संस्कृत कक्षा 10 शुकेश्‍वराष्‍टकम् – Sukeswarashtakam in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 5 (Sukeswarashtakam) “ शुकेश्‍वराष्‍टकम् ( शुकेश्‍वर अष्‍टक ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

सनातनं पुरातनं परोपकार-साधनम्,

जनस्य कामपूरक मनोजगर्वखर्वकम्।

शुकेश्वरं नमाम्यहं शुकेश्वरं नमाम्यहम्

शुकेश्वरं नमान्यहं शुकेश्वरं नमाम्यहम् ।।

जगत्तमोविनाशकं सदाऽव्ययप्रदाकम्

सदाशयं सहायक, सदाशिवं सुनायकम् । शुकेश्वरं……

सतां सदा सुरक्षकं, दुराशयप्रवाधकम्

भजन्मनोविहारिणं, सदारिवन्दपीडकम् । शुकेश्वरं ………..

उमापितं सतीपति, नमामि तं महागतिम्

नमामि कालिकापति, नमामि तारिकापतिम् । शुकेश्वरं ……

जटायुतं त्रिलोचनं त्रिमार्गगामस्तकम्

गजस्य चर्मधारिणं त्रिशूलशस्वधारिणम् । शुकेश्वरं …..

नवेन्दुना सुभोभितं सुदिव्यपुष्पपूजितम्

मयूरगीततोषितं, सुभक्तिगीतर्कीतितम् । शुकेश्वरं ….

जलप्रियं महेश्वरं कृष: फलप्रदायकम्

जनेश्वरं शुकेश्वरं, सुभूमनित्यपालकम् । शुकेश्वरं …

सुबोधदं सुभक्तिपदं सुभुक्तिमुक्तिदायकम्

चतुष्फलप्रदायक, विशालरूपधारकम् । शकेश्वरं …..

इदं शुकेश्वराष्टकं तु वैद्यनाथकीर्तितम्

पठन्नरः सभक्ति यः, शिवो ददाति वाञ्छितम्। शुकेश्वरं ……….

अर्थ: सनातन स्वरूप, पुरातन स्वरूप परोपकार को साधने वाले भक्तों की इच्छा पूरा करने वाले और कामदेव के गर्व को चूर करने वाले शुकेश्वर महादेव को मैं प्रणाम करता हूँ। शुकेश्वर को मैं प्रणाम करता है, शुकेश्वर को प्रणाम करता हूँ, शकेश्वर को प्रणाम करता हूँ।

जगत के अज्ञानतारूपी तम को विनाश करने वाले, सदैव अक्षरता को प्रदान करने वाले सत्याचरण करने वालों के सहायक, सदाशिव, सुनायक शुकेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

सज्जनों के सदैव सुरक्षक दुश्चरित्रों के बाधक भजनेवालों के मन में बिहार करने वाले तथा दुश्मन समुद्र को सदैव पीड़ा देने वाले भगवान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ।

उमापति, सतीपति तथा महागति देने वाले भगवान शंकर को प्रणाम है। कालिकापति तारिकापति भगवान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ।

जटाधारी, त्रिलोचन, गंगा जल से जिनका मस्तक गीला रहता है, हाथी की खाल को धारण वाले, त्रिशूल नामक शस्त्र धारण करने वाले भगवान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ। द्वितीया के चन्द्रमा से शोभित सुन्दर दिव्य पुष्पों से पूजित होने वाले, मयूर के गीत से संतुष्ट होने वाले भक्ति के सुन्दर गायन करने वाले, भगबान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ।

जल के प्रिय, महेश्वर, कृषि में फल देने वाले मनुष्य के ईश्वर, शुक के ईश्वर, सहपात्रों को सदैव पालन करने वाले भगवान् शुकेश्वर शिव को मैं प्रणाम करता हूँ। .

सुन्दर ज्ञान देने वाले, सुन्दर भक्ति देने वाले, सुन्दर भोग देने वाले, भुक्ति देनेवाले, धर्म-अर्थ, काम-मोक्ष (चतुष्फल) को प्रदान करने वाले, विशाल रूप धारण करने वाले भगवान शुकेश्वर शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।

वैद्यनाथ के द्वारा गाया गया यह शुकेश्वर अष्टक जो व्यक्ति भक्तियुक्त होकर पाठ करेगा उसे भगवान शिव मनोकामना पूरा कर देते हैं।

Read More – click here

Sukeswarashtakam Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 स्‍वामिन: विवेकानन्‍दस्‍य व्‍यथा ( स्‍वामी विवेकानन्‍द की व्‍यथा ) – Swamin Vivekanand Vyatha in Hindi

Swamin Vivekanand Vyatha

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 12 (Swamin Vivekanand Vyatha) “ स्‍वामिन: विवेकानन्‍दस्‍य व्‍यथा ( स्‍वामी विवेकानन्‍द की व्‍यथा ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Swamin Vivekanand Vyatha
Swamin Vivekanand Vyatha

12. स्‍वामिन: विवेकानन्‍दस्‍य व्‍यथा

1893 तमस्य वर्षस्य सितम्बरमासः। स्वामी विवेकानन्दः अमेरिकादेशे आयोजिते विश्वधर्मसम्मेलने भागं गृहीतवान् । तस्य भाषणानां कीर्तिः सर्वत्र प्रसता जाता । अमेरिकानिवासिनः ततः अत्यन्तम् आकृष्टाः जाताः।

कौचित् अमरिकीयदम्पती स्वामिनं विवेकानन्दं स्वगृहं प्रति निमन्त्रितवन्तौ-“अस्मार्क गृहे भोजनसेवनेन विश्रामस्वीकरणेन च वयम् अनुग्रहीतव्याः” इति । स्वामिवर्यः तयोः निवेदनम् अङ्गीकृतवान् । सः तत् गृहं गत्वा रात्रौ भोजनं कृतवान्।

दम्पती तस्य शयनस्य व्यवस्थानम् एकस्मिन् प्रकोष्ठे परिकल्पितवन्तौ । समग्रा व्यवस्था अत्युत्कृष्टाः आसीत् । निकटस्थः प्रकोष्ठः दम्पत्योः विश्रामस्थानम आसीत्।

अर्थरात्रे महिला कस्यापि रोदनस्वरं श्रुतवती। कस्य रोदनं स्यात् एतत् इति तया क्षणकालं न ज्ञातम् । ततः कमपि सन्देह प्राप्तवती सा पार्श्वस्थस्य प्रकोष्ठस्य समीपं गतवती। ततः तया ज्ञातं यत् रोदनस्वरः विवेकानन्दप्रकोष्ठात् एव आयाति इति । सा झटिति पति जागरितवती, तेन सह विवेकानन्दस्य प्रकोष्ठं गवती च । तत्र ताभ्यां रोदनं कर्वन् स्वामिवर्यः दृष्टः । ताभ्यां महत् आश्चर्यं प्राप्तम् । रोदनजन्यात् अश्रुतः सम्पूर्णम् अपि उपधानाम् आर्द्र जातम् आसीत्।

”स्‍वामीवर्य! अस्माकं व्यवस्थायां कोऽपि लोपः वर्तते किम ? किमर्थं भवान् रोदिति ? यदि व्‍यवस्‍थायां कोऽपि दोष: स्यात् तर्हि क्षन्तव्याः वयम् इति उक्तवती गृहस्वामिनी।

तयो: आगमनं दृष्ट्वा विवेकानन्दः क्षणकालं दिग्भ्रान्तः । स्वस्य रोदनं ताभ्यां दृष्टम् काचित लज्जा अपि । क्षणं विरम्य रोदनं यलेन निगृह्य सः अवदत्- “क्षन्तव्यः एव भवद्भ्याम् । भवती अत्यन्तं मधुरं स्वादु भोजनं परिविष्टवती । सुखदायितल्पम् अपि व्यवस्थपितवती। समग्रा व्यवस्था उत्कृष्टा दोषरहिता च अस्ति एव । मम रोदनस्य कारणम् अत्रत्या व्यवस्था सर्वथा न । भोजनं कृत्वा यदा अहं तल्पे विश्रामं कुर्वन् आसं तदा स नेत्रयोः पुरतः मम देशबान्धवानां चित्रम् आगन्तम् । वराका: ते पूर्णोढरम् आहारम् अपि न प्राप्नुवन्ति । शीतकाले पर्याप्तम् आच्छादकम् अपि तेषां पार्वे न भवति । दुःखदारिद्रयपूर्ण जीवनं यापयन्तः असङ्ख्याः भारतीयाः मया स्मृताः । ततः मन मनः अपि दुःखग्रसतम् अभवत् इति ।

अर्थ : 1893 ई. सन् वर्ष का सितम्बर मास था। स्वामी विवेकानन्द अमेरिका देश में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिए थे। उनके भाषण का यश सब जगह फैल गया । अमेरिका निवासी भाषण से बहुत आकृष्ट हुए।

कोई अमेरिकी दम्पत्ति स्वामी विवेकानन्द को अपने घर के लिए निमंत्रण देते हुए कहा | “हमारे घर में भोजन और विश्राम करके हमलोगों पर अनुग्रह कीजिये । स्वामी जी ने उन दोनों के निवेदन को स्वीकार कर लिए। वे उसके घर जाकर रात्रि में भोजन किये।

दम्पत्ति ने उनके शयन की व्यवस्था एक कमरा में कर रखी थी। सारी व्यवस्था बहुत अच्छी थी। निकट में स्थित कमरे में दम्पत्ति का विश्राम स्थल था।

अर्धरात्रि में महिला ने किसी को रोने की आवाज सुनी। किसका रोना है, यह बात उसके समझ में तत्क्षण नहीं आयी। इसके बाद कुछ संदेह होने पर वह निकट के स्थित कमरे के समीप गई तब वह जान पाई कि रोने की आवाज विवेकानन्द के कमरे से ही आ रही है। वह शीघ्र ही पति को जगाई और उसके साथ विवेकानन्द के कमरे में गई। वहाँ उन दोनों ने रोते हुए स्वामी जी को देखा। उन दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। रोने के कारण आँसू से पूरा बिछावन गीला हो गया था। स्वामी जी। हमारी व्यवस्था में कोई कमी हुयी है क्या? क्यों आप रो रहे हैं? यदि व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कमी है तो क्षमा कर दीजिये। हमलोगों को यह बात गृह स्वामिनी बोली। उन दोनों के आगमन देखकर विवेकानन्द थोड़े समय के लिए शांत रहे । अपना रोना उन दोनों के द्वारा देख लिया गया इससे थोड़ा लज्जा भी हुई। थोड़ा रूककर रोना यत्नपूर्वक रोक कर उन्होंने कहा- “माफ कीजिये हमको ही आप दोनों । आपने अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट भोजन परोसी थी। सुख देने वाला बिछावन की व्यवस्था भी है। सारी व्यवस्था अच्छी और दोषरहित ही है। मेरे रोने का कारण यहाँ की व्यवस्था बिल्कुल नहीं है। भोजन कर जब मैं बिछावन पर विश्राम कर रहा था तब मेरी आँखों के सामने मेरे देश के बान्धवों का चित्र आ गया। ठीक से वे लोग भरपेट भोजन भी नहीं प्राप्त करते हैं। शीतकाल में पर्याप्त ओढ़ने के लिए भी उनके पास वस्त्र नहीं होते हैं। दुःख दरिद्रता से पूर्ण जीवन-यापन करते असंख्य भारतीय मेरे स्मरण में आ गये। उससे मन दुःखी हो उठा।

Read More – click here

Swamin Vivekanand Vyatha Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 पर्यटनम् ( देशाटन ) – paryatnam in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 11 (paryatnam) पर्यटनम् ( देशाटन ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

paryatnam
paryatnam

11. पर्यटनम्

(क) नासिकक्षेत्रम्

महाराष्टदेशे पवित्रायाः गोदावरीनद्याः तीरे विलसति नासिकक्षेत्रम। शूर्पणखाया: नासिका अत्रैव छिन्ना लक्ष्मणेन इत्यतः स्थानस्यास्य तत् नाम इति वदन्ति अत्रत्याः। नासिक इत्यपि कथ्यमानम् एतत् अनेकै: कारणैः प्रसिद्धम् अस्ति। गोदावर्याः एकस्मिन् नासिकनगरं चेत् अपरस्मिन् पार्श्‍वे अस्ति पञ्चवटीक्षेत्रम्। कुम्भमेल: प्रचलति इति कारणत: नासिकक्षेत्रं प्रयागमिव हरिद्वारमिव पवित्रं मन्यते श्रद्धालवः। द्वादशषु वर्षेषु एकदा प्रचलति अयं कुम्भमेलः। तदा तु क्षेत्रेऽस्मिन् भक्तानां तादृशः महापूरः भवति यत् कत्रापि निक्षेपतुमपि स्थलं न लभ्यते । अग्रिमस्य कुम्भमेलस्य निमित्तं गतवर्षादव सज्जाताका प्रचलन्ति सन्ति । गोदावती द्रष्टं नदीरीर गतवता मया विस्मयः प्रायः यतः तत्र जलन नासीत् । ततः कारणं ज्ञातं यत् कुम्भमेलस्य निमित्रं नद्याः तटयोः व्यवस्था: कर्तम इदानी तस्याः प्रवाहः अन्यत्र एवं नीतः अस्ति इति । अतः श्रारामकुण्डनामकात् स्थानात अनन्ता नद्याः पात्रं केवलं दृष्टं, न तु जलम् । नैके कर्मकाराः तत्र कार्यनिरताः आसन्।

श्रीरामकुण्डस्य पार्श्‍वे स्थिते कस्मिंश्चित् भवने सम्मिलिताः श्रद्धालवः धार्मिक विधिष निरताः आसन् । तत्पावस्थे भवने महात्मागान्धेः चिताभस्म सुरक्षितम् अस्ति । श्रीरामकण्ट एतत् वैशिष्टयम् अस्ति यत् तत्रत्ये कस्मिश्चित् निश्चिते स्थाने विसृष्टम् अस्थि काभिश्चित एव घण्टाभिः द्रुतं भवति इति । वयं जानीमः यत् अस्थि जले सुखेन तु नैव द्रवति । अत्र त तत अल्पेन कालेन निश्शेषं विलीयते । अत्र अस्थिविसर्जनं महत् पुण्यकरमपि । अतः एव अत्र अस्थिविसर्जन कर्तुं देशस्य नानाभागेभ्य: बहवः श्रद्धालवः समागच्छन्ति।

गोदावर्याः तीरे स्थितं त्र्यम्बकेश्वरमन्दिरं नशेशङ्करमन्दिरं नासिकस्य क्षेत्रस्य अपरे प्रेक्षणीये स्थाने । सरदारनारोशङ्करनामकेन 1747 तमे क्रिस्ताब्दे 18 लक्ष्यरूण्यकात्मकव्ययेन निर्मितम् एतत् मन्दिरं शिल्पकलादृष्ट्या अत्यन्तं विशिष्टम् अस्ति । देवालयस्य उपरि काचित् महती घण्टा प्रतिष्ठापिता अस्ति या पोर्चुगल्देशे निर्मिता इति श्रूयते । तस्याः ध्वनिः समग्रे नासिकनगरेऽपि श्रूयते स्म ।

अर्थ: (क) नासिक क्षेत्रम्– महाराष्ट्र प्रदेश में पवित्र गोदावरी नदी के किनारे नासिक क्षेत्र शोभता है । शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण के द्वारा यहीं काटी गई थी। इसी कारण इस स्थान का नाम यहाँ के लोग नासिक बोलते हैं। नासिक के कहे जाने के अनेक कारण प्रसिद्ध हैं। गोदावरी के एक तरफ नासिक नगर है और दूसरी तरफ पञ्चवटी नामक क्षेत्र है। कुम्भमेला यहीं लगता है, इसी कारण नासिक क्षेत्र को प्रयाग और हरिद्वार के जैसा पवित्र श्रद्धालु लोग मानते हैं। बारह वर्षों में एक बार आता है। यह कुम्भ मेला। उस समय इस क्षेत्र में भक्तों की भीड़ होती है वैसी जगह कहीं भी खोजने पर नहीं दिखाई पड़ती है। आगे के कुम्भ मेला के निमित्त गत वर्ष से ही हो रहे कार्य चल रहे हैं। गोदावरी देखने के लिए नदी के तीर पर जब गया तो मझे आश्चर्य हुआ, क्या वहाँ जल ही नहीं था। इसका कारण ज्ञात हुआ कि-कुम्भ मेला के निमित नदी के दोनों तटों पर व्यवस्था की गयी है। इस समय नदी की धारा अन्यत्र ही है। इसलिए श्रीराम कुण्ड नामक स्थान से यहाँ तक नदी का केवल आकार ही दिखाई पड़ता है न कि जल । वहाँ कोई कर्मचारी कार्य में लगे नहीं थे।

श्री राम कुण्ड के समीप स्थित किसी भवन में श्रद्धालु लोग धार्मिक अनुष्ठान में लगे थे। उसी के निकट के भवन में महात्मा गाँधी की चिता का भस्म सुरक्षित है। श्री रामकुण्ड की यह विशेषता है कि यहाँ किसी निश्चित स्थान पर विसर्जन किया गया हड्डी कुछ ही घंटों में गल जाती है। हमलोग यह भी जानें कि- हड्डी जल में आसानी से नहीं चुनी जा सकती है। यहाँ वह कम समय में ही विलीन हो जाती है। यहाँ अस्थि-विसर्जन अत्यन्त पुण्यकर्म माना जाता है। इसलिए यहाँ अस्थि-विसर्जन करने देश के अनेक भागों से बहुतों श्रद्धालु लोग यहाँ आते हैं।

गोदावरी नदी के तीर पर स्थित त्र्यम्बकेश्वर मंदिर नारोशंकर मंदिर तथा नासिक क्षेत्र के अन्य स्थान देखने योग्य हैं। सरदार नारो शंकर नामक राजा के द्वारा 1747 ई. सन् में 18 लाख रुपये के खर्च से निर्मित यह मंदिर शिल्प कला की दृष्टि से अत्यन्त विशिष्ट स्थान रखता है। मं‍दिर के ऊपर कोई बहुत बड़ी घण्टा बँधा है, जो पोर्चुगल देश में बना, ऐसा लोग कहते हैं। उसकी आवाज सम्पूर्ण नासिक नगर में सुनी जाती है।

(ख) पंचवटी

पञ्चानां वटानां समाहार: पञ्चवटी- इति असकृत् पठितमेव अस्माभि:। तन्नाम्ना अभिधीयामने रचाने अद्यापि विलसन्ति पञ्च वटवृक्षाः। जीर्णानां पुरातनानां महावृक्षाणां स्थाने तन्मूलादेव उत्पन्नाः एते वृथाः न तथा महाकायाः सन्ति यथा अस्माभिः चिन्तयन्ते । पज्ज संख्याभिः ते वृक्षाः निर्दिष्टाः अपि ।

पञ्चवट्या पुरतः एव अस्ति सीतागुहा। यदा शूर्पणखाया: नासिकाच्छेदः जातः तदा अग्रे सम्भाव्यमानं राक्षसानाम् आक्रमणं विचिन्त्य श्रीरामः अस्यामेव गुहायां सीतां सुरक्षितरूपेण संस्थाज्य स्वयं च खरदूषणादिभिः चतुर्दशसहस्त्रराक्षसैः सह युद्धम् अकरोत् । शरीरं सङ्कोच्य गुहा प्रविष्टा चेत् अन्तः अघो भागे प्रतिष्ठापितानां सीतारामलक्ष्मणानां मूर्तीनां दर्शनं कर्तुं शक्यम् । परन्तु हा, यदि भवन्तः स्थूलकायाः, ताहि नाहन्ति गुहां प्रवेष्टुम् ।

ततः एव अन्यां गुहां प्रवेष्टुं मार्गः अस्ति। तस्यां च गुहायां भगवतः पञ्चरलेश्वरस्य महालिङ्गम् अस्ति । भगवान् श्रीराम: स्वहस्ताभ्याम् अस्य अर्चनम् अकरोत् इति वदन्ति अत्रत्याः । | यो: अपि अनयोः गुहयो: दर्शनम् महान्तम आनन्दं जनयति । तत्पुरतः एव स्थलं किञ्चित् प्रदर्श्यते यत्र मारचीः हतः इति जनाः कथयन्ति ।

कालाराममंदिरम् अत्रत्यम् अपरं प्रेक्षणीय स्थानम् । विशाले सुन्दर च अस्मिन् मन्दिरे भगवतः श्रीरामस्य कृष्णशिलानिर्मिता मूर्तिः अस्ति । डा. भीमराव अम्बेदकर: अस्मिन् एव मन्दिरे हरिजनानां प्रवेशं कारयितुम् आन्दोलनम् कृतवान् आसीत्।

(ख) पंचवटी— पाँच वट वृक्षों का समूह पंचवटी ऐसा हमलोगों के द्वारा पढ़ा गया। उसके नाम से कहे जाने वाले स्थान पर आज भी पाँच वट वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। जीर्ण पुराने महा वृक्ष के स्थान पर उसी की जड़ से ही उत्पन्न ये पाँचों वृक्ष उतने विशाल नहीं हैं। जैसा कि हमलोग सोचते होंगे। पाँच की संख्या में वृक्ष बँटें दिखाई पड़ते हैं। पंचवटी के सामने ही सीता गुहा है। जब शूर्पणखा की नाक काट ली गई तब राक्षसों के आक्रमण की सम्भावना का विचार कर श्रीराम ने इसी की गुफा में सीता को सुरक्षित रूप से रखकर स्वयं खरदूषण आदि चौदह हजार राक्षसों के साथ युद्ध किये थे । शरीर को संकुचित करके गुफा में प्रवेश करने पर भीतर नीचे भाग में स्थापित सीता, राम और लक्ष्मण की मूर्तियों की दर्शन कर सकते हैं। परन्तु हाँ, यदि आप मोटा शरीर के हैं तो गुफा में प्रवेश नहीं कर सकते है।

वहीं अन्य गुफा में प्रवेश के लिए रास्ते हैं। उस गुफा में भगवान पञ्चरत्नेश्वर का बहुत बड़ा शिवलिङ्ग है। भगवान श्रीराम अपने हाथों से इनकी पूजा की थी, ऐसा यहाँ के लोग कहते है। इस दोनों गुफा का दर्शन बहुत आनन्द देता है। उसी के सामने ही जगह को कुछ लोग बताते है कि यहाँ मारीच मारा गया था। काला राम मंदिर यहाँ का दूसरा देखने योग्य स्थान है। विशाल और सुन्दर इस मंदिर में भगवान श्रीराम की काला पत्थर से निर्मित मूर्ति है। डॉ. भीमराव अम्बेदकर इसी मंदिर में हरिजनों के प्रवेश कराने के लिए आन्दोलन किये थे ।

अभ्यास

प्रश्न: 1. पञ्चवट्या: धार्मिक महत्वं लिखत ?

उत्तरम्- वन गमनकाले रामलक्ष्मणौ सौतया सह पञ्चवट्यां अनिवसताम्, बहुकाले तत्र सीता सुरक्षिता अभवत् । तस्मात् कारणात् अस्य स्थानस्य धार्मिकमहत्वं अति विशिष्टम् वर्तते ।

प्रश्नः 2. कालाराममंदिरे हरिजनानां प्रवेश कारयितुं कः आन्दोलनं कृतवान् आसीत् ?

उत्तरम्- कालाराम मंदिरे हरिजनानां प्रवेशं कारयितुम् डॉ. भीमराव अम्बेदकरः आन्दोलन कृतवान आसीत् ।

प्रश्न: 3. सीतागुहासम्बद्धा का कथा प्रसिद्धा?

उत्तरम् – सीतागुहासम्बद्धा कथा प्रसिद्धा अस्ति यत्-शूर्पणखायाः नासिका यदा छेदः जातः तदा अग्ने सम्भाव्यमानं राक्षसानां आक्रमणं विचिन्त्य श्रीरामः अस्यामेव गुहायां सीतां सुरक्षित रूपेण संस्थाज्य स्वयं च खरदूषणादिभिः चतुर्दश सहस्र राक्षसैः सह युद्ध अकरोत् ।

प्रश्न: 4. सीतागुहायां केषां प्रतिमाः प्रतिष्ठापिताः?

उत्तर- सीता गुहायां रामसीता लक्ष्मणानां प्रतिमाः प्रतिष्ठापिताः ।

Read More – click here

paryatnam Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 संस्‍कृतेन जीवनम् ( संस्‍कृत से ही जीवन सफल होता है ) – Sanskriten jivnam in hindiसंस्कृत कक्षा 10 संस्‍कृतेन जीवनम् ( संस्‍कृत से ही जीवन सफल होता है ) – Sanskriten Jivnam in hindi

sanskriten jivnam

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ ( Sanskriten jivnam) “संस्‍कृतेन जीवनम् (संस्‍कृत से ही जीवन सफल होता है)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

sanskriten jivnam
sanskriten jivnam

10. संस्‍कृतेन जीवनम्

एहि मित्र हे सुधीर
त्वां विचिन्तये सदा।
इह सखे समं मया हि
खेल नन्द सन्ततम् ।।

संस्कृतेन खेलनम्
कुर्महे सखे चिरम्।
तेन वाग्विवर्धनं
प्राप्‍नुयाम सत्वरम् ॥

संस्कृतेन लेखनं
सर्वबालरंजकम्
तेन शब्दरूपसिद्धि
राप्यते सखे वरम् ॥

संस्कृतेन भाषणं
सर्वगर्वनाशकम्।
तेन रंजिता भवन्ति
सर्वदेवदेवताः॥

संस्कृतेन चिन्तनं सद्गुणाभिवर्धनम्।
तेन मानसं सखे
स्यात् सदा सुखान्वितम्॥

अर्थ- हे मित्र ! हे सुधीर ! तुमको सदैव इसका विशेष मनन करना चाहिए। हे मित्र ! मेरे समान ही यह तुमको खेल जैसा आनन्द देने वाला है।

हे मित्र ! संस्कृत के साथ हमलोगों को चिरकाल तक खेल करना चाहिए। उससे शीघ्र ही वाचा-शक्ति की वृद्धि प्राप्त करते हैं।

हे मित्र । सभी बच्चों को आनन्द देने वाला संस्कृत भाषा में ही सुन्दर लेखन करना चाहिए। जिससे शब्द-शक्ति में सिद्धि प्राप्त होती है।

सबों के गर्व को नाश करनेवाला संस्कृत में ही बोलना चाहिए। उससे सभी को सब कुछ देने वाले देवता लोग प्रसन्न होते हैं।

हे मित्र । संस्कृत चिन्तन (अध्ययन) करने से सद्गुणों की वृद्धि होती है । उससे हृदय सदैव सुखी रहता है।   

Read More – click here

 Sanskriten jivnam Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 अहो, सौन्‍दर्यस्‍य अस्थिरता ( अहा, सौन्‍दर्य कितना अस्थिर है ) – Aho, saundaryasya asthirta in hindi

Aho, saundaryasya asthirta

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 9 (Aho, saundaryasya asthirta) “संसार मोह: (संसार से मोह)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस कहानी के माध्‍यम से सुन्‍दरता पर ध्‍यान न देकर अच्‍छे कामों पर ध्‍यान देने की प्रेरणा दी गई है।

Aho, saundaryasya asthirta
Aho, saundaryasya asthirta

आसीत् कश्चन राजकुमारः। स: नितरां सुन्दरः। स्वस्य सौन्दर्यस्य विषये तस्य महान् गर्वः आसीत् । राज्यनिर्वहणे तस्य अल्पः अपि आदर: न आसीत् । सर्वदा स्वसौन्दर्यविषये एव अवधानं तस्य । तस्य एतां प्रवृत्तिं दृष्ट्वा अमात्यः नितरां खिन्नः अभवत् । राज्यपालने युवराजस्य अनास्थां को वा मन्त्री सहेत? योग्येन उपदेशेन युवराजे जागरणम् आनीय सुमार्गे सः प्रवर्तनीय इति सः निश्चितवान् ।

अथ कदाचित् स्वसौन्दर्यवर्धने तत्परं राजकुमारं दृष्ट्वा सः अवदत्-“युवराजवर्य ! ह्य: एव भवान् अधिकसौन्दर्यवान् आसीत्” इति ।

एतत् श्रुत्वा युवराजः नितरां खिन्नः सन् अमात्यम् अपृच्छयत्-  अमात्यवर्य! किम् अद्य मम सौन्दर्य न्यूनम् ? किमर्थं भवता एवम् उक्तम् ? इति।

यत् अस्ति तदेव उक्तं मया” इति गाम्भीर्येण अवदत् मन्त्री।

अद्य मम सौन्दर्यं न्यूनं सर्वथा न । यदि न्यूनम् इति भवान् चिन्तयेत् तर्हि तत् सप्रमाणं निरूपयेत् ।”

अस्तु, निरूपयामि अस्मिन् एव क्षणे” इति उक्त्वा मन्त्री निकटस्थं भटम् आहूय- जलसहितं पात्रम् एकम् आनय इति आज्ञापितवान् । एक जलपात्रं राजकुमारमन्त्रिणोः पुरतः निक्षिप्य सः भटः ततः निर्गतवान् ।

मन्त्री तस्मात् पात्रात् उद्धरणमितं जलम् उद्धृत्य बहिः क्षिप्तवान् । तदन्तरं स: तमेव बहिर्गतं भटम् आहूय य अपृच्छत- पात्रस्थलं जलं यथापूर्वम् अस्ति, उत न्यूनम? इति

भटः अवदत्- यथापूर्वमेव अस्ति जलम् इति।

तदा अमात्यः राजकुमार सम्बोध्य अवदत्- एवमेव भवति सौन्दर्यम् अपि । तत् क्षणे क्षणे क्षीयते एव । किन्तु वयं तत् न अवगच्छामः। सौन्दर्य न स्थिरम् । उत्तमकार्यात् प्राप्येत तत् एव सुस्थिरम्। प्रजापालनं भवतः कर्तव्यम्। तत् श्रद्धया क्रियताम् । ततः यशः प्राप्येत इति।

एतत् श्रुत्वा राजकुमारः स्वस्य दोषम् अवगत्य अनन्तरकाले राज्यपालेन अवधानदानम् आरब्धवान्।

अर्थ : कोई राजकुमार था । वह बहुत सुन्दर था । अपने सौन्दर्य के विषय में बहुत गर्व था

राज्य के नियम के पालन में उसका तनिक भी आदर नहीं था। सदैव अपने सौन्दर्य के विषय ही उसका मन लगता था । इस प्रकार की आदत देखकर प्रधान मंत्री सदैव दुःखी रहा करता था। राज्य पालन में युवराज की अनास्था को कौन मंत्री सहेगा? उचित उपदेश के द्वारा युवराज में जागृति लाकर अच्छे मार्ग पर उसको लौटाने का उसने निश्चय किया।

इसके बाद कभी अपने सौन्दर्य बढ़ाने में लगे राजकुमार को देखकर वह बोला श्रेष्ठ युवराज! कल ही आप अधिक सुन्दर थे।”

ऐसा सुनकर युवराज अत्यन्त खिन्न होकर उस मंत्री से पूछा- श्रेष्ठ मंत्री जी ! क्या आज मेरा सौन्दर्य कम है? क्यों आप ऐसा बोले?

“जैसा है वैसा ही मेरे द्वारा बोला गया है” गम्भीर स्वर से मंत्री ने बोला ।

आज मेरा सौन्दर्य अन्य दिनों से कम नहीं है। यदि कम है यह आप समझ रहे हैं तो उसका प्रमाण सहित साबित करें।

“ठीक है, साबित करता हूँ इसी ही क्षण में” इस प्रकार बोलकर मंत्री निकट में स्थित आदेश पाल को बुलाकर-जल सहित पात्र को लाओ, इस प्रकार का आदेश दिया। एक जलपात्र को राजकुमार और मंत्री के सामने रखकर वह आदेशपाल वहाँ से निकल गया।

मंत्री उस पात्र से थोड़ा जल उठाकर बाहर फेंक दिया। उसके बाद वह बाहर गया और सेवक को बुलाकर पूछा- बर्तन का जल जैसे पहले था वैसे ही है या कम।

आदेशपाल ने कहा- पहले की स्थिति में ही जल है।

तब आमत्य (प्रधानमंत्री) ने राजकुमार को समझाते हुए कहने लगा ऐसा ही होता है सौन्दय भी। वह क्षण-क्षण समाप्त हो रहा है। किन्तु हमलोग उसको नहीं समझ पाते हैं। सौन्दर्य स्थिर नहीं होता है। उत्तम कार्य करने से जो यश प्राप्त होता है वही अत्यन्त स्थिर है। प्रजा का पालन करना आपका कर्तव्य है। उसे श्रद्धा से करें। इससे उत्तम यश की प्राप्ति होती है।

यह सुनकर राजकुमार अपने दोष से अवगत होकर राज्यपालन में मन लगाना आरम्भ कर दिया।

Read More – click here

Sansar Moh Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् ( मेरा जीवन वृक्ष के समान हो ) – Vrikshe Samam Bhavtu me Jeevnam in Hindi

vrikshe samam bhavtu me jeevnam

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 8 (Vrikshe Samam Bhavtu me Jeevnam) “वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् (मेरा जीवन वृक्ष के समान हो)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ में मनुष्‍य को वृक्ष से प्रेरणा लेने की बात कही गई है।

vrikshe samam bhavtu me jeevnam
vrikshe samam bhavtu me jeevnam

वसन्तकाले सौरभयुक्तैः

सन्ततिकाले दर्पविमुक्तः

शीतातपयोः धैर्येण स्थितैः

वृक्षः समं भवतु मे जीवनम् ।

वर्षाकाले आह्लादयुक्तैः

शिशिर निर्भीकचित्तैः

हेमन्तकाले समाधिस्थितैः

वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् ।

क्षुधार्तेभ्यः फलसन्तते: दानम्

शरणागतेभ्यः आश्रयदानम्

आतपार्तेभ्यः छायादानम्

वृक्षाणां व्रतं, तद्वत् स्यान्मे जीवनम्।

कृतं यैः सीतायाः सतीत्वरक्षणं

बुद्धस्य आत्मज्ञानस्य साक्ष्यम्

पाण्डवशस्त्राणां गोपनम्

वृक्षैः समं भवतु मे जीवनम्।

शुष्कतायां सम्प्राप्तायाम् अपि

यैः अर्प्‍यते जीवनं परेषां कृते

आत्मा दह्यते चुल्लिकायां यैः मुदा

वृक्षः समं भवतु मे जीवनम् ।

आ जन्मनः समर्पणम् आमरणं

लोकस्य हितायैव येषां जीवनम्

जीवनं मृतिश्चापि येषां सार्थकं

वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् ।

अर्थ- वसन्त काल में सुगन्धों से युक्त

फल काल में घमण्ड से दूर

शीत-गर्मी में धैर्य से स्थिर रहने वाले

वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।

 वर्षा काल में आह्लाद से युक्त

शिशिर में निर्भीक चित्त

हेमन्त काल में समाधि रूप में स्थिर रहनेवाले वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।

भुख से व्याकुलों के लिए फलरूपी संतान का दान, शरण में आए लोगों के लिए आश्रय दान, गर्मी से व्याकुल लोगों के लिए छाया दान आदि वृक्षों के व्रत सादृश हो मेरा जीवन ।

किया गया जिसके द्वारा सीता के सतीत्व का रक्षण, जिसने बना बुद्ध के आत्मज्ञान का साक्षी और जिसने पाण्डवों के शस्त्रों को गुप्त रूप में रखा, उस वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।

शुष्कता प्राप्त कर (सूख कर) भी जिसके द्वारा अर्पित है जीवन दूसरों के कार्य के लिए, जिसके द्वारा मरकर भी चुल्हा में अपने-आपको जलाया जाता है। उस वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।

जन्मकाल से ही समर्पण का भाव मरण तक लोक को हित के लिए जिसका हो जीवन, जिसका जीवन मर कर भी सार्थक हो उस वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।

Read More – click here

Sansar Moh Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 भीष्‍म-प्रतिज्ञा (भीष्‍म की प्रतिज्ञा) – Bhishm Pratigya in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 7 (Bhishm Pratigya) “ भीष्‍म-प्रतिज्ञा (भीष्‍म की प्रतिज्ञा)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ में एक पिता के प्रति अपने बेटे के त्‍याग को दर्शाया गया है।

Bhishm Pratigya

7. भीष्‍म-प्रतिज्ञा (भीष्‍म की प्रतिज्ञा)

प्रथमं दृश्यम्

स्थान राज-भवनम्

(उदासीन: चिन्तानिमग्नश्च देवव्रतः प्रविति)

देवव्रत:- (स्वगतम्) अहो, न जाने केन कारणेन अध मे पितृचरणा: चिन्ता विलोक्यन्ते । कि तेषां काचित् शारीरिकी पीड़ा अथवा किमपि मानसिक अमात्यसमीपं गत्वा पितुः शोककारणं पृच्छामि । पितुश्चिन्ताया अपनयनं तस्य पर प्रधानं कर्तव्यं भवति ।

पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥
धिक् तं सुतं यः पितुरीप्सितार्थ क्षमोऽपि सत्र प्रतिपादयेद् यः।
जातेन किं तेन सुतेन काम पितुर्न चिन्ता हि समुद्धरेद् यः॥

द्वितीयः दृश्यम्

स्थानम्- अमात्यभवनम्

अमात्य:- (आयान्तं भीष्मं दृष्ट्वा) अहो, राजकुमारः देवव्रतः। आगम्यताम अलंक्रियतामासनमिदम् ।

(देवव्रतः प्रणम्य उपविशति) राजकुमार! कुतो नाम एतस्मिन् असमये अत्र आगमनं भवत:)

देवव्रतः – अमात्यवर्याः। अद्य किमपि नूतनं वृत्तं दृष्ट्वा विस्मितमानस: तन्समाधानाय भवत्समीप समुपागतोऽस्मि।

अमात्यः – (साश्चर्यम्) तत् किमिति ?

देवव्रतः – विद्यमानेष्वपि समस्तेषु सुखसाधनेषु न जाने अद्य केन हेतुना मम पितृपादाः दुखिताः चिन्ताकुलचेतसश्च प्रतीयन्ते । तदेतस्य कारणमहं ज्ञातुमिच्छामि, ज्ञात्वा च तस्य प्रतीकारं कर्तुमिच्छामि।

अमात्यः – उचितमेवैतद् भवादृशानामार्यपुत्राणाम् ।

देवव्रत: – तद् यदि भवन्तः एतस्य कारणं जानन्ति तर्हि तत्प्रकाशनेन अनुग्रहीतव्योऽस्मि ।

अमात्यः – राजकुमार । बाढं जानामि । एतस्य कारणं तु आर्यपुत्र एवास्ति। देवव्रतः – (साश्चर्यम्) अहमेव कारणम् ? हा धिक्। तत् कथमिव ? स्पष्टं निगद्यताम्।

अमात्यः – राजकुमार! एकस्मिन् दिने महाराजः वनाविहारखेलायां यमुनानदीतीरे परिभ्रमति स्म। तदानीं दूरादेव स्वशरीरसुगन्धेन निखिलमपि वनं सवासयीन्त एका सत्यवती नाम्नी परमसुन्दरी घीवरराजकन्या तस्य अकस्मात् दृष्टिपथं गता। ततस्वस्या अद्भुतेन रूपेण विस्मयजनकेन सुगन्धन च मुग्धो महाराजस्तया सह विवाहं कर्तुकामस्तस्याः पितरम् अयाचत ।

देवव्रत: – ततस्तेन किं कथितम् ?

अमात्यः – ततस्तेन कधितम् – महाराज। ईदृशः सम्बन्धः कस्य अप्रियो भविष्यात पर भवता सह सत्यवत्याः तदेव विवाहं करिष्यामि यदा भवदनन्तरं अस्याः एव पुत्रो राजा भाव “इति भवान् प्रतिज्ञां कुर्यात् ।”

देवव्रत: – ततो महाराजः किम् अवोचत् ?

अमात्यः – ततो महाराजः किमपि उत्तरं न दत्त्वान । ततश्च आगत्य “कथं ज्यष्ठ पुत्र सत्यवतीसुताय राज्यं देयम् प्रतिज्ञाऽभावे च कथं सत्यवती लभ्यते इत्येव अहर्निशं चिन्तयति। – तस्य चिन्तायाः दुःखस्य च कारणं वर्तते ।

देवव्रतः – महामात्य। यदि एतावन्मात्रमेव कारणं वर्तते तर्हि सर्वथा अकिारच इदानीमेव अहं तस्य अपनयनाय उपायं करोमि ।

(प्रणम्‍य निष्‍क्रान्‍त:)

तृतीय दृश्‍यम्

(वने धीवरराजस्य समीपे देवव्रतस्य गमनं भवति, घीवर: जलनिरीक्षण-परायणस्तिष्ठति)

धीवर: – (देवव्रतं दृष्ट्वा – स्वगतम्) अहो तेजस्विता अस्य कुमारस्य । (प्रकटम) कमार ! भवतः परिचयं आगमनकारणं च ज्ञातुमिच्छामि।

देवव्रतः – दाशराज ! महाराजस्य शन्तनोः प्रियः पुरोऽहं देवव्रतनामा । इदश्च मम आगमनकारणम् । अस्ति काचित् भवतो दुहिता सत्यवती नाम परमसुन्दरी।

धौवर:- आम्, अस्ति एका।

देवव्रतः- तया सह विवाहार्थम् अस्माकं तातपादा: चिन्ताकुला: सन्ति । तद् भवान् सत्यवतीप्रदानेन महाराज चिन्तामुक्तं करोतु इति निवेदनं कर्तुम् अहं भवतः समीपमुपागतोऽस्मि ।

धीवर:- महाराजकुमार ! भवतः पितृश्चिन्ताया अपनयनस्य उपायस्तु भवतामेव हस्ते वर्तते ।

देवव्रतः- तत् कथमिव?

धीवर:- यतो हि महराजशन्तनोः पश्चात् सत्यवतीपुत्र एव यदा राज्याधिकारी भविष्यति तदैव अहं तस्या महाराजेन सह विवाहं करिष्यामि इति में प्रतिज्ञा अस्ति । भवन्तश्च महाराजश्च ज्येष्ठपुत्रा इति धर्मत एवं राज्याधिकारिणः । तत् कथमहं सत्यवतीपुत्रस्य राज्यलाभं सम्भावयामि? इयमेव सत्यवतीप्रदाने महती बाघा अस्ति ।

देवव्रतः- सदाढर्यम्! दाशराज। इयं काचिद् बाधा नास्ति । भवतः प्रतिज्ञापूरणाय अहं बद्धपरिकरोऽस्मि । महाराजाऽनन्तरं सत्यवतीपुत्र मन राज्याधिकारी भविष्यति । इत्यह शतशः सर्वषा पुरस्तात् उद्घोषयमि । तद् भवान् निर्भयो वा विवाहाय कृतनिश्चयो भवतु।

घीवर:- सत्यमेतत् । नास्ति भवतः प्रतिज्ञायां मम सन्देहलेशोऽपि । परन्तु भवदनन्तरं यदि भवतः कश्चित् पुत्रो भवत्प्रतिज्ञाभत कुर्यात् तहिं सत्यवतीपुत्रस्य का गतिः भविष्यति ? .

देवव्रत:- अस्तु नाम, इममपि भवतो भयं सन्देह च अहं निवारयामि । सत्यवतीसूनुरेव राज्याधिकारी भविष्यति इति पूर्वमेव प्रतिज्ञातं मया । तथापि यदि ते मनसि एतादृशी आशङ्का वर्तत तहिं पुनरपि अहं भीषणं प्रणं करोमि यत् अहं कदापि विवाह न करिष्यामि, आजीवनं च अखण्डितं ब्रह्मचर्यव्रतं धारयिष्यामि ।

अद्य प्रभृत मे दाश! ब्रह्मचर्य भविष्यति ।

अपुत्रस्यापि मे लोका भविष्यन्क्षया दिवि ।।

अपि च –

परित्यजेदं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषु वा पुन ।
यद्वाऽप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कदाचन ।।
त्यजेच्च पृथिवी गनधम् आपश्च रसमात्मनः।
ज्योतिस्तथा त्यजेद् रूपं वायुः श्पर्शगुणं त्यजेत् ।।
प्रभां समुत्सृजेदर्को धूमकेतुस्तथोष्मताम् ।
त्यजेत् शब्द तथाऽकाशः सोमः शीतांशुतां त्यजेत् ।
विक्रम वृत्रहा जह्यात् धर्म जह्याच्च धर्मराट् ।।
न त्वहं सत्यमुत्स्रष्टुं व्यनसेयं कथञ्चव ।।

(नेपथ्ये साधुवदः आकाशात् पुष्पवृष्टिश्च भवति)

घीवर:- (बद्धाञ्जलिः) अहो राजकुमार! धन्योऽसि, आदर्शपुत्रोऽसि । भवादृशैरेव पुत्रैः इयं भारतवसुन्धरा आत्मानं धन्यधन्यां मनुते । महानुभाव । गम्यतामिदानीम् । अचिरादेव अहं महाराजस्य मनोरथं पूरयामि।

भीष्‍म-प्रतिज्ञा (भीष्‍म की प्रतिज्ञा)  का हिन्‍दी अर्थ

प्रथम दृश्‍य

स्‍थान – राज भवन

(उदासीन, और चिन्न निमग्न देवव्रत का प्रवेश)

देववत (स्वयं से) अहो, न जाने किस कारण से आज मेरे पिताजी का पैर चिन्‍ताकुल और उदासीन दिखाई पड़ रहा है। क्या उनमें कोई शारीरिक पीड़ा अथवा कुछ मानसिक कष्‍ट है। इसलिए आमत्य के समीप जाकर पिता के शोक का कारण पूछता हूँ। पिता की चिन्ता दूर करना और उनको खुश करना पुत्र का प्रधान कर्तव्य होता है।

पिता ही स्वर्ग है पिता ही धर्म है, पिता ही सबसे बड़ा तप है। पिता में प्रीति आने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

धिक्कार है, उस बेटा को जो पिता की प्रसन्नता के लिए सक्षम होकर भी वैसा नहीं कर है। उस बेटा को जन्म लेना ही किस काम का जो पिता को चिन्ता से नहीं उबार सके।

द्वितीयं दृश्य

(स्थान- आमत्य भवन)

आमात्य- (आते भीष्म को देखकर) अहो, राजकुमार देवव्रत। आवें, इस आसन की शोभा बढ़ावें।

(देवव्रत प्रणाम कर बैठता है) राजकुमार। क्या कारण है इस असमय पर आपके आने का।

देवतत- आमत्य श्रेष्ठ! आज कुछ नई बात देखकर विस्मित मन से उसके समाधान के लिए आपके समीप उपस्थित हूँ।

आमत्य- (आश्चर्य से) वह क्या है?

देवव्रत- सारे सुख साधनों के होते हुए भी न जाने आज किस कारण से मेरे पिताजी का पैर दुःखी और चिन्ताकुल लग रहा है। उसी कारण को जानना चाहता हूँ और जानकर उसे दूर करना चाहता हूँ।

आयत्य- आप जैसे आर्यपुत्र के लिए यह उचित ही है।

देवव्रत- इसलिए यदि आप इसका कारण जानते हैं तो उसे बताने से मैं धन्य हो जाऊँगा।

आमत्य – राजकुमार! सही जानता हूँ। इसका कारण तो आर्यपुत्र आप ही हैं।

देवव्रत- (आश्चर्य से) मैं ही कारण हूँ? हाय, धिक्कार है मुझको। वह किस प्रकार का है? स्पष्ट करें।

आमत्य- राजकुमार। एक दिन महाराज नौका विहार खेलते समय यमुना नदी के तीर पर घूम रहे थे। उस समय दूर से ही अपने शरीर की सुगन्ध से सम्पूर्ण वन को सुगन्धित करतो हुइ सत्यवती नाम की परम सुन्दरी धीवर राज की कन्या अकस्मात उनकी नजर में आ गई। उसके बाद उसकी अद्भुत रूप और विस्मय पैदा करने वालो सुगन्ध से मुग्ध महाराज ने उसके साथ विवाह करने की इच्छा से उसके पिता से याचना की।

देवव्रत- इसके बाद उनके द्वारा क्या कहा गया ?

आमत्य- इसके बाद उनके द्वारा कहा गया- महाराज। इस प्रकार के सम्बन्ध स किसका अप्रिय होगा, परन्तु मैं आपके साथ सत्यवती का विवाह तभी करूँगा जब आपके बाद इसका पुत्र राजा होगा। “यह आप प्रतिज्ञा करें”।

देवव्रत- इसके बाद महाराज ने क्या बोला?’

आमत्य- इसके बाद महाराज ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और इसके बाद आकर ”कैसे ज्येष्ठ पुत्र को छोड़कर सत्यवती पुत्र को राज्य देना इस प्रतिज्ञा के अभाव में और कैस सत्‍यवती को पाया जा सकता है, इसी विषय में दिन-रात चिन्तन करते रहते हैं। यही उनकी चिंता और

दु:ख का कारण है।

देवव्रत- हे महामंत्री ! यदि मात्र इतना ही कारण है तो इसके लिए कुछ नहीं करना है। इसी समय मैं उसको दूर करने का उपाय करता हूँ।

(प्रणाम कर निकलता है।)

तृतीय दृश्य

(वन में धीवर राज के समीप देवव्रत का जाना और पुकारना, धीवर जल निरीक्षण में लगा है)

धीवर (देवव्रत को देखकर अपने-आप) इस राजकुमार की तेजस्विता तो अजीब है। (प्रकट होकर) कुमार! आपका परिचय और आने का कारण जानना चाहता हूँ।

देवव्रत- हे दाशराज! महाराज का प्रिय पुत्र, देवव्रत मेरा नाम है और यह है मेरे आगमन का कारण आपकी कोई सत्यवती नाम की परम सुन्दरी कन्या है।

धीवर- हाँ, है एक।

देवव्रत- उसके साथ विवाह के लिए मेरे पिता की चरणे चिन्ताकुल हैं। इसलिए आप सत्यवती को प्रदान कर महाराज को चिन्तामुक्त करें, यही निवेदन करने के लिए मैं आपके समीप आया हूँ।

घीवर- महाराज कुमार। आपके पिता की चिन्ता दूर करने का उपाय आपके ही हाथ में है।

देवव्रत- वह किस प्रकार का?

धीवर- यही कि महाराज शान्तनु के पश्चात् सत्यवती का पुत्र ही जब राज्याधिकारी होगा तब ही मैं उसकी महाराज के साथ विवाह करूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है और आप महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं। धार्मिक रूप से आप ही राज्य के अधिकारी हैं। इसलिए मैं सत्यवती पुत्र के राज्य लाम की सम्भावना कैसे मान लूँ । यही सत्यवती प्रदान के मार्ग में बड़ी बाधा है।

देवव्रत- (दृढ़ स्वर में) दाशराज! यह कोई बाधा नहीं है। आपकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए मैं दृढ़ संकल्प हूँ। महाराज के बाद सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा यह मैं सैकड़ों बार सबों के सामने उद्घोषणा करता हूँ। इसलिए आप निर्भय होकर विवाह के लिए निश्चय कर लें।

धीवर— यह सत्य है। आपकी प्रतिज्ञा में मेरा तनिक भी संदेह नहीं है। परन्तु आपके बाद, यदि आपका कोई पुत्र आपकी प्रतिज्ञा भंग कर दिया तो सत्यवती पुत्र की क्या गति होगी।

देवव्रत- ऐसा नहीं होगा। यह भी आपका भय और संदेह को मैं दूर कर देता हूँ। सत्यवती के पुत्र ही राज्याधिकारी होगा ऐसा मेरे द्वारा पहले ही प्रतिज्ञा की जा चुकी है। इसके बाद भी यदि आपके मन में इस प्रकार की शंका है तो पुन: मैं भीषण प्रण करता हूँ कि मैं कभी भी विवाह नहीं करूंगा और आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत धारण करूंगा।

हे दाशराज । आज दिन से मैं ब्रह्मचर्य को धारण करूँगा। बिना पुत्र का भी मुझे अक्षय स्वर्ग लोक प्राप्त होगा।

और भी इससे भी अधिक बात है तो मैं पुनः घोषणा करता हूँ तीनों लोकों को छोड़ सकता है, देव लोक में स्थान का त्याग कर सकता हूँ फिर यह राज्य क्या है। लेकिन मेरी सत्य प्रतिज्ञा कभी असत्य नहीं होगी। भले ही— पृथ्वी गन्ध को छोड़ दे, जल अपने में रस का परित्याग कर दे, प्रकाश अपना रूप त्याग दे, वायु अपना स्पर्श गुण त्याग दे, सूर्य अपनी प्रभा त्याग दे, धुमकेतु अपनी गर्मी त्याग दे, आकाश शब्द को त्याग दे, इन्द्र अपना पराक्रम त्याग दे, धर्मराज अपना धर्म छोड़ दें। लेकिन मैंने जो आपको सत्य कहा है वह कभी असत्य नहीं होगा।

(नेपथ्य में ‘धन्य हो’ आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)

धीवर- (हाथ जोड़कर) हे राजकुमार। तुम धन्‍य हो, आदर्श पुत्र हो। आप जैसे ही पुत्र से यह भारत की भूमि अपने-आप को धन्‍य-धन्‍य मानती है। महानुभव इस समय आप जाएँ। शीघ्र ही मैं महाराज की मनोरथ को पूरा करता हूँ।

Read More – click here

Bhishm Pratigya Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 मधुराष्‍टकम् ( आठ मधुर गीत ) – Madhurastakam in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 6 (Madhurastkam) “ मधुराष्‍टकम् (आठ मधुर गीत)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। यह पाठ एक प्रार्थना है, जो भगवान श्रीकृष्‍ण को समर्पित है।

Madhurastakam

6. मधुराष्‍टकम् (Madhurastkam)

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मथुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। 1।।

अर्थ– उनका ओष्‍ठ मधुर, शरीर मधुर, नयन मधुर, हंसी मधुर, हृदय मधुर, चलना मधुर मधुराधिपति का सारा चीज मधुर है।

वचन मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् घलितं मधुरं।
भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलम् मधुरम् ॥ 2 ॥

अर्थ- उनकी बोली मधुर, जीवन मधुर, वस्त्र मधुर, केश मधुर, चाल मधुर, घूमना मधुर, मधुराधिपति भगवान श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। 3 ॥

अर्थ- उनकी बाँसुरी मधुर, चरण धुलि मधुर, हाथ मधुर, दोनों पैर मधुर, नाच मधुर, दोस्ती मधुर मधुराधिपति भवगान श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।

गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम्।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 4 ॥

अर्थ- उनका गीत मधुर, पीताम्बर मधुर, खाना मधुर, सोना मधुर, रूप मधुर, चन्दन मधुर, मधुराधिपति भगवान श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।

करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥5॥

अर्थ- उनका कार्य करना मधुर, तरण करना मधुर, हरण करना मधुर, रमण करना मधुर, वमन करना मधुर, शमन करना मधुर, मधुराधिपति श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।

गुंजा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 6॥

अर्थ- उनकी गुंजा (वैजन्ती) मधुर, माला मधुर, यमुन मधुर, घाट मधुर, जल मधुर, कमल मधुर, मधुराधिपति भगवान श्रीकृष्ण का सबकुछ मधुर है।

गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम्।
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलम् मधुरम् ॥ 7 ॥

अर्थ- उनकी गोपी मधुर, लीला मधुर, मिलन मधुर, बिछुरना मधुर, देखना मधुर, आचार मधुर मधुराधिपति भगवान श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।

गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा मुष्टिर्मधुरा
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥8॥
अर्थ- उनकी ग्वालिन मधुर, गाय मधुर, बिछुरना मधुर, मिलना मधुर, दलन करना मधुर, फल देना मधुर मधुराधिपति भगवान् श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।

Read More – click here

Madhurastkam Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 संसार मोह: (संसार से मोह) – Sansar Moh in Hindi

sansar moh
इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 5 (Sansar Moh) “संसार मोह: (संसार से मोह)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।
sansar moh
Sansar Moh

5. संसार मोह: (Sansar Moh)

एकदा भगवान् नृसिंहः स्वस्य प्रियं भक्त प्रहलादम् अवदत्- ‘किमपि वरं याचस्‍व’ इति । तदा प्रहलादः उक्तवान् – “भगवन् ! संसारस्य एतान् दीनदुःखिन: जीवान् त्यक्त्वा अहम् एकाकी मुक्तः भवितुं न इच्छामि । कृपया भवान् एतान् सर्वान् अपि जीवान् स्वीकृत्य बैकुण्ठं प्रति गमनाय अनुमति ददातु’ इति ।

भगवान् अवदत्- ये गतुं न इच्छन्ति तान् सर्वान् अपि जीवान् बलपूर्वक बैकुण्ठं कथं नयेत् भवान्?

प्रहलादः अवदत्- ईदृशः को भविष्यति यो वैकुण्ठं गन्तुं न इच्छेत् ? तर्हि त्वमेव सर्वान् पृष्ट्वा ये वैकुण्ठं गन्तुम् इच्छन्ति तान् स्वीकृत्य आगच्छ इति असूचयत् देवः । ततः प्रहलादः प्रच्छनार्थं गतवान्।

ब्राह्ममणाः उक्तवन्तः- इदानीं यजमानस्य यागः करणीयः अस्ति । किञ्च पुत्रः गुरुकुलं गतवान् अस्ति, यदा सः गुरुकुलतः आगमिष्यति तदा विवाहः कारणीयः अस्ति । अतः वयम् इदानीं वैकुण्ठं गन्तुं न अभिलषामः इति।

परिव्राजकाः उक्तवन्तः– वयं तु मुक्ताः एव स्मः। किन्तु शिष्याणां तत्वज्ञान न जातम् अस्ति। अतः ये उपदेष्टव्या सन्ति अस्माभिः इति। एवम् एव राजानः राज्यस्य विषये, वणिजः वाणिज्यविषये, सेवकाः गृहविषये च उक्तवन्तः। पशु-पक्षिणः अपि स्वस्य परिवारपोषणे रताः आसन्। एवं सर्वे अपि प्राणिनः प्रह्लादेन सह वैकुण्ठं प्रति गमनं तिरस्कृतवन्तः । यद्यपि वैकण्ठ सवेऽपि इच्छन्ति स्म एव, तथापि झटिति गमनाय कोऽपि उद्युक्तः न आसीत्। प्रहलादः अन्ते एकस्य वराहस्य समीपं गतवान्। तदा वराह: अपृच्छत्- वैकुण्ठे किम् अस्ति? इति। प्रहलादः अवदत्- तत्र अनन्तः आनन्दः अस्ति इति ।

वराहः पुनः अपृच्छत्— मम भार्यां पृच्छतु, अहं तु एकाकी गन्‍तुं न इच्छामि।

तदा प्रहलादः अवदत्- तर्हि तान् बालकान् च आदाय चलतु।

 वराहस्य पत्नी वैकुण्ठगमनप्रस्ताव श्रुत्वा पृष्टवती- किं तत्र अस्माभिः भोजनं प्राप्यते?

प्रहलादः अवदत्- तत्र तु बुभुक्षा एव न भवति । अत: भोजनस्य समस्या नास्ति तत्र। तदा सूकरी अवदत्- यत्र बुभुक्षा न भवति तत्र गत्वा वयं रूग्णाः एव भवेम।

“तत्र कोऽपि कदापि रूग्ण: न भवति” इति विवृतवान् प्रहलादः।

तदा सूकरी दुकवरेण अवदत्- ”यत्र अस्‍माभि: भोजनं न प्राप्‍येत तं देशं वयं गन्‍तुं न इच्‍छाम:”

प्रहलादः निराशतां प्राप्य भगवतः समीपं गत्वा उक्‍तवान्- भगवन्! सर्वेऽपि प्राणिनः स्वस्य एव कौटुम्बिकव्‍यापारे मग्‍ना: सन्ति। वैकुण्‍ठ गन्‍तुं कोऽपि उद्युक्‍त: नास्ति”।

हिन्‍दी अर्थ – एक बार भगवान् नृसिंह ने अपने प्रिय भक्‍त प्रह्लाद को कहा- कोई वर मांगों, तब प्रह्लाद ने कहा “भगवन्! संसार के इतने दीन-दुखियों, जीवों को छोड़कर मैं अकेले मुक्ति पाना नहीं चाहता हूँ। कृपया इन सभी जीवों को अपना बनाकर बैकुण्‍ठ की ओर जाने के लिए अनुमति प्रदान करें।”

भगवान ने कहा- जो नहीं जाना चाहते हैं उन सभी जीवों को बलपूर्वक बैकुण्ठ क्‍यों ले जा रहे हैं आप? प्रह्लाद बोला— ऐसा कौन होगा जो बैकुण्‍ठ जाना नहीं चाहेगा? भगवान ने कहा- तो तुम ही सबों को पूछकर जो बैकुण्ठ जाना चाहते हैं उन सबों को लेकर आ जाओ। इसके बाद प्रह्लाद पुछने के लिए चला जाता है।

ब्राह्मणों ने कहा- इस समय यजमान का यज्ञ कराना है। किसी का पुत्र गुरूकुल गया है, जब वह गुरुकुल से आयेगा तो उसका विवाह करना है। इसलिए हमलोग की इस समय बैकुण्‍ठ जाने की अभिलाषा नहीं है।

संन्यासियों ने कहा- हमलोग तो मुक्त ही हैं। किन्‍तु शिष्यों को तत्त्व ज्ञान नहीं हुआ है। अतः उनलोगों को मुझे उपदेश देना है। इसी प्रकार राजा लोग राज्य के विषय में, बनिया लोग व्यापार के विषय में, सेवक लोग घर के विषय में बोला। पशु-पक्षियों भी अपने परिवार के पोषण में लगे थे। इस प्रकार सभी प्राणि प्रह्लाद के साथ बैकुण्‍ठ की ओर जाने के लिए स्वीकार नहीं किया। जबकि बैकुण्ठ सभी चाहते थे, इसके बाद भी जल्दीबाजी में जाने को कोई भी तैयार नहीं थे। प्रह्लाद अन्त में एक सूअर के समीप गये । सूअर ने पूछा- बैकुण्ठ में क्या है। प्रहलाद ने कहा-वहाँ अनन्त आनन्द है।

सूअर ने पुनः पूछा- मेरी पत्नी को पूछिये, मैं तो अकेले जाना नहीं चाहता हुँ।

तब प्रह्लाद ने कहा- तो उन बच्चों को लेकर चलो। सूअर की पत्‍नी बैकुण्‍ठ गमन के प्रस्ताव को सुनकर पुछती है- क्या वहां हमलोगों को भोजन मिलेगा? प्रह्लाद ने कहा- वहाँ तो भूख ही नहीं लगती है। इसलिए भोजन की समस्या वहाँ नहीं है।

तब सूअरी ने कहा- जहाँ भूख नहीं होती है वहाँ जाकर हमलोग बीमार ही हो जायेंगे। प्रह्लाद ने बताया- “वहाँ कोई भी, कभी भी बीमार नहीं होता है।

तब सुअरी ने दृढ़ स्वर में कही- जहाँ हमलोगों को भोजन नहीं प्राप्त हो उस देश की ओर हमलोग जाने को इच्छा नहीं करते हैं।

प्रह्लाद निराश होकर भगवान के समीप जाकर कहा- भगवन्! सभी प्राणि अपने ही पारिवारिक कार्य में मग्न हैं। बैकुण्ठ जाने के लिए कोई भी तैयार नहीं है।

Read More – click here
Sansar Moh Video –  click here
Class 10 Science –  click here
Class 10 Sanskrit – click here

संस्कृत कक्षा 10 हास्‍य कणिका: (हँसाने वाले कथन) – Hasya Kanika in Hindi

Hasya Kanika
इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 4 (Hasya Kanika) “हास्‍य कणिका: (हँसाने वाले कथन)” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।
Hasya Kanika
Hasya Kanika

4. हास्‍य कणिका: (हँसाने वाले कथन)

1. न्यायाधीश:- भोः! किं त्वं जानासि, यदि असत्यं वदिष्यसि तर्हि कुत्र गमिष्यसि?
अपराधी- आम् श्रीमान् ! नरकं गमिष्यामि।
न्यायाधीश:- अथ चेत् सत्यं वदिष्यसि तर्हि ?
अपराधी- कारागारं गमिष्यामि श्रीमान्।

1. न्यायाधीश कहता है- ओ! क्या तुम जानते हो यदि झूठ बोलोगे तो कहाँ जाओगे?
अपराधी— हाँ श्रीमान्! नरक जाऊंगा।
न्यायाधीश– यदि तुम सत्य बोलते हो तो?
अपराधी- जेल जाऊँगा श्रीमान्।

2. गुरुः (छात्रान् प्रति) – यदि अत्र देवः प्रत्यक्षः भवेत् तर्हि भवन्‍त: किं किं प्रार्थयेयुः?
प्रथमः छात्रः- अहं तु धनं प्रार्थयिष्यामि।
द्वितीयः छात्रः- अहं तु गृहं प्रार्थयिष्यामि।
तृतीयः छात्रः- अहं तु प्रभुत्वं प्रार्थयिष्यामि।
गुरु:- भवन्तः सर्वे मूर्खाः सन्ति। अहं तु विद्यां बुद्धिं च प्रार्थयिष्यामि।
छात्रा:- यस्मिन् यत् नास्ति तदेव सः प्रार्थयति, गुरुवर्य!

2. गुरु (छात्रों से) यदि यहाँ भगवान सामने हो जाएँ तो आपलोग क्या-क्या प्रार्थना करेंगे।
प्रथम छात्र- मैं तो धन के लिए प्रार्थना करूँगा।
द्वितीय छात्र- मैं तो घर के लिए प्रार्थना करूंगा।
तृतीय छात्र- मैं तो प्रभुत्व (महान होने की अवस्‍था) के लिए प्रार्थना करूँगा। गुरु- आप सभी मूर्ख हैं मैं तो विद्या और बुद्धि के लिए प्रार्थना करूंगा।
लड़के- हे गुरु श्रेष्ठ। जिसके पास जो चीज नहीं होती है वह उसी वस्तु के लिए प्रार्थना करता है।

3. पतिः (उच्चैः, पत्नीं प्रति) – मम स्नानाय उष्णं जलं शीघ्रम् आन, अन्यथा……..।
पत्नी (सक्रोधम्) – अन्यथा भवान् किं करिष्यति?
पतिः (ससम्भ्रमम्) – किं करिष्यामि? शीतलैः जलैः एव स्नानं करिष्यामि।

पति (ऊँची आवाज में पत्नी को)– मेरे स्नान के लिए गर्म जल जल्‍दी से लाओ अन्यथा……।
पत्नी (गुस्सा में)- अन्यथा आप क्या कर लेंगे?
पति (मुस्कुराते हुए)— क्या करूंगा? ठण्डा पानी से ही स्नान करूंगा।

4. मातुल (श्रीधरः प्रति) – वत्‍स, त्‍वं कथं न स्‍वाध्‍ययनं करोषि? किं त्‍वं जानासि यत् पं० जवाहर लाल नेहरू: यदा तव वयसि आसीत् तदा स: स्‍वकक्षायां प्रथमं स्‍थानं प्राप्‍नोति स्‍म?
श्रीधर: – जानामि मातुल! जानामि, पं. जवाहर लाल नेहरूः यदा भवतः वयसि आसीत् तदा सः भारतदेशस्य प्रधानमंत्री आसीत्।

4. मामा (श्रीधर को)- वत्स! तुम क्यों नहीं स्वाध्याय करते हो? क्या तुम जानते हो कि जवाहरलाल नेहरू जब तुम्हारी उम्र के थे, तो उस समय वे अपने वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त किया करते थे।
श्रीधर- जानता हूँ मामा । जानता हूँ, पं. जवाहरलाल नेहरू जब आपके उम्र के थे, तो उस समय वे भारत देश के प्रधानमंत्री थे।

5. जनकः (अंकपत्रं दृष्ट्वा सक्रोधं पुत्रं प्रति)— घिक् वत्स, किमिदम् ? आङ्गलभाषायां षट्त्रिंशत्, गणितविषये पञ्चत्रिंशत्, विज्ञानविषयेऽपि पञ्चत्रिंशत् हिन्दीभाषायां सप्तत्रिंशत् अङ्काः त्वया लब्धाः । धिक् त्वां धिक् !
माता (पतिं प्रति) – स्वामिन्! इदं पुत्रस्य अङ्कपत्रं नास्ति। इदं तु भवतः अंकपत्रम् अस्ति। इदं मया भवत: पेटिकायां प्राप्तम्।

5. पिता- (अंक-पत्र देखकर) गुस्सा में पुत्र से कहता है। धिक्कार है बेटा, यह क्या? अंग्रेजी में 36, गणित में 35, विज्ञान में भी 35, हिन्दी में 37 अंक तुमने पाये। धिक्कार! तुमको धिक्कार है!
माता (पति से)- स्वामी। यह पुत्र का अंक-पत्र नहीं है। यह तो आपका अंक-पत्र है। यह मैंने आपकी पेटी से निकाला है।

6.  एकदा त्रयः जनाः (अमेरिकादेशीयः, नाइजीरियादेशीयः, अन्यदेशस्य ईर्ष्यालुः च)
भगवतः शिवस्य तपस्याम् अकुर्वन्। तेषां तपसा प्रसन्नो भूत्वा शिवः प्रत्यक्षः अभवत् अकथयत् च- पुत्र, वरं वरय।
प्रथमः- भगवन्, धनं ददातु ।
शिव:- तथास्तु।
द्वितीयः- भगवन्, मह्यं गौरवर्णं ददातु।
शिव:- तथास्तु।
तृतीयः- (प्रथमस्य द्वितीयस्य च धनं रूपं च दृष्ट्वा ईर्ष्यावशात् ) – भगवन्, प्रथमं द्वितीयं च पूर्ववत् करोतु ।

6. एक बार तीन लोग (अमेरिका, नाइजीरिया और अन्य देश के ईर्ष्यालु) भगवान शिव की तपस्‍या करना प्रारम्भ किया। उन सबों की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव प्रकट हो गये और कहे- पुत्र, वरदान मांगो।
प्रथम- भगवन् ! धन दें।
शिव- ऐसा ही हो।
द्वितीय- भगवन् । मुझे गोरा रंग प्रदान करें। शिव-ऐसा ही हो।
तृतीयः- (पहला का धन और दूसरा का रूप देखकर ईर्ष्यावश) भगवन्, पहला और दूसरा को पहले जैसा कर दें।

Read More – click here

Hasya Kanika Video –  click here

Class 10 Science –  click here

Class 10 Sanskrit – click here