इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड कक्षा 9 के अंग्रेजी Part-1 के पाठ 5 ‘इस्मत चुगतई : एक अदभूत महिला (ISMAT CHUGHTAI: A LADY WITH A DIFFERENCE class 9 in Hind) के अर्थ को पढ़ेंगे।
5. ISMAT CHUGHTAI: A LADY WITH A DIFFERENCE
(इस्मत चुगतई : एक अदभूत महिला)
Ismat Chughtai was born in the western Uttar Pradesh at a place called Badayun, associated with the memory of Gautama Buddha, on August 21, 1911. She was the ninth child of Mirza Qasim Baig Chughtai and Nusrat Khannam. Her family name was Ismat Khanam Chughtai and she was called by her nickname, Chunni. Qasim Baig Chughtai was a Judicial Magistrate who served in different capacities at Agra, Bahraich, Jaunpur, Kanpur, Lucknow and later at different places in the princely state of Mewar like Sojat, Sambhar, Balotra, Jawra, and particularly, Jodhpur. He retired as Deputy Collector in 1924 and returned to his family home at Agra. He soon got fed up with the dirt and filth of Gali Panjshahi at Agra and moved to Aligarh. However, the Maharaja of Jodhpur called him back with honour to Jodhpur where he served again as the Judicial Magistrate. He died in 1937.
वाक्यार्थ—इस्मत चुग्तई का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूँ में 21 अगस्त 1911 को हुआ । यह स्थान गौतम बुद्ध की याद से जुड़ा हुआ है। यह मिर्जा कासीम बेग और नुशरत खानम की नौवीं सन्तान थीं। उनका घरेलू नाम इस्मत खानम चुगतई था तथा उनका पुकारू नाम था चुन्नी । उन्हें चुन्नी के नाम से बुलाया जाता था। कासीम बेग चुगतई एक न्यायिक दण्डाधिकारी थे, जिन्होंने अपनी सेवा अलग-अलग रूप से आगरा, बहराइच, जौनपुर, कानपुर, लखनऊ तथा बाद में देशी शासकीय प्रदेश मेवाड़ के राज्य सोजत, सांभर, बलोतरा, जावरा और विशेष रूप से जोधपुर में दी। वह 1924 में डिप्टी कलक्टर के पद से सेवानिवृत हुए तथा अपने निवास स्थान आगर लौट आए। वह जल्द ही आगरा की पंजशाही गली से ऊब गए और अलीगढ़ की ओर लौट आए । अन्ततः जोधपुर के महाराजा ने उन्हें पुनः सम्मान के साथ बुलाया तथा वे वहीं पुनः न्यायिक दण्डाधिकारी के रूप में कार्य करते रहे। उनकी मृत्यु 1937 ई. मे हुई।
Being the ninth child of her parents and that, too, a girl, her birth into the world was not greeted with enthusiasm by her parents or other members of the family. Even her mother never let her feel wanted or cared for. Describing the occasion of her birth, she says: “My mother was dressing up to attend the marriage of her friend’s daughter in the neighbourhood. The cleaning woman was sweeping the floor when I chose to arrive into the world, unannounced. When my brothers and sisters were bom, the mem (the white nurse/midwife) used to come. But my delivery was managed by the sweepress. That is why my brothers and sisters teased me by calling me a sweepress’s offspring’. Rather than suffering from any inferiority complex I also started to believe that I was not my parents’ child but the sweepress’s who fed me with milk.” Burdened with so many children and other responsibilities, her mother had no time for her. Not to speak of cuddling, cajoling and pampering which every child is used to in an Indian household, cven the necessary motherly duties were performed by the ayah when she was an infant and later, when she grew up, by her elder sister, Farhat Khanam alias Manju. In fact, Ismat Chughtai had begun to look upon Manju not as her elder sister but as her mother and gave her all respect and affection as long as she lived. As far as her mother was concerned, Ismat Chughtai’s feelings about her werc very complex. So ingrained was her sense of childhood deprivation that she later on commented – “Amma used to hate me,
perhaps.” This cryptic sentence says a lot about her innermost feelings. A psychoanalyst would certainly trace the seeds of rebellion in Ismat Chughtai to her neglect and deprivation as a child.
वाक्यार्थ-अपने माता-पिता की नौवीं सन्तान लड़की के रूप होना परिवार के लोगों में उतना उत्साह का विषय नहीं था। यहाँ तक की उनकी माँ भी उनपर ध्यान नहीं देती थी। अपने जन्म के अवसर का वर्णन करते हए वह कहती हैं-मेरी माँ पडोसी के दोस्त की बेटी की शादी में जाने के लिए तैयार हो रही थीं। घर साफ करने वाली फर्श साफ कर रही थी । तभी मेरा जन्म इस संसार में हुआ। जब मेरे भाई और बहनों का जन्म हुआ था तब नर्स घर आई थी लेकिन मेरे जन्म के समय घर साफ करनेवाली को · बलाया गया। इसीलिए मेरे भाई-बहन मुझे आया की संतान कहकर पुकारते थे। किसी – हीनभावना से ग्रसित होने के बजाय मैं भी यह मानने लगी थी कि मैं अपने माता-पिता – की संतान नहीं हूँ बल्की इतने सारे बच्चों की जिम्मेदारी के कारण मेर माँ का मेरे लिए । कोई समय नहीं था। जिस प्रकार बच्चों का प्यार, दुलार, खुशामद आदि भारतीय बच्चों को किया जाता है यह काम भी आया को ही सौंपा गया तथा जब वह बड़ी हई तो उसकी बड़ी बहन फरहत खानम उर्फ मंजु के द्वारा । वास्तव में इस्मत चुगतई अपनी बड़ी बहन मंजु को माँ जैसा सम्मान दिया जबतक वह उसके साथ रही। जहाँ तक. उसकी माँ का प्रश्न है उनके बारे में उनके अनुभव काफी जटिल हैं । बचपन से मन में समाया हुआ विश्वास जो उसकी माँ द्वारा दिया गया था उसकी टिप्पणी थी “शायद अम्मा मुझसे नफरत करती
थीं’ यह आत्मीय वाक्य उनके अन्तरभाव को व्यक्त करते हैं। एक मनोचिकित्सक निश्चित रूप से बचपन में किए गए उपहास को चिह्नित कर सकते हैं।
Ismat Chughtai spent her childhood days playing football and gilli danda, (tipcat), riding bicycles, plucking guavas and hogging them, wandering about the neighbourhood and generally looking for some mischief or the other. When she saw her brothers riding horses, she insisted on doing the same and despite her mother’s strong opposition, had her way. Day in and day out she was made aware of the difference between men and women and boys and girls. But she was not ready to accept her subjugated status as a woman lying down. She reminisces, with a chuckle – “realised that being a girl had its advantages. Abba’s standing instruction was that girls should not be pulled by their locks or nose. If girls beat anyone, the person should lodge a complaint with the sarkar (her father). Well, there was just one girl – and that’s me-against whom complaint was lodged every other day. However, my brothers’ reputation in this regard was so low that I was hardly ever punished. On the contrary, they would be reprimanded.”
वाक्यार्थ-इस्मत चुगतई ने अपने बचपन में फुटबॉल, गिल्ली डंडा, साइकिल की सवारी करने, अमरूद तोड़ने, आस-पास घूमने तथा किसी-न-किसी को हानि पहुँचाने का काम करती थीं। उन्होंने अपने भाइयों को घुडसवारी करते देखा तो उन्होंने भी यह करना चाहा। उनकी माँ के विरोध के कारण दिन-प्रतिदिन महिला तथा पुरुष में अन्तर, लड़का तथा लड़की में अन्तर समझना आसान हो गया। लेकिन वह इसे स्वीकारना नहीं चाहती थीं। वह मुँह बंद कर मुस्कुराते हए स्मरण करती हैं..–लड़की होने का एक महत्त्व था। अब्बा का यह आदेश था कि लड़कियों की चोटी व नाक नहीं पकड़ी जाय । यदि लड़कियाँ किसी लड़के को पोटती हैं तो इसकी शिकायत उनके पिता (सरकार) को मिलनी चाहिए। हाँ केवल एक लड़की थी और वह मैं जिसकी शिकायत प्रायः दूसरे दिन वहाँ जाती थी। किसी प्रकार, मेरे भाइयों का यश इतना कम था कि शायद ही मुझे कोई सजा मिलती। इसके विपरीत शिकायतकर्ता को ही डांट-फटकार मिलती थी।
When she was four years old, Ismat Chughtai was introduced to the Baghadadi Qaeda (Arabic First Reader to teach alphabet). Tutors would come home to teach children. In her short story, “Bachpan”, she gives a graphic description of the way elementary education was imparted to her. Her early school education began at Agra where she used to go to the Municipal school along with other children in a palanquin, carried by two kahars (palanquin-bearers). From Agra the family moved to Bahraich and later when Ismat Chughtai was about nine years old, to Aligarh. Somehow she completed reading the Quran at the age of twelve, Rather than complimenting her on her achievement, the members of her family derided her for having accomplished something which Naiyer, her sister’s daughter, had acquired much earlier in addition to other accomplishments that were considered necessary for competent house keeping. Ismat Chughtai never showed any inclination towards these so called accomplishments that were considered necessary for a woman to
make her life happy, particularly after marriage. When she was twelve, her mother one day gave her an old gharara (skirt) to practise sewing. She did not show the slightest interest. The same happened when she was asked to learn how to cook. Ismat flatly refused to learn culinary skills. The mother was horrified and began to have nightmares about what would happen to such a wayward girl after marriage. The matter was brought to the notice of Ismat’s father. When he wanted to know why she did not want to learn womanly’skills and asked her what she would feel with her husband after marriage if she did not know how to cook, her answer was – “If he is poor, we’ll make do with khichdi; if he is rich, we’ll keep a cook. Her father was rendered speechless by this splendid display of common sense. It seems she was already on the way to acquire the essent as walts of her character – fierce individuality and clear mindedness about what she wanted and what she did not want.
वाक्यार्थ- जब वह चार वर्ष की थी, इस्मत चुगलई की पढ़ाई बगदादी कायदा से शुरू की गई। इयूटर घर पर बच्चों को पढ़ाने आते। उनकी लघु कथा “बचपन’ में उन्होंने अपने प्राथमिक शिक्षा का रेखीय चित्रण किया है। उनकी प्रारम्भिक स्कली आगरा में हुई जहाँ वह नगरपालिका विद्यालय में पालकी से जाया करती जहाँ और बच्चे जाते थे। आगरा से परिवार बहराइच आया तथा जब वह नौ वर्ष की थी अलीगढ़ आई। किसी प्रकार बारह वर्ष की उम्र में कुरान खत्म किया। उनके इस का को प्रोत्साहित करने के बजाय उनकी बहन की बेटी नैयर का उदाहरण देते हुए उन्हें नीचा दिखाया गया । चुगतई ने कभी भी घरेलू काम के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई जो विवाहोपरान्त उसके जीवन को सुखी रख सकती थी। जब वह बारह वर्ष की थी, उनकी माँ ने उन्हें एक पुराना गरारा सिलाई सीखने के लिए दिया। उन्होंने जरा-सा भी रुचि नहीं दिखाई । ऐसा ही तब हुआ जब उन्हें खाना बनाने के लिए कहा गया। इस्मत ने साफसाफ पाक कला को सीखने से मना कर दिया। उनकी माँ इस बात से डरी हुई थी कि विवाह के बाद इस हठी लड़की का क्या होगा। यह बात इस्मत के पिता तक गई । जब उन्होंने यह जानना चाहा कि अगर वह खाना नहीं बनाना जाती है तो विवाह के बाद कैसे. होगा। उनका उत्तर था-यदि मेरा पति गरीब होगा तो हमलोग खिचड़ी बना लेंगे यदि वह अमीर होगा तो खाना बनानेवाले को रखा जायगा। उनके पिता इस उत्तर से आश्चर्यचकित हुए। इससे यह सिद्ध होता है कि वह पूर्ण रूप से अपने आप पर आश्वस्त थीं कि वह क्या चाहती हैं और क्या नहीं।
when Ismat Chughtai was in the ninth class, marriage proposals began to and During those days it was very common to get girls married at the age of fourteen or fifteen. Her parents approved the proposal from a boy who was a deputy collector. Preparations for the marriage began in right earnest. One day she noticed some unusual activities at home. After making discreet enquiries she came to know that the preparations related to her marriage. She wrote to her elder brother Azim Baig Chughtai requesting him to stop this marriage. He wrote back saying that the proposal, in fact, was sent by him, that the boy was suitable from all counts and that she could continue her study after marriage. Then she told her parents that she was not going to marry, at least not just yet. When all persuasions failed, she thought out a plan which was sure to succeed. She wrote to her cousin Jugnu (Athar Hussain, son of her elder maternal uncle, Zafar) a letter in which she made an impassioned plea to him to rescue her from the impending catastrophe. She asked him to write a letter to his father conveying his wish to marry her. Jugnu went along with her plan and conveyed ‘his’ wish to his father who pleaded with his sister (Ismat’s mother) to break off the other engagement, Nusrat Khanam, who was deeply attached to
her brothers and was very fond of Jugnu, was only too happy to do that. By this extraordinary sleight of hand Ismat was successful in warding off an early marriage which, in all probability, would have effectively closed the doors for further development and literary creativity in her.’
वाक्यार्थ- जब इस्मत चुगतई नौवीं कक्षा में थी, शादी का प्रस्ताव आने लगा। उस समय यह सामान्य बात्त थी कि चौदह या पन्द्रह वर्ष की उम्र में लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। उनके माता-पिता ने एक डिप्टी कलक्टर से उनका विवाह तय कर दिया। शादी की तैयारी शुरू हुई। एक दिन उन्होंने एक असामान्य क्रिया घर में देखी। जानने के बाद यह पता चला के उनकी शादी की तैयारी है। उन्होंने एक पत्र अपने बड़े भाई अजीम बेग चुगतई की इस शादी को रोकवाने के लिए लिखा। उन्होंने इसके उत्तर में लिखा कि यह आग्रह वास्तव में उन्हीं के द्वारा भेजा गया है । लड़का सभी मामले में सही है तथा विवाह के उपरान्त तुम अपनी शिक्षा भी जारी रख सकती हो। अब उसने अपने माता-पिता से यह शादी फिलहाल नहीं करने का आग्रह किया। जब सभी मनाने की क्रिया असफल हो गई, उन्होंने एक प्लान सोचा। उसने अपने बड़े मामा जफर के लड़के अतहर हुसैन को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होने इस संकट से उबारने का आग्रह किया। उसने उसे अपने पिता से उसके साथ शादी की इच्छा जाहिर करने को कहा। जुगनु अपने प्लान के साथ अपने पिता के पास गया तथा अपने पिता को अपनी बहन (इस्मत की माँ से दूसरा रिश्ता तोड़ने का आग्रह किया) । नुसरत खानम अपने भाई से अत्यधिक करीब थीं तथा जुगनू जो चाहती थी वह इससे भी प्रसन्न हुई। इस प्रकार इस्मत उचित उम्र से पहले शादी करने से बच गई । इस प्रकार उन्हें आगे पढ़ने का मौका मिला।
Ismat Chughtai had studied Islam, Christianity and Hinduism at some depth, but she found what she termed as mazhab-e-insaaniat (religion of humanity) to be the best. Hinduism attracted her; particularly, she was fascinated by the Hindu mythology and the image of Krishna, the dark god. Though she sometimes attended religious rituals of both the Sunni and Shia schools of Islam, they were more of social rather than religious occasions for her. She accepted the validity of all religions in the conduct of human life and man’s social behaviour, but she did not seem to believe in their transcendental nature. Neither did she seem to believe in a life after death A streak of agnosticism runs through her stray comments about religion. All this becomes clear in her answer to the question on the presence of religion in her works:
J.P. – There isn’t too much of Islam in your stories… Are you a believer? IC.– Now don’t get me into trouble. I can recite the Kalima beautifully – when necessary, for example, when I visit Pakistan!
I believe there is some power, but I’m not afraid of it. If I jump from my window with Allah’s name on my lips, I know He won’t save me. I don’t pray, but I don’t do anything bad either. I’ve never cheated anybody. There’s no harin in following any religion. I became a Hindu too. I fell in love with a Hindu boy; he took me to the temple, made me drink cow’s piss. It was quite fragrant. …I’ve been to temples – I love their prasad, their pooris.
वाक्यार्थ- इस्मत चुगतई ने इस्लाम धर्म, इसाई धर्म तथा हिन्दू धर्म का बड़ी गहराई से अध्ययन किया लेकिन उन्होंने मानवता का धर्म को सबसे अच्छा माना । हिन्दू धर्म ने उन्हें आकर्षित किया, विशेष रूप से हिन्दुओं की पौराणिक कथाएँ तथा कृष्ण की कल्पना-श्याम भगवान । इन्होंने कुछ समय शिया और सन्नियों के धर्मों को भी जाना। उन्होंने मानव जीवन में सभी धर्मों तथा मनुष्य के सामाजिक व्यवहार को मान्यता दी लेकिन किसी को किसी से बढ़-चढ़ कर नहीं। एक सीमा रेखा सभी धर्मों के प्रति उनके मन में सदा रही। सभी उनके प्रश्न का उत्तर धर्म के आधार पर दिया।
J.P.._आपकी कथा में इस्लाम का अत्यधिक समावेश नहीं है।
I.C…–अब, मुझे परेशानी में न डालें । मैं कलमा अच्छी तरह पढ़ सकती हूँ जब इसकी आवश्यकता पड़ती है, उदाहरणतया जब मैं पाकिस्तान जाती हूँ। मुझे विश्वास है कि कोई शक्ति है, जिससे मैं नहीं डरती हूँ। यदि मैं अपनी खिड़की से अपने होठ पर अल्लाह का नाम लेते हुए कूद जाऊँ तो मैं जानती हूँ वह मुझे नहीं बचाएँगे। मैं प्रार्थना नहीं करती हूँ लेकिन मैं कोई गलत काम नहीं करती । मैंने किसी को ठगा नहीं है। . किसी भी धर्म का होना गलत नहीं है। मैं हिन्दू भी हुई । मैं एक हिन्दु लड़का से प्रेम करने लगी । वह मुझे मंदिर ले गया । उसने मुझे गौमूत्र पिलाया, यह गंधयुक्त था …. मैं मंदिर जाया करती–मुझे प्रसाद के रूप में पूरियाँ पसन्द हैं।
In some sense she always remained a child – curious and precocious. Her love of mischief and child-like wonder never left her.
She was always game for novel experiences, mecting new people and seeing new places. She travelled to China, Soviet Russia, France, England, Finland, East Germany, Czechoslovakia and Pakistan and her excitement is evident in the travelogues that she wrote after her travels.
In her twilight days she had lost her memory and had become quite frail. However, neither age nor the vicissitudes of life could blunt her rapier-sharp wit or subdue her aggressiveness. Despite her failing health her confidence in herself and her innate stubbornness did not leave her. She could never accept that she was wrong or bring herself to accept defcat. Whenever she committed a faux pas and contradicted her own statements because of her failing memory and people pointed them out to her, she would shout them down and coolly disown her own earlier statements. Similarly, she used to shout at doctors who said that she had lost her memory. Eventually, the end came on October 24, 1991 when she was found dead in her bed in the morning. She was not buried in accordance with the Muslim funeral rites but quietly cremated, as she is said to have wished, in the electric crematorium.
वाक्यार्थ- कुछ अर्थों में वह सदा कौतुहल एवं चेतना से भरी एक बच्ची रही। उनका अपकार तथा बच्चों जैसी आदत उनके साथ सदा रही। वह सदा अच्छी जानकारी, नये लोगों से मिलना तथा नयी जगह जाना चाहती थी। उन्होंने चीन, सोवियत रूस, फ्रांस, लंदन, फीनलैंड, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया आदि देशों का भ्रमण किया तथा – इसका वर्णन किया (लिखा)। .. . अन्तिम दिनों में उनकी याद्दाश्त चली गई तथा वे काफी कमजोर हो गईं। इस प्रकार उम्र तथा भाग्य का परिवर्तन स्पष्टवक्ता के रूप में उन्हें सदा याद रखा जाएगा। स्वास्थ्य गिर जाने पर भी वह सहज थीं। वह अपने मन्तव्य से पीछे नहीं हटती थीं। इसी प्रकार वह अपने डॉक्टर को बहुत डाँटती जब वह कहता कि उनकी याद्दाश्त चली गई है। अन्ततः 24 अक्टूबर 1991 को वह अपने बिस्तर पर मृत पायी गई। उन्हें दफन नहीं किया गया, बल्कि उन्हें विद्युत शवगृह में उनका अन्तिम संस्कार किया गया।
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