संस्कृत कक्षा 10 क्रियताम् एतत् ( ऐसा करें ) – Kriyatam Etat in Hindi

Kriyatam Etat

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 23 (Kriyatam Etat) “ क्रियताम् एतत् ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Kriyatam Etat
Kriyatam Etat

यदि किमपि करणीयम् इति इच्छा तर्हि परोपकारः क्रियताम् ।
यदि किमपि पालीनयम् इति इच्छा तर्हि धर्मः पाल्यताम् ।
यदि किमपि वक्तव्यम् इति इच्छा तर्हि सत्यम् उच्चताम् ।
यदि सङ्गः करणीयः इति इच्छा तर्हि सज्जनानां सङ्ग क्रियताम् ।
यदि व्यसने इच्छा अस्ति तर्हि दानव्यसनं पाल्यताम् । ।
यदि किमपि ग्रहीतव्यम् इति इच्छा सज्जनानां गुणाः गृह्यन्ताम्।
यदि लोभः कोऽपि आस्थेयः तर्हि सद्गुणेषु लोभः स्थाप्यताम् ।
यदि निन्दा विना स्थातुं न शक्यते तर्हि स्वदोषाः निन्द्यन्ताम् ।
यदि कोपे तीवेच्छा तर्हि कोपविषये एव कृप्यताम्।
यदि कस्माच्चित् दूरं गन्तव्यम् हि परिग्रहात् दूरे स्थीयताम् ।
यदि किमपि द्रष्टव्यम् इति इच्छा तर्हि आत्मा एव दृश्यताम् ।
यदि कोऽपि शत्रुभावेन द्रष्टव्यः तर्हि रागद्वेषौ शत्रुभावेन दृश्येताम् ।
यदि भेतव्य तर्हि स्वस्य कुकृत्येभ्यः भीयताम्।

अर्थ : यदि कुछ भी करने की इच्छा हो तो परोपकार करो। यदि कुछ भी पालने की इच्छा हो तो धर्म पालन करो । यदि कुछ भी बोलने की इच्छा हो तो सत्य बोलो । यदि संगति करने की इच्छा हो तो अच्छे लोगों की संगति करों।
यदि आदत लगाने की इच्छा हो तो दान की आदत लगाओ
यदि कुछ ग्रहण करने की इच्छा हो तो अच्छे लोगों का गुण ग्रहण करो।

यदि किसी चीज में लोभ हो तो सद्गुणों में लोभ करो।यदि निन्दा के बिना नहीं रह सकते तो अपने दोष की निन्दा करो।
यदि गुस्सा में तेजी लाने की इच्छा हो तो गुस्सा के कारण पर ही गुस्सा करो।
यदि किसी चीज से दूर हटना चाहते हो तो परिग्रह (लेने) की भावना से दूर हटो।
यदि कुछ भी देखने की इच्छा हो तो अपने आपको देखो।
यदि किसी को शत्रु भाव से देखना हो तो राग और द्वेष को शत्रु भाव से देखो।
यदि डरना हो तो अपने कुकर्मों से डरो।।

अभ्यास

प्रश्न: 1. अस्य पाठस्य किं प्रयोजनम् अस्ति?

उत्तरम् –अस्य पाठस्य प्रयोजनं अस्ति यत् जनैः । किम किम् करणीयं वा अकरणीयं अस्य प्रदर्शनम।

प्रश्न: 2. जनैः किं करणीयं, पालनीयं वक्तव्यं च?

उत्तरम् –जनैः परोपकार सत्संगतिम् च करणीयम् धर्म दान व्यसनं च पालनीयम् सत्यं वक्तव्यम्।

प्रश्न: 3. केषां संग: करणीयः?

उत्तरम्- सज्जनानां संगः करणीयः ।

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संस्कृत कक्षा 10 प्रियं भारतम् ( प्रिय भारत ) –  Priyam Bharatam in Hindi

Priyam Bharatam

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 22 (Priyam Bharatam) “प्रियं भारतम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Priyam Bharatam
Priyam Bharatam

राजतां मे मनसि नः प्रियं. भारतम् ।
द्योतितं तत्स्वरूपं लसतु शाश्वतम् ।
मेखला विन्ध्यगोदावरी-जाह्नवी
मस्तकं हिमगिरिः सागरो नूपुरम् ॥
                      राजतां मे …

शिविदधीचिप्रभृतिभिस्तथा सेवितम्
चन्द्रशेखर-भगतसिंह-विस्मिल प्रियम् ।
गान्धिना यत् प्रदत्तं स्वकं जीवनम्
प्राणसर्वस्वदानैः कृतार्थीकृतम् ॥
    राजतां मे ….

स्वप्नदर्शि-प्रजातन्त्र-सम्पोषकम्
विश्वनेतृप्रियं नेहरुपण्डितम्।
शास्त्रि राजेन्द्र-अब्दुलहमीदादिकम्
पुत्रजातं च लब्ध्वातिदर्यान्वितम् ॥
                       राजतां मे … सै

न्यदाक्ष्यञ्च विज्ञानप्रौद्योगिकीम्
विस्तृतां कर्तुमग्रेसरं यत् सदा।
राष्ट्रचिन्तापरं श्रमपरं चानिशं
हर्षितं वीक्ष्य मोदान्वितम्।
                       राजतां मे …

अर्थ- हमारा प्रिय भारत मेरे मन को अच्छा लगता है। भारत का स्वरूप सदैव चमकता रहे। जिसका मेखला विन्ध्य पर्वत, गोदावरी और गंगा जैसी पवित्र नदी हो। जिसका मस्तक हिमालय और जिसका घुघरू सागर हो। वह भारत मेरे मन को सदेव आनन्द देता रहे।

जो शिवि तथा दधीचि जैसे दानियों से सेवित रही है जो चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, विस्मिल जैसे लोगों के लिए प्रिय रहा है। जिसके लिए गाँधीजी ने अपना जीवन प्रदान कर दिया तथा प्राण सहित सर्वस्व दान कर के जिन्होंने अपने जीवन को कृतार्थ किया वह प्रिय भारत हमारे मन में सदैव आनन्द देता रहे।

स्वप्नदर्शी प्रजातंत्र के सम्पोषक विश्व के नेताओं के प्रिय पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, राजेन्द्र प्रसाद अब्दुल हमीद आदि महापुरुषों ने जन्म लेकर भारत को गौरवान्वित किया । वह प्रिय भारत मेरे मन में सदैव आनन्द देता रहे।

सैन्य दक्षता और विज्ञान प्रौद्योगिक क्षेत्र में विस्तार करने में अग्रणी जो सदैव रहा है। जहाँ के लोग श्रेष्ट राष्ट्र का चिन्तन करते हैं तथा जहाँ के लोग दिन-रात अपने श्रेष्ठ कर्म पर आरूढ़ रहकर हर्षित और खुशी दिखाई पड़ते हैं वह भारत मेरे मन में सदैव आनन्द देता रहे।

अभ्यास

प्रश्न: 1. भारत का विद्यां विस्तृतां कर्तुम अग्रेसरं वर्तते।

उत्तरम्- भारतं सैन्य दक्षतां विज्ञान-प्रौद्योगिकम् च क्षेत्रे विस्तृतां कर्तुम् अग्रेसरं वर्तते ।

प्रश्न: 2. महात्मा गाँधी किं कृत्वा स्वजीवनं कृतर्थी कृतवान् ?

उत्तरम्- महात्मा गाँधी महोदयः सप्राण सर्वस्वं दानं कृत्वा स्वजीवनं कृतार्थी कृतवान् ।

प्रश्न: 3. भारतस्य मेखलाः के सन्ति ?

उत्तरम् -भारतस्य मेखला: विन्ध्यपर्वतः गोदावरी गंगा च आदयः नद्यः सन्ति ।

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संस्कृत कक्षा 10 भारतभूषा संस्‍कृतभाषा ( भारत की शोभा संस्‍कृत भाषा है ) – Bharatbhusha sanskritbhasha in Hindi

Bharatbhusha sanskritbhasha

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 21 (Bharatbhusha sanskritbhasha) “ भारतभूषा संस्‍कृतभाषा ( भारत की शोभा संस्‍कृत भाषा है ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Bharatbhusha sanskritbhasha
Bharatbhusha sanskritbhasha

भारतभूषा संस्कृतभाषा
विलसतु हृदये हृदये ।
संस्कृतिरक्षा राष्ट्रसमृद्धिः
भवतु हि भारतदेशे।
श्रद्धा महती निष्ठा सुदृढ़ा
स्यान्नः कार्यरतानां
स्वच्छा वृत्तिर्नव उत्साहो
यत्नो विना विरामम् ।
न हि विच्छत्तिश्चित्तविकारः
पदं निधद्यस्ततम्
सत्यपि कष्टे विपदि
कदापि वयं न यामो विरतिम् ॥1॥

श्वासे भवासे रोमसु धमनिषु
संस्कृतवीणाक्वणनम्
चेतो वाणी प्राणाः कायः
संस्कृतहिताय नियतम् ।।
श्वसिमि प्राणिमि संस्कृतवृद्धयै
नमामि संस्कृतवाणीम्
पुष्टिस्तुष्टि: संस्कृतवाक्तः
तस्मादृते न किञ्चित् ॥2॥

नाहं याचे हारं मानं
न चापि गौरववृद्धिम्
नो सत्कारं वित्तं पदवीं
भौतिकलाभं कञ्चित् ।
यस्मिन् दिवसे संस्कृतभाषा
विलसेन्जगति समग्रे
भव्यं तन्महददभुतदृश्यं
काङ्गे वीक्षितुमाक्षु ॥ 3 ॥

अर्थ- संस्कृत भाषा भारत की शोभा बढ़ाने वाली है। यह हरेक भारतवासियों के हृदय में आनन्द प्रदान करता रहे। भारत देश में संस्कृति की रक्षा और राष्ट्र की समृद्धि हो । श्रेष्ठ श्रद्धा, सुदृढ़ निष्ठा हम सबों में हो, हमलोग कार्य में रत रहें। पवित्र हमारा पेशा हो, नवीन उत्साह हम सबों में हो। अविरल अपने कार्य में लगे रहें।

हममें मनोविकार पैदा न ले, निंदित कार्य के तरफ हमारा पैर न बढ़े । कष्ट में अथवा विपत्ति काल में भी हम सब सत्य से विचलित नहीं होवें। _हमारे प्रत्येक श्वास, प्रत्येक रोम और धमनियों में संस्कृतरूपी वीणा की झंकार होता रहे। हृदय, वाणी, प्राण शरीर सब प्रकार से हम संस्कृत के हित में सदैव लगे रहें। प्राण के श्वासों से प्रिय संस्कृत की वृद्धि के लिए लगा रहूँगा। संस्कृत वाणी को मैं प्रणाम करता हूँ। संस्कृत बोलने वालों की वृद्धि ही संतुष्टी हो । संस्कृत के जैसा कोई नहीं है।

मैं न मान की इच्छा रखता हूँ, न गौरव वृद्धि की इच्छा करता हूँ। नहीं सत्कार, नहीं धन, नहीं पदवी और न कोई भौतिक लाभ की इच्छा रखता हूँ। जिस दिन संस्कृत भाषा सम्पूर्ण संसार में दिखाई पड़ेगा उस दिन इस संसार में अद्भुत दृश्य देखने को मिलेगा जो कभी नहीं आँखों से देखा गया है।

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संस्कृत कक्षा 10 समयप्रज्ञा ( समय की पहचान ) – Samaypragya in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 20 (Samaypragya) “ समयप्रज्ञा ( समय की पहचान ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Samaypragya
Samaypragya

कश्चन गामः आसीत् । तत्र कश्चन युवकः आसीत् । तस्य नाम दुर्गादासः । सः बुद्धिमान् ।
एकदा सर्वे ग्रामीणाः रात्री निद्रायां मानाः आसन् । तदा कृतश्चित् ‘चोरः चोरः’ इति आक्रोशध्वनिः श्रुतः । सर्वेऽपि ग्रामीणा: तत् श्रुत्वा त्वरया उत्थाय लवित्रं, दण्डः-इत्यादीनि आयुधानि स्वीकृत्य यतः ध्वनिः श्रुतः तत्र समायाताः।।

तत्र दुर्गादासं दृष्ट्वा सर्वे-“चोरः कुब अस्ति ? “इति पृष्ठवन्तः । दुर्गादासः समीपे स्थितं न्यग्रोध-वृक्षं दर्शितवान् । सर्वे न्यग्रोवृक्ष परितः तथा स्थितवन्तः यथा चोरः कुत्रापि घावितुं न शक्नुयात्।।

चन्द्रस्य प्रकाशे कोऽपि चोरः न दृष्टः । किन्तु तत्र वृक्षमूले कश्चन व्याघ्रः आसीत् । सः लंघनं कृत्वा तत: धावितुम् उद्युक्तः आसीत् । तदा एव तेषु जनेषु अन्यतमः, “केभ्यश्चित् दिनेभ्यः पूर्वम् अन्धकारे एकः जनः अनेन एव मारितः । अपरः प्रण्धिातः कृतः । एषः अवश्यं मारणीयः” इति उक्तवान्।
अनुक्षणमेव जनाः तुदपरि पाषाणखण्डान् क्षिप्तवन्तः । सः व्याघ्रः वृक्षमूलतः कर्दनम् अकरोत् । सर्वे मिलित्वा लवित्रैः दण्डैश्च ताडयित्वा तं व्याघ्र मारितवन्तः ।
अनन्तरं जनाः दुर्गादासं दृष्ट्वा-“किं भोः ! नरमांसभक्षकः व्याघ्रः आगतः । भवान् तु ‘चौरः चोरः’ इति किमर्थम् आक्रोशं कृतवान् ?” इति पृष्टवन्तः।।

दुर्गादासः मन्दहासपूर्वकं— “यदा अहं ‘चोरः चोरः’ इति आक्रोशं कृतवान् तदा भवन्तः सर्वे आयुधैः सह गृहात् बहिः आगतवन्तः । पर यदि अहं ‘व्याघ्रः व्याघ्रः’ इति आक्रोशम् अकरिष्यं तर्हि किं भवन्तः सर्वे आगमिष्यन् ? गृहद्वारणि सम्यक कीलयित्वा अन्तः एव अस्थास्यान् । अतः एव अहं ‘चोरः चोरः’ इति अक्रुष्टवान्” इतिज उक्तवान् ।सर्वे जनाः दुर्गादासस्य समयप्रज्ञा प्लाधितवन्तः ॥

अर्थ : कोई गाँव था। वहाँ एक युवक था। उसका नाम दुर्गा दास था । वह बुद्धिमान था।

एक दिन सभी ग्रामीण रात में निद्रा में मग्न थे। तब कहीं से चोर-चोर की आवाज सुनाई पड़ी। सभी ग्रामवासी उसको सुनकर शीघ्रता से उठकर लम्बे-लम्बे डण्डे इत्यादि हथियार लेकर जिधर की आवाज सुने थे वहाँ आ गये।।

वहाँ दुर्गादास को देखकर सबों ने कहा-चोर कहाँ है ? ऐसा पूछा । दुर्गादास निकट के बरगद वृक्ष को दिखाया । सभी बरगद पेड़ के चारों ओर इस प्रकार से खड़े हो गये जिससे चोर की भी भाग नहीं सकता था।

चन्द्रमा के प्रकाश में कोई चोर नहीं दिखाई पड़ा। किन्तु उस पेड़ की जड़ में कोई बाघ था। वह उठकर भागने के लिए तैयार था। तभी उसमें से एक व्यक्ति ने कहा- कुछ दिन पहले अन्धकार में एक आदमी को इसी ने मार दिया। दूसरे को घायल कर दिया। इसको अवश्य मारना चाहिए। उसी समय लोगों ने उसके ऊपर पत्थर के टुकड़े फेंकने लगे । वह बाघ पेड़ की जड में कुदने लगा । सबों ने मिलकर भाले और डण्डे से पीटकर उस बाघ को मार दिया। इसके बाद लोगों ने दुर्गादास को देखकर पूछा— क्यों! नर मांसभक्षी बाघ आया लेकिन तुमने चोर-चोर करके क्यों हल्ला किया?

दुर्गादास धीरे से मुस्कुराते हुए बोला— जब मैं चोर-चोर कहकर हल्ला किया तब आप लोग सभी हथियार के साथ घर से बाहर आये । लेकिन यदि मैं बाघ-बाघ कहकर हल्ला करता तो क्या आप लोग आते ? घर के दरवाजे को सही ढंग से बंद कर भीतर ही रह जाते । इसीलिए मैंने चोर-चोर कहकर हल्ला किया। सभी लोगों ने दुर्गादास की समय पर बुद्धि के प्रयोग की प्रशंसा की।

अभ्यास

प्रश्न: 1. के व्याघ्रं मारितवन्तः?

उत्तरम्– ग्रामीणजना; व्याघ्रं मारितवन्तः ।

प्रश्न: 2. समयप्रज्ञा पाटेन का शिक्षा प्राप्यते।

उत्तर—अनेन पाटेन शिक्षा प्राप्यते यत् समये बुद्धिमता प्रदर्शने कार्यसिद्धिः भवति ।

प्रश्न: 3. क: “चोरः चोरः” इति आक्रोशं कृतवान् ?

उत्तरम् – दुर्गादास: चार: चारः इति आक्रोशं कृतवान् ।

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संस्कृत कक्षा 10 जागरण-गीतम् ( जागरण-गीत ) – Jagran Gitam in Hindi Class 10

Jagran Gitam

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 19 (Jagran Gitam) “ जागरण-गीतम् ( जागरण-गीत ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Jagran Gitam
Jagran Gitam

जागृष्व उत्तिष्ठ तत्परो भव
         ते लक्ष्यमार्ग आवाहयति ।
लोकोऽयं सहसा प्रेरयति ।
         भेरी नादम् उच्चारयति ।
सत्यं, ध्येयं दूरऽस्माकं,
         साहसमपि नहि न्यूनम् अस्ति ।
सङ्गे मित्राणि बहूनि पथि,
         चरणेषु तथाडूगदबलमस्ति ।
भस्मीकर्तुम् स्वर्णिम लङ्का,
         स अग्नियुतस्तु समायाति ॥
प्रतिपदं कण्टकाकीर्ण वै,
         व्यवहारकुशलता अस्मासु ॥
विजयस्य च दृढविश्वासयुता,
         निष्ठा कर्मठता अस्मासु ।
विजयि पूर्वज जनपरम्परा,
         बहुमूल्यधना तु सा जयति ।
अनुगा वै सिंह शिवस्य वयं
         राणाप्रतापसम्मानधनाः ।
संघटनतन्त्रे शक्तिस्तन्त्र,
         वैभवचित्रं तु विभूषयति ॥

अर्थ : जागो, उठो, तत्पर हो तुम्हारा लक्ष्य मार्ग पर आह्वान कर रहा है।

यह संसार तुमको सहसा प्रेरित कर रहा है युद्ध के नगारे अपना आवाज दे रहे है।

यह सत्य है कि हमारा लक्ष्य दूर है परन्तु साहस भी कम नहीं है।

रास्ते में बहुत मित्र संग भी हैं तथा पैरों में वैसा बल भी है।

स्वर्णिम लंका को भस्म करने के लिए वह आग भी साथ है।

पग-पग काँटे बिछे हैं पर ये मेरे पैर व्यवहार कुशल हैं और विजय का दृढ विश्वास लिये है निष्ठा और कर्मठता भी हमारे साथ है।

विजयी पूर्वज लोगों की परम्परा बहुमूल्य धन है जो जय प्रदान करती है।

हमलोग शिव के सिंह के अनुचर हैं और राणा प्रताप के सम्मान से धनी हैं। जहाँ संगठन है वही शक्ति है, यह विचित्रता रूपी वैभव से परिपूर्ण है।

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संस्कृत कक्षा 10 सत्‍यप्रियता ( सत्‍य का प्रिय ) – Satyapriyta in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 18 (Satyapriyta) “ सत्‍यप्रियता ( सत्‍य का प्रिय ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Satyapriyta
Satyapriyta

18. सत्‍यप्रियता

विधानचन्द्ररायः श्रेष्ठः राजनीतिज्ञः चिकित्कश्च आसीत् । भारतरत्नबिरुदभाक्सः पश्चिमबङ्गालस्य मख्यमंत्री आसीत । अत्यन्तं बद्धिमान स: छात्रदशायां प्रत्येक परीक्षायाम् अपि प्रथमस्थानं प्राप्नोति स्म । परं च एकदा सः महाविद्यालये परीक्षायाम् अनुत्तीणः जातः । सः प्रसङ्गः अस्ति-

एकदा विधानचन्द्रः महाविद्यालयस्य मुख्यद्वारस्य पुरतः स्थितवान् आसीत् । तस्मिन् समये एव महाविद्यालयस्य प्राचार्य: स्वीयं यानं चालयन् महाविद्यालयम् आगच्छन् आसीत् । प्राचार्यः अजागरूकमतया वाहनं चालितवान्, येन मार्गे गच्छतः एकस्य पथिकस्य घट्टनं कृतं तस्य यानेन । सः पथिकः आहतः भूत्वा भूमौ पतितः । दैवकृपया तस्य प्राणा: रक्षिताः।

तदा एव तत्र आगतः आरक्षकः प्राचार्यस्य विरुद्धं प्रकरणं पजीकृतवान् । विधानचन्द्रः प्राचार्यस्य एव विद्यार्थी । अस्याः घटनायाः प्रत्यक्षदर्शी सः एकः एव आसीत्। ‘मदीय छात्रः मम विरुद्धं न्यायालये साक्ष्यं न वदिष्यति’ इति प्राचार्यस्य दृढः विश्वासः आसीत् । परं विधानचन्द्रः न्यायालये सत्यमेव अवर्णयत् । तेन न्यायाधीशः प्राचार्य दण्डितवान् । प्राचार्यः क्रुद्धः जातः । तस्य मनसि विधानचन्द्रस्य विषये दुर्भावना उत्पन्ना।

तस्मिन् वर्षेऽपि वार्षिकपरीक्षायां विधानचन्द्रेण उत्तराणि सम्यक् एव लिखितानि । परं सः न्यूनान् अङ्कान् प्राप्तवान् । परीक्षायाम् अनुत्तीर्णश्च जातः । विधानचन्द्रः एतस्य कारणं ज्ञातवान् । तथापि सः तस्मिन् विषये किमपि न उक्तवान् । अनन्तवरचे पुनरपि परीक्षा लिखित्वा उत्तमैः अर उत्तीर्णः जातः।
प्राचार्यः विधानचन्द्रम् आहूय प्रोक्तवान्-“विगते वर्षे भवान् परीक्षायाम् असफलतः जातः । एतस्य कारणं जानाति किम् ? इति ।

“आम, जानामि । विगते वर्षे न्यायालये मया सत्यवचनम् उक्तम भवान् क्रुद्धः जातः । मां न्यूनान् दत्तवान् । अतः अहम् अनुतण: जातः । भवतु नाम । सत्यप्रियतायाः रक्षणे एकस्य वर्षस्य हानिः न महति” इति।

एतत् श्रुत्वा सः प्राचार्य: नितरां विस्मितः जातः । स्वस्य छात्रस्य पुरतः स्वयमेव लज्जितश्च अभवत् ।

अर्थ (Satyapriyta) : विधानचन्द्र राय श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ और चिकित्सक थे। भारतरत्‍न से विभूषित वे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे थे। अत्यन्त बुद्धिमान वे छात्र जीवन में प्रत्येक परीक्षा में प्रथम स्थान पाते थे। लेकिन एक बार वे महाविद्यालय परीक्षा में फेल हो गये। वह कहानी ऐसी है –

एक बार विधानचन्द्र महाविद्यालय के प्रवेश द्वार के सामने खडे थे। उसी समय ही कॉलेज के प्राचार्य अपनी गाड़ी चलाते हुए कॉलेज आये थे। प्राचार्य सही ढंग से वाहन नहीं चला रहे थे

जिसके कारण रास्ते पर जाते हुए एक राही को धक्का मार दिया गया उनके यान के द्वारा राही जमीन पर घायल होकर गिर गया। भाग्य से उसका प्राण बच गया।
उसी समय वहाँ सिपाही आया और प्राचार्य के विरुद्ध केस लिख लिया। विधानचन्द्र प्राचार्य के ही विद्यार्थी थे। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी (गवाह) वह ही एक थे। “मेरा छात्र मेरे विरूद्ध कोर्ट में गवाही नहीं देगा। ऐसा प्राचार्य को दृढ विश्वास था। लेकिन विधानचन्द्र ने न्‍यायालय में सही-सही कह दिया जिससे न्यायाधीश ने प्राचार्य को दण्डित किया। प्राचार्य गुस्सा हो गये। उनके मन में विधानचन्द्र के विषय में दुर्भावना उत्पन्न हो गयी। उस वर्ष में भी वार्षिक परीक्षा में विधानचन्द्र के द्वारा उत्तर सम्यक् ही लिखे गये। परन्‍तु वे कम अंक प्राप्त किये तथा परीक्षा में फेल हो गये। विधानचन्द्र इसका कारण भी जान गये। इसके बाद भी वे उस विषय में कुछ नहीं बोले । दूसरे वर्ष पुनः परीक्षा में लिखकर उत्तम अंक से उत्तीर्ण हुए।

प्राचार्य विधानचन्द्र को बुलाकर कहा- “विगत वर्ष में आप परीक्षा में असफल रहे। कारण जानते हो क्या?

“हाँ जानता हूँ। विगत वर्ष में न्यायालय में मेरे द्वारा सत्य वचन बोला गया, जिससे गस्सा हो गये। मझे कम अंक दिये जिससे मैं फेल हो गया। यह आपका काम था। सत्यप्रियता की रक्षा करने में एक वर्ष की हानि कोई बड़ी हानि नहीं है। यह सुनकर वह प्राचार्य अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया। अपने ही छात्र के सामने वह स्वयं ही लज्जित हो गया।

अभ्यास

प्रश्नः 1. विधानचन्द्र रायः कः आसीत् ?

उत्तरम्- विधानचन्द्र रायः श्रेष्ठः राजनीतिज्ञः चिकित्सकः च आसीत् ।

प्रश्न: 2. अयं कीदृशः छात्र: आसीत् ?

उत्तरम्- अयं बुद्धिमान् सत्यप्रियः मेधावी च छात्रः आसीत् ।

प्रश्न: 3. विधानचन्द्र रायस्य प्राचार्यः कथं लज्जितः अभवत् ?

उत्तरम्- विधान चन्द्ररायस्य सत्यप्रियता बुद्धिमता च कारणात् सः लज्जितः अभवत् ।

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संस्कृत कक्षा 10 राष्‍ट्रस्‍तुति ( राष्‍ट्र की प्रार्थना ) – Rastrastuti in Hindi

Rastrastuti

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 17 (Rastrastuti) “ राष्‍ट्रस्‍तुति ( राष्‍ट्र की प्रार्थना ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Rastrastuti

17. राष्‍ट्रस्‍तुति

     अखण्ड राष्ट्रदेवं स्वं, नमामो भारतं दिव्यम् ।
नगेन्द्रः सैनिको भूत्वा, बलिष्ठो विस्तृतताकार ।
अरिभ्यो दुष्टवायुभ्यः, स्वदेशं त्रायते नित्यम् ॥ अखण्डं ….
  

  त्रिवृत्तः सागरः शिष्टो, विनीतः सेवको भूत्वा ।
    पदप्रक्षापालनं कुर्वन्, विधत्ते वन्दनं पुष्पम् ॥ अखण्डं ……

वहन्त्यः स्नेहजलधाराः, सुनद्यः मातृका भूत्वा।
स्ववान् पालवन्त्यस्ताः ददत्यः श्यामलं शश्यम् । अखण्डं…..

    समधिकः स्वर्गतो रम्यः, स्वभारतवर्ष भूभागः ।
    निवास कर्तुमिच्छन्तः, सुदेवाः सन्ति यत्रत्यम् ।। अखण्डं……

प्रथमतो ज्ञानदीपो चैः, प्रज्वलितो भारतीयास्ते।
जगद्गुरवो हि संपूज्या, तदनु शिक्षितमहो विश्वम् ।। अखण्ड …….
  

  किमधिकं भाषणं कुर्मः, स्वदेश ! त्वत्कृते नूनम् ।
    महत्पुण्येन हि लब्धं, स्जन्म भारते धन्यम् ॥ अखण्ड……

अतः प्राणार्पणं कृत्वा, तथा सर्वस्वमपि हित्वा ।
सुरक्ष्यं भारतं श्रेष्ठं, स्वराष्ट्र दैवतं नित्यम् ॥ अखण्डं ….

अर्थ- अपने श्रेष्ठ राष्ट्ररूपी देवता अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं। विस्तृत आकार वाला बलवान हिमालय सैनिक बनकर दुश्मनों और गन्दी हवाओं से अपने देश को सदैव बचाता है। उस श्रेष्ठ राष्ट्ररूपी देवता अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।

शिष्ट और विनम्र सेवक बनकर सागर तीन ओर से जिसका पैर प्रक्षालन कर रहा है तथा पुष्प और वन्दना से पूजित होने वाला श्रेष्ठ राष्ट्रारूपी देवता, अखण्ड-भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।

अच्छी-अच्छी नदियाँ माताएं बनकर अपने स्नेहरूपी जलधारा के साथ बहती हैं वे अपने पुत्रों की हरी-हरी फसल देकर पालन करती हैं। जहाँ उस श्रेष्ठ राष्ट्ररूपी देवता अपने अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।

स्वर्ग से भी जो अधिक रमणीय है अपना भारतवर्ष का भू-भाग । यहाँ अच्छे-अच्छे देवता लोग भी निवास करना चाहते हैं। हमलोग अपने राष्ट्रदेव, अखण्ड, श्रेष्ठ भारत को प्रणाम करते हैं।

वे भारतीय लोग थे जिन्होंने सबसे पहले ज्ञान के दीप को जलाया तथा जगद् गुरु के तरह पूजित हुए । सारा संसार इसका अनुकरण कर सिख लिया। उस श्रेष्ठ राष्ट्रदेव अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।

हे मेरे देश । आपके लिए मैं अधिक क्या कहूँ। अवश्य हम धन्य हैं जो बहुत बड़ी पुण्य प्रभाव से भारत में अपना जन्म प्राप्त किया है। उस श्रेष्ठ राष्ट्रदेव अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।

अतः प्राण को न्योछावर कर तथा अपना सब कुछ त्याग कर भी अपने श्रेष्ठ राष्ट्र देवता भारत को सदैव सुरक्षित रखुँगा। श्रेष्ठ राष्ट्रदेव अखण्ड भारत को हमलोग प्रणाम करते हैं।

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संस्कृत कक्षा 10 कन्‍याया: पतिनिर्णय: ( पति के लिए कन्‍या का निर्णय ) – kanyaya patinirnirnay in Hindi

kanyaya patinirnirnay

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 16 (kanyaya patinirnirnay) “ कन्‍याया: पतिनिर्णय: ( पति के लिए कन्‍या का निर्णय ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

kanyaya patinirnirnay

                               kanyaya patinirnirnay

कस्मिंश्चित् ग्रामे कश्चन् पण्डितः निवसति स्म । तस्मिन् ग्रामे सः सर्वमान्यः आसीत् । तस्य एका सर्वगुणसम्पन्ना कन्या आसीत् । आशैशवात् अतीव स्नेहसमादरसहिततया सा वर्धिता आसीत् । क्रमशः तस्याः वयोवृद्धिः अभवत् । तस्याः परिणयार्थं बहवः प्रस्तावाः आगताः । किन्तु उच्याकाक्षिणी सा कन्या प्रतिज्ञाबद्धा आसीत् यत् सर्वे यं प्रशंसन्ति यैश्च शक्तिशाली भवति, तमेव अहं वणोमि इति ।

एकदा तस्य राजस्य महाराजः हस्तिपृष्ठं समारुहय तदग्रामाभ्यन्तरं समागतः । पण्डितल्य कन्या राजानम् अपश्यत् । समीपस्थाः सर्वे ग्रामवासिनः तत्र आगत्य राजानं नमस्कृतवन्तः ।

उच्चाकाक्षिणी सा कन्या ज्ञातवती यद् राजा एव महाशक्तिशाली न्यायवांश्च इति । अतः सा मानसि एव तं पतिम् अचिन्तयत् ।

यदा महाराजः स्वकर्तव्यं समाप्य हस्तिपृष्ठं समारूहय राजधानी प्रत्यगच्छत् तदा कन्या अषि तम् अनुसृत्य गतवती । पथि महाराजः स्वस्य गुरुम् अपश्यत् । सः गुरुः साधुवषम आसीत् । तं दृष्ट्वा राजा सहसा हस्तिपृष्ठाद् अवतीर्य सद्गुरो चरणस्पर्शम् अका पण्डितस्य कन्या एतत् दृष्ट्वा अचिन्तयत् यद वस्तुतः राजा नैव सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिः तदा तम्य गुरुः एव श्रेष्ठः अस्ति, यः साधुवेषधारी इति। अतः सा राजानं विहाय अनुसरणं कुर्वती वनं गतवती । किञ्चिदरं गतौ तौ शिवमन्दिरम् एकं प्रविष्टवन्त महादेवस्य मूर्तः पुरतः साधुगुरुः दण्डवत् प्रणामम् अकरोत् । पण्डितकन्या एतद् १ चिन्तिावती यत् साधोरपि परतरः अस्ति देवतधिदेवः अयं महादेवः शिवः इति ।

अतः सा महादेवमेव पतिं भावयन्ति तस्मिन एव मन्दिो वासं कृतवती । किञ्चित कश्चन् कुकुरः तत् मन्दिरम् आगत्य महादेवस्य परतः स्थापितं नैवेदयं तस्य । प्रसादं च खादितवान्।

एतत् दृष्ट्वा पण्डितस्य कन्या अचितन्यत् यत् एषः कुक्कुरः एव महादेवात् अपि श्रेष्ठः, भगवतः महादेस्य विषये अन्यः को वा एतादृशं व्यवहारं कर्तुं समर्थः स्यात् इत । अतः सा मन्दिरवासं परित्यज्य तं कुक्कुर अनुसृतवती । सः कुक्कुरः तु धावन् गत्या कस्यचिद् ग्रामस्य पण्डितस्य गृहं प्रविचष्टवान्। पण्डितस्य सुकुमारः तरुणः पुत्रः गृहस्य पुरत: पीठस्य उपरि उपविश्य चिन्तारतः आसीत् । कुक्कुरः तस्य पाश्वं गत्वा सस्नेह तस्य पादलेहनम् आरब्धवान् एतद् दृष्ट्वा पण्डितस्य पुत्री चिन्तितवती यत् पण्डितस्य युवकपुत्रः एव यतावता मया दृष्टेभ्यः सर्वेभ्यः अपि श्रेष्ठः । अतः एषः एव मम पति भवितुं योग्यः अस्ति इति।

अन्ततोगत्वा पण्डितस्य पुत्रेण सह तस्याः पण्डितकन्यायाः परिणयः अभवत् । एवम् उच्चाकाक्षिण्याः तस्याः कन्यायाः मनसः इच्छा परिपूर्णतां गता । सा सुखेन दीर्घकालं यावत् जीवनम् अयापयत्।

अर्थ- किसी गाँव में कोई पंडित रहता था। उस गाँव में वह सर्वमान्य था । उसको सर्व गुण सम्पन्न एक कन्या थी। बचपन से ही स्नेह और समादर भाव से वह बढ़ी थी । क्रम से उसका उम्र बढ़ा। उसकी शादी के लिए अनेक प्रस्ताव आये। किन्तु उच्च आकांक्षा वाली वह कन्या प्रतिज्ञाबद्ध थी कि सभी जिसकी प्रशंसा करेगा और जो शक्तिशाली होगा उसी को वरण करूंगी।

एक दिन उसके राज्य का महाराजा हाथी पर चढ़कर उस गाँव में आया । पण्डित की कन्या ने राजा को देखी। समीप में स्थित सभी ग्रामवासियों ने वहाँ जाकर राजा को नमस्कार किया।

उच्‍च आकांक्षा वाली वह कन्या समझी कि- राजा ही महाशक्तिशाली और न्यायवान हैं। अतः वह मन में ही उसको पति मान ली।
जब महाराज ने अपना काम समाप्त कर हाथी पर चढ़कर राजधानी की ओर लौटे, तब कन्या भी उनके पीछे-पीछे गई। रास्ता में महाराज ने अपने गुरु को देखा। वह गुरु साधुवेशधारी थे। उनको देखकर राजा जल्दी में हाथी के पीठ पर से उतरकर सद्गुरु के चरण स्पर्श किये । पण्डित की कन्या यह देखकर सोची कि— वस्तुतः राजा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति नहीं है उसकी अपेक्षा उसका गुरु ही श्रेष्ठ है। जो साधुवेश धारण किये हुए हैं। अत: वह राजा को छोड़कर साधु के पीछे पीछे चलती हुई वन में गई। थोड़ा दूर जाने पर एक शिव मंदिर में दोनों प्रवेश कर गये। वहाँ महादेव की मूर्ति के सामने साघु गुरु ने दण्डवत् प्रणाम किया। पण्डित कन्या यह देखकर सोची कि साधु से भी बढ़कर है यह देवताओं के देवता महादेव शिव।

अतः वह महादेव को ही पति मानकर उसी मंदिर में वास करने लगी। कुछ समय के बाद कोई कुत्ता उस मंदिर में आकर महादेव के सामने रखा हुआ नैवेद्य और उसके समीप स्थित प्रसाद भी खा लिया।

यह देखकर पण्डित की कन्या सोची कि— यह कुत्ता महादेव से भी श्रेष्ठ है। भगवान महादेव के विषय में अन्य कौन ऐसा व्यवहार करने में समर्थ हो सकता है।
इसके बाद वह मंदिर में रहना छोड़कर उस कुत्ता के पीछे-पीछे चलने लगी। वह कुता दौड़ता हुआ किसी गांव के पण्डित के घर में प्रवेश कर गया।

पण्डित का सुकुमार नवयुवक पुत्र घर के आगे पीढ़ा पर बैठकर चिन्ता में लगा था। कुत्ता उसके समीप जाकर स्नेह से उसका पैर चाटने लगा। यह देखकर पण्डित की कन्या सोची कि पण्डित का युवक पुत्र ही इन सबों में मेरे दृष्टि से श्रेष्ठ है । इसलिए यह ही मेरा पति होने योग्य है।’    अंत में जाकर पण्डित के पुत्र के साथ उस पंडित की कन्या का विवाह हुआ । इस प्रकार ऊँची आकांक्षा रखने वाले उस कन्या की मनोइच्छा पूरी हुई। वह सुख से लम्बे समय तक जीवन-यापन करने लगी।

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संस्कृत कक्षा 10 जयतु संस्‍कृतम् ( संस्‍कृत की जय हो ) – Jaytu Sanskritam in Hindi

Jaytu Sanskritam

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 15 (Jaytu Sanskritam) “ जयतु संस्‍कृतम् ( संस्‍कृत की जय हो )” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Jaytu Sanskritam
Jaytu Sanskritam

जयतु संस्कृतं जयतु संस्कृतम् संस्कृता सुरभारती या, देशगौरवकारिणी वन्दनीया सेवनीया सर्वदा हितकारिणी। जगति विश्रुतं तदिह संस्कृतम्, जयतु ………

लोकवेदमयी सुभाषा, रागताललयान्विता, या चतुः पुरुषार्थदा सा, साधयत्युपयोगिताः

चरतु संस्कृतं पठतु संस्कृतम् । जयतु ……..

विश्वमानवधर्मभावम्, एकतां खलु भारते, वस्तुतः परिरक्षितुं सा, योग्यता भुवि संस्कृते । अवतु संस्कृतं लसतु, संस्कृतम् । जयतु …..

संस्कृतं सरलं सुबोध, नैव कठिनं वर्तते,
भाषणं द्रुतलेखनं वा, शीघ्रमेवागम्यते।
सुगमतसंस्कृतं सरलसंस्कृतम्।
जयतु संस्कृतं जयतु संस्कृतम् ॥

अर्थ – संस्कृत भाषा को जय हो, संस्कृत की जय हो जो शुद्ध है तथा सुरभारती कहलानेवाली, देश को गौरवशाली करनेवाली, हित करने वाली संस्कृत सदैव वंदनीय और सेवनीय है। संसार में विख्यात है। यह संस्कृत । संस्कृत भाषा की जय हो, जय हो

संस्कृत भाषा संसार में वेदमयी है। सुभाषा है, राग, ताल और लय से अन्वित है। जो भाषा पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म-अर्थ काम मोक्ष) को देनेवाली है। वह उपयोगिता को प्रदान करनेवाली है। संस्कृत का आचरण करें, संस्कृत को पढ़ें। संस्कृत भाषा की जय हो।

विश्व में मानव धर्म भाव को कायम करने वाला, भारत में एकता स्थापित करने वाला, वास्तविकता की रक्षा करने के लिए वह योग्य है । पृथ्वी पर संस्कृत में आदान-प्रदान हो, संस्‍कृत का प्रसार हो। जय हो संस्कृत भाषा की।

संस्कृत सरल है, सुबोध है, कठिन नहीं है। बोलना तथा शीघ्रता से लेखन की क्रिया शीघ्र ही आ जाती है। संस्कृत सुगम है, संस्कृत सरल है । संस्कृत की जय हो, जय हो. संस्‍कृत भाषा की।

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संस्कृत कक्षा 10 वणिज: कृपणता ( व्‍यापारी की कंजूसी ) – Vanij kripanta in Hindi

Vanij kripanta

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 14 (Vanij kripanta) ” वणिज: कृपणता ( व्‍यापारी की कंजूसी ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Vanij kripanta
Vanij kripanta

कस्मिंश्चत् ग्रामे कश्चन् वणिक् आसीत् । सः अतीव कृपणः ।
कदाचित् सः वाणिज्यनिमित्तं पावस्थं नगरं गतवान् आसीत् । तत्र वाणिज्यं समाज्य गृहं प्रत्यागतः सः यदा स्वस्य कोष्णं पश्यति तदा तेन ज्ञातं यत् तत्र स्थापितः धनस्यूत: एव न आसीत् । तस्मिन् दिने वाणिज्यतः प्राप्रानि चतुस्सहस्ररूण्वकाणि तत्र आसन् । सः सम्यक् स्मृप्तवान् यत् ग्रामप्राप्तिपर्यन्तमपि कोषे स घनस्यूतः आसीदेव इति । अतः ग्रामे एवं सः पतितः केनापि प्राप्तः स्यात् इति । सः ग्रामप्रमुखस्य समीपं गत्वा तं निवेदितवान् यत् एतद्विषये ग्रामे घोषणा कारणीय इति।

तदनुसार ग्रामे सडिण्डिमं घोषणा कारित । यत् ‘यः तं धनस्यूतम अन्यिष्य आनीय ददाति तस्मै चतुश्शतं रूप्यकाणि पारितोषिकरूपेण दीयो’ इति।

संयोगेन काचित् वृद्धा तं धनस्यूतं प्राप्तवती आसीत् । किन्तु भीता सा चिन्तिवती यत् यदि एतं विचारम् अन्यान् वदामि तर्हि जनाः मया एव चौर्यं कृतम् इति चिन्यन्ति इति । तदा एव सा घोषणां श्रुतवती । निश्चिन्तभावेन ग्रामप्रमुखस्य समीपं गत्वा तस्मै धनस्यूतं समर्पितवती । उक्तवती च यत् “देवालयतः आगमनमार्गे मया एषः घनस्यूतः प्राप्तः । मया अत्र किमस्ति इत्यपि न दृष्टम् । घोषणां श्रुत्वा झटिति आगतवती अस्मि । एतस्य स्वामिने एतं ददातु इति ।

ग्रामप्रमुखः तस्याः सत्यनिष्ठया सन्तुष्टः अभवत् । सः वृद्धाम् अभिननद्य तं वणिजम् आनेतुं सेवकं प्रेषितवान्। एतां वार्ताः ज्ञात्वा नितरां सन्तुष्टः वणिक् धावन् एव तत्र आगतवान्।

तस्मै स्यूतं समर्पयन् ग्रामप्रमुखः अवदत्-“एषा महोदया धन्यवादाऱ्या । इदानीं भवदीय कर्तव्यम् अस्ति यत् एतस्यै चतुश्शतरूण्यकाणि दातव्यानि इति ।
एतत् श्रुत्वा कृपण: चिन्तिवान् – “मदीयं धनं प्राप्तमेव । तन्मध्ये ना कुतः दातव्यानि ……..?केनापि उपायेन तानि अपि सञ्चिनोमि इति।

तस्य मनसि एकः उपायः स्फुरितः । सः तं धनस्यूत उद्धाटय मते गणितवान् । अनन्तरम् उक्तवान् यत्-अस्मिन् धनस्यूते चतुश्शताधिकचतुस्‍सहस्‍त्ररूप्‍यकाणि आसन्। इदानीं तु चतुस्सहस्त्ररूण्यकाणि एव सन्ति । आवयम् एतया न रूण्यकानि स्वीकृतानि सन्ति । उपायनराशिं सा स्वयमेव स्वीकृतवती अस्ति इति।

वणिजः मिथ्यारोपेण हतप्रभा जाता सा वृद्धा। दुःखेन सा उक्तवती” असत्यं वदामि । धनस्यूतः न मया उद्घाटितः । यदि तत् धनं चोरणीयम इति पर तर्हि किमर्थम् अत्र आगत्य धनस्यूतं दद्याम् ……..” इति।
ग्रामप्रमुखः ज्ञातवान् यत् ‘अयं वणिक् न केवलं कृपणः, अपित असर अपि’ इति । अतः सः किञ्चित् वचिन्त्य उक्तवान्-“भवता पूर्वमेव वक्तव्यमा अन्नस्यूते 4,400 रूपण्काणि आसन् इति” इति ।
वणिक् उक्तवान्- “अहं विस्मृतवान् तदा” इति । एतत् श्रुत्वा ग्रामप्रमुख: कोन “एवं चेत् भवान् अस्य धनस्यूतस्य स्वामी नैव । अद्य एव ममापि धनस्यतः नष्टः । तत्र तु 4000 रूप्यकाणि एव आसन् । अतः एषः मम एव धनस्यूतः” इति उक्त्वा तं धनमा स्वीकृतवान् ।

स्वीयया: दुराशया प्राप्तमपि धनं पुनः हस्तच्युतं ज्ञात्वा सः लुब्ध वणिक विलापम् अकरोत्।

 

अर्थ : किसी गाँव में कोई बनिया था। वह अत्यन्त कंजूस था।
कभी वह व्यापार के लिए निकट के नगर में गया था। वह व्यापार समाप्त कर लौट गया। वह जब अपने खजाना को देखता है तो उसे लगा कि वहाँ रखा हुआ धन का थैला ही नहीं है। उस दिन व्‍यापार से प्राप्त चार हजार रुपये उसमें थे। वह याद किया गाँव में आने तक खजाना में वह थैला था ही। अतः गाँव में ही वह गिर गया है। कोई पाया होगा। वह गाँव के प्रधान के समीप जाकर उससे निवेदन किया कि- इस बारे में गाँव में घोषणा करवायी जाय।

उसके अनुसार गाँव में ढोल के साथ घोषणा की गयी कि- “जो उस थैला को खोजकर लाकर देगा उसको चार सौ रुपये इनाम के रूप में दिया जायेगा।”
संयोग से कोई बुढ़िया उस थैला को पाई थी। किन्तु डरी हुई वह सोची कि- यदि यह बात अन्य से कहती हूं तो लोग समझेंगे कि- मेरे द्वारा ही चराया गया है। उसी समय वह घोषणा सुना। निश्चिंत भाव से ग्राम प्रमुख के समीप जाकर उसको थैला दे दी और बोली कि- “देवालय से आगमन समय रास्ते में मैंने इस थैला को पाई है। इसमें क्या है मैंने देखी भी नहीं। घोषणा सुनकर जल्दी में आ गई हूँ। इसके मालिक को यह दे दें।

ग्राम प्रमुख उसकी सत्यनिष्ठा से संतुष्ट हो गया। वह बुढि़या को अभिनन्दन कर उस व्यापारी को लाने के लिए सेवक को भेजा। यह समाचार जानकर अत्यन्त खुश होकर बनिया दौड़ता हुआ वहाँ आ गया । उसको थैला देते हुए ग्राम प्रमुख ने कहा “यह महोदया धन्यवाद के पात्र है समय आपका कर्तव्य है कि इनको चार सौ रुपये दें।
यह सुनकर कंजूस ने सोचा… “मुझे धन तो मिल ही गया। इसमें से चार सौ रुपये क्‍युँ दुँ क्या कोई उपाय सोचता हूँ।”

उसके मन में एक उपाय आया । वह उस थैला को खोलकर सबों के सामने धन की गिनती की। उसके बाद बोला कि इस थैले में चार हजार चार सौ रुपये थे। इस समय चार हजार ही हैं। अवश्य इसी बुढि़या के द्वारा ही वह रुपय निकाले गये हैं। उपहार राशि वह स्वयं ही प्राप्‍त कर ली।

बनिया के झूठा आरोप से उस बुढ़िया के होश ही उड़ गये । दुःख से वह बोली- ”ओ मैं झूठ नहीं बोल रही है। थैला मेरे द्वार नहीं खोला गया है। यदि इस धन को चुराने की मेरी इच्छा होती तो क्यों यहाँ आकर पैसे का थैला देती।

ग्राम प्रमुख समझ गया कि यह बनिया केवल कंजूस ही नहीं बल्कि झूठा बदमाश भी है। इसलिए वह कुछ विचार कर बोला- “आपको पहले ही बोलना चाहिए था कि थैला में 4,400 रुपये थे।

बनिया ने कहा “मैं भूल गया था।” यह सुनकर ग्राम प्रमुख गुस्सा से बोला— आप इस थैला के मालिक नहीं हैं। आज ही मेरा भी थैला खो गया है। उसमें तो 4000 रुपये ही थे। इसलिए यह मेरा ही थैला है।” यह कहते हुए थैला को ले लिया।
अपनी ही गलत नीति के कारण मिला हुआ भी धन पुन: अपने हाथ से निकलते जानकर वह लोभी बनिया रोने लगा।

अभ्यास

प्रश्न: 1. अनया कथया का शिक्षा प्राप्यते ?

उत्तरम् अनया कथवा शिक्षा प्राप्यते यत्-लोभो न कर्तव्यः।

प्रश्नः 2. कृपणता करणीय न करणीया वा?

उत्तरम्-कृपणता न करणीया।

प्रश्नः 3. वणिक् कीदृशः आसीत् ?

उत्तर-वणिक् कृपणः लुब्धक: च आसीत् ।

प्रश्न: 4. ग्रामप्रमुखः कीदृशः आसीत् ?

उत्तरम्-ग्रामप्रमुख; यथायोग्यः कर्तारः आसीत् ।

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