इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 5 (Sukeswarashtakam) “ शुकेश्वराष्टकम् ( शुकेश्वर अष्टक ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ: सनातन स्वरूप, पुरातन स्वरूप परोपकार को साधने वाले भक्तों की इच्छा पूरा करने वाले और कामदेव के गर्व को चूर करने वाले शुकेश्वर महादेव को मैं प्रणाम करता हूँ। शुकेश्वर को मैं प्रणाम करता है, शुकेश्वर को प्रणाम करता हूँ, शकेश्वर को प्रणाम करता हूँ।
जगत के अज्ञानतारूपी तम को विनाश करने वाले, सदैव अक्षरता को प्रदान करने वाले सत्याचरण करने वालों के सहायक, सदाशिव, सुनायक शुकेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।
सज्जनों के सदैव सुरक्षक दुश्चरित्रों के बाधक भजनेवालों के मन में बिहार करने वाले तथा दुश्मन समुद्र को सदैव पीड़ा देने वाले भगवान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ।
उमापति, सतीपति तथा महागति देने वाले भगवान शंकर को प्रणाम है। कालिकापति तारिकापति भगवान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ।
जटाधारी, त्रिलोचन, गंगा जल से जिनका मस्तक गीला रहता है, हाथी की खाल को धारण वाले, त्रिशूल नामक शस्त्र धारण करने वाले भगवान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ। द्वितीया के चन्द्रमा से शोभित सुन्दर दिव्य पुष्पों से पूजित होने वाले, मयूर के गीत से संतुष्ट होने वाले भक्ति के सुन्दर गायन करने वाले, भगबान शुकेश्वर शिव को प्रणाम करता हूँ।
जल के प्रिय, महेश्वर, कृषि में फल देने वाले मनुष्य के ईश्वर, शुक के ईश्वर, सहपात्रों को सदैव पालन करने वाले भगवान् शुकेश्वर शिव को मैं प्रणाम करता हूँ। .
सुन्दर ज्ञान देने वाले, सुन्दर भक्ति देने वाले, सुन्दर भोग देने वाले, भुक्ति देनेवाले, धर्म-अर्थ, काम-मोक्ष (चतुष्फल) को प्रदान करने वाले, विशाल रूप धारण करने वाले भगवान शुकेश्वर शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।
वैद्यनाथ के द्वारा गाया गया यह शुकेश्वर अष्टक जो व्यक्ति भक्तियुक्त होकर पाठ करेगा उसे भगवान शिव मनोकामना पूरा कर देते हैं।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 12 (Swamin Vivekanand Vyatha) “ स्वामिन: विवेकानन्दस्य व्यथा ( स्वामी विवेकानन्द की व्यथा ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
12. स्वामिन: विवेकानन्दस्य व्यथा
1893 तमस्य वर्षस्य सितम्बरमासः। स्वामी विवेकानन्दः अमेरिकादेशे आयोजिते विश्वधर्मसम्मेलने भागं गृहीतवान् । तस्य भाषणानां कीर्तिः सर्वत्र प्रसता जाता । अमेरिकानिवासिनः ततः अत्यन्तम् आकृष्टाः जाताः।
अर्थ :1893 ई. सन् वर्ष का सितम्बर मास था। स्वामी विवेकानन्द अमेरिका देश में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिए थे। उनके भाषण का यश सब जगह फैल गया । अमेरिका निवासी भाषण से बहुत आकृष्ट हुए।
कोई अमेरिकी दम्पत्ति स्वामी विवेकानन्द को अपने घर के लिए निमंत्रण देते हुए कहा | “हमारे घर में भोजन और विश्राम करके हमलोगों पर अनुग्रह कीजिये । स्वामी जी ने उन दोनों के निवेदन को स्वीकार कर लिए। वे उसके घर जाकर रात्रि में भोजन किये।
दम्पत्ति ने उनके शयन की व्यवस्था एक कमरा में कर रखी थी। सारी व्यवस्था बहुत अच्छी थी। निकट में स्थित कमरे में दम्पत्ति का विश्राम स्थल था।
अर्धरात्रि में महिला ने किसी को रोने की आवाज सुनी। किसका रोना है, यह बात उसके समझ में तत्क्षण नहीं आयी। इसके बाद कुछ संदेह होने पर वह निकट के स्थित कमरे के समीप गई तब वह जान पाई कि रोने की आवाज विवेकानन्द के कमरे से ही आ रही है। वह शीघ्र ही पति को जगाई और उसके साथ विवेकानन्द के कमरे में गई। वहाँ उन दोनों ने रोते हुए स्वामी जी को देखा। उन दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। रोने के कारण आँसू से पूरा बिछावन गीला हो गया था। स्वामी जी। हमारी व्यवस्था में कोई कमी हुयी है क्या? क्यों आप रो रहे हैं? यदि व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कमी है तो क्षमा कर दीजिये। हमलोगों को यह बात गृह स्वामिनी बोली। उन दोनों के आगमन देखकर विवेकानन्द थोड़े समय के लिए शांत रहे । अपना रोना उन दोनों के द्वारा देख लिया गया इससे थोड़ा लज्जा भी हुई। थोड़ा रूककर रोना यत्नपूर्वक रोक कर उन्होंने कहा- “माफ कीजिये हमको ही आप दोनों । आपने अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट भोजन परोसी थी। सुख देने वाला बिछावन की व्यवस्था भी है। सारी व्यवस्था अच्छी और दोषरहित ही है। मेरे रोने का कारण यहाँ की व्यवस्था बिल्कुल नहीं है। भोजन कर जब मैं बिछावन पर विश्राम कर रहा था तब मेरी आँखों के सामने मेरे देश के बान्धवों का चित्र आ गया। ठीक से वे लोग भरपेट भोजन भी नहीं प्राप्त करते हैं। शीतकाल में पर्याप्त ओढ़ने के लिए भी उनके पास वस्त्र नहीं होते हैं। दुःख दरिद्रता से पूर्ण जीवन-यापन करते असंख्य भारतीय मेरे स्मरण में आ गये। उससे मन दुःखी हो उठा।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 11 (paryatnam) “ पर्यटनम् ( देशाटन ) ” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
अर्थ: (क) नासिक क्षेत्रम्– महाराष्ट्र प्रदेश में पवित्र गोदावरी नदी के किनारे नासिक क्षेत्र शोभता है । शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण के द्वारा यहीं काटी गई थी। इसी कारण इस स्थान का नाम यहाँ के लोग नासिक बोलते हैं। नासिक के कहे जाने के अनेक कारण प्रसिद्ध हैं। गोदावरी के एक तरफ नासिक नगर है और दूसरी तरफ पञ्चवटी नामक क्षेत्र है। कुम्भमेला यहीं लगता है, इसी कारण नासिक क्षेत्र को प्रयाग और हरिद्वार के जैसा पवित्र श्रद्धालु लोग मानते हैं। बारह वर्षों में एक बार आता है। यह कुम्भ मेला। उस समय इस क्षेत्र में भक्तों की भीड़ होती है वैसी जगह कहीं भी खोजने पर नहीं दिखाई पड़ती है। आगे के कुम्भ मेला के निमित्त गत वर्ष से ही हो रहे कार्य चल रहे हैं। गोदावरी देखने के लिए नदी के तीर पर जब गया तो मझे आश्चर्य हुआ, क्या वहाँ जल ही नहीं था। इसका कारण ज्ञात हुआ कि-कुम्भ मेला के निमित नदी के दोनों तटों पर व्यवस्था की गयी है। इस समय नदी की धारा अन्यत्र ही है। इसलिए श्रीराम कुण्ड नामक स्थान से यहाँ तक नदी का केवल आकार ही दिखाई पड़ता है न कि जल । वहाँ कोई कर्मचारी कार्य में लगे नहीं थे।
श्री राम कुण्ड के समीप स्थित किसी भवन में श्रद्धालु लोग धार्मिक अनुष्ठान में लगे थे। उसी के निकट के भवन में महात्मा गाँधी की चिता का भस्म सुरक्षित है। श्री रामकुण्ड की यह विशेषता है कि यहाँ किसी निश्चित स्थान पर विसर्जन किया गया हड्डी कुछ ही घंटों में गल जाती है। हमलोग यह भी जानें कि- हड्डी जल में आसानी से नहीं चुनी जा सकती है। यहाँ वह कम समय में ही विलीन हो जाती है। यहाँ अस्थि-विसर्जन अत्यन्त पुण्यकर्म माना जाता है। इसलिए यहाँ अस्थि-विसर्जन करने देश के अनेक भागों से बहुतों श्रद्धालु लोग यहाँ आते हैं।
गोदावरी नदी के तीर पर स्थित त्र्यम्बकेश्वर मंदिर नारोशंकर मंदिर तथा नासिक क्षेत्र के अन्य स्थान देखने योग्य हैं। सरदार नारो शंकर नामक राजा के द्वारा 1747 ई. सन् में 18 लाख रुपये के खर्च से निर्मित यह मंदिर शिल्प कला की दृष्टि से अत्यन्त विशिष्ट स्थान रखता है। मंदिर के ऊपर कोई बहुत बड़ी घण्टा बँधा है, जो पोर्चुगल देश में बना, ऐसा लोग कहते हैं। उसकी आवाज सम्पूर्ण नासिक नगर में सुनी जाती है।
कालाराममंदिरम् अत्रत्यम् अपरं प्रेक्षणीय स्थानम् । विशाले सुन्दर च अस्मिन् मन्दिरे भगवतः श्रीरामस्य कृष्णशिलानिर्मिता मूर्तिः अस्ति । डा. भीमराव अम्बेदकर: अस्मिन् एव मन्दिरे हरिजनानां प्रवेशं कारयितुम् आन्दोलनम् कृतवान् आसीत्।
(ख) पंचवटी— पाँच वट वृक्षों का समूह पंचवटी ऐसा हमलोगों के द्वारा पढ़ा गया। उसके नाम से कहे जाने वाले स्थान पर आज भी पाँच वट वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। जीर्ण पुराने महा वृक्ष के स्थान पर उसी की जड़ से ही उत्पन्न ये पाँचों वृक्ष उतने विशाल नहीं हैं। जैसा कि हमलोग सोचते होंगे। पाँच की संख्या में वृक्ष बँटें दिखाई पड़ते हैं। पंचवटी के सामने ही सीता गुहा है। जब शूर्पणखा की नाक काट ली गई तब राक्षसों के आक्रमण की सम्भावना का विचार कर श्रीराम ने इसी की गुफा में सीता को सुरक्षित रूप से रखकर स्वयं खरदूषण आदि चौदह हजार राक्षसों के साथ युद्ध किये थे । शरीर को संकुचित करके गुफा में प्रवेश करने पर भीतर नीचे भाग में स्थापित सीता, राम और लक्ष्मण की मूर्तियों की दर्शन कर सकते हैं। परन्तु हाँ, यदि आप मोटा शरीर के हैं तो गुफा में प्रवेश नहीं कर सकते है।
वहीं अन्य गुफा में प्रवेश के लिए रास्ते हैं। उस गुफा में भगवान पञ्चरत्नेश्वर का बहुत बड़ा शिवलिङ्ग है। भगवान श्रीराम अपने हाथों से इनकी पूजा की थी, ऐसा यहाँ के लोग कहते है। इस दोनों गुफा का दर्शन बहुत आनन्द देता है। उसी के सामने ही जगह को कुछ लोग बताते है कि यहाँ मारीच मारा गया था। काला राम मंदिर यहाँ का दूसरा देखने योग्य स्थान है। विशाल और सुन्दर इस मंदिर में भगवान श्रीराम की काला पत्थर से निर्मित मूर्ति है। डॉ. भीमराव अम्बेदकर इसी मंदिर में हरिजनों के प्रवेश कराने के लिए आन्दोलन किये थे ।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ ( Sanskriten jivnam) “संस्कृतेन जीवनम् (संस्कृत से ही जीवन सफल होता है)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ9 (Aho, saundaryasya asthirta) “संसार मोह: (संसार से मोह)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।इस कहानी के माध्यम से सुन्दरता पर ध्यान न देकर अच्छे कामों पर ध्यान देने की प्रेरणा दी गई है।
अर्थ : कोई राजकुमार था । वह बहुत सुन्दर था । अपने सौन्दर्य के विषय में बहुत गर्व था
राज्य के नियम के पालन में उसका तनिक भी आदर नहीं था। सदैव अपने सौन्दर्य के विषय ही उसका मन लगता था । इस प्रकार की आदत देखकर प्रधान मंत्री सदैव दुःखी रहा करता था। राज्य पालन में युवराज की अनास्था को कौन मंत्री सहेगा? उचित उपदेश के द्वारा युवराज में जागृति लाकर अच्छे मार्ग पर उसको लौटाने का उसने निश्चय किया।
इसके बाद कभी अपने सौन्दर्य बढ़ाने में लगे राजकुमार को देखकर वह बोला श्रेष्ठ युवराज! कल ही आप अधिक सुन्दर थे।”
ऐसा सुनकर युवराज अत्यन्त खिन्न होकर उस मंत्री से पूछा- श्रेष्ठ मंत्री जी ! क्या आज मेरा सौन्दर्य कम है? क्यों आप ऐसा बोले?
“जैसा है वैसा ही मेरे द्वारा बोला गया है” गम्भीर स्वर से मंत्री ने बोला ।
आज मेरा सौन्दर्य अन्य दिनों से कम नहीं है। यदि कम है यह आप समझ रहे हैं तो उसका प्रमाण सहित साबित करें।
“ठीक है, साबित करता हूँ इसी ही क्षण में” इस प्रकार बोलकर मंत्री निकट में स्थित आदेश पाल को बुलाकर-जल सहित पात्र को लाओ, इस प्रकार का आदेश दिया। एक जलपात्र को राजकुमार और मंत्री के सामने रखकर वह आदेशपाल वहाँ से निकल गया।
मंत्री उस पात्र से थोड़ा जल उठाकर बाहर फेंक दिया। उसके बाद वह बाहर गया और सेवक को बुलाकर पूछा- बर्तन का जल जैसे पहले था वैसे ही है या कम।
आदेशपाल ने कहा- पहले की स्थिति में ही जल है।
तब आमत्य (प्रधानमंत्री) ने राजकुमार को समझाते हुए कहने लगा ऐसा ही होता है सौन्दय भी। वह क्षण-क्षण समाप्त हो रहा है। किन्तु हमलोग उसको नहीं समझ पाते हैं। सौन्दर्य स्थिर नहीं होता है। उत्तम कार्य करने से जो यश प्राप्त होता है वही अत्यन्त स्थिर है। प्रजा का पालन करना आपका कर्तव्य है। उसे श्रद्धा से करें। इससे उत्तम यश की प्राप्ति होती है।
यह सुनकर राजकुमार अपने दोष से अवगत होकर राज्यपालन में मन लगाना आरम्भ कर दिया।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 8 (Vrikshe Samam Bhavtu me Jeevnam) “वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् (मेरा जीवन वृक्ष के समान हो)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे। इस पाठ में मनुष्य को वृक्ष से प्रेरणा लेने की बात कही गई है।
वसन्तकाले सौरभयुक्तैः
सन्ततिकाले दर्पविमुक्तः
शीतातपयोः धैर्येण स्थितैः
वृक्षः समं भवतु मे जीवनम् ।
वर्षाकाले आह्लादयुक्तैः
शिशिर निर्भीकचित्तैः
हेमन्तकाले समाधिस्थितैः
वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् ।
क्षुधार्तेभ्यः फलसन्तते: दानम्
शरणागतेभ्यः आश्रयदानम्
आतपार्तेभ्यः छायादानम्
वृक्षाणां व्रतं, तद्वत् स्यान्मे जीवनम्।
कृतं यैः सीतायाः सतीत्वरक्षणं
बुद्धस्य आत्मज्ञानस्य साक्ष्यम्
पाण्डवशस्त्राणां गोपनम्
वृक्षैः समं भवतु मे जीवनम्।
शुष्कतायां सम्प्राप्तायाम् अपि
यैः अर्प्यते जीवनं परेषां कृते
आत्मा दह्यते चुल्लिकायां यैः मुदा
वृक्षः समं भवतु मे जीवनम् ।
आ जन्मनः समर्पणम् आमरणं
लोकस्य हितायैव येषां जीवनम्
जीवनं मृतिश्चापि येषां सार्थकं
वृक्षै: समं भवतु मे जीवनम् ।
अर्थ- वसन्त काल में सुगन्धों से युक्त
फल काल में घमण्ड से दूर
शीत-गर्मी में धैर्य से स्थिर रहने वाले
वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।
वर्षा काल में आह्लाद से युक्त
शिशिर में निर्भीक चित्त
हेमन्त काल में समाधि रूप में स्थिर रहनेवाले वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।
भुख से व्याकुलों के लिए फलरूपी संतान का दान, शरण में आए लोगों के लिए आश्रय दान, गर्मी से व्याकुल लोगों के लिए छाया दान आदि वृक्षों के व्रत सादृश हो मेरा जीवन ।
किया गया जिसके द्वारा सीता के सतीत्व का रक्षण, जिसने बना बुद्ध के आत्मज्ञान का साक्षी और जिसने पाण्डवों के शस्त्रों को गुप्त रूप में रखा, उस वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।
शुष्कता प्राप्त कर (सूख कर) भी जिसके द्वारा अर्पित है जीवन दूसरों के कार्य के लिए, जिसके द्वारा मरकर भी चुल्हा में अपने-आपको जलाया जाता है। उस वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।
जन्मकाल से ही समर्पण का भाव मरण तक लोक को हित के लिए जिसका हो जीवन, जिसका जीवन मर कर भी सार्थक हो उस वृक्षों के समान हो मेरा जीवन ।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 7 (Bhishm Pratigya) “ भीष्म-प्रतिज्ञा (भीष्म की प्रतिज्ञा)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे। इस पाठ में एक पिता के प्रति अपने बेटे के त्याग को दर्शाया गया है।
7. भीष्म-प्रतिज्ञा (भीष्म की प्रतिज्ञा)
प्रथमं दृश्यम्
स्थान राज-भवनम्
(उदासीन: चिन्तानिमग्नश्च देवव्रतः प्रविति)
देवव्रत:- (स्वगतम्) अहो, न जाने केन कारणेन अध मे पितृचरणा: चिन्ता विलोक्यन्ते । कि तेषां काचित् शारीरिकी पीड़ा अथवा किमपि मानसिक अमात्यसमीपं गत्वा पितुः शोककारणं पृच्छामि । पितुश्चिन्ताया अपनयनं तस्य पर प्रधानं कर्तव्यं भवति ।
पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥ धिक् तं सुतं यः पितुरीप्सितार्थ क्षमोऽपि सत्र प्रतिपादयेद् यः। जातेन किं तेन सुतेन काम पितुर्न चिन्ता हि समुद्धरेद् यः॥
भीष्म-प्रतिज्ञा (भीष्म की प्रतिज्ञा) का हिन्दी अर्थ
प्रथम दृश्य
स्थान – राज भवन
(उदासीन, और चिन्न निमग्न देवव्रत का प्रवेश)
देववत (स्वयं से) अहो, न जाने किस कारण से आज मेरे पिताजी का पैर चिन्ताकुल और उदासीन दिखाई पड़ रहा है। क्या उनमें कोई शारीरिक पीड़ा अथवा कुछ मानसिक कष्ट है। इसलिए आमत्य के समीप जाकर पिता के शोक का कारण पूछता हूँ। पिता की चिन्ता दूर करना और उनको खुश करना पुत्र का प्रधान कर्तव्य होता है।
पिता ही स्वर्ग है पिता ही धर्म है, पिता ही सबसे बड़ा तप है। पिता में प्रीति आने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
धिक्कार है, उस बेटा को जो पिता की प्रसन्नता के लिए सक्षम होकर भी वैसा नहीं कर है। उस बेटा को जन्म लेना ही किस काम का जो पिता को चिन्ता से नहीं उबार सके।
द्वितीयं दृश्य
(स्थान- आमत्य भवन)
आमात्य- (आते भीष्म को देखकर) अहो, राजकुमार देवव्रत। आवें, इस आसन की शोभा बढ़ावें।
(देवव्रत प्रणाम कर बैठता है) राजकुमार। क्या कारण है इस असमय पर आपके आने का।
देवतत- आमत्य श्रेष्ठ! आज कुछ नई बात देखकर विस्मित मन से उसके समाधान के लिए आपके समीप उपस्थित हूँ।
आमत्य- (आश्चर्य से) वह क्या है?
देवव्रत- सारे सुख साधनों के होते हुए भी न जाने आज किस कारण से मेरे पिताजी का पैर दुःखी और चिन्ताकुल लग रहा है। उसी कारण को जानना चाहता हूँ और जानकर उसे दूर करना चाहता हूँ।
आयत्य- आप जैसे आर्यपुत्र के लिए यह उचित ही है।
देवव्रत- इसलिए यदि आप इसका कारण जानते हैं तो उसे बताने से मैं धन्य हो जाऊँगा।
आमत्य – राजकुमार! सही जानता हूँ। इसका कारण तो आर्यपुत्र आप ही हैं।
देवव्रत- (आश्चर्य से) मैं ही कारण हूँ? हाय, धिक्कार है मुझको। वह किस प्रकार का है? स्पष्ट करें।
आमत्य- राजकुमार। एक दिन महाराज नौका विहार खेलते समय यमुना नदी के तीर पर घूम रहे थे। उस समय दूर से ही अपने शरीर की सुगन्ध से सम्पूर्ण वन को सुगन्धित करतो हुइ सत्यवती नाम की परम सुन्दरी धीवर राज की कन्या अकस्मात उनकी नजर में आ गई। उसके बाद उसकी अद्भुत रूप और विस्मय पैदा करने वालो सुगन्ध से मुग्ध महाराज ने उसके साथ विवाह करने की इच्छा से उसके पिता से याचना की।
देवव्रत- इसके बाद उनके द्वारा क्या कहा गया ?
आमत्य- इसके बाद उनके द्वारा कहा गया- महाराज। इस प्रकार के सम्बन्ध स किसका अप्रिय होगा, परन्तु मैं आपके साथ सत्यवती का विवाह तभी करूँगा जब आपके बाद इसका पुत्र राजा होगा। “यह आप प्रतिज्ञा करें”।
देवव्रत- इसके बाद महाराज ने क्या बोला?’
आमत्य- इसके बाद महाराज ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और इसके बाद आकर ”कैसे ज्येष्ठ पुत्र को छोड़कर सत्यवती पुत्र को राज्य देना इस प्रतिज्ञा के अभाव में और कैस सत्यवती को पाया जा सकता है, इसी विषय में दिन-रात चिन्तन करते रहते हैं। यही उनकी चिंता और
दु:ख का कारण है।
देवव्रत- हे महामंत्री ! यदि मात्र इतना ही कारण है तो इसके लिए कुछ नहीं करना है। इसी समय मैं उसको दूर करने का उपाय करता हूँ।
(प्रणाम कर निकलता है।)
तृतीय दृश्य
(वन में धीवर राज के समीप देवव्रत का जाना और पुकारना, धीवर जल निरीक्षण में लगा है)
धीवर (देवव्रत को देखकर अपने-आप) इस राजकुमार की तेजस्विता तो अजीब है। (प्रकट होकर) कुमार! आपका परिचय और आने का कारण जानना चाहता हूँ।
देवव्रत- हे दाशराज! महाराज का प्रिय पुत्र, देवव्रत मेरा नाम है और यह है मेरे आगमन का कारण आपकी कोई सत्यवती नाम की परम सुन्दरी कन्या है।
धीवर- हाँ, है एक।
देवव्रत- उसके साथ विवाह के लिए मेरे पिता की चरणे चिन्ताकुल हैं। इसलिए आप सत्यवती को प्रदान कर महाराज को चिन्तामुक्त करें, यही निवेदन करने के लिए मैं आपके समीप आया हूँ।
घीवर- महाराज कुमार। आपके पिता की चिन्ता दूर करने का उपाय आपके ही हाथ में है।
देवव्रत- वह किस प्रकार का?
धीवर- यही कि महाराज शान्तनु के पश्चात् सत्यवती का पुत्र ही जब राज्याधिकारी होगा तब ही मैं उसकी महाराज के साथ विवाह करूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है और आप महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं। धार्मिक रूप से आप ही राज्य के अधिकारी हैं। इसलिए मैं सत्यवती पुत्र के राज्य लाम की सम्भावना कैसे मान लूँ । यही सत्यवती प्रदान के मार्ग में बड़ी बाधा है।
देवव्रत- (दृढ़ स्वर में) दाशराज! यह कोई बाधा नहीं है। आपकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए मैं दृढ़ संकल्प हूँ। महाराज के बाद सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा यह मैं सैकड़ों बार सबों के सामने उद्घोषणा करता हूँ। इसलिए आप निर्भय होकर विवाह के लिए निश्चय कर लें।
धीवर— यह सत्य है। आपकी प्रतिज्ञा में मेरा तनिक भी संदेह नहीं है। परन्तु आपके बाद, यदि आपका कोई पुत्र आपकी प्रतिज्ञा भंग कर दिया तो सत्यवती पुत्र की क्या गति होगी।
देवव्रत- ऐसा नहीं होगा। यह भी आपका भय और संदेह को मैं दूर कर देता हूँ। सत्यवती के पुत्र ही राज्याधिकारी होगा ऐसा मेरे द्वारा पहले ही प्रतिज्ञा की जा चुकी है। इसके बाद भी यदि आपके मन में इस प्रकार की शंका है तो पुन: मैं भीषण प्रण करता हूँ कि मैं कभी भी विवाह नहीं करूंगा और आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत धारण करूंगा।
हे दाशराज । आज दिन से मैं ब्रह्मचर्य को धारण करूँगा। बिना पुत्र का भी मुझे अक्षय स्वर्ग लोक प्राप्त होगा।
और भी इससे भी अधिक बात है तो मैं पुनः घोषणा करता हूँ तीनों लोकों को छोड़ सकता है, देव लोक में स्थान का त्याग कर सकता हूँ फिर यह राज्य क्या है। लेकिन मेरी सत्य प्रतिज्ञा कभी असत्य नहीं होगी। भले ही— पृथ्वी गन्ध को छोड़ दे, जल अपने में रस का परित्याग कर दे, प्रकाश अपना रूप त्याग दे, वायु अपना स्पर्श गुण त्याग दे, सूर्य अपनी प्रभा त्याग दे, धुमकेतु अपनी गर्मी त्याग दे, आकाश शब्द को त्याग दे, इन्द्र अपना पराक्रम त्याग दे, धर्मराज अपना धर्म छोड़ दें। लेकिन मैंने जो आपको सत्य कहा है वह कभी असत्य नहीं होगा।
(नेपथ्य में ‘धन्य हो’ आकाश से पुष्पवृष्टि होती है)
धीवर- (हाथ जोड़कर) हे राजकुमार। तुम धन्य हो, आदर्श पुत्र हो। आप जैसे ही पुत्र से यह भारत की भूमि अपने-आप को धन्य-धन्य मानती है। महानुभव इस समय आप जाएँ। शीघ्र ही मैं महाराज की मनोरथ को पूरा करता हूँ।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 6 (Madhurastkam) “ मधुराष्टकम् (आठ मधुर गीत)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे। यह पाठ एक प्रार्थना है, जो भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है।
अर्थ- उनकी गोपी मधुर, लीला मधुर, मिलन मधुर, बिछुरना मधुर, देखना मधुर, आचार मधुर मधुराधिपति भगवान श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा मुष्टिर्मधुरा दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥8॥ अर्थ- उनकी ग्वालिन मधुर, गाय मधुर, बिछुरना मधुर, मिलना मधुर, दलन करना मधुर, फल देना मधुर मधुराधिपति भगवान् श्रीकृष्ण का सब कुछ मधुर है।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 5 (Sansar Moh) “संसार मोह: (संसार से मोह)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
5. संसार मोह: (Sansar Moh)
एकदा भगवान् नृसिंहः स्वस्य प्रियं भक्त प्रहलादम् अवदत्- ‘किमपि वरं याचस्व’ इति । तदा प्रहलादः उक्तवान् – “भगवन् ! संसारस्य एतान् दीनदुःखिन: जीवान् त्यक्त्वा अहम् एकाकी मुक्तः भवितुं न इच्छामि । कृपया भवान् एतान् सर्वान् अपि जीवान् स्वीकृत्य बैकुण्ठं प्रति गमनाय अनुमति ददातु’ इति ।
भगवान् अवदत्- ये गतुं न इच्छन्ति तान् सर्वान् अपि जीवान् बलपूर्वक बैकुण्ठं कथं नयेत् भवान्?
प्रहलादः अवदत्- ईदृशः को भविष्यति यो वैकुण्ठं गन्तुं न इच्छेत् ? तर्हि त्वमेव सर्वान् पृष्ट्वा ये वैकुण्ठं गन्तुम् इच्छन्ति तान् स्वीकृत्य आगच्छ इति असूचयत् देवः । ततः प्रहलादः प्रच्छनार्थं गतवान्।
हिन्दी अर्थ – एक बार भगवान् नृसिंह ने अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद को कहा- कोई वर मांगों, तब प्रह्लाद ने कहा “भगवन्! संसार के इतने दीन-दुखियों, जीवों को छोड़कर मैं अकेले मुक्ति पाना नहीं चाहता हूँ। कृपया इन सभी जीवों को अपना बनाकर बैकुण्ठ की ओर जाने के लिए अनुमति प्रदान करें।”
भगवान ने कहा- जो नहीं जाना चाहते हैं उन सभी जीवों को बलपूर्वक बैकुण्ठ क्यों ले जा रहे हैं आप? प्रह्लाद बोला— ऐसा कौन होगा जो बैकुण्ठ जाना नहीं चाहेगा? भगवान ने कहा- तो तुम ही सबों को पूछकर जो बैकुण्ठ जाना चाहते हैं उन सबों को लेकर आ जाओ। इसके बाद प्रह्लाद पुछने के लिए चला जाता है।
ब्राह्मणों ने कहा- इस समय यजमान का यज्ञ कराना है। किसी का पुत्र गुरूकुल गया है, जब वह गुरुकुल से आयेगा तो उसका विवाह करना है। इसलिए हमलोग की इस समय बैकुण्ठ जाने की अभिलाषा नहीं है।
संन्यासियों ने कहा- हमलोग तो मुक्त ही हैं। किन्तु शिष्यों को तत्त्व ज्ञान नहीं हुआ है। अतः उनलोगों को मुझे उपदेश देना है। इसी प्रकार राजा लोग राज्य के विषय में, बनिया लोग व्यापार के विषय में, सेवक लोग घर के विषय में बोला। पशु-पक्षियों भी अपने परिवार के पोषण में लगे थे। इस प्रकार सभी प्राणि प्रह्लाद के साथ बैकुण्ठ की ओर जाने के लिए स्वीकार नहीं किया। जबकि बैकुण्ठ सभी चाहते थे, इसके बाद भी जल्दीबाजी में जाने को कोई भी तैयार नहीं थे। प्रह्लाद अन्त में एक सूअर के समीप गये । सूअर ने पूछा- बैकुण्ठ में क्या है। प्रहलाद ने कहा-वहाँ अनन्त आनन्द है।
सूअर ने पुनः पूछा- मेरी पत्नी को पूछिये, मैं तो अकेले जाना नहीं चाहता हुँ।
तब प्रह्लाद ने कहा- तो उन बच्चों को लेकर चलो। सूअर की पत्नी बैकुण्ठ गमन के प्रस्ताव को सुनकर पुछती है- क्या वहां हमलोगों को भोजन मिलेगा? प्रह्लाद ने कहा- वहाँ तो भूख ही नहीं लगती है। इसलिए भोजन की समस्या वहाँ नहीं है।
तब सूअरी ने कहा- जहाँ भूख नहीं होती है वहाँ जाकर हमलोग बीमार ही हो जायेंगे। प्रह्लाद ने बताया- “वहाँ कोई भी, कभी भी बीमार नहीं होता है।
तब सुअरी ने दृढ़ स्वर में कही- जहाँ हमलोगों को भोजन नहीं प्राप्त हो उस देश की ओर हमलोग जाने को इच्छा नहीं करते हैं।
प्रह्लाद निराश होकर भगवान के समीप जाकर कहा- भगवन्! सभी प्राणि अपने ही पारिवारिक कार्य में मग्न हैं। बैकुण्ठ जाने के लिए कोई भी तैयार नहीं है।
इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 4 (Hasya Kanika) “हास्य कणिका: (हँसाने वाले कथन)” के अर्थ सहित व्याख्या को जानेंगे।
1. न्यायाधीश कहता है- ओ! क्या तुम जानते हो यदि झूठ बोलोगे तो कहाँ जाओगे? अपराधी— हाँ श्रीमान्! नरक जाऊंगा। न्यायाधीश– यदि तुम सत्य बोलते हो तो? अपराधी- जेल जाऊँगा श्रीमान्।
2. गुरु (छात्रों से) यदि यहाँ भगवान सामने हो जाएँ तो आपलोग क्या-क्या प्रार्थना करेंगे। प्रथम छात्र- मैं तो धन के लिए प्रार्थना करूँगा। द्वितीय छात्र- मैं तो घर के लिए प्रार्थना करूंगा। तृतीय छात्र- मैं तो प्रभुत्व (महान होने की अवस्था) के लिए प्रार्थना करूँगा। गुरु- आप सभी मूर्ख हैं मैं तो विद्या और बुद्धि के लिए प्रार्थना करूंगा। लड़के- हे गुरु श्रेष्ठ। जिसके पास जो चीज नहीं होती है वह उसी वस्तु के लिए प्रार्थना करता है।
पति (ऊँची आवाज में पत्नी को)– मेरे स्नान के लिए गर्म जल जल्दी से लाओ अन्यथा……। पत्नी (गुस्सा में)- अन्यथा आप क्या कर लेंगे? पति (मुस्कुराते हुए)— क्या करूंगा? ठण्डा पानी से ही स्नान करूंगा।
4. मामा (श्रीधर को)- वत्स! तुम क्यों नहीं स्वाध्याय करते हो? क्या तुम जानते हो कि जवाहरलाल नेहरू जब तुम्हारी उम्र के थे, तो उस समय वे अपने वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त किया करते थे। श्रीधर- जानता हूँ मामा । जानता हूँ, पं. जवाहरलाल नेहरू जब आपके उम्र के थे, तो उस समय वे भारत देश के प्रधानमंत्री थे।
5. पिता- (अंक-पत्र देखकर) गुस्सा में पुत्र से कहता है। धिक्कार है बेटा, यह क्या? अंग्रेजी में 36, गणित में 35, विज्ञान में भी 35, हिन्दी में 37 अंक तुमने पाये। धिक्कार! तुमको धिक्कार है! माता (पति से)- स्वामी। यह पुत्र का अंक-पत्र नहीं है। यह तो आपका अंक-पत्र है। यह मैंने आपकी पेटी से निकाला है।
6. एक बार तीन लोग (अमेरिका, नाइजीरिया और अन्य देश के ईर्ष्यालु) भगवान शिव की तपस्या करना प्रारम्भ किया। उन सबों की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव प्रकट हो गये और कहे- पुत्र, वरदान मांगो। प्रथम- भगवन् ! धन दें। शिव- ऐसा ही हो। द्वितीय- भगवन् । मुझे गोरा रंग प्रदान करें। शिव-ऐसा ही हो। तृतीयः- (पहला का धन और दूसरा का रूप देखकर ईर्ष्यावश) भगवन्, पहला और दूसरा को पहले जैसा कर दें।