संस्कृत कक्षा 10 अच्‍युताष्‍टकम् – Achyutashtakam in Hindi

Achyutashtakam
इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 3 (Achyutashtakam) “अच्‍युताष्‍टकम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ में विष्‍णु से प्रार्थना किया गया है। 
Achyutashtakam
Achyutashtakam

3. अच्‍युताष्‍टकम् (Achyutashtakam in Hindi)

अच्युतं केशवं रामानारायणं
कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम् ।
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं
जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ॥1 ।।

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं
माधवं श्रीधर राधिकाराधितम् ।
इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं
देवकीनन्दनं नन्दजं सन्दधे ॥ 2 ॥

विष्णवे जिष्णवे शखिने चक्रिणे
रूक्मिणीरागिणे जानकीजानये।
बल्लवी-वल्लभाया-र्चितायात्‍मने
कंसविध्वंसे वंशिने ते नमः ॥ 3 ॥

कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण
श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे।
अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज
द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ॥4॥

राक्षसेक्षोभितः सीतया शोभितो
दण्डकारण्य-भूपुण्यता-कारणः ।
लक्ष्मणेनान्वितो वानरै-: सेवितो-
ऽगस्त्यसम्पूजितो राघवः पातु माम् ।। 5॥

धेनुकारिष्टकोऽनिष्‍टकृद् द्वेषिणां
केशिहा कंसहृद्वंशिकावादकः ।
पूतनाकोपकः सूरजाखेलनो
बालगोपालकः पातु मां सर्वदा ॥6॥

विधुदुद्योतवत्प्रस्फुरद्वाससं
प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् ।
वन्यया मालया शोभितोरः स्थलं
लोहिताङि‍घ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ॥7॥

कुञ्चितैः कुन्तलैर्भ्राजमानाननं
रत्नमौलिं लसत्कुण्डलं गण्डयोः ।
हारकेयूरकं कङ्कणप्रोज्जवलं
किङ्किणीमञ्जुलं श्यामलं तं भजे ॥8॥

     अर्थ- अच्चुत, केशव, रामनारायण, कृष्ण, दामोदर वासुदेव हरि, श्रीधर, माधव, गोपिका वल्लभ जानकी नायक और रामचन्द्र नाम धारण करने वाले आपको प्रणाम भेजता हूँ।॥1॥

     अच्युत, केशव, सत्यभामा के प्राणप्रिय, माधव, श्रीधर राधिका द्वारा पूजे जाने वाल इन्दिरा के हृदय मंदिर में रहने वाले देवकीनन्दन नन्द के पुत्र कहलाने वाले हैं। प्रभु। में आपक शरण में हूँ।॥2॥

     विष्णु, जिष्णु, शंखिन्, चक्रिन्, रुक्मिणी, रागिन् जानकी, वल्लवी- वल्लभाया-चितायात्मन, कंस विध्वंसकारिन और वंशिन नाम धारण करने वाले आपको प्रणाम है।॥3॥

     हे कष्ण ! गोविन्द ! राम ! नारायण । श्रीपते ! वासुदेवाजित । श्रीनिधे । अच्युतानन्द! माधवाधोक्षज ! बारकानायक ! द्रौपदी रक्षक ! आपको प्रणाम है।॥4॥

     राक्षसों में क्षोभ पहुँचाने वाले, सीता से शोभित होने वाले, दण्डकारण्य भूमि को पुण्यमयी करनेवाले, लक्ष्मण से युक्त रहने वाले, वानरों से सेवित तथा अगस्त द्वारा पूजे गये राघव मेरे पापों को दूर करें।॥5॥

     धेनुका के उत्पातों को समाप्त करने वाले, द्वेषि को नाश करने वाले, केशि को मारने वाले, कंस को संघार करने वाले, देव पुत्रियों के साथ खेल रचाने वाले बाल-गोपालक कहलाने वाले भगवान श्री कृष्ण सदैव मेरी रक्षा करें।॥6॥

     चन्द्र की चाँदनी जैसा चमकता हुआ वस्त्र धारण करने वाले, खिला हुआ कमल जैसा सुन्दर शरीर वाले, जिनका वक्षस्थल वनमाला से शोभित हो रहा है। जिनकी दोनों आँखें कमल जैसा लाल रंग वाली हो, उस भगवान् श्री कृष्ण को प्रणाम भेजता हूँ।॥7॥

     अध खिले कुन्त फूल के जैसा दाँत से जिनका मुखमंडल चमक रहा है। मणि से शोभता हुआ कुण्डल जिनके दोनों गालों पर झूल रहा है, हार से पूर्ण शोभा पानेवाले कंगन से शोभित, पयजनियाँ जिनके पैर में मधुर ध्वनि कर रही है, ऐसे श्यामला रंगवाले हे भगवान श्री कृष्ण ! आपको प्रणाम है।॥8॥ 

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संस्कृत कक्षा 10 जयदेवस्‍य औदार्यम् – Jayadevas‍ya Audaaryam in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 2 (Jayadevas‍ya Audaaryam) “जयदेवस्‍य औदार्यम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। इस पाठ में जयदेव की उदारता की कहानी को बताया गया है। 
Jayadevas‍ya Audaaryam
Jayadevas‍ya Audaaryam

2. जयदेवस्य औदार्यम्
( जयदेव की उदारता )
उदारता- दानशीलता, दयालुता

     गीतगोविन्दस्य रचयिता जयदेवः सुप्रसिद्धः महाकविः। सः कदाचित् तीर्थयात्रां कुर्वन् आसीत्। जयदेवस्य कीर्तिः देशे सर्वत्र प्रसृता आसीत्। अतः मार्गे तत्र तत्र जनाः तस्य सम्माननं कुर्वन्ति स्म। तस्मै धनमपि अर्पयन्ति स्म। । केचन लुण्ठकाः एतत् ज्ञातवन्तः। जयदेवस्य धनम् अपहर्तुं ते एकम् उपायं चिन्तितवन्तः।

     अर्थ- गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव सुप्रसिद्ध कहाकवि थे। वह कभी तीर्थयात्रा – कर रहे थे। जयदेव का यश देश में सर्वत्र फैला हुआ था। इसलिए राह में जहाँ-तहाँ लोग उनका सम्मान (स्वागत) करते थे और उनको धन (रुपये-पैसे) भी देते थे। कुछ लुटेरों ने यह बात जानी (सुनी) तो जयदेव का धन लुटने की योजना बनाई।

     तेऽपि यात्रिकाः इव वेषपरिवर्तनं कृत्वा जयदेवेन सह तीर्थयात्रायां मिलिताः। मध्येमार्गं यदा ते अरण्यं प्रविष्टवन्तः तदा लुण्ठकाः जयदेवस्य पाणिपादं कर्तयित्वा तम् एकस्मिन् कूपे क्षिप्तवन्तः। तदीयं धनं सर्वम् अपहृत्य ततः पलायनं कृतवन्तः।

     अर्थ- वे भी यात्रियों की भाँति वेश बनाकर जयदेव की तीर्थ यात्रा में शामिल हो गए। बीच रास्ते में जब वे जंगल में प्रवेश किये तब लुटेरों ने जयदेव के हाथ-पैर काटकर उन्हें कुएँ में फेंक दिया। इसके (बाद) उनका सारा धन लूटकर भाग गए।

     दैवात् तस्मिन् कूपे जलं न आसीत्। कूपे पतितः जयदेवः किञ्चित्कालानन्तरं चेतनां प्राप्तवान्। ततश्च तत्र एव उपविश्य उच्चैः भगवतः नामस्मरणं कर्तुम् आरब्धवान्।

     अर्थ- संयोग से कुएँ में पानी नहीं था। कुएँ में गिरे हुए जयदेव जब होश में आए तब वहीं बैठकर जोर-जोर ईश्‍वर के नाम का उच्चारण करने लगे।

     तद्दिने गौडेश्वरः लक्ष्मणसेनः तेन एवं मार्गेण गच्छन् आसीत्। सः कूपतः मनुष्यस्य ध्वनिं श्रुत्वा सेवकैः तत्र पतितं जयदेवम् उपरि आनायितवान्। तं स्वेन सह राजधानी नीतवान् च। बहुवारं पृष्टः अपि जयदेवः स्वस्य पाणिपादं कर्तितवतां लुण्ठकानां विषये किमपि न उक्तवान्। जयदेवस्य भगवद्भक्ति साधुस्वभावं च दृष्ट्वा महाराजः एवं प्रभावितः अभवत यत-सः तं स्वस्य आस्थानपण्डितम अकरोत्।

     अर्थ- उसी दिन गौड़ देश के राजा लक्ष्मण सेन उसी रास्ते से जा रहे थे। वे कुएँ से मनुष्य की आती आवाज सुनकर कएँ में गिरे जयदेव को नौकरों द्वारा ऊपर निकलवाया और उन्हें अपने साथ अपनी राजधानी ले गए। अनेक बार पूछने के बावजूद जयदेव अपने हाथ-पैर काटनेवालों के विषय में कुछ भी नहीं कहा। जयदेव की भगवद्भाक्त एवं सज्जनता- देखकर महाराज इतना प्रभावित हुए कि उन्हें अपना दरबारी कवि बना दिया।

     राजभवने कदाचित् कश्चन उत्सवः आयोजितः आसीत्। तदा बहवः साधवः, ब्राह्मणाः, भिक्षुकाच भोजनार्थं तत्र सम्मिलिताः। जयदेवस्य पाणिपादं ये कर्तितवन्तः तेऽपि लुण्ठकाः भिक्षुकवेषेण तत्र आगताः आसन्। ते भिनगात्रं जयदेवं दृष्ट्वा अभिज्ञातवन्तः। परं पण्डितस्थाने तं दृष्टवतां तेषां प्राणाः गताः इव। जयदेवः अपि तान् अभिज्ञातवान्। सः महाराजम् उक्तवान्- “एते सन्ति मम पूर्वतनसुहृदः। भवान् यदि इच्छति तर्हि एतेभ्यः किमपि दातुम् अर्हति“ इति।

     अर्थ- राजभवन में कभी किसी उत्सव का आयोजन किया गया। तब बहुत सारे साधु एवं बाह्मण भोजन करने के लिए वहाँ आए। जयदेव के हाथ-पैर काटनेवाले भी भिखारी के वेश में वहाँ आए। वे अंगहीन जयदेव को देखकर पहचान गए। लेकिन पंडित के स्थान पर उनको देखकर उनके प्राण सूखने लगे। जयदेव भी उनको पहचान गए। उन्होंने महाराज से कहा-ये सब मेरे पूर्व के मित्र है। आप यदि देना चाहते हो तो इन्हें कुछ दे दें।

     महाराजः तान् समीपम् आहूतवान्। भूरिधनदानेन तान् सत्कृतवान् च। ततः ’एतान् सुरक्षितरूपेण गृहं प्रापय्य आगच्छन्तु’ इति सेवकान् आदिष्टवान्।

     अर्थ- महाराज ने उनको अपने पास बुलाया और पर्याप्त धन देकर सत्कार किया। इसके बाद उन्हें सुरक्षापूर्वक घर पहुँचाने के लिए सेवकों को आदेश दिया।

     मार्गे गमनसमये सेवकाः कुतूहलेन तान् पृष्टवन्तः- “भोः, भवताम्, अस्माकम् आस्थानपण्डितस्य च कः सम्बन्धः?“ इति।

     अर्थ- जाते समय रास्ते में सेवकों ने उनसे उत्सुकतावश पूछा, अरे! आप तथा हमारे राजपंडित के बीच कैसा संबंध है?

     दुरात्मनः ते लुण्ठकाः उक्तवन्तः- “पूर्वं कस्मिंश्चित् राज्ये भवतां पण्डितः अस्माभिः सह राज कर्मचारी आसीत्। तत्र कदाचित् तेन तादृशः अपराधः आचंरितः, येन कुपितः राजा तस्य वधदण्डनम् आदिष्टवान्। किन्तु वयं तस्य विषये दयां कृत्वा पाणिपादं केवलं कर्तयित्वा तं सजीवं मोचितवन्तः। एतत् रहस्यं वयं कदाचित् वदेम इति भीत्या सः एवम् अस्माकं सम्मानन कारितवान्।“ इति।

     अर्थ- दुष्ट स्वभाववाले उन लुटेरों ने कहा- पहले किसी राज्य में आपका पंडित हम सबों के साथ राज दरबार में कर्मचारी था। वहाँ कभी किसी अपराध के कारण राजा ने उन्हें प्राणदंड का आदेश दिया। लेकिन हमलोग उनके प्रति दया करके मात्र हाथ-पैर काटकर जीवित छोड़ दिया। यह रहस्य हम सब बोल न दें, इसी भय से उन्होंने हमें इतना सम्मान करवाया।

     तदा लुण्ठकानाम् एतादृशं व्यवहारं सोढुम् अशक्तवती भूमिः स्वयमेव विदीर्णा अभवत्। लुण्ठकाः तत्र पतित्वा मृताः अभवन्। सेवकाः खेदेन ततः प्रतिगम्य जयदेवं महाराजं च वृत्तं निवेदितवन्तः। सर्वं श्रुत्वा जयदेवः- “हन्त! मया चिन्तितं यत् एते निर्धनाः सन्ति। धनलोभेन पापं कुर्वन्ति। धनं यदि लभ्यते तर्हि अग्ने पापं न कुर्युः, इति! परन्तु निर्भाग्यस्य मम कारणतः तैः प्राणाः त्यक्तव्याः अभवन्। हे भगवन्! तेभ्यः सद्गतिं ददातु“ इति।

     तत्क्षणादेव जयदेवस्य कर्तितं पाणिपादं पुनः यथापूर्वम् उत्पन्नम् अभवत्। अहो औदार्यं जयदेवस्य।

     अर्थ- लुटेरों की ऐसी दुष्टतापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध होकर उसी क्षण धरती फट गई और लुटेरे उसमें गिरकर मर गए। सेवकगण दुःखी मन से लौटकर जयदेव तथा राजा को सारी कहानी कह सुनाई। सबकुछ सुनकर जयदेव ने कहा-हाय! मैंने सोचा कि ये सब गरीब हैं। धन के लोभ से पाप करते हैं। यदि इन्हें धन मिल जाए तो ये पाप नहीं करेंगे (ऐसा सोचकर राजा से धन दिलवाया) लेकिन मुझ अभागे के कारण उन्हें अपने प्राण गँवाने पड़े। (इसलिए) हे भगवान् ! उन सबों का उद्धार करें।

     (जयदेव द्वारा ऐसी बात बोलते ही) उसी क्षण उनके कटे हाथ-पैर फिर से पूर्ववत् हो गए। धन्य है उदारता जयदेव की।

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संस्कृत कक्षा 10 द्रुतपाठय भवान्यष्टकम् – Bhavanyastakam in Hindi

Bhavanyastakam
इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 1 (Bhavanyastakam) “भवान्यष्टकम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे। यह एक प्रार्थना हैजिसमें माँ दुर्गा से प्रार्थना किया गया है की तुम्हारे अलावा इस संसार में मेरा कोई नहीं है, तुम ही मेरा एक मात्रा सहारा हो
Bhavanyastakam
Bhavanyastakam

1. भवान्यष्टकम् (हिन्‍दी अर्थ सहित)

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥1॥

   अर्थ- हे भवानी ! इस संसार में मेरा न तो पिता है, न माता है, न कोई भाई है और न ही दाता है, न बेटा है, न बेटी है, न नौकर है, न पालन-पोषण करनेवाला है, न पत्नी है, न विद्या (ज्ञान) है और न कोई पेशा (व्यवसाय) ही है। अर्थात् संसार में एकमात्र तुम्हीं मेरा सहारा हो।

भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः ।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहम् । गतिस्त्वं ॥2॥

     अर्थ- हे भवानी ! मैं सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबा अपार दुःख से पीड़ित हूँ। मैं अति नीच, अति कामी, महान लोभी, अति घमंडी हूँ। इस कारण मैं हमेशा सांसारिक बंधनों से जकड़ा हुआ रहता हूँ। हे जगदम्बा ! तुम ही मेरा सहारा हो। तुम्ही हमें संसार रूपी सगार से पार कर सकती हो।

न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम् । गतिस्त्वं॥3॥

     अर्थ- हे भवानी ! मैं किसी को दान देना नहीं जानता हूँ और न ही ध्यान-योग का ज्ञान है। तन्त्र-मंत्र पूजा-पाठ भी नहीं जानता हूँ। इतना ही नहीं, तुम्हारी पूजा-अर्चना की विधि नहीं जानता हूँ तथा आसन-प्राणायाम भी नहीं जानता हूँ कि इसके माध्यम से तुम्हें पा सकूँ। इसलिए एकमात्र तुम्हीं मेरा सहारा हो।

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातः गतिस्त्वं ।।4।।

     अर्थ- हे भवानी ! मैं पुण्य तथा तीर्थ-व्रत करना नहीं जानता हूँ। मुझे मोक्ष प्राप्ति की विधि का ज्ञान नहीं है। स्वर में इतनी मधुरता नहीं है कि मै अपने स्वर से तुम्हें खुश कर सकूँ। साथ ही, भक्ति-भाव का भी ज्ञान नहीं है। इसलिए, हे माँ! तुम्हीं मेरा सहारा हो।

कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कलाचारहीनः ।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम् । गतिस्त्वं ॥5॥

     अर्थ- हे भवानी ! मैं कुकर्मी, बुरे लोगों के साथ रहनेवाला, कुविचारी, कृतघ्न (अपने साथ हुआ उपकार न मानने वाला), अनुशासनहीन, बुरा कर्म करने वाला, ईर्ष्यालु तथा हमेशा कुवचन बोलने वाला हूँ। इसलिए हे माँ ! तुम्हीं इन दुष्कर्मो से मुझे छुटकारा दिला सकती हो । तुम्हारे सिवाय मेरा कोई सहारा नहीं है।

प्रजेशं रमेशं महेशः सुरेशः
दिनेशः निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये । गतिस्त्वं ॥6॥

     अर्थ- हे जगदम्बे ! मैं प्रजा के स्वामी ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, सूर्य तथा चन्द्रमा आदि किसी दूसरे को नहीं जानता। मैं तो सिर्फ तुम पर आश्रित हूँ कि तुम्हीं मुझे इस भवसागर से उद्धार कर सकती हो। इसलिए, हे माँ! तुम्हीं मेरा सहारा हो।

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संस्कृत कक्षा 10 विश्वशांतिः (विश्व की शांति) – Viswa Shanti Sanskrit class 10

viswa santi

पाठ परिचय (Viswa Shanti)- आज विश्वभर में विभिन्न प्रकार के विवाद छिड़े हुए हैं जिनसे देशों में आन्तरिक और बाह्य अशान्ति फैली हुई है। सीमा, नदी-जल, धर्म, दल इत्यादि को लेकर स्वार्थप्रेरित होकर असहिष्णु हो गये हैं। इससे अशांति के वातावरण बना हुआ है। इस समस्या को उठाकर इसके निवारण के लिए इस पाठ में वर्तमान स्थिति का निरूपण किया गया है।viswa santi

Bihar Board Sanskrit Viswa Shanti पाठ 13 विश्वशांतिः (विश्व की शांति)

(पाठेऽस्मिन् संसारे वर्तमानस्य अशान्तिवातावरणस्य चित्रणं तत्समाधानोपायश्च निरूपितौ । देशेषु आन्तरिकी वाह्या च अशान्तिः वर्तते । तामुपेक्ष्य न कश्चित् स्वजीवनं नेतुं समर्थः । सेयम् अशान्तिः सार्वभौमिकी वर्तते इति दुःखस्य विषयः। सर्वे जनाः तया अशान्त्या चिन्तिताः सन्ति । संसारे तन्निवारणाय प्रयासाः क्रियन्ते ।)
इस पाठ में वर्तमान संसार में अशांति का चित्रण और इसके समाधान को निरूपित किया गया है। देशों में आंतरिक और बाह्य अशांति है। हर कोई अपना जीवन जीने में असमर्थ है। पूरे विश्व में अशांति फैला हुआ है। यह दुख का विषय है। सभी लोग चिन्तित है। संसार में निवारण का प्रयास किया जा रहा है।

Class 10th Sanskrit Viswa Shanti पाठ 13 विश्वशांतिः (विश्व की शांति)
वर्तमाने संसारे प्रायशः सर्वेषु देशेषु उपद्रवः अशान्तिर्वा दृश्यते । क्वचिदेव शान्तं वातावरणं वर्तते । क्वचित् देशस्य आन्तरिकी समस्यामाश्रित्य कलहो वर्तते, तेन शत्रुराज्यानि मोदमानानि कलहं वर्धयन्ति । क्वचित् अनेकेषु राज्येषु परस्परं शीतयुद्धं प्रचलति । वस्तुतः संसारः अशान्तिसागरस्य कूलमध्यासीनो दृश्यते ।
इस समय प्रायः संसार के सभी देशों में अशान्ति देखे जाते हैं। संयोग से ही कहीं शान्ति का वातावरण देखेने को मिलता है। किसी देश में आन्तरिक अव्यवस्था के कारण अशांति है तो कहीं शत्रु देश द्वारा अशांति फैलाया जा रहा है तो कहीं अनेक देशों में शीतयुद्ध चल रहा है। इस प्रकार सारा संसार ही अशांति के वातावरण में जी रहा है।
अशान्तिश्च मानवताविनाशाय कल्पते । अद्य विश्वविध्वंसकान्यस्त्राणि बहून्याविष्कृतानि सन्ति । तैरेव मानवतानाशस्य भयम् । अशान्तेः कारणं तस्याः निवारणोपायश्च सावधानतया चिन्तनीयौ । कारणे ज्ञाते निवारणस्य उपायोऽपि ज्ञायते इति नीतिः ।
अशांति मानवता के विनाश का कारण है। इस समय विनाशकारी अस्त्रों का निर्माण विशाल पैमाने पर हो रहा है, उससे ही मानवता के विनाश का भय बना हुआ है। अशांति के कारणों के निवारण के उपायों पर ध्यानपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। अशांति के कारणों का पता लगाते हुए उनके समाधान के उपायों का भी पता करना चाहिए।
वस्तुतः द्वेषः असहिष्णुता च अशान्तेः कारणद्वयम् । एको देशः अपरस्य उत्कर्षं दृष्ट्वा द्वेष्टि, तस्य देशस्य उत्कर्षनाशाय निरन्तरं प्रयतते । द्वेषः एवं असहिष्णुतां जनयति । इमौ दोषौ परस्परं वैरमुत्पादयतः । स्वार्थश्च वैरं प्रवर्धयति । स्वार्थप्रेरितो जनः अहंभावेन परस्य धर्मं जाति सम्पत्तिं क्षेत्रं भाषां वा न सहते ।
वास्तव में, ईर्ष्या एवं असहनशीलता अशान्ति के मुख्य दो कारण है। एक देश दूसरे देश की उन्नति अथवा विकास देखकर जलभुन जाते हैं, और उस देश को हानि पहुँचाने का प्रयास करने लगते हैं। द्वेष ही असहनशीलता पैदा करता है। इन दोनों दोषों के कारण शत्रुता जन्म लेती हैं। स्वार्थ दुश्मनी बढ़ाती है। स्वार्थ से अंधा व्यक्ति अहंकारवश दुसरों के धार्मिक, सामाजिक और भाषाई एकता सहन नहीं कर पातें।
आत्मन एव सर्वमुत्कृष्टमिति मन्यते। राजनीतिज्ञाश्च अत्र विशेषेण प्रेरकाः । सामान्यो जनः न तथा विश्वसन्नपि बलेन प्रेरितो जायते । स्वार्थोपदेशः बलपूर्वकं निवारणीयः। परोपकारं प्रति यदि प्रवृत्तिः उत्पाद्यते तदा सर्वे स्वार्थं त्यजेयुः। अत्र महापुरुषाः विद्वांसः चिन्तकाश्च न विरलाः सन्ति ।
वे निजी विकास को ही उत्तम मानते हैं। इस निकृष्ट विचार के मुख्य प्रेरक राजनेता हैं। सामान्य लोग ही नहीं, विशिष्ट जन भी बलपूर्वक प्रेरित किए जाते हैं। इसलिए स्वार्थी भावना को बलपूर्वक दूर करना चाहिए। यदि परोपकार के प्रति रूचि जग जाती है तब स्वतः सारे स्वार्थ मिट जाते हैं। यहाँ महापुरूष, विद्वान तथा चिन्तकों का अभाव नहीं है।
तेषां कर्तव्यमिदं यत् जने-जने, समाजे-समाजे, राज्ये-राज्ये च परमार्थ वृत्तिं जनयेयुः । शुष्कः उपदेशश्च न पर्याप्तः, प्रत्युत तस्य कार्यान्वयनञ्च जीवनेऽनिवार्यम् । उक्तञ्च – ज्ञानं भारः क्रियां विना। देशानां मध्ये च विवादान् शमयितुमेव संयुक्तराष्ट्रसंघप्रभृतयः संस्थाः सन्ति । ताश्च काले-काले आशङ्कितमपि विश्वयुद्धं निवारयन्ति ।
उनका कर्तव्य है कि वे हर व्यक्ति, हर समाज तथा हर देश में परोपकार की भावना का प्रचार करें। थोथा उपदेश काफी नहीं है, बल्कि वैसा आचरण भी अपनाना जरूरी है। क्योंकि कहा गया है कि. क्रिया के बिना ज्ञान बोझ स्वरूप होता है। दो देशों के आपसी विवाद को खत्म करने के लिए संयुक्त राष्ट संघ आदि संस्थाएँ हैं। यहीं समय-समय पर संभावित विश्व युद्ध को दूर करती है।
भगवान बुद्धः पुराकाले एव वैरेण वैरस्य शमनम् असम्भवं प्रोक्तवान् । अवैरेण करुणया मैत्रीभावेन च वैरस्य शान्तिः भवतीति सर्वे मन्यन्ते ।। भारतीयाः नीतिकाराः सत्यमेव उद्घोषयन्ति –
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
प्राचीन काल में भगवान बुद्ध ने कहा था, दुश्मनी से दुश्मनी को खत्म करना संभव नहीं है। मित्रता एवं दया से शत्रुता भाव को शांत करना संभव है। ऐसा सबका मानना है। भारतीय नीतिज्ञों ने सच ही कहा है।
यह मेरा है, वह दुसरों का है- ऐसा नीच विचारवाले मानते हैं। उदारचित वाले अर्थात् महापुरूषों के लिए सारा संसार ही अपने परिवार जैसा है।
परपीडनम् आत्मनाशाय जायते, परोपकारश्च शान्तिकारणं भवति । अद्यापि परस्य देशस्य संकटकाले अन्ये देशाः सहायताराशि सामग्री च प्रेषयन्ति इति विश्वशान्तेः सूर्योदयो दृश्यते ।
दूसरों के कष्ट पहुँचाने से अपना ही नुकसान होता है और दूसरों के सहयोग से शांति मिलती है। आज भी किसी दूसरे देश के संकट में शहायता राशि भेजी जाती है। इससे विश्व शांति की आशा प्रकट होती है ।

संस्कृत कक्षा 10 शास्त्रकाराः (शास्त्र रचयिता) – Shastrakara

shastrakara

पाठ परिचय- यह पाठ (Shastrakara) नवनिर्मित संवादात्मक है जिसमें प्राचीन भारतीय शास्त्रों तथा उनके प्रमुख रचयिताओं का परिचय दिया गया है। इससे भारतीय सांस्कृतिक निधि के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होगी- यही इस पाठ का उद्देश्य है।shastrakara

14. शास्त्रकाराः (शास्त्र रचयिता)

(भारते वर्षे शास्त्राणां महती परम्परा श्रूयते। शास्त्राणि प्रमाणभूतानि समस्तज्ञानस्य स्रोतःस्वरूपाणि सन्ति। अस्मिन् पाठे प्रमुखशास्त्राणां निर्देशपूर्वकं तत्प्र वर्तकानाञ्च निरूपणं विद्यते। मनोरञ्जनाय पाठेऽस्मिन् प्रश्नोत्तरशैली आसादिता वर्तते।)
भारतीय शास्त्रों की बहुत बड़ी परम्परा सुनी जाती है। शास्त्र प्रमाण स्वरूप समस्त ज्ञान का स्त्रोत स्वरूप है। इस पाठ में प्रमुख शास्त्रों का निर्देशपूर्वक उसके प्रवर्त्तकों का निरूपण है। इस पाठ में मनोरंजन के लिए प्रश्नोत्तर शैली अपनायी गयी है।

 Class 10th Sanskrit Chapter 14 Shashtrakara शास्त्रकाराः (शास्त्र रचयिता)
(शिक्षकः कक्षायां प्रविशति, छात्राः सादरमुत्थाय तस्याभिवादनं कुर्वन्ति।)
(शिक्षक वर्ग में प्रवेश करते हैं छात्र लोग, आदरपूर्वक उठकर उनका अभिवादन करते हैं।)
शिक्षकः- उपविशन्तु सर्वे। अद्य युष्माकं परिचयः संस्कृतशास्त्रैः भविष्यति।
शिक्षकः- सभी लोग बैठ जाएँ। आज आपलोगों का परिचय संस्कृत शास्त्रों से होगा।
युवराजः- गुरुदेव । शास्त्रं किं भवति ?
युवराजः- गुरुदेव ! शास्त्र क्या होता है।
शिक्षकः- शास्त्रं नाम ज्ञानस्य शासकमस्ति। मानवानां कर्त्तव्याकर्त्तव्यविषयान् तत् शिक्षयति। शास्त्रमेव अधुना अध्ययनविषयः ( Subject ) कथ्यते, पाश्चात्यदेशेषु अनुशासनम् (discipline) अपि अभिधीयते। तथापि शास्त्रस्य लक्षणं धर्मशास्त्रेषु इत्थं वर्तते –
शिक्षकः- शास्त्र नाम का चीज ज्ञान का शासक है। मनुष्य के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य विषयों की वह सीख देता है। शास्त्र ही आजकल अध्ययन विषय कहा जाता है। पश्चिमी देशों में अनुशासन भी कहा जाता है । इसके बाद भी शास्त्र का लक्षण धर्मशास्त्रों में है-
प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा।
पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते।
मनुष्यों को जिससे सांसारिक विषयों में अनुरक्ति अथवा विरक्ति अथवा मानवरचित विषयों का उचित ज्ञान मिलता है, उसे धर्म शास्त्र कहा जाता है। तात्पर्य यह कि जिस शास्त्र से किस आचरण को अपनाया जाए तथा किस आचरण को त्यागा जाए का ज्ञान प्राप्त हो, उसे धर्मशास्त्र कहते हैं।
अभिनवः- अर्थात् शास्त्रं मानवेभ्यः कर्त्तव्यम् अकर्तव्यञ्च बोधयति। शास्त्रं नित्यं भवतु वेदरूपम्, अथवा कृतकं भवतु ऋष्यादिप्रणीतम्।
अभिनवः- अर्थात् शास्त्र मानवों के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का बोध कराता है। वेदरूप शास्त्र नित्य होता है अथवा ऋषियों द्वारा रचित शास्त्र कृत्रिम होता है।
शिक्षकः- सम्यक् जानासि वत्स ! कृतकं शास्त्रं ऋषयः अन्ये विद्वांसः वा रचितवन्तः। सर्वप्रथम षट् वेदाङ्गानि शास्त्राणि सन्ति। तानि – शिक्षा, कल्पः, व्याकरणम्, निरुक्तम्, छन्दः ज्योतिषं चेति।
शिक्षकः- सही जाने वत्स ! कृत्रिम शास्त्र ऋषियों या अन्य विद्वानों से रचा गया है। सर्वप्रथम वेद के अंग स्वरूप छः शास्त्र हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष।
इमरानः- गुरुदेव ! एतेषां विषयाणां के-के प्रणेतारः ?
इमरानः- गुरुदेव। इन विषयों के कौन- कौन रचयिता हैं।
शिक्षकः- शृणुत यूयं सर्वे सावहितम्। शिक्षा उच्चारणप्रक्रियां बोधयति। पाणिनीयशिक्षा तस्याः प्रसिद्धो ग्रन्थः। कल्पः कर्मकाण्डग्रन्थः सूत्रात्मकः। बौधायन-भारद्वाज-गौतम वसिष्ठादयः ऋषयः अस्य शास्त्रस्य रचयितारः। व्याकरणं तु पाणिनिकृतं प्रसिद्धम्।
शिक्षकः- तुमलोग सावधान होकर सुनो। शिक्षा उच्चारण क्रिया का ज्ञान कराता है। पाणिनी शिक्षा उसका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। कल्प सूत्रात्मक कर्मकाण्ड ग्रन्थ है। बौद्धायन- भारद्वाज-गौतम-वसिष्ठ आदि ऋषि इस शास्त्र के रचनाकार हैं। व्याकरण तो पाणिनीकृत प्रसिद्ध है।
निरुक्तस्य कार्य वेदार्थबोधः। तस्य रचयिता यास्कः। छन्दः पिङ्गलरचिते सूत्रग्रन्थे प्रारब्धम्। ज्योतिषं लगधरचितेन वेदाङ्गज्योतिषग्रन्थेन प्रावर्तत।
निरुक्त का कार्य वेद के अर्थ को बोध कराना है। उसके रचयिता यास्क हैं। छन्दशास्त्र पिङ्गल रचित ग्रन्थ है। ज्योतिषशास्त्र को लगध के द्वारा रचित वेदांग ज्योतिष ग्रन्थ से लिखा गया।
अब्राहमः- किमेतावन्तः एव शास्त्रकाराः सन्ति ?
अब्राहमः- क्या ये सब ही शास्त्रकार लोग हैं।
शिक्षकः- नहि नहि। एते प्रवर्तकाः एव। वस्तुतः महती परम्परा एतेषां शास्त्राणां परवर्तिभिः सञ्चालिता। किञ्च, दर्शनशास्त्राणि षट् देशेऽस्मिन् उपक्रान्तानि।
शिक्षकः- नहीं नहीं ! ये सभी संस्थापक ही हैं। वस्तुतः बहुत बड़ी परम्परा इन शास्त्रों को पूर्व के लोगों के द्वारा चालायी गयी है। क्योंकि इस देश में छः दर्शनशास्त्र को चलाया गया।
श्रुतिः- आचार्यवर ! दर्शनानां के-के प्रवर्तकाः शास्त्रकाराः ?
श्रुतिः- आचार्य श्रेष्ठ ! दर्शनशास्त्र को चलाने वाले कौन-कौन शास्त्रकार हैं।
शिक्षकः- सांख्यदर्शनस्य प्रवर्तकः कपिलः। योगदर्शनस्य पतञ्जलिः। एवं गौतमेन न्यायदर्शनं रचितं कणादेन च वैशेषिकदर्शनम्। जैमिनिना मीमांसादर्शनम्, बादरायणेन च वेदान्तदर्शनं प्रणीतम्। सर्वेषां शताधिकाः व्याख्यातारः स्वतन्त्रग्रन्थकाराश्च वर्तन्ते।
शिक्षकः- सांख्य दर्शन को चलाने वाले कपिल हैं। योगदर्शन के पतंजलि हैं। उसी प्रकार गौतम के द्वारा न्याय दर्शन को रचा गया, कनाद के द्वारा वैशेषिक दर्शन की रचना हुई। जैमिनि के द्वारा मीमांशा दर्शन की रचना हुई और बादरायण के द्वारा वेदांत दर्शन लिखा गया। सबों में सौ से अधिक व्याख्याता और स्वतंत्र ग्रन्थाकार हैं।
गार्गी- गुरुदेव ! भवान् वैज्ञानिकानि शास्त्राणि कथं न वदति ?
गार्गी- गुरुदेव ! वैज्ञानिक शास्त्र के बारे में क्यों नहीं बोलते हैं ?
शिक्षकः- उक्तं कथयसि । प्राचीनभारते विज्ञानस्य विभिन्नशाखानां शास्त्राणि प्रावर्तन्त। आयुर्वेदशास्त्रे चकरसहिता, सुश्रुतसंहिता चेति शास्त्रकारनाम्नैव प्रसिद्ध स्तः। तत्रैव रसायनविज्ञानम्, भौतिकविज्ञानञ्च अन्तरर्भू स्तः। ज्योतिषशास्त्रेऽपि खगोलविज्ञानं गणितम् इत्यादीनि शास्त्राणि सन्ति। आर्यभटस्य ग्रन्थः आर्यभटीयनामा प्रसिद्धः ।
शिक्षकः- कहा जाता है । प्राचीन भारत में विज्ञान के विभिन्न शाखाओं के शास्त्रों को रचा गया। आयुर्वेद शास्त्र में चरक संहिता और सुश्रुतसंहिता शास्त्रकार के नाम से दोनों प्रसिद्ध हैं। उसमें ही रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान समाहित है। ज्योतिष शास्त्र में भी खगोल विज्ञान गणित इत्यादि शास्त्र हैं। आर्यभट का ग्रन्थ आर्यभटीयनामा प्रसिद्ध हैं।
एवं वराहमिहिरस्य बृहत्संहिता विशालो ग्रन्थः यत्र नाना विषयाः समन्विताः। वास्तुशास्त्रमपि अत्र व्यापक शास्त्रमासीत्। कृषिविज्ञानं च पराशरेण रचितम्। वस्तुतो नास्ति शास्त्रकाराणाम् अल्पा संख्या।
वास्तुशास्त्र भी यहाँ बहुत बड़ा शास्त्र था। और कृषि विज्ञान को पराशर के द्वारा रचना की गयी। इसी प्रकार वराहमिहिर का वृहतसंहिता विशाल ग्रन्थ है जिसमें अनेक विषय समन्वित हैं।
वर्गनायकः- गुरुदेव ! अद्य बहुज्ञातम्। प्राचीनस्य भारतस्य गौरवं सर्वथा समृद्धम्।
वर्गनायकः- गुरुदेव! आज बहुत जानकारी हुई। प्राचीन भारत का गौरव हमेशा समृद्ध रहा है।
(शिक्षकः वर्गात् निष्क्रामति। छात्राः अनुगच्छन्ति)
(शिक्षक वर्ग से निकलते हैं। उनके पीछे-पीछे छात्र भी निकलते हैं।)

संस्कृत कक्षा 10 कर्णस्य दानवीरता (कर्ण की दानवीरता) – Karnsya Danveerta

karnsya danveerta

पाठ परिचय (Karnsya Danveerta)- यह पाठ संस्कृत के प्रथम नाटककार भास द्वारा रचित कर्णभार नामक एकांकी रूपक से संकलित है। इसमें महाभारत के प्रसिद्व पात्र कर्ण की दानवीरता दिखाई गई है। इन्द्र कर्ण से छलपूर्वक उनके रक्षक कवचकुण्डल को मांग लेते हैं और कर्ण उन्हें दे देता है। कर्ण बिहार के अंगराज्य ( मुंगेर तथा भागलपुर ) का शासक था। इसमें संदेश है कि दान करते हुए मांगने वाले की पृष्ठीूमि जान लेनी चाहिए, अन्यथा परोपकार विनाशक भी हो जाता है।

karnsya danveerta
संस्कृत कक्षा 10 पाठ 12 कर्णस्य दानवीरता (कर्ण की दानवीरता) Karnsya Danveerta

अयं पाठः भासरचितस्य कर्णभारनामकस्य रूपकस्य भागविशेषः।
यह पाठ ‘भास‘ रचित कर्ण भार नामक नाटक का भाग विशेष है।
अस्य रूपकस्य कथानकं महाभारतात् गृहीतम्।
इस नाटक की कहानी महाभारत से ग्रहण किया गया है।
महाभारतयुद्धे कुन्तीपुत्रः कर्णः कौरवपक्षतः युद्धं करोति।
महाभारत युद्ध में कुन्तीपुत्र कर्ण कौरव के पक्ष से युद्ध करते हैं।
कर्णस्य शरीरेण संबद्ध कवचं कुण्डले च तस्य रक्षके स्तः।
कर्ण के शरीर में स्थित कवच और कुण्डल से वह रक्षित था।
यावत् कवचं कुण्डले च कर्णस्य शरीरे वर्तेते तावत् न कोऽपि कर्णं हन्तुं प्रभवति।
जब तक कवच और कुण्डल कर्ण के शरीर में है। तबतक कोई भी कर्ण को नहीं मार सकता है।
अतएव अर्जुनस्य सहायतार्थम् इन्द्रः छलपूर्वकं कर्णस्य दानवीरस्य शरीरात् कवचं कुण्डले च गृह्णाति।
इसलिए अर्जुण की सहायता के लिए इन्द्र छलपुर्वक दानवीर कर्ण के शरीर से कवच और कुण्डल लेते हैं।
कर्णः समोदम् अङ्गभूतं कवचं कुण्डले च ददाति।
कर्ण खुशी पूर्वक अंग में स्थित कवच और कुण्डल दे देता है।
भासस्य त्रयोदश नाटकानि लभ्यन्ते।
भास के तेरह नाटक मिले हैं।
तेषु कर्णभारम् अतिसरलम् अभिनेयं च वर्तते।
उनमे कर्णभारम् अति सरल अभिनय है।

Class 10th Sanskrit Chapter 12 Karnsya Danveerta कर्णस्य दानवीरता (कर्ण की दानवीरता)

(ततः प्रविशति ब्राह्मणरूपेण शक्रः)
(इसके बाद प्रवेश करता है ब्राह्मण रूप में इन्द्र)
शक्रः- भो मेघाः, सूर्येणैव निवर्त्य गच्छन्तु भवन्तः। (कर्णमुपगम्य) भोः कर्ण ! महत्तरां भिक्षां याचे।
इन्द्र- अरे मेघों ! सुर्य से कहो आप जाएँ। (कर्ण के समीप जाकर) बहुत बड़ी भिक्षा माँग रहा हुँ।
कर्णः- दृढं प्रीतोऽस्मि भगवन् ! कर्णो भवन्तमहमेष नमस्करोमि।
कर्ण- मैं खुब प्रसन्न हुँ। कर्ण आपको प्रणाम करता है।
शक्रः- (आत्मगतम्) किं नु खलु मया वक्तव्यं, यदि दीर्घायुर्भवेति वक्ष्ये दीर्घायुर्भविष्यति। यदि न वक्ष्ये मूढ़ इति मां परिभवति। तस्मादुभयं परिहृत्य किं नु खलु वक्ष्यामि। भवतु दृष्टम्। (प्रकाशम्) भो कर्ण ! सूर्य इव, चन्द्र इव, हिमवान् इव, सागर इव तिष्ठतु ते यशः।
इन्द्र- ( मन में ) क्या इस व्यक्ति के लिए बोला जाए, यदि दिर्घायु हो बोलता हुँ तो दिर्घायु हो जायेगा, यदि ऐसा नहीं बालता हुँ तो मुझको मुर्ख समझेगा। इसलिए दोनों को छोड़कर क्यों न ऐसा बोलूँ आप प्रसन्न हों। ;खुलकरद्ध ओ कर्ण ! सुर्य की तरह, चन्द्रमा की तरह, हिमालय की तरह, समुद्र की तरह तुम्हारा यश कायम रहे।
कर्णः- भगवन् ! किं न वक्तव्यं दीर्घायुर्भवेति। अथवा एतदेव शोभनम्।
कर्ण- क्या दिर्घायु हो ऐसा नहीं बोलना चाहिए। अथवा यहीं ठीक है
कुतः-
क्योंकि-
धर्मो हि यत्नैः पुरुषेण साध्यो भुजङ्गजिह्वाचपला नृपश्रियः।
तस्मात्प्रजापालनमात्रबुद्ध्या हतेषु देहेषु गुणा धरन्ते ।।
भगवन्, किमिच्छसि! किमहं ददामि।
व्यक्ति को धर्म की रक्षा अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि राजा का एश्वर्य साँप की जीभ की तरह चंचल होता है। इसलिए प्रजापालन करने वाले राजा प्राण देकर भी प्रजा की रक्षा करते हैं तथा यश धारण करते हैं। अतः कर्ण के कहने का भाव है कि राजा अपने सुख के लिए नहीं जते हैं, प्रजा की रक्षा करने के लिए देह धारण करते हैं। धन या एश्वर्य तो आते जाते हैं, किन्तु यश तथा सुकर्म चिर काल तक कायम रहते हैं।
भगवन् ! आप क्या चाहते हैं ? मैं क्या दूँ ?
शक्रः- महत्तरां भिक्षां याचे।
इन्द्र- बहुत बड़ी भिक्षा माँगता हूँ।
कर्णः- महत्तरां भिक्षां भवते प्रदास्ये। सालङ्कारं गोसहस्रं ददामि।
कर्ण- मैं आपको बहुत बड़ी भिक्षा दूँगा। आभूषण सहित एक हजार गाय देता हूँ।
शक्रः- गोसहस्रमिति। मुहूर्तकं क्षीरं पिबामि। नेच्छामि कर्ण ! नेच्छामि।
इन्द्र- एक हजार गाय। मैं थोड़ी दुध पीऊँगा। नहीं चाहिए कर्ण, नहीं चाहता हूँ।
कर्णः- किं नेच्छति भवान्। इदमपि श्रूयताम्। बहुसहस्रं वाजिनां ते ददामि।
कर्ण- आप क्या चाहते हैं ? यहीं भी तो बताएँ। हजारों घोड़े आपको देता हूँ।
शक्रः- अश्वमिति। मुहूर्तकम् आरोहामि। नेच्छामि कर्ण! नेच्छामि।
इन्द्र- घोड़े ही। थोड़ी देर मैं सवारी करुँगा। नहीं चाहता हूँ कर्ण, नहीं चाहता हूँ।
कर्णः- किं नेच्छति भगवान्। अन्यदपि श्रूयताम्। वारणानामनेकं वृन्दमपि ते ददामि।
कर्ण- आप क्या चाहते हैं ? दूसरा भी सुनें ! हाथियों का अनेक समुह आपको देता हूँ।
शक्रः- गजमिति। मुहूर्तकम् आरोहामि। नेच्छामि कर्ण! नेच्छामि।
इन्द्र- हाथी ही। थोड़ी चढूँगा । नहीं चाहता हूँ कर्ण। नहीं चाहता हूँ।
कर्णः- किं नेच्छति भवान्। अन्यदपि श्रूयताम्, अपर्याप्तं कनकं ददामि।
कर्ण- आप क्या चाहते हैं ? और भी सुनें ! जरूरत से अधिक सोना देता हूँ।
शक्रः- गृहीत्वा गच्छामि। ( किंचिद् गत्वा ) नेच्छामि कर्ण! नेच्छामि।
इन्द्र- लेकर जाता हूँ। ;थोड़ी दूर जाकरद्ध मैं नहीं चाहता हूँ कर्ण। मैं नहीं चाहता हूँ।
कर्णः- तेन हि जित्वा पृथिवीं ददामि।
कर्ण- तो जीतकर भूमि देता हूँ।
शक्रः- पृथिव्या किं करिष्यामि।
इन्द्र- भूमि लेकर क्या करुँगा ?
कर्णः- तैन ह्यग्निष्टोमफलं ददामि ।
कर्ण- तो अग्निष्टोम फल देता हूँ।
शक्रः- अग्निष्टोमफलेन किं कार्यम् ।
इन्द्र- अग्निष्टोम फल लेकर क्या करुँगा।
कर्णः- तेन हि मच्छिरो ददामि।
कर्ण- तो मैं अपना सिर देता हूँ।
शक्रः- अविहा अविहा।
इन्द्र- नही-नहीं, ऐसा मत करो।
कर्णः- न भेतव्यं न भेतव्यम्। प्रसीदतु भवान्। अन्यदपि श्रूयताम्।
कर्ण- डरो नहीं, डरो नहीं, आप प्रसन्न हो जाएँ। और भी सुनें।
अङ्गै सहैव जनितं मम देहरक्षा
देवासुरैरपि न भेद्यमिदं सहस्रैः ।
देयं तथापि कवचं सह कुण्डलाभ्यां
प्रीत्या मया भगवते रुचितं यदि स्यात् ॥
कर्ण ब्राह्मणवेशधारी इन्द्र से कहता है कि मेरा जन्म इन कवच कुण्डलों के साथ हुआ है। यह कवच देवता और असुरों के द्वारा भेद नही है, फिर भी यदि आपको यहीं कवच और कुण्डल लेने की इच्छा है तो मैं प्रसन्नता पूर्वक देता हूँ। अर्थात् कर्ण अपने दानवीरता की रक्षा के लिए कवच कुण्डल देने को तैयार हो जाता है।
शक्र – (सहर्षम्) ददातु, ददातु।
इन्द्र- (प्रसन्नतापूर्वक) दे दीजिए।
कर्णः-(आत्मगतम्) एष एवास्य कामः। किं नु खल्वनेककपटबुद्धेः कृष्णस्योपायः। सोऽपि भवतु। धिगयुक्तमनुशाचितम्। नास्ति संशयः। (प्रकाशम्) गृह्यताम्।
कर्ण- (मन-ही-मन) यहीं इसकी इच्छा है। निश्चय ही कपटबुद्धिवाले श्रीकृष्ण की योजना है। वह भी हो। धिक्कार है अनुचित विचार करना। ;प्रकट रुप सुनाकरद्ध ले लीजिए।
शल्यः- अङ्गराज ! न दातव्यं न दातव्यम्।
शल्यराज- हे अंगराज ! मत दीजिए, मत दीजिए।
कर्णः- शल्यराज ! अलमलं वारयितुम् । पश्य –
कर्ण- मत रोको ! मत रोको । देखो-
शिक्षा क्षयं गच्छति कालपर्ययात्
सुबद्धमूला निपतन्ति पादपाः।
जलं जलस्थानगतं च शुष्यति ।
हुतं च दत्तं च तथैव तिष्ठति।
तस्मात् गृह्यताम् (निकृत्त्य ददाति)।
समय बीतने पर शिक्षा नष्ट हो जाती है। मजबुत जड़ो वाले वृक्ष गीर जाते हैं। नदी तालाब के जल सुख जाते हैं। लेकिन दिया गया दान और दी गई आहूति हमेशा स्थिर रहती है। अर्थात् हवन करने तथा दान करने से प्राप्त होनेवाले पुण्य हमेशा अमर रहता है।
ग्रहण कीजिए। (निकाल कर दे देता है।) Karnsya Danveerta

संस्कृत कक्षा 10 व्याघ्रपथिककथा (बाघ और पथिक की कहानी) – Vyaghra Pathik Katha

vyaghrapathik katha
पाठ परिचय- यह कथा नारायण पंडित रचित प्रसिद्ध नीतिकथाग्रन्थ ‘हितोपदेश‘ के प्रथम भाग ‘मित्रलाभ‘ से संकलित है। इस कथा में लोभाविष्ट व्यक्ति की दुर्दशा का निरूपण है। आज के समाज में छल-छद्म का वातावरण विद्यमान है जहाँ अल्प वस्तु के लोभ से आकृष्ट होकर प्राण और सम्मान से वंचित हो जाते हैं। यह उपदेश इस कथा से मिलता है कि वंचकों के चक्कर में न पड़े।

Vyaghra Pathik Katha

Vyaghra Pathik Katha Class 10th Sanskrit Chapter 11 व्याघ्रपथिककथा (बाघ और पथिक की कहानी)

अयं पाठः नारायणपण्डितरचितस्य हितोपदेशनामकस्य नीतिकथाग्रन्थस्य मित्रलाभनामकखण्डात् संकलितः।
यह पाठ नारायण पंडित द्वारा रचित हितोपदेश नामक नीतिकथा ग्रन्थ के मित्रलाभ नामक खण्ड से संकलित है।
हितोपदेशे बालकानां मनोरंजनाय नीतिशिक्षणाय च नानाकथाः पशुपक्षिसम्बद्धाः श्राविताः।
हितोपदेश में बालकों के मनोरंजन के लिए और नीति-शिक्षा के लिए अनेक कहानियाँ पशु-पक्षी से सम्बन्धित हैं।
प्रस्तुत कथायां लोभस्य दुष्परिणामः प्रकटितः।
प्रस्तुत कथा में लोभ के दुष्परिणाम प्रकट किया गया है।
पशुपक्षिकथानां मूल्यं मानवानां शिक्षार्थं प्रभूतं भवति इति एतादृशीभिः कथाभिः ज्ञायते।
पशु-पक्षी के कहानी का महत्व मानवों की शिक्षा हेतु अचूक होता है। कहानीयों से ज्ञान होता है।

Vyaghra Pathik Katha Class 10th Sanskrit Chapter 11 व्याघ्रपथिककथा (बाघ और पथिक की कहानी)
कश्चित् वृद्धव्याघ्रः स्नातः कुशहस्तः सरस्तीरे ब्रुते- ‘भो भोः पान्थाः। इदं सुवर्णकंकणं गृह्यताम्।‘
कोई बूढ़ा बाघ स्नान कर कुश हाथ में लेकर तालाब के किनारे बोल रहा था- ‘‘ वो राही, वो राही ! यह सोने का कंगन ग्रहण करो।‘‘
ततो लोभाकृष्टेन केनचित्पान्थेनालोचितम्- भाग्येनैतत्संभवति। किंत्वस्मिन्नात्मसंदेहे प्रवृŸार्न विधेया। यतः –
इसके बाद लोभ से आकृष्ट होकर किसी राही के द्वारा सोचा गया- भाग्य से ऐसा मिलता है। किन्तु यहाँ आत्म संदेह है। आत्म संदेह की स्थिति में कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि-
अनिष्टादिष्टलाभेऽपि न गतिर्जायते शुभा।
यत्रास्ते विषसंसर्गोऽमृतं तदपि मृत्यवे।।
जहाँ अमंगल की आशंका होती है, वहाँ जाने से व्यक्ति को परहेज करना चाहिए। लाभ वहीं होता है जहाँ अनुकूल परिवेश होता है। क्योंकि विषयुक्त अमृत पीने से भी मृत्यु प्राप्त होती है।
किंतु सर्वत्रार्थार्जने प्रवृतिः संदेह एव। तन्निरूपयामि तावत्।‘ प्रकाशं ब्रुते- ‘कुत्र तव कंकणम् ?‘
लेकिन हर जगह धन प्राप्ति की इच्छा करना अच्छा नहीं होता । इसलिए तब तक विचार लेता हुँ। सुनकर कहता है- ‘कहाँ है तुम्हारा कंगन?‘
व्याघ्रो हस्तं प्रसार्य दर्शयति।
बाघ हाथ फेलाकर दिखा देता है।
पन्थोऽवदत्- ‘कथं मारात्मके त्वयि विश्वासः ?
पथिक ने पूछा- ‘तुम हिंसक पर कैसे विश्वास किया जाए ?‘
व्याघ्र उवाच- ‘शृणु रे पान्थ ! प्रागेव यौवनदशायामतिदुर्वृत्त आसम्।
बाघ ने कहा- ‘हे पथिक सुनो‘ पहले युवास्था में मैं अत्यंत दुराचारी था।
अनेकगोमानुषाणां वर्धान्मे पुत्रा मृता दाराश्च वंशहीनश्चाहम्।
अनेक गायों तथा मनुष्यों के मारने से मेरे पुत्र और पत्नि की मृत्यु हो गई और मैं वंशहीन हो गया।
ततः केनचिद्धार्मिकेणाहमादिष्टः – ‘दानधर्मादिकं चरतु भवान्।‘
इसके बाद किसी धर्मात्मा ने मुझे उपदेश दिया- ‘‘ आप दान और धर्म आदि करें।
तदुपदेशादिदानीमहं स्नानशीलो दाता वृद्धो गलितनखदन्तो कथं न विश्वासभूमिः ? मया च धर्मशास्त्राण्यधीतानि। शृणु –
उनके उपदेश से मैं इस समय स्नानशील , दानी हुँ तथा बुढ़ा और दंतविहीन हूँ, फिर कैसे विश्वासपात्र नहीं हुँ ? मेरे द्वार धर्मशास्त्र भी पढ़ा गया है। सुनो-
दरिन्द्रान्भर कौन्तेय ! मा प्रयच्छेश्वरे धनम्।
व्याधितस्यौषधं पथ्यं, नीरुजस्य किमौषधेः।।
हे कुन्तीपुत्र ! गरीबों को धन दो, धनवानों को धन मत दो । रोगी को दवा की जरूरत होती है। नीरोगी को दवा की कोई जरूरत नहीं होती है।
अन्यच्च –
और दूसरी बात यह है कि-
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं विदुः ।।
दान देना चाहिए। दान उसी को देना चाहिए। जिससे कोई उपकार नहीं कराना हो, उचित जगह, उपयुक्त समय और उपयुक्त व्यक्ति को दिया हुआ दान साŸवक दान होता है।
तदत्र सरसि स्नात्वा सुवर्णकंकणं गृहाण।
तुम यहाँ तालाब में स्नानकर सोने का कंगन ले लो।
ततो यावदसौ तद्वचः प्रतीतो लोभात्सरः स्नातुं प्रविशति। तावन्महापंके निमग्नः पलायितुमक्षमः।
उसके बाद उसकी बातों पर विश्वास कर ज्योंही वह लोभ से तालाब में स्नान के लिए प्रविष्ठ हुआ त्योंहि गहरे किचड़ में डुब गया और भागने में असमर्थ हो गया।
पंके पतितं दृष्ट्वा व्याघ्रोऽवदत् – ‘अहह, महापंके पतिताऽसि। अतस्त्वामहमुत्थापयामि।‘
उसको किचड़ में फंसा देखकर बाघ बोला- अरे रे, तुम गहरे किचड़ में फंस गये हों। इसलिए मैं तुमको निकाल देता हुँ ।
इत्युक्त्वा शनैः शनैरुपगम्य तेन व्याघ्रेण धृतः स पन्थोऽचिन्तयत् –
यह कहकर धीरे-धीरे उसके निकट जाकर उस बाघ ने उस पथिक को पकड़ लिया। उस पथिक ने सोचा-
अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया।
दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां विना।।
जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ और मन अपने वश में नही हो, उसकी सारी क्रियाएँ हाथी के स्नान के समान हैं। जिस प्रकार बंध्या स्त्री का पालन पोषण बेकार है, उसी प्रकार क्रिया के बिना ज्ञान भार स्वरूप है।
इति चिन्तयन्नेवासौ व्याघ्रेण व्यापादितः खादितश्च। अत उच्यते –
ऐसा सोचता हुआ पथिक बाघ से पकड़ा गया और खाया गया। इसलिए कहा जाता है-
कंकणस्य तु लोभेन मग्नः पंके सुदुस्तरे।
वृद्धव्याघ्रेण संप्राप्तः पथिकः स मृतो यथा।।
जिस प्रकार कंगन के लोभ में पथिक गहरे किचड़ में फँस गया तथा बूढ़े बाघ द्वारा पकड़कर मार दिया गया।

संस्कृत कक्षा 10 मन्दाकिनीवर्णनम् – Mandakini Varnanam

mandakini varnanam

पाठ परिचय- वाल्मीकीय रामायण के अयोध्याण्ड की सर्ग संख्या-95 से संकलित इस पाठ में चित्रकुट के निकट बहनेवाली मन्दाकिनी नामक छोटी नदी का वर्णन है।mandakini varnanam

Mandakini Varnanam Class 10th Sanskrit 10. मन्दाकिनीवर्णनम् (मन्‍दाकिनी का वर्णन)

प्रस्तुतः पाठः वाल्मीकीयरामायणस्य अयोध्याकाण्डस्य पंचनवति ( 95 ) तमात् सर्गात् संकलितः। वनवासप्रसंगेः रामः सीतया लक्ष्मेणेन च सह चित्रकूटं प्राप्नोति।
प्रस्तुत पाठ वाल्मीकी रामायण के अयोध्या काण्ड के पंचानवें सर्ग से संकलित किया गया है। वनवास प्रसंग में राम-सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकुट पहुँचते हैं।
तत्रस्थितां मन्दाकिनीनदीं वर्णयन् सीतां सम्बोधयति। इयं नदी प्राकृतिकैरुपादानैः संवलिता चित्तंं हरति। अस्याः वर्णनं कालिदासो रघुवंशकाव्येऽपि ( त्रयोदशसर्गे ) करोति। अनुष्टुप्छनदसि महर्षिः वाल्मीकिः मन्दाकिनीवर्णने प्रकृतेः यथार्थं चित्रणं करोति।
यहाँ स्थित मन्दाकनी नदी का वर्णन करते हुए सीता को कहते हैं। यह नदी प्राकृतिक संपदाओं से घिरी होने के कारण मन को आकर्षित करती है। इसका वर्णन कालीदास ने रघुवंश काव्य में भी ;तेरहवें सर्ग में द्ध किये है। अनुष्ठुप छन्द में महर्षि वाल्मीकी मन्दाकिनी वर्णन में प्रकृति का यथार्थ चित्रण करते हैं।

Mandakini Varnanam Class 10th Sanskrit पाठ 10 मन्दाकिनीवर्णनम् (मन्‍दाकिनी का वर्णन)
विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम्।
कुसुमैरुपसंपन्नां पश्य मन्दाकिनीं नदीम्।।1।।
हे सीते! फुलों से परिपुर्ण हंस-सारस से सेवित और रंग-विरंगी तटों वाली सुंदर मन्दाकनी नदी को देखों।
नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः।
राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः।।2।।
हे सीते! अनेक प्रकार के फल-फुलों के वृक्षों से घिरा हुआ किनारा राजाओं के सरोवर के समान सभी जगह प्रतीत हो रहा है।
मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम्।
तीर्थानि रमणीयानि रतिं संजनयन्ति मे।।3।।
हे सीते! अभी हरिणों के समुह द्वारा पीए गए जल गंदे हो गये जो मन को मोहित करने वाले तीर्थों के प्रति मेरे मन को जगा रहे हैं। अर्थात् यहाँ की सुंदरता, पवित्रता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर मेरे मन में प्रेम रस का संचार करने लगे हैं।
जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः।
ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये।।4।।
हे प्रिय सीते! जटा और मृगचर्म धारण करने वाले और पेड़ की छाल को वस्त्ररूप में धारण करने वाले ऋषिगण तो इसी मंदाकनी नदी में स्नान करते हैं।
आदित्यमुपतिष्ठनते नियमादूर्ध्वबाहवः।
एते परे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः।।5।।
हे विशाल नयन वाली सीते! ये श्रेष्ठ तथा प्रशंसनीय व्रत रखने वाले मुनीलोग अपनी बाँहों को ऊपर किये हुए सुर्य की उपासना में लगे हैं।
मारुतोद्धूतशिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः।
पादपैः पुष्पपत्राणि सृजद्भिरभितो नदीम्।।6।।
हे सीते! नदी के चारों ओर फुल एवं पत्तों से युक्त एवं हवा में चलायमान शिखर से पर्वत झुमते हुए जैसे लग रहे हैं।
क्वचिन्मणिनिकाशोदां क्वचित्पुलिनशालिनीम्।
क्वचित्सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनीं नदीम्।।7।।
हे सीते! मणि जैसे निर्मल जलवाली मन्दाकनी को देखो-जिसकी कहीं तटें सजी-धजी हैं तो कहीं ऋषि-मुनियों से भरी हुई हैं।
निर्धूतान् वायुना पश्य विततान् पुष्पसंचयान्।
पोप्लूयमानानपरान्पश्य त्वं जलमध्यगान्।।8।।
हे सीते! वायु द्वारा उड़ाये गये फुल समुहों को देखो और दुसरी तरफ जल के बीच में तैरते हुए फुलों के ढ़ेरों को देखो।
तांश्चातिवल्गुवचसो रथांगह्वयना द्विजाः।
अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः।।9।।
हे कल्याणी! अत्यन्त मीठी वाणी वाला चकवा-चकई पक्षी को देखो जो मधुर आवाज से मन्दाकनी की शोभा को बढ़ा रहे हैं।
दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने।
अधिकं पुरवासाच्च मन्ये तव च दर्शनात्।।10।।
हे शोभने! यहाँ चित्रकुट और मंदाकनी के दृश्यों का दर्शन जो हो रहा है। यह दृश्य तुम्हारे द्वारा किया गया अन्य दृश्यों के दर्शन से अधिक सुंदर माना जायेगा।

संस्कृत कक्षा 10 स्वामी दयानन्दः – Swami Dyanand Class 10 Sanskrit

पाठ परिचय- उन्नसवीं शताब्दी ईस्वी में महान समाजसुधारकों में स्वामी दयानन्द बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने रूढ़िग्रस्त समाज और विकृत धार्मिक व्यवस्था पर कठोर प्रहार करके आर्य समाज की स्थापना की जिसकी शाखाएँ देश-विदेश में शिक्षाव्यवस्था में गुरुकुल पद्धति का पुनरुद्धार करते हुए इन्होंने आधुनिक शिक्षा के लिए डी० ए० वी० विद्यालय जैसी संस्थाओं की स्थापना को प्रेरित किया था। इनका जीवनचरित प्रस्तुत पाठ में संक्षिप्त रूप से दिया गया है।

Swami Dyanand Class 10 Sanskrit

Swami Dyanand Class 10 Sanskrit Chapter 9 स्वामी दयानन्दः

आधुनिकभारते समाजस्य शिक्षायाश्च महान् उद्धारकः स्वामी दयानन्दः। आर्यसमाजनामकसंस्थायाः संस्थापनेन एतस्य प्रभूतं योगदानं भारतीयसमाजे गृह्यते। भारतवर्षे राष्ट्रीयतायाः बोधोऽपि अस्य कार्यविशेषः।
आधुनिक भारत में समाज और शिक्षा के महान उद्धारक स्वामी दयानन्द हैं। आर्यसमाज नामक संस्था की स्थापना करने में इनका बहुत बड़ा योगदान भारतीय समाज में लिया जाता है। भारत वर्ष में राष्ट्रीयता का ज्ञान कराना भी इनका कार्य-विशेष माना जाता है।
समाजे अनेकाः दूषिताः प्रथा खण्डयित्वा शुद्धतत्त्वज्ञानस्य प्रचारं दयानन्दः अकरोत्। अयं पाठः स्वामिनो दयानन्दस्य परिचयं तस्य समाजोद्धरणे योगदानं च निरूपयति।
समाज में अनेक दूषित प्रथाओं को खण्डित कर वास्तविकता का ज्ञान का प्रचार दयानन्द ने किया। यह पाठ स्वामी दयानन्द के परिचय और समाज उद्धार में उनका योगदान को स्पष्ट किया है।

Swami Dyanand Class 10 Sanskrit Chapter 9 स्वामी दयानन्दः

मध्यकाले नाना कुत्सितरीतयः भारतीयं समाजम् अदूषयन्। जातिवादकृतं वैषम्यम्, अस्पृश्यता, धर्मकार्येषु आडम्बरः, स्त्रीणामशिक्षा, विधवानां गर्हिता स्थितिः, शिक्षायाः अव्यापकता इत्यादयः दोषाः प्राचीनसमाजे आसन्। अतः अनेके दलिताः हिन्दुसमाजं तिरस्कृत्य धर्मान्तरणं स्वीकृतवन्तः।
मध्य काल में अनेक गलत रीति-रिवाजों से भारतीय समाज दूषित हो गया था। जातिवाद से किया गया विषमता, छुआ-छूत, धर्म कार्यों में आडम्बर, स्त्रियों की अशिक्षा, विधवाओं की निन्दनीय स्थिति, शिक्षा की कमी इत्यादि अनेक दोष समाज में थे। अतः अनेक दलित हिन्दू समाज अपमानित होकर धर्म परिवर्तन करना स्वीकार लिया।
एतादृशे विषमे काले ऊनविंशशतके केचन धर्मोद्धारकाः सत्यान्वेषिणः समाजस्य वैषम्यनिवारकाः भारते वर्षे प्रादुरभवन्। तेषु नूनं स्वामी दयानन्दः विचाराणां व्यापकत्वात् समाजोद्धरणस्य संकल्पाच्च शिखर-स्थानीयः।
इस प्रकार के विषम समय में उन्नसवीं सदी में कुछ धर्म उद्धारक, सत्य की खोज करने वाले तथा समाज की विषमता को दूर करने वाले भारतवर्ष में उत्पन्न हुए। उनमें अवश्य स्वामी दयानन्द के विचारों का व्यापक प्रभाव तथा समाज-उद्धार के संकल्प से उनका स्थान सर्वोच्च है।
स्वामिनः जन्म गुजरातप्रदेशस्य टंकरानामके ग्रामे 1824 ईस्वी वर्षेऽभूत्। बालकस्य नाम मूलशंकरः इति कृतम्। संस्कृतशिक्षया एवाध्ययनस्यास्य प्रारम्भो जातः। कर्मकाण्डिपरिवारे तादृश्येव व्यवस्था तदानीमासीत्। शिवोपासके परिवारे मूलशंकरस्य कृते शिवरात्रिमहापर्व उद्बोधकं जातम्।
स्वामी जी का जन्म गुजरात प्रदेश के ‘टंकरा‘ नामक गाँव में 1824 ई0 हुआ था। बालक का नाम ‘मूलशंकर‘ रखा गया। संस्कृत शिक्षा से ही अध्ययन प्राप्त हुआ। उस समय कर्मकाण्डी परिवार में एसी ही व्यवस्था थी। शिव के उपासक परिवार में शिवरात्रि महापर्व मूलशंकर के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ।
रात्रिजागरणकाले मूलशंकरेण दृष्टं यत् शंकरस्य विग्रहमारुह्य मूषकाः विग्रहार्पितानि द्रव्याणि भक्षयन्ति। मूलशंकरोऽचिन्तयत् यत् विग्रहोऽयमकिंचित्करः। वस्तुतः देवः प्रतिमायां नास्ति। रात्रिजागरणं विहाय मूलशंकरः गृहं गतः। ततः एव मूलशंकरस्य मूर्तिपूजां प्रति अनास्था जाता। वर्षद्वयाभ्यन्तरे एव तस्य प्रियायाः स्वसुर्निधनं जातम्।
रात्री जागरण के समय मूलशंकर द्वारा देखा गया कि शिव की मूर्ति पर चढ़ाए गए प्रसाद को चूहा खा रहा है। मूलशंकर ने सोचा कि यह मूर्ति कुछ भी करने वाला नहीं है। वास्तव में देवता प्रतिमा में नहीं है। रात्री जागरण छोड़कर मूलशंकर घर चला गया। उसी समय से मूलशंकर के हृदय में मूर्ति पूजा के प्रति आस्था खत्म हो गया। दो वर्ष के अंदर ही उनके प्रिय बहन का निधन हो गया।
ततः मूलशंकरे वेराग्यभावः समागतः। गृहं परित्यज्य विभिन्नानां विदुषां सतां साधूनांच संगतौ रममाणोऽसौ मथुरायां विरजानन्दस्य प्रज्ञाचक्षुषः विदुषः समीपमगमत्। तस्मात् आर्षग्रन्थानामध्ययनं प्रारभत।
इसके बाद मूलशंकर में वैराग्य भाव आ गया। घर त्यागकर विभिन्न विद्वानों , सज्जनों और साधुओं की संगति में घूमते हुए वे मथुरा में विरजानन्द नामक अन्धा विद्वान के पास गये। उनसे वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। 
विरजानन्दस्य उपदेशात् वैदिकधर्मस्य प्रचारे सत्यस्य प्रचारे च स्वजीवनमसावर्पितवान्। यत्र-तत्र धर्माडम्बराणां खण्डनमपि च चकार। अनेके पण्डिताः तेन पराजिताः तस्य मते च दीक्षिताः।
विरजानन्द के उपदेश से उपदेशित होकर वेदिक धर्म और सत्य के प्रसार में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। जहाँ-तहाँ धर्म-आडम्बर का खण्डन भी उन्होने किया। अनेक पंडितों ने उनसे पराजित होकर उनके मत में दीक्षा प्राप्त की।
स्त्रीशिक्षायाः विधवाविवाहस्य मूर्तिपूजाखण्डनस्य अस्पृश्यतायाः बालविवाहस्य च निवारणस्य तेन महान् प्रयासः विभिनैः समाजोद्धारकैः सह कृतः। स्वसिद्धान्तानां संकलनाय सत्यार्थप्रकाशनामकं ग्रन्थं राष्ट्रभाषायां विरच्य स्वानुयायिनां स महान्तमुपकारं चकार।
स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह, मूर्ति-पूजा खण्डन, छुआ-छूत और बाल-विवाह निवारण का महान प्रयास उनके द्वारा विभिन्न समाज उद्धारको के साथ किया गया। अपने सिद्धांत का संकलन करने के लिए ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ नामक ग्रन्थ को हिन्दी भाषा में रचना कर अपने अनुयायी लोगों का बहुत बड़ा उपकार किया।
किंच वेदान् प्रति सर्वेषां धर्मानुयायिनां ध्यानमाकर्षयन् स्वयं वेदभाष्याणि संस्कृतहिन्दीभाषयोः रचितवान्। प्राचीनशिक्षायां दोषान् दर्शयित्वा नवीनां शिक्षा पद्धतिमसावदर्शत्। स्वसिद्धान्तानां कार्यान्वयनाय 1875 ईस्वी वर्षे मुम्बईनगरे आर्यसमाजसंस्थायाः स्थापनां कृत्वा अनुयायिनां कृते मूर्त्तरूपेण समाजस्य संशोधनोद्देश्यं प्रकटितवान्।
वेदों के प्रति अनुयायियों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वेद का भाषा संस्कृत-हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखा। 1875 ई0 में अपने सिद्धांत के प्रचार-प्रसार के लिए मुम्बई में आर्य-समाज की स्थापना करके अनुयायियों के समक्ष उद्देश्य प्रकट किया।
सम्प्रति आर्यसमाजस्य शाखाः प्रशाखाश्च देशे विदेशेषु च प्रायेण प्रतिनगरं वर्तन्ते। सर्वत्र समाजदूषणानि शिक्षामलानि च शोधयन्ति। शिक्षापद्धतौ गुरुकुलानां डी॰ ए॰ वी॰ (दयानन्द एंग्लो वैदिक) विद्यालयानांच समूहः स्वामिनो दयानन्दस्य मृत्योः (1883 ईस्वी) अनन्तरं प्रारब्धः तदनूयायिभिः।
वर्तमान समय में आर्यसमाज की शाखा-प्रशाखा देश तथा विदेशों के प्रायः सभी नगरों में विद्यमान है। सब जगह समाज में स्थित दोषों और गंदगियों को शुद्ध कर रहा है। शिक्षा पद्धति में गुरूकुलों का डी0 ए0 वी0 (दयानन्द-एंग्लो-वैदिक) विद्यालयों का समुह स्वामी दयानन्द की मृत्यु 1883 ई0 के बाद अनके अनुयायियों के द्वारा प्रारंभ किया गया।
वर्तमानशिक्षापद्धतौ समाजस्य प्रवर्तने च दयानन्दस्य आर्यसमाजस्य च योगदानं सदा स्मरणीमस्ति।
वर्तमान शिक्षा पद्धति में और समाज के परिवर्त्तन में दयानन्द और आर्य समाज का योगदान सदा स्मरणीय है।

संस्कृत कक्षा 10 कर्मवीर कथा ( कर्मवीर की कहानी ) – Karamveer Katha

karamveer katha

पाठ परिचय- इस पाठ में एक पुरूषार्थी की कथा है जो निर्धनता एवं दलित जाति में जन्म जैसे विपरित परिवेश में भी रहकर प्रबल इच्छाशक्ति तथा उन्नति की तीव्र कामना के कारण उच्चपद पर पहुँचता है। यह कथा किशोरों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान उत्पन्न करती है, विजय के रथ को प्रशस्त करती है। ऐसे कर्मवीर हमारे आदर्श हैं।karamveer katha

8. कर्मवीर कथा (कर्मवीर की कहानी)
कर्मवीर- परिश्रमी, कर्तव्य में वीर, कर्मवान
Class 10th Sanskrit chapter 8 Karamveer Katha

(पाठेऽस्मिन् समाजे दलितस्य ग्रामवासिनः पुरुषस्य कथा वर्तते। कर्मवीरः असौ निजोत्साहेन विद्यां प्राप्य महत्पदं लभते, समाजे च सर्वत्र सत्कृतो भवति। कथाया मूल्यं वर्तते यत् निराशो न स्यात्, उत्साहेन सर्वं कर्तुं प्रभवेत्।)
( इस पाठ में समाज में दलित ग्रामवासी पुरूष की कहानी है। कर्मवीर लोग अपने उत्साह से विद्या को पाकर बहुत बड़ा पद को प्राप्त करते हैं। समाज में सब जगह उनका सत्कार होता है। कथा का वास्तविकता है कि मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए। उत्साह से सभी कामों में लगना चाहिए।)
अस्ति बिहारराज्यस्य दुर्गमप्राये प्रान्तरे ‘भीखनटोला‘ नाम ग्रामः। निवसन्ति स्म तत्रातिनिर्धनाः शिक्षाविहीनाः क्लिष्टजीवनाः जनाः। तेष्वेवान्यतमस्य जनस्य परिवारो ग्रामाद् बहिःस्थितायां कुट्यां न्यवसत्। कुटी तु जीर्णप्रायत्वात् परिवारजनान् आतपमात्राद् रक्षति, न वृष्टेः।
बिहार राज्य के दुर्गम क्षेत्र में भीखनटोला नामक एक गाँव है। वहाँ बहुत गरीब शिक्षाविहीन, कठिनाई से जीवन जीने वाले लोग निवास करते थे। उन सबों में एक व्यक्ति का परिवार गाँव से बाहर से स्थित कुटियॉ में निवास करता था। झोपड़ी टुटी जैसी थी जो परिवार वालों को केवल धुप से बचाती थी, वर्षा से नहीं।
परिवारे स्वयं गृहस्वामी, तस्य भार्या तयोरेकः कनीयसी दुहिता चेत्यासन्। तस्माद् ग्रामात् क्रोशमात्रदूरं प्राथमिको विद्यालयः प्रशासनेन संस्थापितः। तत्रैको नवीनदृष्टिसम्पन्नः सामाजिकसामरस्यरसिकः शिक्षकः समागतः। भीखनटोलां द्रष्टुमागतः स कदाचित् खेलनरतं दलितबालकं विलोक्य तस्यापातरमणीयेन स्वभावेनाभिभूतः।
परिवार में स्वयं घर का मालिक, उसकी पत्नी, उसका पुत्र और छोटी बेटी थी। उस गाँव से मात्र एक कोश दुरी पर प्राथमिक विद्यालय सरकार द्वारा स्थापित की गई। वहाँ एक नवीन विचार वाले सामाजिक समरसता के पक्षधर शिक्षक भीखनटोला देखने आए उस शिक्षक ने खेल में मग्न एक प्रमिभासम्पन्न दलित बालक को देखकर प्रभावित हो गए।
शिक्षकं बालकमेनं स्वविद्यालयमानीय स्वयं शिक्षितुमारभत। बालकोऽपि तस्य शिक्षणशैल्याकृष्टः शिक्षाकर्म जीवनस्य परमा गतिरिति मन्यमानो निरन्तरमध्यवसायेन विद्याधिगमाय निरतोऽभवत्। क्रमशः उच्चविद्यालयं गतस्तस्यैव शिक्षकस्याध्यापनेन स्वाध्यवसायेन च प्राथम्यं प्राप।
शिक्षक ने उस बालक को विद्यालय में लाकर पढ़ाना शुरू कर दिए। बालक भी उनकी पढ़ाई से प्रसन्न होकर शिक्षा को जीवन का असली धन मानकर परिश्रमपूर्वक अध्ययन करने लगा। इस प्रकार उच्च विद्यालय में जाने पर शिक्षक के सहयोग तथा अपने परिश्रम के बल पर परीक्षा मे प्रथम स्थान प्राप्त किया।
‘छात्राणामध्ययनं तपः‘ इति भूयोभूयः स्वविद्यागुरुणोपदिष्टोऽसौ बालकः पित्रोरर्थाभावेऽपि छात्रवृŸया कनीयश्छात्राणां शिक्षणलब्धेन धनेन च नगरगते महाविद्यालये प्रवेशमलभत। तत्रापि गुरूणां प्रियः सन् सततं पुस्तकालये स्ववर्गे च सदावहितचेतसा अकृतकालक्षेपः स्वाध्यायनिरतोऽभूत्।
पढ़ाई या शिक्षा की प्राप्ति तपस्या है। अपने गुरू से बार-बार उपदेश प्राप्त करने के फलस्वरूप पिता की निर्धनता के बावजूद छात्रवृति के सहारे माध्यमिक परीक्षा के बाद नगर के महाविद्यालय में नामांकन कराया। वहाँ भी शिक्षकों का प्रिय हो गया। हमेशा पुस्तकालय तथा अपने वर्ग में सावधानी पूर्वक मन से बिना समय नष्ट किए हुए पढ़ाई में लग गया।
महाविद्यालयस्य पुस्तकागारे बहूनां विषयाणां पुस्तकानि आत्मसादसौ कृतवान्। तत्र स्नातकपरीक्षायां विश्वविद्यालये प्रथमस्थानमवाप्य स्वमहाविद्यालयस्य ख्यातिमवर्धयत्। सर्वत्र रामप्रवेशराम इति शब्दः श्रूयते स्म नगरे विश्वविद्यालयपरिसरे च। नाजानतां पितरावस्य विद्याजन्यां प्रतिष्ठाम्।
महाविद्यालय के पुस्तकालय में अनेक प्रकार के विषयों का अध्ययन करके याद कर लिया। स्नातक के परिक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके महाविद्यालय की इज्जत बढ़ाई। सभी जगह विश्वविद्यालय में तथा नगर में रामप्रवेश राम सुनाई पड़ता था। पिता को कोई नहीं जानते हुए भी विद्यापुत्र के कारण प्रसिद्ध हो गए।
वर्षान्तरेऽसौ केन्द्रीयलोकसेवापरीक्षायामपि स्वाध्यवसायेन व्यापकविषयज्ञानेन च उन्नतं स्थानमवाप। साक्षात्कारे च समितिसदस्यास्तस्य व्यापकेन ज्ञानेन, तत्रापि तादृशे परिवारपरिवेशे कृतेन श्रमेणाभ्यासेन च परं प्रीताः अभूवन्।
वर्ष के अन्त में, इन्होंने केन्द्रीय लोकसेवा की परीक्षा में अपने परिश्रम और व्यापक ज्ञान के कारण श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। साक्षात्कार में समिति के सदस्यों को उनके ज्ञान, आर्थिक स्थिति और कठोर परिश्रम से सभी अति प्रसन्न हुए।
अद्य रामप्रवेशरामस्य प्रतिष्ठा स्वप्रान्ते केन्दप्रशासने च प्रभूता वर्तते। तस्य प्रशासनक्षमतां संकटकाले च निर्णयस्य सामर्थ्यं सर्वेषामावर्जके वर्तेते। नूनमसौ कर्मवीरो व्यतीत्य बाधाः प्रशासनकेन्द्रे लोकप्रियः संजातः। सत्यमुक्तम् – उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
आज रामप्रवेश राम की प्रतिष्ठा अपने राज्य में और केन्द्र सरकार में बहुत है। उसका प्रशासनिक क्ष्मता और संकटकाल में निर्णय की क्षमता सबों के लिए आकर्षक है। अवश्य यह कर्मवीर बाधाओं को पार कर प्रशासन क्षेत्र में लोकप्रिय हो गया है। सत्य कहा गया है- परिश्रमी व्यक्ति को ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। Piyusham Bhag 2 Sanskrit Chapter 8 Karmveer Katha