेरे द्वारा सत्य वचन बोला गया, जिससे गस्सा हो गये। मझे कम अंक दिये जिससे मैं फेल हो गया। यह आपका काम था। सत्यप्रियता की रक्षा करने में एक वर्ष की हानि कोई बड़ी हानि नहीं है। यह सुनकर वह प्राचार्य अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया। अपने ही छात्र के सामने वह स्वयं ही लज्जित हो गया।
अभ्यास
प्रश्नः 1. विधानचन्द्र रायः कः आसीत् ?
उत्तरम्- विधानचन्द्र रायः श्रेष्ठः राजनीतिज्ञः चिकित्सकः च आसीत् ।
प्रश्न: 2. अयं कीदृशः छात्र: आसीत् ?
उत्तरम्- अयं बुद्धिमान् सत्यप्रियः मेधावी च छात्रः आसीत् ।
प्रश्न: 3. विधानचन्द्र रायस्य प्राचार्यः कथं लज्जितः अभवत् ?
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 17 (Rastrastuti) “ राष्ट्रस्तुति ( राष्ट्र की प्रार्थना ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ- अपने श्रेष्ठ राष्ट्ररूपी देवता अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं। विस्तृत आकार वाला बलवान हिमालय सैनिक बनकर दुश्मनों और गन्दी हवाओं से अपने देश को सदैव बचाता है। उस श्रेष्ठ राष्ट्ररूपी देवता अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।
शिष्ट और विनम्र सेवक बनकर सागर तीन ओर से जिसका पैर प्रक्षालन कर रहा है तथा पुष्प और वन्दना से पूजित होने वाला श्रेष्ठ राष्ट्रारूपी देवता, अखण्ड-भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।
अच्छी-अच्छी नदियाँ माताएं बनकर अपने स्नेहरूपी जलधारा के साथ बहती हैं वे अपने पुत्रों की हरी-हरी फसल देकर पालन करती हैं। जहाँ उस श्रेष्ठ राष्ट्ररूपी देवता अपने अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।
स्वर्ग से भी जो अधिक रमणीय है अपना भारतवर्ष का भू-भाग । यहाँ अच्छे-अच्छे देवता लोग भी निवास करना चाहते हैं। हमलोग अपने राष्ट्रदेव, अखण्ड, श्रेष्ठ भारत को प्रणाम करते हैं।
वे भारतीय लोग थे जिन्होंने सबसे पहले ज्ञान के दीप को जलाया तथा जगद् गुरु के तरह पूजित हुए । सारा संसार इसका अनुकरण कर सिख लिया। उस श्रेष्ठ राष्ट्रदेव अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।
हे मेरे देश । आपके लिए मैं अधिक क्या कहूँ। अवश्य हम धन्य हैं जो बहुत बड़ी पुण्य प्रभाव से भारत में अपना जन्म प्राप्त किया है। उस श्रेष्ठ राष्ट्रदेव अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।
अतः प्राण को न्योछावर कर तथा अपना सब कुछ त्याग कर भी अपने श्रेष्ठ राष्ट्र देवता भारत को सदैव सुरक्षित रखुँगा। श्रेष्ठ राष्ट्रदेव अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 16 (kanyaya patinirnirnay) “ कन्याया: पतिनिर्णय: ( पति के लिए कन्या का निर्णय ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ- किसी गाँव में कोई पंडित रहता था। उस गाँव में वह सर्वमान्य था । उसको सर्व गुण सम्पन्न एक कन्या थी। बचपन से ही स्नेह और समादर भाव से वह बढ़ी थी । क्रम से उसका उम्र बढ़ा। उसकी शादी के लिए अनेक प्रस्ताव आये। किन्तु उच्च आकांक्षा वाली वह कन्या प्रतिज्ञाबद्ध थी कि सभी जिसकी प्रशंसा करेगा और जो शक्तिशाली होगा उसी को वरण करूंगी।
एक दिन उसके राज्य का महाराजा हाथी पर चढ़कर उस गाँव में आया । पण्डित की कन्या ने राजा को देखी। समीप में स्थित सभी ग्रामवासियों ने वहाँ जाकर राजा को नमस्कार किया।
उच्च आकांक्षा वाली वह कन्या समझी कि- राजा ही महाशक्तिशाली और न्यायवान हैं। अतः वह मन में ही उसको पति मान ली। जब महाराज ने अपना काम समाप्त कर हाथी पर चढ़कर राजधानी की ओर लौटे, तब कन्या भी उनके पीछे-पीछे गई। रास्ता में महाराज ने अपने गुरु को देखा। वह गुरु साधुवेशधारी थे। उनको देखकर राजा जल्दी में हाथी के पीठ पर से उतरकर सद्गुरु के चरण स्पर्श किये । पण्डित की कन्या यह देखकर सोची कि— वस्तुतः राजा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति नहीं है उसकी अपेक्षा उसका गुरु ही श्रेष्ठ है। जो साधुवेश धारण किये हुए हैं। अत: वह राजा को छोड़कर साधु के पीछे पीछे चलती हुई वन में गई। थोड़ा दूर जाने पर एक शिव मंदिर में दोनों प्रवेश कर गये। वहाँ महादेव की मूर्ति के सामने साघु गुरु ने दण्डवत् प्रणाम किया। पण्डित कन्या यह देखकर सोची कि साधु से भी बढ़कर है यह देवताओं के देवता महादेव शिव।
अतः वह महादेव को ही पति मानकर उसी मंदिर में वास करने लगी। कुछ समय के बाद कोई कुत्ता उस मंदिर में आकर महादेव के सामने रखा हुआ नैवेद्य और उसके समीप स्थित प्रसाद भी खा लिया।
यह देखकर पण्डित की कन्या सोची कि— यह कुत्ता महादेव से भी श्रेष्ठ है। भगवान महादेव के विषय में अन्य कौन ऐसा व्यवहार करने में समर्थ हो सकता है। इसके बाद वह मंदिर में रहना छोड़कर उस कुत्ता के पीछे-पीछे चलने लगी। वह कुता दौड़ता हुआ किसी गांव के पण्डित के घर में प्रवेश कर गया।
पण्डित का सुकुमार नवयुवक पुत्र घर के आगे पीढ़ा पर बैठकर चिन्ता में लगा था। कुत्ता उसके समीप जाकर स्नेह से उसका पैर चाटने लगा। यह देखकर पण्डित की कन्या सोची कि पण्डित का युवक पुत्र ही इन सबों में मेरे दृष्टि से श्रेष्ठ है । इसलिए यह ही मेरा पति होने योग्य है।’ अंत में जाकर पण्डित के पुत्र के साथ उस पंडित की कन्या का विवाह हुआ । इस प्रकार ऊँची आकांक्षा रखने वाले उस कन्या की मनोइच्छा पूरी हुई। वह सुख से लम्बे समय तक जीवन-यापन करने लगी।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 15 (Jaytu Sanskritam) “ जयतु संस्कृतम् ( संस्कृत की जय हो )” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ – संस्कृत भाषा को जय हो, संस्कृत की जय हो जो शुद्ध है तथा सुरभारती कहलानेवाली, देश को गौरवशाली करनेवाली, हित करने वाली संस्कृत सदैव वंदनीय और सेवनीय है। संसार में विख्यात है। यह संस्कृत । संस्कृत भाषा की जय हो, जय हो
संस्कृत भाषा संसार में वेदमयी है। सुभाषा है, राग, ताल और लय से अन्वित है। जो भाषा पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म-अर्थ काम मोक्ष) को देनेवाली है। वह उपयोगिता को प्रदान करनेवाली है। संस्कृत का आचरण करें, संस्कृत को पढ़ें। संस्कृत भाषा की जय हो।
विश्व में मानव धर्म भाव को कायम करने वाला, भारत में एकता स्थापित करने वाला, वास्तविकता की रक्षा करने के लिए वह योग्य है । पृथ्वी पर संस्कृत में आदान-प्रदान हो, संस्कृत का प्रसार हो। जय हो संस्कृत भाषा की।
संस्कृत सरल है, सुबोध है, कठिन नहीं है। बोलना तथा शीघ्रता से लेखन की क्रिया शीघ्र ही आ जाती है। संस्कृत सुगम है, संस्कृत सरल है । संस्कृत की जय हो, जय हो. संस्कृत भाषा की।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 14 (Vanij kripanta) ” वणिज: कृपणता ( व्यापारी की कंजूसी ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ : किसी गाँव में कोई बनिया था। वह अत्यन्त कंजूस था। कभी वह व्यापार के लिए निकट के नगर में गया था। वह व्यापार समाप्त कर लौट गया। वह जब अपने खजाना को देखता है तो उसे लगा कि वहाँ रखा हुआ धन का थैला ही नहीं है। उस दिन व्यापार से प्राप्त चार हजार रुपये उसमें थे। वह याद किया गाँव में आने तक खजाना में वह थैला था ही। अतः गाँव में ही वह गिर गया है। कोई पाया होगा। वह गाँव के प्रधान के समीप जाकर उससे निवेदन किया कि- इस बारे में गाँव में घोषणा करवायी जाय।
उसके अनुसार गाँव में ढोल के साथ घोषणा की गयी कि- “जो उस थैला को खोजकर लाकर देगा उसको चार सौ रुपये इनाम के रूप में दिया जायेगा।” संयोग से कोई बुढ़िया उस थैला को पाई थी। किन्तु डरी हुई वह सोची कि- यदि यह बात अन्य से कहती हूं तो लोग समझेंगे कि- मेरे द्वारा ही चराया गया है। उसी समय वह घोषणा सुना। निश्चिंत भाव से ग्राम प्रमुख के समीप जाकर उसको थैला दे दी और बोली कि- “देवालय से आगमन समय रास्ते में मैंने इस थैला को पाई है। इसमें क्या है मैंने देखी भी नहीं। घोषणा सुनकर जल्दी में आ गई हूँ। इसके मालिक को यह दे दें।
ग्राम प्रमुख उसकी सत्यनिष्ठा से संतुष्ट हो गया। वह बुढि़या को अभिनन्दन कर उस व्यापारी को लाने के लिए सेवक को भेजा। यह समाचार जानकर अत्यन्त खुश होकर बनिया दौड़ता हुआ वहाँ आ गया । उसको थैला देते हुए ग्राम प्रमुख ने कहा “यह महोदया धन्यवाद के पात्र है समय आपका कर्तव्य है कि इनको चार सौ रुपये दें। यह सुनकर कंजूस ने सोचा… “मुझे धन तो मिल ही गया। इसमें से चार सौ रुपये क्युँ दुँ क्या कोई उपाय सोचता हूँ।”
उसके मन में एक उपाय आया । वह उस थैला को खोलकर सबों के सामने धन की गिनती की। उसके बाद बोला कि इस थैले में चार हजार चार सौ रुपये थे। इस समय चार हजार ही हैं। अवश्य इसी बुढि़या के द्वारा ही वह रुपय निकाले गये हैं। उपहार राशि वह स्वयं ही प्राप्त कर ली।
बनिया के झूठा आरोप से उस बुढ़िया के होश ही उड़ गये । दुःख से वह बोली- ”ओ मैं झूठ नहीं बोल रही है। थैला मेरे द्वार नहीं खोला गया है। यदि इस धन को चुराने की मेरी इच्छा होती तो क्यों यहाँ आकर पैसे का थैला देती।
ग्राम प्रमुख समझ गया कि यह बनिया केवल कंजूस ही नहीं बल्कि झूठा बदमाश भी है। इसलिए वह कुछ विचार कर बोला- “आपको पहले ही बोलना चाहिए था कि थैला में 4,400 रुपये थे।
बनिया ने कहा “मैं भूल गया था।” यह सुनकर ग्राम प्रमुख गुस्सा से बोला— आप इस थैला के मालिक नहीं हैं। आज ही मेरा भी थैला खो गया है। उसमें तो 4000 रुपये ही थे। इसलिए यह मेरा ही थैला है।” यह कहते हुए थैला को ले लिया। अपनी ही गलत नीति के कारण मिला हुआ भी धन पुन: अपने हाथ से निकलते जानकर वह लोभी बनिया रोने लगा।
अभ्यास
प्रश्न: 1. अनया कथया का शिक्षा प्राप्यते ?
उत्तरम् अनया कथवा शिक्षा प्राप्यते यत्-लोभो न कर्तव्यः।
प्रश्नः 2. कृपणता करणीय न करणीया वा?
उत्तरम्-कृपणता न करणीया।
प्रश्नः 3. वणिक् कीदृशः आसीत् ?
उत्तर-वणिक् कृपणः लुब्धक: च आसीत् ।
प्रश्न: 4. ग्रामप्रमुखः कीदृशः आसीत् ?
उत्तरम्-ग्रामप्रमुख; यथायोग्यः कर्तारः आसीत् ।
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