Class 10th Science Notes Bihar Board | Bihar Board Class 10 Science Book Solutions

इस पोस्‍ट में हमलोग BSEB (Bihar Board) कक्षा 10 विज्ञान bihar board class 10 Science book solutions के सभी पाठों का व्‍याख्‍या प्रत्‍येक पंक्ति के अर्थ सहित जानेंगे। साथ ही प्रत्‍येक पाठ के वस्‍तुनिष्‍ठ और विषयनिष्‍ठ प्रश्‍नों के व्‍याख्‍या को जानेंगे। पाठ के व्‍याख्‍या के बाद जितने भी प्रश्‍न दिए होंगे, उनमें से अधिकांश प्रश्‍न बोर्ड परीक्षा में पूछे गए हैं।

कक्षा 10 के विज्ञान के प्रत्‍येक पंक्ति के व्‍याख्‍या हमारे एक्‍सपर्ट के द्वारा तैयार किया गया है। इसमें त्रुटी की संभावना बहुत ही कम है। नीचे दिया गया व्‍याख्‍या को पढ़ने के बाद परीक्षा में आप और बेहतर कर सकते हैं। विज्ञान में काफी अच्‍छा मार्क्‍स आ सकता है। विज्ञान में अच्‍छा मार्क्‍स लाने के लिए इस पोस्‍ट पर नियमित विजिट करें। बहुत से बच्‍चों को विज्ञान से डर लगता है। प्रत्‍येक पाठ का व्‍याख्‍या इतना आसान भाषा में तैयार किया गया है कि कमजोर से कमजोर छात्र भी इसे पढ़कर समझ सकता है।

यह नोट्स NCERT तथा SCERT बिहार पाठ्यक्रम पर पूर्ण रूप से आ‍धारित है। इस पोस्‍ट में बिहार बोर्ड कक्षा 10 विज्ञान के प्रत्‍येक पाठ के बारे में प्रत्‍येक पंक्ति का हिन्‍दी व्‍याख्‍या किया गया है, जो बोर्ड परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। इस पोस्‍ट के प्रत्‍येक पाठ को पढ़कर विज्ञान के परीक्षा में उच्‍च स्‍कोर प्राप्‍त कर सकते है। इस पोस्‍ट के व्‍याख्‍या पढ़ने से आपका सारा कन्‍सेप्‍ट क्लियर हो जाएगा। सभी पाठ बोर्ड परीक्षा की दृष्टि से बनाया गया है।  पाठ को आसानी से समझ कर उसके प्रत्‍येक प्रश्‍नों का उत्तर दे सकते हैं। जिस पाठ को पढ़ना है, उस पर क्लिक करने से उस पाठ का व्‍याख्‍या खुल जाएगा। जहाँ उस पाठ के प्रत्‍येक पंक्ति का व्‍याख्‍या पढ़ सकते हैं।

Bihar Board Class 10th Science Notes | कक्षा 10 विज्ञान का सम्‍पूर्ण व्‍याख्‍या

Bihar Board Class 10 Science Chemistry Solution in Hindi

Chapter 1 रासायनिक अभिक्रियाएँ एवं समीकरण
Chapter 2 अम्ल, क्षारक एवं लवण
Chapter 3 धातु एवं अधातु
Chapter 4 कार्बन एवं इसके यौगिक
Chapter 5 तत्वों का आवर्त वर्गीकरण

Bihar Board Class 10 Science Biology Solution in Hindi

Chapter 6 जैव प्रक्रम
Chapter 7 नियंत्रण एवं समन्वय
Chapter 8 जीव जनन कैसे करते है
Chapter 9 अनुवांशिकता एवं जैव विकास
Chapter 14 उर्जा के स्रोत
Chapter 15 हमारा पर्यावरण
Chapter 16 प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन

Bihar Board Class 10 Science Physics Solution in Hindi

Chapter 10 प्रकाश-परावर्तन तथा अपवर्तन
Chapter 11 मानव नेत्र एवं रंगबिरंगा संसार
Chapter 12 विद्युत
Chapter 13 विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव

Bihar Board Class 10 Science Book Solutions

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मुझे आशा है कि आप को Class 10 Science (विज्ञान) के सभी पाठ के व्‍याख्‍या को पढ़कर अच्‍छा लगा होगा। इसको पढ़ने के पश्‍चात् आप निश्चित ही अच्‍छा स्‍कोर करेंगें।  इन सभी पाठ को बहुत ही अच्‍छा तरीका से आसान भाषा में तैयार किया गया है ताकि आप सभी को आसानी से समझ में आए। इसमें कक्षा 10 विज्ञान के सभी चैप्‍टर के प्रत्‍येक पंक्ति का व्‍याख्‍या को सरल भाषा में लिखा गया है। यदि आप बिहार बोर्ड कक्षा 10 से संबंधित किसी भी पाठ के बारे में जानना चाहते हैं, तो नीचे कमेन्‍ट बॉक्‍स में क्लिक कर पूछ सकते हैं। यदि आप और विषय के बारे में पढ़ना चाहते हैं तो भी हमें कमेंट बॉक्‍स में बता सकते हैं। अगर आपका कोई सुझाव हो, तो मैं आपके सुझाव का सम्‍मान करेंगे। आपका बहुत-बहुत धन्‍यवाद.

ऊर्जा के स्त्रोत | Sources of Energy in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 14 ऊर्जा के स्त्रोत (Sources of Energy in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Magnetic Effect of Electricity in Hindi

Chapte 14 ऊर्जा के स्त्रोत

ऊर्जा कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। जब किसी वस्तु में कार्य करने की क्षमता होती है तो हम कहते हैं कि वस्तु में ऊर्जा है।

ऊर्जा के अनेक रूप हैं। जैसे यांत्रिक ऊर्जा ( जिसमें गतिज ऊर्जा और स्थितिज ऊर्जा दोनों शामिल है।) रासायनिक ऊर्जा, ऊष्मा ऊर्जा, प्रकाश ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा आदि।

ऊर्जा के स्त्रोत जिस वस्तु से हमें ऊर्जा प्राप्त होती है, उसे ऊर्जा के स्त्रोत कहते हैं। जैसे- LPG

ऊर्जा संरक्षण सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है।

ईंधन वैसे पदार्थों को ईंधन कहते हैं जो दहन पर ऊष्मा उत्पन्न करते हैं।

अच्छा इंर्धन की विशेषताएँ

  1. जो जलने पर अधिक ऊष्मा निर्मुक्त करें,
  2. जो आसानी से उपलब्ध हो,
  3. जो अधिक धुआँ उत्पन्न न करें,
  4. जिसका भंडारण और परिवहन आसान हो,
  5. जिसके दहन की दर मध्यम हो, और
  6. जिसके जलने पर विषैले उत्पाद पैदा न हों।

ऊर्जा के परंपरागत स्त्रोत ऐसे ऊर्जा के स्त्रोत जो बहुत लंबे समय से चले आ रहे हैं, उसे ऊर्जा के परंपरागत स्त्रोत कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस।

ऊर्जा के गैर परंपरागत स्त्रोत ऐसे ऊर्जा के स्त्रोत जिनका हम लंबे समय से उपयोग नहीं कर रहें है, उसे ऊर्जा के गैर परंपरागत स्त्रोत कहते हैं। जैसे- सौर ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, तरंग ऊर्जा आदि।

जीवाश्म ईंधन करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी की सतह में गहरे दबे हुए पौधे और पशुओं के अवशेषों से बने ईंधन को जीवाश्म ईंधन कहते हैं। जैसे- कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस।

जलविद्युत के लाभः

  1. ऊर्जा का यह स्त्रोत नवीकरणीय है और प्रदूषणमुक्त है।
  2. अन्य प्रकार के शक्ति संयंत्रों की तुलना में जलविद्युत उत्पादन की कीमत कम होती है।
  3. जल-विद्युत संयंत्र के लिए बनाए गए बाँध बाढ़-नियंत्रण और सिंचाई में भी सहायक होते हैं।

Sources of Energy in Science

जलविद्युत की हानियाँः

  1. सिर्फ सीमित संख्या में ऐसे स्थानों पर विशेषकर, पहाड़ी भू-भागों पर बाँध बनाए जा सकते हैं।
  2. बाँध के कारण कृषियोग्य भूमि और मानव निवास के बड़े क्षेत्र को त्यागना पड़ता है, क्योंकि वह स्थान जलमग्न हो जाता है। विशाल पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाते हैं जब बाँध में पानी के अंदर डूब जाते हैं।
  3. जलमग्न वनस्पति अनॉक्सि शर्तों के अधीन सड़ती है और मेथेन की बड़ी मात्रा उत्पन्न करती है, मेथेन ग्रीनहाउस गैस है। जो वायुमंडल पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
  4. बड़े बाँध निर्माण के साथ कुछ समस्याएँ जुड़ी होती है। यह विस्थापित व्यक्तियों के संतोषजनक पुनर्वास की समस्या उत्पन्न करता है।

बायोगैस संयंत्रः

     यह संयंत्र ईंटों से बना एक गुबंद रूप संरचना है। गोबर और पानी का गारा मिश्रण टंकी में बनाया जाता है।

     विघटन प्रक्रिया को पूरा होने से कुछ दिन लगते हैं और तब यह मेथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसे गैसों को उत्पन्न करती है। बायोगैस को पाचित्र के ऊपर गैस टंकी में जमा किया जाता है जहाँ इसे पाइपों द्वारा उपयोग के लिए भेजा जाता है।

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बायोगैस संयंत्र की विशेषताएँ

  1. बायोगैस में 75 प्रतिशत तक मेथेन होता है। अतः यह एक उत्तम ईंधन है।
  2. यह बिना धुआँ के जलता है।
  3. यह राख जैसा कोई अवशेष नहीं छोड़ता है।
  4. इससे तापन की उच्च क्षमता प्राप्त होती है।
  5. प्रकाश-व्यवस्था के लिए भी बायोगैस का उपयोग होता है।
  6. यह ऊर्जा की नवीकरणीय स्त्रोत है।
  7. बचा हुआ अपशिष्ट उŸाम खाद के रूप में होता है।

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Sources of Energy in Science

बायोगैस संयंत्र के लाभ :

  1. बायोगैस संयंत्र सस्ता होता है।
  2. बायोगैस संयंत्र चलाने में यह संयंत्र सुविधाजनक होता है।
  3. बायोगैस सभी जगह आसानी से बनाया जा सकता है।

पवन ऊर्जा के लाभ :

  1. पवन ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का पर्यावरण-अनुकूल और दक्ष स्त्रोत है।
  2. विधुत उत्पादन के लिए आवर्तक व्यय आवश्यक नहीं होता है।

पवन ऊर्जा की सीमाएँ

पवन ऊर्जा के दोहन में अनेक सीमाएँ हैं

  1. पवन ऊर्जा फार्म उन्हीं स्थानों पर स्थापित किए जा सकते हैं जहाँ वर्ष के अधिक भाग तक पवन चलता है।
  2. टरबाइन की आवश्यक चाल को बनाए रखने के लिए पवन चाल 15 km/h से अधिक होनी चाहिए।
  3. जब पवन नहीं है तब उस अवधि के दरम्यान ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति के लिए संचालक सेलों जैसी कोई सहायक सुविधा होनी चाहिए।
  4. पवन ऊर्जा फार्म की स्थापना के लिए भूमि का बड़ा क्षेत्र आवश्यक होता है। 1 MW जनित्र के लिए फार्म को लगभग 2 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होती है।
  5. फार्म के संस्थापन की प्रारंभिक लागत बहुत अधिक होती है।
  6. चूँकि टावर और ब्लेड वर्षा, सूर्य, आँधी और चक्रवात जैसे प्राकृतिक आपदाओं के लिए खुले रहते हैं, अतः उनके उच्च स्तरीय रख-रखाव की आवश्यकता होती है।

डेनमार्क को पवनों का देश कहा जाता है। भारत विद्युत उत्पदान के लिए पवन ऊर्जा दोहन में पाँचवें स्थान पर है।

सौर कुकर से होने वाला लाभ

  1. सौर कुकर सस्ता होता है।
  2. अनेक बर्तनों में विभिन्न खाद्य पदार्थों को कुकर के भीतर रखा जा सकता है और इसलिए वे एक साथ पकाए जा सकते हैं।
  3. ये कुकर ईंधन (जैसे- जलावन लकड़ी, रसोई गैस आदि) की खपत कम करते हैं।
  4. ये धुआँ उत्पन्न नहीं करते हैं।

सौर कुकर से होने वाला हानियाँ

  1. सौर कुकरों का उपयोग सिर्फ दिन के समय किया जा सकता है।
  2. सिर्फ गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में इनका उपयोग प्रभावकारी ढंग से किया जा सकता है।
  3. जाड़े और बादल वाले दिनों में ये भोजन पकाने में लंबा समय लेते हैं।
  4. भोजन तलने या रोटी पकाने के लिए इनका उपयोग नहीं किया जा सकता है।

सौर सेल- उस युक्ति को जो सौर ऊर्जा को सीधे विद्युत में बदलता है, सौर सेल कहते हैं। सिलिकन से सौर सेल बनाया जाता है।

Sources of Energy in Science

सौर सेल से होनेवाला लाभ

  1. सौर सेलों का कोई चल हिस्से नहीं होते हैं।
  2. कम रख-रखाव की जरूरत होती है।
  3. सुदुर और बहुत कम बसे हुए क्षेत्रों जिनमें शक्ति संचरण लाइन खर्चीला होता है, वहाँ सौर सेल लगाया जाता है।
  4. उच्च किमत और निम्न दक्षता के बावजूद सौर सेलों का उपयोग वैज्ञानिक और शिल्पवैज्ञानिक अनुप्रयोगों के लिए होता है।
  5. कृत्रिम उपग्रह और अंतरिक्ष प्रोब में ऊर्जा के लिए मुख्य स्त्रोत के रूप में सौर सेलों का उपयोग किया जाता है।
  6. यातायात सिग्नलों, कैलकुलेटरों और अनेक खिलौनों में सौर सेल लगे होते हैं।
  7. रेडियो या बेतार संचार प्रणाली या सुदूर स्थानों में टीवी रिले स्टेशन सौर सेल पैनल का उपयोग करते हैं।

सौर सेल से होनेवाला हानियाँ

  1. सिलिकन जो सौर सेलों को बनाने के लिए इस्तेमाल होता है, प्रकृति में भरपूर हैं, किन्तु सौर सेल को बनाने के लिए विशिष्ट ग्रेड वाले सिलिकॉन की उपलब्धता सीमित है।
  2. निर्माण की संपूर्ण प्रक्रिया अभी भी बहुत खर्चीली है, पैनेल के सेलों के अंतःसंबंध के लिए प्रयुक्त चाँदी इसकी कीमत को और भी बढ़ा देती है।
  3. उच्च कीमत के कारण सौर सेलों का घरेलू उपयोग सीमित है।

ज्वारीय ऊर्जा

घूमति पृथ्वी पर मुख्यतः चंद्रमा के गुरूत्वीय खिंचाव के कारण सागर में पानी का तल उठता और गिरता है। इस घटना को उच्च ज्वार और निम्न ज्वार कहते हैं। सागर तलों में इस अंतर से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होता है।

भूऊष्मीय ऊर्जा

पृथ्वी के पर्पटी के गहरे गर्म क्षेत्रों में बने पिघले चट्टान ऊपर की ओर धकेले जाते हैं और निश्चित क्षेत्रों में फँस जाते है जिन्हें गर्म स्पॉट कहते हैं। जब भूमिगत पानी गर्म स्पॉट के संपर्क में आता है तो भाप उत्पन्न होती है। कभी-कभी उस क्षेत्र के गर्म पानी के निकास पृथ्वी की सतह पर निकलते हैं। उस निकासों को गर्म झरना या स्त्रोत कहते हैं। चट्टानों में फँसी भाप पाइप से होकर टरबाइन तक भेजी जाती है और विद्युत उत्पादन के लिए इस्तेमाल होती है।

भूऊष्मीय ऊर्जा के लाभ

  1. सौर और ज्वारीय ऊर्जा से भिन्न भूऊष्मीय ऊर्जा संयंत्र रात-दिन कार्य कर सकते हैं।
  2. भूऊष्मीय ऊर्जा लगभग प्रदुषण मुक्त है।
  3. कोयला-आधारित संयंत्र की अपेक्षा भूऊष्मीय ऊर्जा संयंत्र को चलाना सस्ता होता है।
  4. ऊर्जा का यह स्त्रोत मुफ्त और नवीकरणीय है।

नाभिकीय विखंडन में कोई भारी नाभिक दो अपेक्षाकृत हलके नाभिक में टूट जाता है।

नाभिकीय संलंयन में दो हलके नाभिक एक भारी नाभिक बनाने के लिए संयोजन करते हैं।

सूर्य में ऊर्जा चार हाइड्रोजन नाभिकों के संलंयन से बने एक हीलियम द्वारा उत्पन्न होती है।

हाइड्रोजन बम नाभिकीय संलयन के सिद्धांत पर कार्य करता है।

आजकल सभी व्यवसायिक रिऐक्टर नाभिकीय विखंडन पर आधारित है। जैसे तारापुर, राणा प्रताप सागर

ऐसे स्त्रोत जो किसी दिन समाप्त हो जाएँगे, ऊर्जा के अनवीकरणीय स्त्रोत कहे जाते हैं। जैसे कोयला, पेट्रोलियम

ऐसे ऊर्जा स्त्रोत जो पुनः उत्पन्न किए जा सकते हैं, ऊर्जा के नवीकरणीय स्त्रोत कहे जाते हैं। जैसे सूर्य, पवन, बहता पानी।

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विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव | Magnetic Effect of Electricity in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 13 विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव (Magnetic Effect of Electricity in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Magnetic Effect of Electricity in Hindi

Chapter 13 विद्युत धारा का चुम्बकीय प्रभाव

चुबंक चुंबक एक ऐसा पदार्थ है जो कि लोहा और चुंबकीय पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित करता है।

चुबंक में दो ध्रुव होता है- उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव

चुंबकीय पदार्थ वैसे पदार्थ जिन्हें चुंबक आकर्षित करता है अथवा जिनसे कृत्रिम चुंबक बनाए जा सकते हैं, चुंबकीय पदार्थ कहलाते हैं। जैसे- लोहा, कोबाल्ट, निकेल और कुछ अन्य मिश्र धातु।

अचुंबकीय पदार्थ वैसे पदार्थ जिन्हें चुंबक आकर्षित नहीं करता है, अचुंबकीय पदार्थ कहलाते हैं। जैसे- काँच, कागज, प्लैस्टिक, पीतल आदि।

1820 में ओर्स्टेड नामक वैज्ञानिक ने यह पता लगाया कि जब किसी चालक से विधुत-धारा प्रवाहित की जाती है तब चालक के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है।

मैक्सवेल का दक्षिणहस्त नियम यदि धारावाही तार को दाएँ हाथ की मुट्ठी में इस प्रकार पकड़ा जाए कि अँगूठा धारा की दिशा की ओर संकेत करता हो, तो हाथ की अन्य अँगुलियाँ चुंबकीय क्षेत्र की दिशा व्यक्त करेंगी।

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विधुतचुंबक: विधुत-चुंबक वैसा चुंबक जिसमें चुंबकत्व उतने ही समय तक विद्यमान रहता है जितने समय तक परिनालिका में विधुत-धारा प्रवाहित होती रहती है।

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चुंबक के चुंबकत्व की तिव्रता निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है।

  1. परिनालिका के फेरों की संख्या पर
  2. विधुत-धारा का परिणाम
  3. क्रोड के पदार्थ की प्रकृति

नर्म लोहे का उपयोग विधुत चुंबक तथा इस्पात का उपयोग स्थायी चुंबक बनाने में किया जाता है।

फ्लेमिंग का वामहस्त नियम : यदि हम अपने बांए हाथ की तीन अंगुलियाँ मध्यमा, तर्जनी तथा अँगुठे को परस्पर लंबवत फैलाएँ और यदि तर्जनी चुबंकिय क्षेत्र की दिशा तथा मध्यमा धारा की दिशा को दर्शाते हैं, तो अंगुठा धारावाही चालक पर लगे बल की दिशा को व्यक्त करता है।

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विद्युत मोटर विद्युत मोटर एक ऐसा यंत्र है जिसके द्वारा विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। विद्युत मोटर में एक शक्तिशाली चुंबक होता है जिसके अवतल ध्रुव-खंडों के बीच ताँबे के तार की कुंडली होती है जिसे मोटर का आर्मेचर (armature) कहते हैं। आर्मेचर के दोनों छोर पीतल के खंडित वलयों R1 तथा R2 से जुड़े होते हैं। वलयों को कार्बन के ब्रशों B1 तथा B2 हलके से स्पर्श करते हैं

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जब आर्मेचर से धारा प्रवाहित की जाती है तब चुंबक के चुंबकीय क्षेत्र के कारण कुंडली के AB तथा CD भुजाओं पर समान मान के, किंतु विपरीत दिशाओं में बल लगते हैं, क्योंकि इन भुजाओं में प्रवाहित होनेवाली धारा के प्राबल्य (strength) समान हैं, परंतु उनकी दिशाएँ विपरीत हैं। इनसे एक बलयुग्म बनता है जिस कारण आर्मेचर घूर्णन करने लगता है।

   आधे घूर्णन के बाद जब CD भुजा ऊपर चली जाती है

और AB भुजा नीचे आ जाती है तब वलयों के स्थान भी बदल जाते हैं। इस तरह ऊपर और नीचे वाली भुजाओं में धारा की दिशाएँ वही बनी रहती हैं। अतः, आर्मेचर पर लगा बलयुग्म आर्मेचर को लगातार एक ही तरह से घुमाता रहता है।

विद्युत मोटर के आर्मेचर की धुरी पर यदि ब्लेड (blade) लगा दिए जाएँ तो मोटर विद्युत पंखा बन जाता है। धुरी में पट्टी लगाकर मोटर द्वारा मशीनों (जैसे-लेथ मशीन) को चलाया जा सकता है। टेपरेकॉर्डर भी विद्युत मोटर का उपयोग करता है।

विद्युत्चुम्बकीय प्रेरण किसी चालक को किसी परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र में रखने पर उस चालक के सिरों के बीच विद्युतवाहक बल उत्पन्न होने को विद्युत्-चुम्बकीय प्रेरण (Electromagnetic induction) कहते हैं।

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विद्युत चुम्बकीय प्रेरण का सिद्धांत फैराडे ने दिया था।

विद्युत जनित्र विद्युत जनित्र एक ऐसा यंत्र है जिसके द्वारा यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है।

दिष्ट धारा जब किसी धारा का मान तथा दिशा समय के साथ परिवर्तित न हो, तो ऐसी धारा को दिष्ट धारा कहते है। दिष्ट धारा का मान समय के साथ नियत बना रहता है तथा दिशा भी समान रहती है।

Magnetic Effect of Electricity in Hindi

प्रत्यावर्ती धारा प्रत्यावर्ती धारा वह धारा है जो किसी विद्युत परिपथ में अपनी दिशा बदलती रहती हैं।

अतिभारण जब किसी परिपथ में अत्यधिक विद्युत धारा प्रवाहित हो रही होती है, तो इसका कारण हो सकता है कि एक ही सॉकेट से कई युक्तियों को संयोजित किया गया हो। इसको उस परिपथ में ’अतिभारण’ (Over loading) कहते हैं। अतिभारण की स्थिति में अत्याधिक विद्युत धारा प्रवाहित होने के कारण विद्युत उपकरण अत्याधिक गर्म होकर जल सकते हैं।

लघुपथन जब किसी कारण से फेज व न्यूट्रल आपस में सीधे ही जुड़ जाए तो इसे परिपथ का लघुपथन कहते हैं। लघुपथन ( short-circuting ) होने पर परिपथ में अत्यधिक विद्युत धारा बहती है जिससे घर के उपकरण गर्म होकर आग पकड़ सकते हैं और जल सकते हैं।

फ्यूज फ्यूज ऐसे तार का टुकड़ा होता है जिसके पदार्थ की प्रतिरोधकता बहुत अधिक होती है और उसका गलनांक बहुत कम होता है।

विद्युत के उपयोग में सावधानियां

  1. स्विचों, प्लगों, सॉकेटों तथा जोड़ों पर सभी संबंधन अच्छी तरह कसे हुए होने चाहिए। प्रत्येक तार अच्छे क्वालिटी और उपयुक्त मोटाई का होना चाहिए और उत्तम किस्म के विद्युतरोधी पदार्थ की परत से ढँका होना चाहिए।
  2. परिपथ में लगे फ्यूज उपयुक्त क्षमता तथा पदार्थ के बने होने चाहिए।
  3. परिपथों में फ्यूज तथा स्विच को हमेशा विद्युन्मय तार में श्रेणीक्रम में लगाना चाहिए।
  4. अधिक शक्ति के उपकरणों, जैसे- हीटर, इस्तिरी, टोस्टर, रेफ्रीजरेटर आदि को भू-तार से अवश्य संपर्कित करना चाहिए।
  5. मानव शरीर विद्युत का सुचालक है। इसलिए यदि किसी विद्युत-परिपथ में कहीं कोई मरम्मत करनी हो या कोई अन्य कार्य करना हो तो विद्युतरोधी पदार्थ, जैसे-रबर के बने दस्ताने तथा जूतों का इस्तेमाल करना चाहिए।
  6. परिपथ में आग लगने या अन्य किसी दुर्घटना के होने पर परिपथ का स्विच तुरंत बंद कर देना चाहिए।

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विद्युत पाठ 12 | Electricity class 10 Chapter 12 in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 12 विद्युत (Electricity class 10 Chapter 12 in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Electricity class 10 Chapter 12

Chapter 12 विद्युत

विधुत धारा आवेश के प्रवाह को विधुत धारा कहते हैं।

चालक ऐसे पदार्थ जिनसे होकर विधुत आवेश एक भाग से दूसरे भाग तक जाता है, चालक कहे जाते हैं। जैसे- धातु, मनुष्य या जानवर का शरीर, पृथ्वी आदि।

विधुतरोधी ऐसे पदार्थ जिनसे होकर विधुत आवेश एक भाग से दूसरे भाग तक नहीं जाता है, विधुत रोधी कहे जाते हैं। जैसे- काँच, प्लैस्टिक, रबर, लकड़ी आदि।

विधुत विभव किसी बिंदु पर विधुत विभव कार्य का वह परिणाम है जो प्रति एकांक (इकाई) आवेश को अनंत से उस बिंदु तक लाने में किया जाता है।

यदि आवेश q को अनंत से किसी बिंदु p तक लाने में किया गया कार्य w हो, तो उस बिंदु p पर विधुत विभव होता है-

V = W/q

विभवांतर किन्ही दो बिन्दुओं के बीच विभवांतर की माप उस कार्य से होती है जो प्रति एकांक आवेश को एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक ले जाने में किया जाता है।

यदि एक आवेश q को बिंदु B से बिंदु A तक लाने में किया गया कार्य VAB हो, तो A और B के बीच विभवांतर

VAB= W/q

सेल या बैटरी सेल या बैटरी एक ऐसी युक्ति है, जो अपने अंदर हो रहेरासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा सेल के दोनों इलेक्ट्रोडों के बीच विभवांतर बनाए रखती है।

विधुत परिपथ जिस पथ से होकर विधुत-धारा का प्रवाह होता है, उसे विधुत-परिपथ कहते हैं।

ऐमीटर जिस यंत्र द्वारा किसी विधुत-परिपथ की धारा मापी जाती है, उसे ऐमीटर कहते है।

वोल्टमीटरजिस यंत्र द्वारा किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच विभ्वांतर को मापा जाता है, उसे वोल्टमीटर कहते हैं।

ऐमीटर और वोल्टमीटर में अंतर

ऐमीटर

  1. यह किसी विधुत-परिपथ में धारा की प्रबलता को मापता है।
  2. यह किसी विधुत परिपथ में श्रेणीक्रम में जोड़ा जाता है।
  3. इसका स्केल ऐम्पियर (A) में अंकित होता है।

वोल्टमीटर

  1. यह किसी विधुत परिपथ में किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच विभवांतर को मापता है।
  2. यह किसी विधुत परिपथ में समांतरक्रम में जोड़ा जाता है।
  3. इसका स्केल वोल्ट (V) में अंकित होता है।

ओम का नियम

1826 में जर्मन वैज्ञानिक जॉर्ज साइमन ओम ने किसी चालक के सिरों पर लगाए विभवांतर तथा उसमें प्रवाहित होनेवाली विधुत-धारा का संबंध एक नियम द्वारा व्यक्त किया। इस नियम को उन्हीं के नाम पर ‘ओम का नियम‘ कहा जाता है।

ओम के नियम के अनुसार,

   यदि किसी चालक के ताप में परिवर्तन न हो, तो उसमें प्रवाहित विधुत-धारा उसके सिरों के बीच आरोपित विभवांतर के समानुपाती होती है।

I = V/R

जहाँ, R एक नियतांक है जिसे चालक का प्रतिरोध कहते हैं।

ओम का नियम का सत्यापन

ओम का नियम के सत्यापन के लिए एक शुष्क सेल, एक ऐमीटर A, एक वोल्टमीटर V, एक स्विच S तथा एक नाइक्रोम तार के टुकड़े PQ को संयोजित किया जाता है।

स्विच S को बंद करने पर परिपथ में धारा प्रवाहित होने लगती है। ऐमीटर A परिपथ में प्रवाहित होनेवाली धारा I को मापता है तथा वोल्टमीटर V नाइक्रोम के तार PQ के सिरों P एवं Q के बीच का विभवांतर V मापता है।

अब एक के स्थान पर दो सेल लगाकर पुनः ऐमीटर तथा वोल्टमीटर के पठन नोट करते हैं। इस प्रयोग को बारी-बारी से तीन, चार और पाँच सेलों को परिपथ में जोड़कर दुहराते हैं। हम पाते हैं कि प्रत्येक बार अनुपात V/I का मान लगभग समान आता है।

अब यदि विभवांतर V को X-अक्ष पर तथा धारा I को Y-अक्ष पर लेकर V तथा I के बीच एक ग्राफ खींचा जाए, तो प्राप्त ग्राफ एक सरल रेखा होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि विधुत-धारा I विभवांतर V के समानुपाती होती है।

प्रतिरोधकिसी पदार्थ के वह गुण जो उससे होकर धारा के प्रवाह का विरोध करता है, उस पदार्थ का विधुत प्रतिरोध या केवल प्रतिरोध कहलाता है।

प्रतिरोध का SI मात्रक ओम Ω होता है। एक ओम एक वोल्ट प्रति ऐम्पियर होता है।

प्रतिरोधक उच्च प्रतिरोध वाले पदार्थों को प्रतिरोधक कहा जाता है।

प्रतिरोधक एक युक्ति है और प्रतिरोध उसका एक गुण है।

किसी चालक का प्रतिरोध निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है-

  1. तार की लंबाई पर किसी तार का प्रतिरोध R उसकी लंबाई l के समानुपाती होता है।
  2. तार की मोटाई पर किसी तार का प्रतिरोध उसके अनुप्रस्थ-काट के क्षेत्रफल A के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
  3. चालक के पदार्थ पर यदि विभिन्न पदार्थों के तार समान लंबाई और समान मोटाई के हों, तो उनके प्रतिरोध भिन्न-भिन्न होंगे।
  4. चालक के ताप पर ताप बढ़ने से चालक का ताप बढ़ता है।

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   जहाँ, ρ दिए गए ताप पर तार के पदार्थ के लिए नियतांक है। इसे चालक तार के पदार्थ की प्रतिरोधकता कहते हैं। प्रतिरोधकता का SI मात्रक Ωm ओम मीटर होता है।

प्रतिरोधकों का समुहन

दो या दो से अधिक प्रतिरोधकों को एक-दूसरे से कई विधियों द्वारा जोड़ा जा सकता है। इसमें दो विधियाँ मुख्य हैं-

  1. श्रेणीक्रम समूहन तथा
  2. समांतरक्रम समूहन
  3. श्रेणीक्रम समूहन श्रेणीक्रम में जुड़े हुए प्रतिरोधकों का समतुल्य प्रतिरोध उन प्रतिरोधकों के अलग-अलग प्रतिरोधों के योग के बराबर होता है।
  4. समांतरक्रम समूहन पार्श्वक्रम या समांतरक्रम में जुड़े हुए प्रतिरोधकों के समतुल्य प्रतिरोध का व्युत्क्रम उन प्रतिरोधकों के अलग-अलग प्रतिरोधों के व्युत्क्रमों के योग के बराबर होता है।

प्रतिरोधकों के श्रेणीक्रम तथा समांतरक्रम समुहन में अंतर

श्रेणीक्रम समुहन

  1. सभी प्रतिरोधकों में एक ही धारा प्रवाहित होती है, परन्तु उनके सिरों के बीच विभवांतर उनके प्रतिरोधकों के अनुसार अलग-अलग होता है।
  2. प्रतिरोधकों का समतुल्य प्रतिरोध सभी प्रतिरोधकों के अलग-अलग प्रतिरोधों के योग के बराबर होता है।
  3. समतुल्य प्रतिरोध का मान प्रत्येक प्रतिरोधकों के प्रतिरोध के मान से अधिक होता है।

समांतरक्रम समुहन

  1. सभी प्रतिरोधकों के सिरों के बीच एक ही विभवांतर होता है, परंतु उनके प्रतिरोधों के मान के अनुसार उनमें भिन्न-भिन्न धारा प्रवाहित होती है।
  2. प्रतिरोधकों के समतुल्य प्रतिरोध का व्युत्क्रम सभी प्रतिरोधकों के अलग-अलग प्रतिरोधों के व्युत्क्रम के योग के बराबर होता है।
  3. समतुल्य प्रतिरोध का मान प्रत्येक प्रतिरोधक के प्रतिरोध के मान से कम होता है।

विधुतशक्तिः किसी विधुत-परिपथ में विधुत ऊर्जा के व्यय की दर को उस परिपथ की विधुत-शक्ति कहते हैं।

 

Note:विधुत-शक्ति का मात्रक वाट होता है। इसे संकेत में W से सुचित किया जाता है।

Image

बिजली के उपकरणों की सुरक्षा के लिए फ्यूज का उपयोग किया जाता है।

फ्यूज के तार ऐसे पदार्थ के बने होते हैं जिनकी प्रतिरोधकता अधिक होती है और गलनांक कम।

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मानव नेत्र एवं रंगबिरंगा संसार | The Human Eye and the Colourful World

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 11 मानव नेत्र एवं रंगबिरंगा संसार (The Human Eye and the Colourful World) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

The Human Eye and the Colourful World

Chapter 11 मानव नेत्र एवं रंगबिरंगा संसार

मानव नेत्र : वायुमंडलीय अपवर्तन : वर्णविक्षेपण

मानव नेत्र मानव नेत्र या आँख एक अद्भुत प्रकृति प्रदत्त प्रकाशीय यंत्र है।

बनावट मानव नेत्र या आँख लगभग गोलिय होता है। आँख के गोले कोनेत्रगोलक कहते हैं। नेत्रगोलक की सबसे बाहरी परत सफेद मोटे अपारदर्शी चमड़े की होती है, जिसे श्वेत पटल कहते हैं। श्वेत पटल का अगला कुछ उभरा हुआ भाग पारदर्शी होता है, जिसे कॉर्निया कहते हैं।

कॉरॉयड श्वेत पटल के नीचे गहरे भूरे रंग की परत होती है, जिसे कॉरॉयड कहते हैं। यह परत आगे आकर दो परतों में विभक्त हो जाती है। आगे वाली अपारदर्शी परत सिकुड़ने-फेलनेवाली डायफ्राम के रूप में रहती है, जिसे परितारिका याआइरिस कहते हैं।

नेत्र लेंस पुतली के ठीक पीछे नेत्र लेंस होता है जो पारदर्शी मुलायम पदार्थ काबना होता है।

रेटिना या दृष्टिपटल नेत्रगोलक की सबसे भीतरी सूक्ष्मग्राही परत को दृष्टिपटल या रेटिना कहते हैं।

जलीय द्रव कॉर्निया और नेत्र-लेंस के बीच का भाग को जलीय द्रव कहते है।

काचाभ द्रव लेंस और रटिना के बीच का भाग काचाभ द्रव होता है।

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कार्य नेत्र देखने का कार्य करती है। यह एक फोटो कैमरा की तरह कार्य करता है। बाहर से प्रकाश कॉर्निया से अपवर्तित होकर पुतली में होता हुआ लेंस पर पड़ता है। लेंस से अपवर्तन होने के बाद किरणें रेटिना पर पड़ती है और वहाँ वस्तु का प्रतिबिंब बनता है। इसके बाद मस्तिष्क में वस्तु को देखने की संवेदना उत्पन्न होती है।

आँख के लेंस की सिलियरी पेशियों के तनाव के घटने-बढ़ने के कारण उसकी फोकस-दूरी परिवर्तित होती है जिससे हम दूर अथवा निकट स्थित वस्तुओं को साफ-साफ देख सकते हैं।

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नेत्र की समंजन क्षमतानेत्र के लेंस की क्षमता जिसके कारण वह अपनी फोकस दूरी को समायोजित कर लेता है समंजन कहलाती है।

आँख द्वारा अपने सिलियरी पेशियों के तनाव को घटा-बढ़ा कर अपने लेंस की फोकस-दूरी को बदलकर निकट या दूर की वस्तु को साफ-साफ देखने की क्षमता को समंजनक्षमता कहते हैं।

जब हम दूर की वस्तु का देखते हैं, तो नेत्र की फोकस-दूरी बढ़ जाती है तथा निकट की वस्तु को देखते हैं, तो नेत्र की फोकस-दूरी कम हो जाती है।

समंजन क्षमता की एक सीमा होती है। सामान्य आँख अनंत दूरी से 25 सेमी तक की वस्तुओं को स्पष्ट देख सकता है।

दूर बिंदू वह दूरस्थ बिंदू जहाँ तक कोई नेत्र, वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकता है, नेत्र का दूर-बिंदू कहलाता है। सामान्य नेत्र के लिए दूर-बिंदू अनंत पर होता है।

निकटबिंदू वह निकटस्थ बिंदू जहाँ पर स्थित किसी वस्तु को नेत्र सुस्पष्ट देख सकता है, नेत्र का निकट-बिंदू कहलाता है। सामान्य नेत्र के लिए निकट-बिंदु 25 सेमी होता है।

दृष्टि दोष कई कारणों से नेत्र बहुत दूर स्थित या निकट स्थित वस्तुओं का स्पष्ट प्रतिबिंब रेटिना पर बनाने की क्षमता खो देता है। ऐसी कमी दृष्टि दोष कहलाती है।

मानव नेत्र में दृष्टि दोष मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं-

  1. निकटदृष्टि दोष
  2. दूरदृष्टि दोष
  3. जरादूरदर्शिता
  4. अबिंदुकता
  5. निकटदृष्टि दोष जिस दोष में नेत्र निकट की वस्तुओं को साफ-साफ देखसकता है, किन्तु दूर की वस्तुओं को साफ-साफ नहीं देख सकता है, निकट दृष्टि दोष कहलाता है।

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दोष के कारण इस दोष के दो कारण हो सकते हैं-

  1. नेत्रगोलक का लंबा हो जाना, अर्थात नेत्र-लेंस और रेटिना के बीच की दूरी का बढ़ जाना।
  2. नेत्र-लेंस का आवश्यकता से अधिक मोटा हो जाना जिससे उसकी फोकस-दूरी का कम हो जाना

उपचार इस दोष को दूर करने के लिए अवतल लेंस का उपयोग किया जाता है।

  1. दूरदृष्टि दोष जिस दोष में नेत्र दूर की वस्तुओं को साफ-साफ देख सकता है, किन्तु निकट की स्थित वस्तुओं को साफ-साफ नहीं देख सकता है। दूर-दृष्टि दोष कहलाता है।

कारण इस दोष के दो कारण हो सकते हैं।

  1. नेत्र गोलक का छोटा हो जाना अर्थात नेत्र लेंस और रेटिना के बीच की दूरी का कम हो जाना।
  2. नेत्र लेंस का आवश्यकता से अधिक पतला हो जाना जिससे उसकी फोकस दूरी का बढ़ जाना।

उपचार दूर दृष्टि दोष को दूर करने के लिए उŸाल लेंस का उपयोग किया जाता है।

  1. जरादूरदर्शिताजिस दोष में नेत्र निकट और दूर की वस्तुओं को साफ-साफ देख नहीं सकता है, जरा-दूरदर्शिता कहलाता है।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ वृद्धावस्था में नेत्र-लेंस की लचक कम हो जाने पर और सिलियरी मांसपेशियों की समंजन-क्षमता घट जाने के कारण यह दोष उत्पन्न होता है। इससे आँख के निकट-बिंदू के साथ-साथ दूर-बिंदू भी प्रभावित होता है।

उपचार इस दोष को दूर करने के लिए बाइफोकल लेंस का व्यवहार करना पड़ता है जिसमें दो लेंस एक ही चश्मे में ऊपर-नीचे लगा दिए जाते हैं।

  1. अबिंदुकता इस दोष में नेत्र क्षैतिज के वस्तुओं को देख सकता किंतु उर्ध्वाधर की वस्तुओं को नहीं देख सकता है।

उपचारइस दोष को दूर करने के लिए बेलनाकार लेंस का उपयोग किया जाता है।

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प्रकाश-परावर्तन तथा अपवर्तन | Reflection and Refraction of Light in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 10 प्रकाश-परावर्तन तथा अपवर्तन (Reflection and Refraction of Light in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

 

Chapter 10 प्रकाशपरावर्तन तथा अपवर्तन

  1. प्रकाश का परावर्तन

प्रकाश प्रकाश वह कारक है जिसकी सहायता से हम वस्तुओं को देखते हैं।

प्रकाशस्त्रोत जिस वस्तु से प्रकाश निकलता है, उसे प्रकाश स्त्रोत कहा जाता है। जैसे- सूर्य, तारे, बिजली का जलता हुआ बल्ब, मोमबत्ति, लैंप, लालटेन, दीया आदि।

प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है।

प्रदीप्त वस्तुएँ वे वस्तुएँ, जो प्रकाश उत्सर्जित करती है, उसे प्रदीप्त वस्तुएँ कहते हैं। जैसे- सूर्य, बिजली का जलता बल्ब, जलती मोमबत्ति आदि।

अप्रदीप्त वस्तुएँ वे वस्तुएँ जो प्रकाश उत्सर्जित नहीं करती है, उसे अप्रदीप्त वस्तुएँ कहते हैं। जैसे- टेबुल, कुर्सी, पुस्तक, पौधे आदि।

प्रकाश की किरण एक सरल रेखा पर चलने वाले प्रकाश को प्रकाश की किरण कहते हैं।

प्रकाश का किरणपुंज किरणों के समुह को प्रकाश का किरणपुंज कहते है।

प्रकाश का किरणपुंज मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-

  1. अपसारी किरणपुंज
  2. समांतर किरणपुंज
  3. अभिसारी किरणपुंज
  4. Reflection and Refraction of Light in Science

अपसारी किरणपुंज जब प्रकाश की किरणें एक बिंदु-स्त्रोत से निकलकर फैलती चली जाती है, तो इस प्रकार के किरणपुंज को अपसारी किरणपुंज कहते हैं।

समांतर किरणपुंज जब प्रकाश की किरणें एक दूसरे के समांतर होती है, तो इस प्रकार के किरणपुंज को समांतर किरणपुंज कहते हैं।

अभिसारी किरणपुंज जब प्रकाश की किरणें एक बिंदू पर आकर मिलती है, तो इस प्रकार के किरणपुंज को अभिसारी किरणपुंज कहते हैं।

पारदर्शी पदार्थ वे पदार्थ जिनसे होकर प्रकाश आसानी से पार कर जाता है, पारदर्शी पदार्थ कहलाते हैं। जैसे- काँच, पानी, हवा आदि।

पारभाषा पदार्थ वे पदार्थ जो उनपर पड़नेवाले प्रकाश के एक छोटे से भाग को ही अपने में से होकर जाने देते हैं, पारभाषी पदार्थ कहलाते हैं। जैसे- घिसा हुआ काँच, तेल लगा कागज, रक्त, दूध, चर्म, आँख की पलक आदि।

अपारदर्शी पदार्थ वे पदार्थ जो प्रकाश को अपने में से होकर नहीं जाने देते, अपारदर्शी पदार्थ कहलाते हैं। जैसे- लकड़ी, लोहा, पत्थर, अलकतरा, पेंट, धातु की पलेट आदि।

प्रकाश का परावर्तन प्रकाश के किसी वस्तु से टकराकर लौटने को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं।

किरणआरेखप्रकाश की किरणों का पथ दर्शानेवाले चित्रों को किरण-आरेख कहा जाता है।

आपतित किरण किसी सतह पर पड़ने वाली किरण को आपतित किरण कहते हैं। चित्र में AO आपतित किरण है।

परावर्तित किरण जिस माध्यम में चलकर आपतित किरण सतह पर आती है उसी माध्यम में लौट गई किरण को परावर्तित किरण कहते हैं। चित्र में OB परावर्तित किरण है।

आपतन बिंदु जिस बिंदु पर आपतित किरण सतह से टकराती है, उसे आपतन बिंदु कहते हैं। चित्र में O आपतन बिंदु है।

अभिलंब किसी समतल सतह के किसी बिंदु पर खींचे हुए लंब को उस बिंदु पर अभिलंब कहते हैं। चित्र में ON अभिलंब है।

आपतन कोण आपतित किरण, आपतन बिंदु पर खींचे गए अभिलंब से जो कोण बनाती है, उसे आपतन कोण कहते हैं। चित्र में

∠NOA = i =आपतनकोण

Reflection and Refraction of Light in Science

परावर्तन कोण परावर्तित किरण, आपतन बिंदु पर खींचे गए अभिलंब से जो कोण बनाती है, उसे परावर्तन कोण कहते हैं। चित्र में

∠NOB = r = परावर्तन कोण

प्रकाश के परावर्तन के निम्नलिखित दो नियम है।

  1. आपतित किरण, परावर्तित किरण तथा आपतन बिंदु पर खींचा गया अभिलंब तीनों एक ही समतल में होते हैं।
  2. आपतन कोण, परावर्तन कोण के बराबर होता है।

समतल दर्पण पर लंबवत पड़नेवाली प्रकाश की किरण परावर्तन के बाद उसी पथ पर वापस लौट जाती है।

प्रतिबिंब किसी बिन्दु-स्त्रोत से आती प्रकाश की किरणें दर्पण से परावर्तन के बाद जिस बिंदु पर मिलती है या जिस बिंदु से आती हुई प्रतित होती है, उसे उस बिंदु-स्त्रोत का प्रतिबिंब कहते हैं।

प्रतिबिंब दो प्रकार के होते हैं-

(1) वास्तविक प्रतिबिंब

(2) आभासी प्रतिबिंब

(1) वास्तविक प्रतिबिंब किसी बिंदु-स्त्रोत से आती प्रकाश की किरणें दर्पण से परावर्तन के बाद जिस बिंदु पर वास्तव में मिलती है, उसे उस बिंदु-स्त्रोत का वास्तविक प्रतिबिंब कहते हैं।

(2) आभासी प्रतिबिंब किसी बिंदु-स्त्रोत से आती प्रकाश की किरणें परावर्तन के बाद जिस बिंदु से आती हुई प्रतीत होती हैं, उसे उस बिंदु-स्त्रोत का आभासी प्रतिबिंब कहते हैं।

Reflection and Refraction of Light in Science

वास्तविक प्रतिबिंब और आभासी प्रतिबिंब में अंतर

  1. वास्तविक प्रतिबिंब पर्दे पर प्राप्त किया जा सकता है, जबकि आभासी प्रतिबिंब पर्दे पर प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
  2. वास्तविक प्रतिबिंब वस्तु की अपेक्षा हमेशा उलटा होता है, जबकि आभासी वस्तु की अपेक्षा हमेशा सीधा होता है।

Note-काई वस्तु समतल दर्पण से जितनी आगे होती है, उसका प्रतिबिंब दर्पण से उतना ही पीछे बनता है।

गोलीय दर्पण गोलिय दर्पण उस दर्पण को कहते हैं जिसकी परावर्तक सतह किसी खोखले गोले का एक भाग होती है।

गोलीय दर्पण प्रायः काँच के एक टुकड़े को रजतित करके बनाया जाता है जो एक खोखले गोले का भाग होता है।

काँच के इस टुकड़े की बाहरी सतह से रजतित करने पर अवतल दर्पण बनता हैजबकि टुकड़े को भीतरी सतह से रजतित करने पर उत्तल दर्पण बनता है।

Reflection and Refraction of Light in Science

ध्रुव गोलीय दर्पण के मध्यबिंदु को दर्पण का ध्रुव कहते हैं। बिंदु P दर्पण का ध्रुव है।

वक्रता केन्द्र गालीय दर्पण जिस गोले का भाग होता है, उस गोले के केन्द्र को दर्पण का वक्रता केन्द्र कहते हैं। बिन्दु C दर्पण का वक्रता केन्द्र है।

वक्रता त्रिज्या गोलीय दर्पण जिस गोले का भाग होता है उसकी त्रिज्या को दर्पण की वक्रता त्रिज्या कहते हैं। चित्र में PC=R दर्पण की वक्रता त्रिज्या है।

प्रधान या मुख्य अक्ष गोलीय दर्पण के ध्रुव से वक्रता केन्द्र को मिलानेवाली सरल रेखा को दर्पण का प्रधान या मुख्य अक्ष कहते हैं। चित्र में P तथा C को मिलानेवाली सरल रेखा PC मुख्य अक्ष है।

दर्पण दर्पण या आईना एक प्रकाशीय युक्ति है जो प्रकाश के परावर्तन के सिद्धांत पर काम करता है।

दर्पण मुख्यः रूप से तीन प्रकार के होते हैं

  1. समतल दर्पण
  2. उत्तल दर्पण
  3. अवतल दर्पण

Reflection and Refraction of Light in Science

गोलीय दर्पण कितने प्रकार के होते हैं

  1. उत्तल दर्पण और
  2. अवतल दर्पण

उत्तल दर्पण वैसा दर्पण जिसका परावर्तक सतह बाहर की तरफ उभरा रहता है उसे उत्तल दर्पण कहते हैं।

अवतल दर्पण वैसा दर्पण जिसका परावर्तक सतह अंदर की तरफ दबा रहता है उसे अवतल दर्पण कहते हैं।

समतल दर्पण द्वारा बने प्रतिबिंब की विशेषताएँ

  1. प्रतिबिंब दर्पण के पीछे बनता है।
  2. प्रतिबिंब का आकार वस्तु के आकार के बराबर होता है।
  3. प्रतिबिंब वस्तु की अपेक्षा सीधा बनता है।
  4. प्रतिबिंब पाशि्र्वक रूप से उल्टा होता है।
  5. प्रतिबिंब दर्पण से उतना ही पीछे बनता है जितना वस्तु दर्पण से आगे अर्थात् सामने रहता है।

अवतल दर्पण का फोकस किसी अवतल दर्पण का फोकस उसके मुख्य अक्ष पर वह बिंदु है, जहाँ मुख्य अक्ष के समांतर आती किरणें दर्पण से परावर्तन के बाद मिलती है।

उत्तल दर्पण का फोकस किसी उत्तल दर्पण का फोकस उसके मुख्य अक्ष पर वह बिंदु है। जहाँ से मुख्य अक्ष के समांतर आती किरणें दर्पण से परावर्तन के बाद आती हुई प्रतीत होती है।

फोकस दूरी फोकस F से दर्पण के ध्रुव P की दूरी को दर्पण की फोकस-दूरी कहते हैं।

गोलीय दर्पण की फोकसदूरी और उसकी वक्रतात्रिज्या में संबंधगोलीय दर्पण की फोकस-दूरी उसकी वक्रता-त्रिज्या की आधी होती है।

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अवतल दर्पण का उपयोग

अवतल दर्पण का मुख्य उपयोग निम्नलिखित है।

  1. अवतल दर्पण का उपयोग हजामती दर्पण (दाढ़ी बनाने के लिए) होता है।
  2. टॉर्च, वाहनों के हेडलाइटों तथा सर्चलाइटों में अवतल दर्पण का उपयोग परावर्तकों के रूप में किया जाता है।
  3. रोगियों के नाक, कान, गले, दाँत आदि की जाँच के लिए डॉक्टर अवतल दर्पण का उपयोग करते हैं।
  4. सौर भट्ठीयों में सूर्य से आती ऊष्मा-ऊर्जा को बड़े-बड़े अवतल दर्पणों द्वारा छोटी जगह पर केंद्रित किया जाता है।

उत्तल दर्पण का उपयोग

उत्तल दर्पण का उपयोग स्कूटर, मोटरकार तथा बस इत्यादि में साइड मिरर और पीछे देखने के आइने के रूप में होता है।

प्रश्नअवतल दर्पण का उपयोग हजामती दर्पण में क्यों किया जाता है?

उत्तर- चूँकि अवतल दर्पण निकट रखी वस्तु का सीधा, बड़ा तथा आभासी प्रतिबिंब बनाता है, इसलिए अवतल दर्पण का उपयोग हजामती दर्पण के रूप में किया जाता है।

प्रश्नउत्तल दर्पण का उपयोग साइड मिरर के रूप में क्यों किया जाता है?

उत्तर- उत्तल दर्पण किसी वस्तु का हमेशा सीधा प्रतिबिंब बनाते हैं, यद्यपि वह छोटा होता है। इनका दृष्टि-क्षेत्र विस्तृत होता है। इसलिए उत्तल दर्पण का उपयोग साइड मिरर के रूप में किया जाता है।

चिह्न परिपाटी जब दर्पणों का उपयोग कर रहे होते हैं तब सभी दूरीयों और लम्बाईयाँ को नापते हैं उस समय जिन नियमों का पालन करना पड़ता है उन नियमों को चिह्न परिपाटी कहते हैं।

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किसी वस्तु के प्रतिबिंब निर्धारण के लिए दूरीयों की एक चिह्न परिपाटी की आवश्यकता होती है, ताकि प्रतिबिंबों की विभिन्न स्थितियों के बीच अंतर स्पष्ट किया जा सके, जिसे निर्देशांक चिह्न परिपाटी कहा जाता है।

निर्देशांक चिह्न परिपाटी के अनुसार

  1. दर्पण के मुख्य अक्ष को निर्देशांक XX’ माना जाता है।
  2. सभी दूरीयाँ गोलीय दर्पण के ध्रुव P से मापी जाती है।
  3. आपतित प्रकाश की दिशा में मापी गई दूरियाँ धनात्मक होती है तथा आपतित प्रकाश की दिशा के विपरीत मापी गई सभी दूरियाँ ऋणात्मक होती है।
  4. दर्पण के अक्ष अर्थात् XX’ के लंबवत मापी गई दूरियाँ धनात्मक तब होती है जब वे अक्ष के ऊपर होती है, तथा ऋणात्मक तब होती है जब वे अक्ष के नीचे होती है।

Note :अवतल दर्पण की वक्रता-त्रिज्या ( R ) तथा फोकस-दूरी ( f ) ऋणात्मक होती है।

उत्तल दर्पण की वक्रता-त्रिज्या ( R ) तथा फोकस-दूरी ( f ) धनात्मक होती है।

आवर्धन प्रतिबिंब की ऊँचाई और वस्तु की ऊँचाई के अनुपात को आवर्धन कहते हैं। इसे m से सूचित किया जाता है।

m=  प्रतिबिंब की ऊँचाई/वस्तु की ऊँचाई

m= h’/h

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2. प्रकाश का अपवर्तन

प्रकाश का अपवर्तन प्रकाश की किरणों के एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे पारदर्शी माध्यम में जाने पर दिशा-परिवर्तन ( अर्थात् मुड़ने ) की क्रिया को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं।

जैसे- पानी की सतह पर पेंसिल का मुड़ा हुआ दिखना।

पानी से भरी हुई बाल्टी में रखा हुआ सिक्का ऊपर उठा हुआ प्रतित होना।

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Note : प्रकाश की चाल निर्वात या शून्य में तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकंड (300000 km/h) होता है।

प्रकाश की चाल पानी में दो लाख पच्चीस हजार किलोमीटर प्रति सेकंड (225,000 km/h) होता है।

प्रकाश की चाल काँच में दो लाख किलोमीटर प्रति सेकंड (200000 km/h) होता है।

वायु की अपेक्षा पानी प्रकाशतः सघन माध्यम है।

पानी की अपेक्षा काँच प्रकाशतः सघन माध्यम है।

काँच की अपेक्षा पानी प्रकाशतः विरल माध्यम है।

प्रकाश के अपवर्तन की व्याख्या

आपतित किरण दो माध्यमों को अलग करनेवाली सतह पर पड़नेवाली प्रकाश-किरण को आपतित किरण कहते हैं।चित्र में PQ आपतित किरण है।

आपतन बिंदु जिस बिंदु पर आपतित किरण दिए हुए माध्यमों को अलग करनेवाली सतह से टकराती है, उसे आपतन बिंदु कहते हैं।चित्र में Q आपतन बिंदु है।

अभिलंब किसी सतह के किसी बिंदु पर खींचे गए लंब को उस बिंदु पर अभिलंब कहते हैं। चित्र में NQM अभिलंब है।

अपवर्तित किरण दूसरे माध्यम में मुड़कर जाती हुई प्रकाश-किरण को अपवर्तित किरण कहते हैं। चित्र में QR अपवर्तित किरण है।

आपतन कोण आपतित किरण, आपतन बिंदु पर खींचे गए अभिलंब से जो कोण बनाती है, उसे आपतन कोण कहते है। चित्र में ∠NQP = I =आपतनकोण

अपवर्तन कोण अपवर्तित किरण, आपतन बिंदु पर खींचे गए अभिलंब से जो कोण बनाती है, उसे अपवर्तन कोण कहते हैं। चित्र में ∠MQR = r =अपवर्तनकोण

Reflection and Refraction of Light in Science

जब प्रकाश की किरण किसी प्रकाशतः सघन माध्यम से प्रकाशतः विरल माध्यम में जाती है, तो अभिलंब से दूर हट जाती है।

जब प्रकाश की किरण विरल माध्यम से सघन माध्यम में जाती है, तो अभिलंब की ओर मुड़ जाती है।

जब प्रकाश की किरण दो माध्यमों को अलग करनेवाली सतह लंबवत पर पड़ती है, तो वह बिना मुड़े सीधी निकल जाती है।

लंबवत पड़नेवाली किरण सिल्ली से सीधी निकल जाती है।

अपवर्तनांककिसी माध्यम का अपवर्तनांक शून्य में प्रकाश की चाल और उस माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात को कहते हैं। अपवर्तनांक को n से सूचित किया जाता है।

किसी माध्यम का अपवर्तनांक = शून्य में प्रकाश की चाल/उस माध्यम में प्रकाश की चाल

जैसे-

काँच का अपवर्तनांक

= शून्य में प्रकाश की चाल/काँच में प्रकाश की चाल

= 300000 km per second / 200000 km per second

= 1.5

निरपेक्ष अपवर्तनांककिसी माध्यम का निर्वात के अपेक्षा अपवर्तनांक को उस माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक कहलाता है।

आपेक्षिक अपवर्तनांक दो माध्यमों के निरपेक्ष अपवर्तनांकों के अनुपात को आपेक्षिक अपवर्तनांक कहते हैं।

माध्यम 1 का माध्यम 2 के सापेक्ष अपवर्तनांक

माध्यम 2 में प्रकाश की चाल/माध्यम 1 में प्रकाश की चाल

Reflection and Refraction of Light in Science

प्रिज्म किसी कोण पर झुके दो समतल पृष्ठों के बीच घिरे किसी पारदर्शक माध्यम को प्रिज्म कहते हैं।

Note : प्रिज्म में 5 सतह और 12 किनारें होते हैं।

लेंस- लेंस किसी पारदर्शक पदार्थ का वह टुकड़ा है, जो दो निश्चित ज्यामितीय सतहों से घिरा रहता है।

लेंस दो प्रकार के होते हैं

  1. उत्तल लेंस- उत्तल लेंस दोनों किनारों की अपेक्षा बीच में मोटा होता है।
  2. अवतल लेंस- यह दोनों किनारों की अपेक्षा बीच में पतला होता है।

Reflection and Refraction of Light in Hindi

प्रकाश के अपवर्तन के नियम

प्रकाश के अपवर्तन के दो नियम हैंः

  1. आपतित किरण, आपतन बिंदु पर अभिलंब और अपवर्तित किरण तीनों एक ही समतल में होते हैं।
  2. किन्ही दो माध्यमों और प्रकाश के किसी विशेष वर्ण के लिए आपतन कोण की ज्या (sine) और अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता है।

यदि आपतन कोण i हो और अपवर्तन कोण r हो, तो प्रकाश के अपवर्तन के द्वितीय नियम से,

sin i/sin r =एकनियतांक

स्नेल के नियम- किन्ही दो माध्यमों और प्रकाश के किसी विशेष वर्ण के लिए आपतन कोण की ज्या (sine) और अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता है।

यदि आपतन कोण i हो और अपवर्तन कोण r हो, तो प्रकाश के अपवर्तन के स्नेल के नियम से,

sin i/sin r =एकनियतांक

उत्तल लेंस के निम्नलिखित तीन रूप होते हैं-

  1. उभयोत्तल लेंस जिनके दोनों तल उत्तल हो, उसे उभयोत्तल लेंस कहते हैं।
  2. समतलोत्तल लेंस जिनका एक तल समतल और दूसरा उत्तल हो, उसे समतलोत्तल लेंस कहते हैं।
  3. अवतलोत्तल लेंस जिसका एक तल अवतल और दूसरा उत्तल हो, उसे अवतलोत्तल लेंस कहते हैं।

अवतल लेंस के निम्नलिखित तीन रूप होते हैं-

  1. उभयावतल लेंस जिनके दोनों तल अवतल हो, उसे उभयावतल लेंस कहते हैं।
  2. समतलावतल लेंस जिनका एक तल समतल और दूसरा अवतल हो, उसे समतलावतल लेंस कहते हैं।
  3. उत्तलावतल लेंस जिसका एक तल उत्तल और दूसरा अवतल हो, उसे उत्तलावतल लेंस कहते हैं।

Reflection and Refraction of Light in Hindi

प्रश्न 1.- उत्तल लेंस को अभिसारी लेंस क्यों कहते हैं ?

उत्तर- उत्तल लेंस का कार्य उससे होकर जानेवाली किरणपुंज को अभिसरित करना है। यही कारण है कि उत्तल लेंस को अभिसारी लेंस कहा जाता है।

Reflection and Refraction of Light in Science

प्रश्न 2.- अवतल लेंस को अपसारी लेंस क्यों कहते हैं ?

उत्तर- अवतल लेंस का कार्य उससे होकर जानेवाली किरणपुंज को अपसारित करना है। यही कारण है कि अवतल लेंस को अपसारी लेंस कहा जाता है।

Note : उत्तल लेंस की फोकस-दूरी धनात्मक होती है तथा अवतल लेंस की फोकस-दूरी ऋणात्मक होती है।

लेंस की क्षमता किसी लेंस की क्षमता उसके फोकस-दूरी के व्युत्क्रम से मापी जाती है, अर्थात्

लेंस की क्षमता का मात्रक डाइऑप्टर होता है। इसे D से सूचित किया जाता है।

1 डाइऑप्टर उस लेंस की क्षमता है जिसकी फोकस-दूरी 1 मीटर होती है।

Note : लेंस की क्षमता का चिन्ह वहीं होता है, जो चिन्ह उसकी फोकस दूरी का है। अतः उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक और अवतल लेंस की क्षमता ऋणात्मक होती है।

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अनुवांशिकता एवं जैव विकास | Heredity and Biological Evolution in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 9 अनुवांशिकता एवं जैव विकास (Heredity and Biological Evolution in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

 

Chapter 9 अनुवांशिकता एवं जैव विकास

   विभिन्नता जीव के ऐसे गुण हैं जो उसे अपने जनकों अथवा अपनी ही जाति के अन्य सदस्यों के उसी गुण के मूल स्वरूप से भिन्नता को दर्शाते हैं।

विभिन्नताएँ दो प्रकार की होती हैं- जननिक तथा कायिक विभिन्नता

  1. जननिक विभिन्नता ऐसी विभिन्नताएँ जनन कोशिकाओं में होनेवाले परिवर्तन (जैसे इनके क्रोमोसोम की संख्या या संरचना में परिवर्तन, जीन के गुणों में परिवर्तन) के कारण होती हैं। उसे जननिक विभिन्नता कहते हैं। ऐसी विभिन्नताएँ एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में वंशागत होती है। इस कारण से जननिक विभिन्नता को कायिक विभिन्नता कहते हैं। जैसे- आँख एवं बालों का रंग, शारीरिक गठन, शरीर की लंबाई आदि।
  2. कायिक विभिन्नता ऐसी विभिन्नताएँ जो जलवायु एवं वातावरण के प्रभाव, उपलब्ध भोजन के प्रकार, अन्य उपस्थित जीवों के साथ व्यवहार इत्यादि के कारण होती है, उसे कायिक विभिन्नता कहते हैं।

आनुवंशिक गुण ऐसे गुण जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी माता-पिता, अर्थात जनकों से उनके संतानों में संचरित होते रहते हैं। ऐसे गुणों को आनुवंशिक गुण या पैतृक गुण कहते हैं।

Heredity and Biological Evolution in Science

आनुवंशिकता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जीवों के मूल गुणों का संचरण आनुवंशिकता कहलाता है।

अर्थात

जनकों से उनके संतानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी युग्मकों के माध्यम से पैतृक गुणों का संचरण आनुवंशिकता कहलाता है।

आनुवंशिकी या जेनेटिक्स जीवविज्ञान की वह शाखा जिसमें आनुवंशिकता एवं विभिन्नता का अध्ययन किया जाता है, उसे आनुवंशिकी या जेनेटिक्स कहते हैं।

मेंडल के आनुवंशिकता के नियम मेंडल को आनुवंशिकी का पिता कहा जाता है।

मेंडल ने अपने प्रयोग के लिए बगीचे में उगनेवाले साधारण मटर के पौधों का चयन किया। मटर के पौधों का गुण स्पष्ट तथा विपरित लक्षणों वाले होते हैं। जैसे लंबा पौधा तथा बौना पौधा।

अपने प्रयोग में मेंडल ने विपरित लक्षणवाले गुण जैसे लंबे तथा बौने पौधे पर विचार किया। अपने प्रयोग में मेंडल ने एक बौने पौधे के सारे फुलों को खोलकर उनके पुंकेसर हटा दिए ताकि उनमें स्व-परागण न हो सकें। फिर, उन्होंने एक लंबे पौधे के फूलों को खोलकर उनके परागकणों को निकालकर बौने पौधे के फूलों के वर्तिकाग्रों पर गिरा दिया। विपरित गुणवाले इन दोनों जनक पौधों को मेंडल ने जनक पीढ़ी कहा तथा इन्हें च् अक्षर से इंगित किया।

  इस प्रकार के परागण के बाद जो बीज बने उनसे उत्पन्न सारे पौधे लंबे नस्ल के हुए। इस पीढ़ी के पौधों को मेंडल ने प्रथम संतति कहा तथा इन्हें थ्1 अक्षर से इंगित किया। थ्1 पीढ़ी के पौधों में दोनों जनक पौधों ;च्द्ध के गुण (अर्थात लंबा तथा बौना) मौजुद था। चूँकि लंबेपनवाला गुण बौनेपन पर अधिक प्रभावी था।  अतः बौनेपन का गुण मौजूद होने के बावजूद पौधे लंबे ही हुए। प्रभावी गुण जैसे लंबाई को मेंडल ने ज् तथा इसके विपरित लक्षण (बौनापन) जो अप्रभावी है, को उन्होंने ज अक्षर से इंगित किया। थ्1 पीढ़ी के सभी पौधे लंबे हुए।

    थ्1 पीढ़ी के पौधे का जब आपस में प्रजनन कराया गया तब अगली पीढ़ी के पौधों में लंबे और बौने पौधों का अनुपात 3 : 1 पाया गया, अर्थात कुल पौधों में से 75% पौधे लंबे तथा 25% पौधे बौने हुए। 25% पौधे शुद्ध लंबे तथा शेष 50% पौधे शंकर नस्ल के हुए। अर्थात शंकर नस्ल के लंबे पौधे के प्रभावी गुण तथा अप्रभावी गुण के मिश्रण थे। इस आधार पर थ्2 पीढ़ी के पौधे के अनुपात को 1 : 2 : 1 से दर्शाया गया।

Heredity and Biological Evolution in Hindi

  इस प्रकार मेंडल ने पाया कि जीवों में आनुवंशिक गुण पीढ़ीदरपीढ़ी चलती रहती है।

लिंगनिर्धारणलैंगिक प्रजनन में नर युग्मक तथा मादा युग्मक के संयोजन से युग्मनज बनता है जो विकसित होकर अपने जनकों जैसा नर या मादा जीव जीव बन जाता है। जीवों में लिंग का निर्धारण क्रोमोसोम के द्वारा ही होता है।

मनुष्य में 23 जोड़े क्रोमोसोम होते हैं। इनमें 22 जोड़े क्रोमोसोम एक ही प्रकार के होते हैं, जिसे ऑटोसोम कहते हैं। तेईसवाँ जोड़ा भिन्न आकार का होता है, जिसे लिंग-क्रोमोसोम कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं- ग् और ल्

नर में ग् और ल् दोनों लिंग-क्रोमोसोम मौजूद होते हैं, लेकिन मादा में केवल दोनों ही ग् क्रोमोसोम होता है।

ग् और ल् क्रोमोसोम ही मनुष्य में लिंग-निर्धारण करते हैं।

जैव विकास पृथ्वी पर विद्यमान जटिल प्राणिओं का विकास प्रारंभ में पाए जानेवाले सरल प्राणिओं में परिस्थिति और वातावरण के अनुसार होनेवाले परिवर्तनों के कारण हुआ। सजीव जगत में होनेवाले इस परिवर्तन को जैव विकास कहते हैं।

समजात अंग ऐसे अंग जो संरचना एवं उत्पति के दृष्टिकोण से एक समान होते हैं, परन्तु वातावरण के अनुसार अलग-अलग कार्यों का संपादन करते हैं। ऐसे अंग समजात अंग कहलाते हैं। जैसे- मेढ़क, पक्षी, मनुष्य, बिल्ली के अग्रपाद आदि।

असमजात अंगऐसे अंग जो रचना और उत्पिŸा के दृष्टिकोण से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, परन्तु वे एक ही प्रकार के कार्य करते हैं। ऐसे अंग असमजात अंग कहलाते हैं। जैसे- तितली तथा पक्षी के पंख उड़ने का कार्य करते हैं, लेकिन इनकी मूल संरचना और उत्पिŸा अलग-अलग प्रकार की होती है।

जीवाश्म तथा जीवाश्मविज्ञान प्राचीनकाल में ऐसे कई जीव पृथ्वी पर उपस्थित थे जो बाद में समाप्त या विलुप्त हो गए। वर्तमान समय में वे नहीं पाए जाते हैं। वैसे अनेक जीवों के अवशेष के चिन्ह पृथ्वी के चट्टानों पर पाए गए हैं। जिसे जिवाश्म कहते हैं। पत्थरों पर ऐसे जीवों के अवशेषों का अध्ययन जीवाश्मविज्ञान कहलाता है।

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जीव जनन कैसे करते है | Jeev Janan kaise karte hai in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 8 जीव जनन कैसे करते है (Jeev Janan kaise karte hai in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

 

Chapter 8 जीव जनन कैसे करते है

जीव  जिस प्रक्रम द्वारा अपनी संख्या में वृद्धि करते है, उसे जनन कहते है

जनन के प्रकार जीवो में जनन मुख्यातः दो तरीके से संपन्न होता है- लैंगिक जनन तथा अलैंगिक जनन

अलैंगिक जनन

अलैंगिक जनन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है

  1. इसमें जीवो का सिर्फ एक व्यष्टि भाग लेता है।
  2. इसमें युग्मक अर्थात शुक्राणु और अंडाणु कोई भाग नहीं लेते हैं।
  3. इस प्रकार के जनन में या तो समसूत्री कोशिका विभाजन या असमसूत्री कोशिका विभाजन होता है।
  4. अलैंगिक जनन के बाद जो संताने पैदा होती है वे आनुवंशिक गुणों में ठीक जनकों के समान होते हैं।
  5. इस प्रकार के जनन से ज्यादा संख्या में एवं जल्दी से जीव संतानो की उत्पत्ति कर सकते हैं।
  6. इसमें निषेचन की जरुरत नहीं पड़ती है।

जीवो में अलैंगिक जनन निम्नांकित कई विधियों से संपन्न होता है।

  1. विखंडन विखंडन के द्वारा ही मुख्य रूप से एक कोशिकीय जीव जनन करते हैं। जैसे- जीवाणु, अमीबा, पैरामीशियम, एक कोशिकीय शैवाल, युग्लीना आदि सामान्यतः विखंडन की क्रिया द्वारा ही जनन करते हैं।

विखंडन की क्रिया दो प्रकार से संपन्न होती है

  1. द्विखंडन एवं
  2. बहुखंडन

() द्विखंडन या द्विविभाजन वैसा विभाजन जिसके द्वारा एक व्यष्टि से खंडित होकर दो या अधिक का निर्माण होता हो, उसे द्विखंडन या द्विविभाजन कहते हैं।

जैसे- जीवाणु, पैरामीशियम, अमीबा, यीस्ट, यूग्लीना आदि में द्विखंडन विधि से जनन होता है।

(). बहुखंडन या बहुविभाजन वैसा विभाजन जिसके द्वारा एक व्यष्टि खंडित होकर अनेक व्यष्टियों की उत्पिŸा करता हो, उसे बहुखंडन या बहुविभाजन कहते हैं। जैसे- अमीबा, प्लैज्मोडियम (मलेरिया परजीवी) आदि में बहुखंडन विधि से जनन होता है।

  1. मुकुलन मुकुलन एक प्रकार का अलैंगिक जनन है जो जनक के शरीर से कलिका फूटने या प्रवर्ध निकलने के फलस्वरूप संपन्न होता है। जैसे- यीस्ट
  2. अपखंडन या पुनर्जनन इस प्रकार के जनन में जीवों का शरीर किसी कारण से दो या अधिक टुकड़ों में खंडित हो जाता है तथा प्रत्येक खंड अपने खोए हुए भागों का विकास कर पूर्ण विकसित नए जीव में परिवर्तित हो जाता है। जैसे- स्पाइरोगाइरा, प्लेनेरिया आदि में जनन अपखंडन विधि से होता है।
  3. बीजाणुजनन इस प्रकार के जनन में सामान्यतः सूक्ष्म थैली जैसी बीजाणुधानियों का निमार्ण होता है। हवा के द्वारा इनका प्रकीर्णन दूर-दूर तक होता है। अनुकूल जगह मिलने पर बीजाणु अंकुरित होते हैं तथा उनके भीतर की कोशिकीय रचनाएँ बाहर निकलकर वृ़द्ध करने लगती है। जब ये विकसित होकर परिपक्व हो जाती है तो इनमें पुनः जनन करने की क्षमता पैदा हो जाती है।

पौधों मे कायिक प्रवर्धन

   जनन कि वह प्रक्रिया जिसमे पादप शरीर का कोई कायिक या वर्धी भाग जैसे जड़ तना पत्ता आदि उससे विलग और परिवर्द्धित होकर नए पौधे का निर्माण करता है, उसे कायिक प्रवर्धन कहते हैं।

लैंगिक जनन- जनन की वह विधि जिसमें नर और मादा भाग लेते हैं, उसे लैंगिक जनन कहते हैं।

लिंग के आधार पर जीवों को दो वर्गों मे बाँटा गया है

  1. एकलिंगी और 2. द्विलिंगी
  2. एकलिंगी वे जीव जिसमें सिर्फ एक व्यष्टि होते हैं, अर्थात नर और मादा नहीं होते हैं। उसे एकलिंगी कहते हैं।

जैसे- अमीबा, जीवाणु आदि।

  1. द्विलिंगी वे जीव जिसमें नर और मादा दोनो होते हैं, उसे द्विलिंगी कहते हैं। जैसे- मनुष्य, घोड़ा आदि।

निषेचन नर युग्मक और मादा युग्मक के संगलन को निषेचन कहा जाता हैं।

मनुष्य का प्रजनन अंग मानव जननांग साधारणतः लगभग 12 वर्ष की आयु मे परिपक्व एवं क्रियाशिल होने लगते हैं। इस अवस्था में बालक-बालिकाओ के शरीर में कुछ परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता हैं। यह अवस्था किशोरावस्था कहलाता हैं।

निषेचन नर युग्मक शुक्राणु तथा मादा युग्मक अंडाणु का संयोजन या युग्मन ही निषेचन कहलाता है।

लैंगिक जनन संचारित रोग यौन संबंध से होनेवाले संक्रामक रोग को लैंगिक जनन संचारित रांग कहते हैं।

बैक्टीरियाजनित रोग गोनोरिया, सिफलिस, यूरेथ्राइटिस तथा सर्विसाइटिस आदि।

वाइरसजनित रोग सर्विक्स कैंसर, हर्पिस तथा एड्स आदि।

प्रोटोजोआजनित रोग स्त्रियों के मूत्रजनन नलिकाओं में एक प्रकार के प्रोटोजोआ के संक्रमन से होने वाले रोग ट्राइकोमोनिएसिस है।

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Chapter 7 नियंत्रण एवं समन्वय | Niyantran evam Samanvay Notes in Hindi

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 7 नियंत्रण एवं समन्वय (Niyantran evam Samanvay Notes in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Niyantran evam Samanvay Notes in Hindi

 

Chapter 7 नियंत्रण एवं समन्वय

रासायनिक संघटक तथा कार्यविधि के आधार पर पादप हार्मोन को पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है- 1. ऑक्जिन, 2. जिबरेलिन्स, 3. साइटोकाइनिन, 4. ऐबसिसिक एसिड और 5. एथिलीन

ऑक्जिन के कार्य- यह कोशिका विभाजन और कोशिका दिर्घन में सहायक होता है। ऑक्जिन तने के वृद्धि में भी सहायक होते हैं। यह प्रायः बीजरहित फलों के उत्पादन में भी सहायक होते हैं।

जिबरेलिन्स के कार्य- यह पौधे के स्तंभ की लंबाई में वृद्धि करते हैं। इनके उपयोग से बड़े आकार के फलों एवं फूलों का उत्पादन किया जाता है। बीजरहित फलों के उत्पादन में ये ऑक्जिन की तरह सहायक होते हैं।

साइटोकाइनिन के कार्य- ये पौधों में जीर्णता को रोकते हैं एवं पर्णहरित को काफी समय तक नष्ट नहीं होने देते हैं। इससे पिŸायाँ अधिक समय तक हरी और ताजी बनी रहती है।

ऐबसिसिक एसिड के कार्य- यह ऐसा रासायनिक यौगिक है, जिसे किसी भी पौधे पर छिड़कने पर शीघ्र ही पिŸायों का विलगन हो जाता है। यह पिŸायों के मुरझाने और विलगन होने में सहायक होते हैं।

एथिलीन के कार्य- यह पौधे के तने के अग्रभाग में बनता है और विसरित होकर फलों के पकाने में सहायता करता है। अतः इसे फल पकानेवाला हार्मोन भी कहा जाता है। कृत्रिम रूप से फलों को पकाने में इसका उपयोग किया जाता है।

मनुष्य की मस्तिष्क- मस्तिष्क एक अत्यंत महत्‍वपूर्ण कोमल अंग है। तंत्रिका तंत्र के द्वारा शरीर की क्रियाओं के नियंत्रण और समन्वय में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका इसी की होती है।

इसका औसतन आयतन लगभग 1650 ml तथा औसत भार करीब 1.5 Kg होता है। मस्तिष्क को प्रमुख तीन भागो में बाँटा गया है-

  1. अग्रमस्तिष्क
  2. मध्यमस्तिष्क
  3. पश्चमस्तिस्क
  4. अग्रमस्तिष्क – यह दो भागों (क) प्रमस्तिष्क या सेरिब्रम तथा (ख)डाईएनसेफ़्लॉन में बाँटा होता है।

(क) प्रमस्तिष्क या सेरिब्रम- यह मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है। यह मस्तिष्क का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग है। यह बुद्धि और चतुराई का केंद्र है। मानव में किसी बात को सोचने-समझने की शक्ति, स्मरण शक्ति, कार्य को करने की प्रेरणा, घृणा, प्रेम, भय, हर्ष, कष्ट के अनुभव जैसी क्रियाओ का नियंत्रण और समन्वय सेरीब्रम के द्वारा ही होता है। यह मस्तिष्क के अन्य भागों के कार्यो पर भी नियंत्रण रखता है। जिस व्यक्ति में यह औसत से छोटा होता है। वह व्यक्ति मंदबुद्धि होता है।

(ख) डाइएनसेफ्लोन- यह कम या अधिक ताप के आभास तथा दर्द और रोने जैसी क्रियाओ का नियंत्रण करता है।

  1. मध्यमस्तिष्क- यह संतुलन एवं आँख की पेशियों को नियंत्रित करने के केंद्र होते हैं।
  2. पश्चमस्तिस्क- यह दो प्रकार के होते हैं।

(क) अनुमस्तिष्क या सेरीबेलम

(ख) मस्तिष्क स्टेम

(क) अनुमस्तिष्क या सेरीबेलम- अनुमस्तिष्क मुद्रा समन्वय, संतुलन, ऐक्षिक पेशियों की गति इत्यादि का नियंत्रण करता है। यदि मस्तिष्क से सेरीबेलम  को नष्ट कर दिया जाय तो सामान्य ऐच्छिक गतियाँ असंभव हो जाएगी। उदहारण के लिए हाथों का परिचलन ठीक से नहीं होगा, अर्थात वस्तुओं को पकड़ने में हाथों को कठिनाई होगी। पैरों द्वारा चलना मुश्किल हो जायेगा आदि। इसका कारण यह है की हाथों और पैरों की ऐक्षिक पेशियों का नियंत्रण सेरीबेलम के नष्ट होने से समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार, बातचीत करने में कठिनाई होगी, क्यूंकि तब जीभ और जबरों की  पेशियों के कार्यों का समन्वय नहीं हो पायेगा इत्यादि।

ख. मस्तिष्क स्टेम –

  1. पॉन्स बैरोलाई
  2. मेडुला आब्लांगेटा
  3. पॉन्स बैरोलाई – यह श्वसन को नियंत्रित करता है।
  4. मेडुला आब्लांगेटा- मेडुला द्वारा आवेगो का चालन मस्तिष्क और मेरुरज्जु के बीच होता है। मेडुला में अनेक तंत्रिका केंद्र होते है जो हृदय स्पंदन या हृदय की धड़कन, रक्तचाप और श्वसन गति की दर का नियंत्रण करते है। मस्तिष्क के इसी भाग द्वारा विभिन्न प्रतिवर्ती क्रियाओ जैसे खाँसना, छींकना, उलटी करना पाचक रसो के स्त्राव इत्यादि का नियंत्रण होता है।

मस्तिष्क के कार्य

  1. आवेग ग्रहण- मस्तिष्क सभी संवेदी अंगों से आवेगो को ग्रहण करता है। मस्तिष्क में ही ग्रहण किये गए आवेगों का विश्लेषण भी होता है।
  2. ग्रहण किये गए आवेगों की अनुक्रिया- विभिन्न संवेदी अंगों से जो आवेग मस्तिष्क में पहुँचते हैं, विश्लेषन के बाद मस्तिष्क उनकी अनुक्रिया के लिए उचित निर्देश निर्गत करता है।
  3. विभिन्न आवेगो का सहसम्बन्ध- मस्तिष्क को भिन्न-भिन्न संवेदी अंगो से एक साथ कई तरह के आवेग या संकेत प्राप्त होते है। मस्तिष्क इन आवेगों को सहसंबंधित कर विभिन्न शारीरिक कार्यों का कुशलतापूर्वक समन्वय करता है।
  4. सूचनाओं का भण्डारण- मानव मस्तिष्क का यह सबसे महत्वपूर्ण कार्य सूचनाओं को भंडार करना है। मस्तिष्क में विभिन्न सूचनाएं चेतना या ज्ञान के रूप में संचित रहती है। इसलिए मस्तिष्क को ‘चेतना का भंडार‘ या ‘ज्ञान का भंडार‘ कहा जाता है।

प्रतिवर्ती चाप

न्यूरोनों  में आवेग का संचरण एक निश्चित पथ में होता है। इस पथ को प्रतिवर्ती चाप कहते है।

हार्मोन- ये विशिष्ट कार्बनिक यौगिक है जो बहुत कम मात्रा में अन्तः स्त्रावी ग्रंथियों द्वारा स्त्रावित होते है। इनकी बहुत थोड़ी मात्रा ही विभिन्न प्रकार के शारीरिक क्रियात्मक कार्यों के नियंत्रण और समन्वय के लिए पर्याप्त होती है।

मनुष्य के अंतःस्त्रावी तंत्र

मनुष्य के शरीर में पाई जानेवाली अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ निम्नलिखित हैं- 1. पिट्युटरी ग्रंथि, 2. थाइरॉइड ग्रंथि, 3. पाराथाइरॉइड ग्रंथि, 4. एड्रिनल ग्रंथि, 5. अग्न्याशय की लैंगरहैंस की द्वीपिकाएँ और 6. जनन ग्रंथियाँ : अंडाशय तथा वृषण

  1. पिट्युटरी ग्रंथि-

पिट्युटरी ग्रंथि कई अन्य अंतःस्त्रावी ग्रंथियों का नियंत्रण करती है, इसलिए इसे मास्टर ग्रंथि कहते हैं।

पिट्युटरी ग्रंथि दो भागों में बँटा होता है- अग्रपिंडक और पश्चपिंडक

अग्रपिंडक द्वारा स्त्रावित वृद्धि हार्मोन है तथा पश्चपिंडक द्वारा स्त्रावित हार्मोन शरीर में जल-संतुलन को बनाए रखने में सहायक होता है।

  1. थाइरॉइड ग्रंथि- इस ग्रंथि से थाइरॉक्सिन हार्मोण प्रवाहित होता है। इस हार्मोन में आयोडीन अधिक मात्रा में रहता है। थाइरॉक्सिन कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा वसा के सामान्य उपापचय का नियंत्रण करता है। अतः यह शरीर के सामान्य वृद्धि, विशेषकर हड्डियों, बालों इत्यादि के विकास के लिए अनिवार्य है।

   आयोडिन की कमी से थाइरॉइड ग्रंथि द्वारा बननेवाला हॉर्मोन थाइरॉक्सिन कम बनता है। इस हार्मोन के बनने की गति को बढ़ाने के प्रयास में कभी-कभी थाइडॉइड ग्रंथि बढ़ जाती है, जिसे घेघा या गलगंड कहते है। थाइरॉक्सिन की कमी से शारीरिक तथा मानसिक वृद्धि प्रभावित होती है।

  1. पाराथाइरॉइड ग्रंथि- इसके द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन रक्त में कैल्सियम की मात्रा नियंत्रण करते हैं।
  2. एड्रिनल ग्रंथि- एड्रीनल ग्रंथि के दो भाग होते हैं- बाहरी कॉर्टेक्स और अंदरूनी मेडुला

एड्रीनल कॉर्टेक्स (बाहरी कॉर्टेक्स) द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन-

  1. ग्लूकोकॉर्टिक्वायड्स- ये कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा-उपापचय का नियंत्रण करते हैं।
  2. मिनरलोकॉर्टिक्वायड्स- इनका मुख्य कार्य वृक्क नलिकाओं द्वारा लवण के पुनः अवशोषण एवं शरीर में अन्य लवणों की मात्रा का नियंत्रण करना है। यह शरीर में जल संतुलन को भी नियंत्रित करता है।
  3. लिंग हार्मोन- ये हार्मोन पेशियों तथा हड्डियों के परिवर्द्धन, बाह्यलिंगों बालों के आने का प्रतिमान एवं यौन-आचरण का नियंत्रण करते हैं।

एड्रीनल मेडुला (अंदरूनी मेडुला) द्वारा स्त्रावित हार्मोन और उसके कार्य

एड्रीनल ग्रंथि के इस भाग द्वारा निम्नलिखित दो हार्मोन स्त्रावित होते हैं-

  1. एपिनेफ्रीन- अत्यधिक शारीरिक एवं मानसिक तनाव, डर, गुस्सा एवं उत्तेजना की स्थिति में इस हार्मोन का स्त्राव होता है।
  2. नॉरएपिनेफ्रीन- ये समान रूप से हृदय-पेशियों की उत्तेजनशीलता एवं संकुचनशीलता को तेज करते है
  3. अग्नयाशय की लैंगरहैंस की द्विपिकाएँ

इसके हार्मोन रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित करते है

  1. जनन ग्रन्थियाँ ( अंडाशय तथा वृषण )

अंडाशय के द्वारा कई हार्मोन का स्त्राव होता है बालिकाओ के शरीर में यौवनावैवस्था होनेवाले सभी परिवर्तन इन हार्मोन के कारण होते है।

वृष्ण द्वारा स्त्राव हार्मोन को एंड्रोजेंस कहते है। सबसे प्रमुख एंड्रोजेंस हार्मोन को टेस्टोस्टेरॉन कहते हैं।

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जैव प्रक्रम : पोषण | Life processes : Nutrition in Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ 6 जैव प्रक्रम : पोषण (Life processes : Nutrition in Science) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Life processes Nutrition in Hindi

 

Chapter 6  जैव प्रक्रम : पोषण

जैव प्रक्रम- वे सारी क्रियाएँ जिनके द्वारा जीवों का अनुरक्षण होता है, जैव प्रक्रम कहलाती हैं।

पोषण- वह विधि जिससे जीव पोषक तत्‍वों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है।

पोषण की विधियाँ

जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता हैं।

  1. स्वपोषण
  2. परपोषण

स्वपोषण- पोषण की वह प्रक्रिया जिसमें जीव अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं।

परपोषण- परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्त्रोतों से प्राप्त करते हैं।

परपोषण के प्रकार-

परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-

  1. मृतजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने भोजन के लिए मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से, अपने शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं। मृतजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे- कवक बैक्टीरिया तथा कुछ प्रोटोजोआ।
  2. परजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने पोषण के लिए दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे-कवक, जीवाणु, गोलकृमि, हुकवर्म, मलेरिया परजीवी आदि।
  3. प्राणिसम पोषण- वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं, प्राणी समपोषण कहलाते हैं। जैसे- अमीबा, मेढ़क, मनुष्य आदि।
  4. Life processes : Nutrition in Hindi

प्रकाशसंश्लेषण क्या है ?

सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण में सरल अकार्बनिक अणु- कार्बन डाइऑक्साइड और जल का पादप-कोशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लूकोज (कार्बोहाइड्रेट) में होता है।

प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक पदार्थ-

प्रकाश संश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती हैं- 1. पर्णहरित या क्लोरोफिल, 2. कार्बनडाइऑक्साइड, 3. जल और 4. सूर्य प्रकाश

उपापचय- सजीव के शरीर में होनेवाली सभी प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ उपापचय कहलाती है। जैसे- अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण होना, ग्लूकोज से ग्लाइकोजेन का निर्माण होना आदि।

अमीबा में पोषण

अमीबा एक सरल प्राणीसमपोषी जीव है। यह मृदुजलीय, एककोशीय तथा अनिश्चित आकार का प्राणी है। इसका आकार कूटपादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है।

   अमीबा का भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिक जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि हैं।

   अमीबा में पोषण अंतर्ग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।

   अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।

   अमीबा जब भोजन के बिल्कुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानीका निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।

     भोजन का पाचन भोजन रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। अपचे भोजन निकलने के लिए शरीर के किसी भाग में अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।

मनुष्य का पाचनतंत्र

   मनुष्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतुओं में भोजन के पाचन के लिए विशेष अंग होते हैं जो आहारनाल कहलाते हैं।

आहारनाल- मनुष्य का आहारनाल एक कुंडलित रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।

मुखगुहा- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होंठ होते हैं। मुखगुहा में जीभ तथा दाँत होते हैं।

लार में एमीलेस नामक एंजाइम पाए जाते हैं।

ग्रासनली- मुखगुहा  से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भाजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दिवार में तरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू हो जाता है। ग्रासनली में पाचन की क्रिया नहीं होती है। ग्रासनली से भोजन अमाशय में पहुँचता है।

आमाशय- यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाईं ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।

    आमाशय में प्रोटिन के अतिरिक्त भोजन के वसा का भी पाचन प्रारंभ होता है।

छोटी आँत- छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। यह बेलनाकार रचना है। छोटी आँत में ही आहारनाल की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है।

यकृत- यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जो उदर के ऊपरी दाहिने भाग में अवस्थित है। यकृत कोशिकाओं से पिŸा का स्त्राव होता है।

Life processes : Nutrition in Science

पित्त के दो मुख्य कार्य है-

  1. पित्त अमाशय से ग्रहणी में आए अम्लीय काइम की अम्लीयता को नष्ट कर उसे क्षारीय बना देता है ताकि अग्न्याशयी रस के एंजाइम उसपर क्रिया कर सकें।
  2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन के वसा के विखंडन तथा पायसीकरण होता है ताकि वसा को तोड़नेवाले एंजाइम उसपर आसानी से क्रिया कर सके।

अग्न्याशय- आमाशय के ठीक नीचे तथा ग्रहणी को घेरे पीले रंग की एक ग्रंथि होती है जो अग्न्याशय कहलाती है।

बड़ी आँत- छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है। बड़ी आँत दो भागों में बँटा होता है। ये भाग कोलन तथा मलाशय या रेक्टम कहलाते हैं।

श्वसन- श्वसन उन सभी प्रक्रियाओं का सम्मिलित रूप है जिनके द्वारा शरीर में ऊर्जा का उत्पादन होता है।

संपूर्ण कोशिकीय श्वसन का दो अवस्थाओं में विभाजित किया गया है-

  1. अवायवीय श्वसन और
  2. वायवीय श्वसन

अवायवीय श्वसन और वायवीय श्वसन में क्या अंतर है ?

अवायवीय श्वसन और वायवीय श्वसन में मुख्य अंतर निम्नलिखित है-

  1. वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है जबकि अवायवीय श्वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है।
  2. वायवीय श्वसन का प्रथम चरण कोशिकाद्रव्य में तथा द्वितीय चरण माइटोकॉण्ड्रिया में पूरा होता है जबकि अवायवीय श्वसन की पूरी क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है।
  3. वायवीय श्वसन में अवायवीय श्वसन की तुलना में बहुत ज्यादा ऊर्जा मुक्त होती है।

पौधों में श्वसन की क्रिया जंतुओं के श्वसन से किस प्रकार भिन्न है-

पोधों में श्वसन की क्रिया जंतुओं के श्वसन से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है-

  1. पौधों के प्रत्येक भाग, अर्थात जड़, तना तथा पिŸायों में अलग-अलग होता है।
  2. जंतुओं की तरह पौधों में श्वसन गैसों का परिवहन नहीं होता है।
  3. पौधों में जंतुओं की अपेक्षा श्वसन की गति धीमी हेती है।

जंतुओं में समान्यतः तीन प्रकार के श्वसन अंग होते हैं-

  1. श्वासनली या ट्रैकिया 2. गिल्स तथा 3. फेफड़े
  2. श्वासनली या ट्रैकिया- टै्रकिया द्वारा श्वसन किटों, जैसे टिड्डा तथा तिलचट्टा में होता है।
  3. गिल्स- गिल्स विशेष प्रकार के श्वसन अंग हैं जो जल में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन के लिए करते हैं। श्वसन के लिए गिल्स का होना मछलियों के विशेष लक्षण है। मछलीयों में गिल्स द्वारा श्वसन होता है।
  4. फेफड़ा- वर्ग एंफीबिया (जैसे मेढ़क) में फेफड़े के अतिरिक्त त्वचा तथा मुख-ग्रसनी से भी श्वसन होता है।

    रेप्टीलिया (जैसे सर्प, लिजर्ड, कछुआ तथा मगरमच्छ) तथा उच्चतम श्रेणी के वर्टिब्रेटा जैसे एवीज (पक्षी) तथा मैमेलिया (जैसे मनुष्य) में श्वसन सिर्फ फेफड़ों से होता है।

श्वसन अंग- मनुष्य में नासिका छिद्र, स्वरयंत्र या लैरिंक्स, श्वासनली या ट्रैकिया तथा फेफड़ा मिलकर श्वसन अंग कहलाते हैं।

श्वसन क्रिया- श्वसन दो क्रियाओं का सम्मिलित रूप है। पहली क्रिया में हवा नासिका से फेफड़े तक पहुँचती है जहाँ इसका ऑक्सीजन फेफड़े की दीवार में स्थित रक्त कोशिकाओं के रक्त में चला जाता है। इस क्रिया को प्रश्वास कहते हैं। इसके विपरित, दूसरी क्रिया उच्छ्वास कहलाती है जिसके अंतर्गत रक्त से फेफड़े में आया कार्बन डाइऑक्साइड बची हवा के साथ नासिका से बाहर निकल जाता है।

श्वसन की दो अवस्थाएँ प्रश्वास तथा उच्छ्वास मिलकर श्वासोच्छ्वास कहलाती है।

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