इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 5 क्रांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना( congress pranali chunotiya aur punarsthapna Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्ययन करेंगे।
5. क्रांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना
राजनीतिक उत्तराधिकार की चुनौती
1964 के मई में नेहरू की मृत्यु हो गई। इससे नेहरू के राजनीतिक उत्तराधिकरी को लेकर बड़े अंदेशे लगाए गए कि नेहरू के बाद कौन? भारत से बाहर के बहुत से लोगों को संदेह था कि यहाँ नेहरू के बाद लोकतंत्र कायम भी रह पाएगा या नहीं। 1960 के दशक को ‘खतरनाक दशक’ कहा जाता है क्योंकि गरीबी, गैर-बराबरी, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय विभाजन आदि के सवाल अभी अनसुलझे थे।
नेहरू के बाद शास्त्री
नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के, कामराज ने अपनी पार्टी के नेताओं और सांसदों से सलाह-मशविरा किया। उन्होंने पाया कि सभी लालबहादुर शास्त्री के पक्ष में हैं। शास्त्री, कांग्रेस दल के निर्विरोध नेता चुने गए और इस तरह वे देश के प्रधानमंत्री बने। शास्त्री, उत्तर प्रदेश के थे और नेहरू के मंत्रिमंडल में कई सालों तक मंत्री रहे थे। शास्त्री अपनी सादगी और सिद्धांत निष्ठा के लिए प्रसिद्ध थे।
शास्त्री 1964 से 1966 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। इस पद पर वे बड़े कम दिनों तक रहे लेकिन इसी छोटी अवधि में देश ने दो बड़ी चुनौतियों का सामना किया। भारत, चीन युद्ध के कारण पैदा हुई आर्थिक कठिनाईयों से उबरने की कोशिश कर रहा था। कई जगहों पर खाद्यान्न का गंभीर संकट आ पड़ा था। शास्त्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया, जिससे इन दोनों चुनौतियों से निपटने के उनके दृढ़ संकल्प का पता चलता है।
शास्त्री के बाद इंदिरा गाँधी
शास्त्री की मृत्यु से कांग्रेस के सामने दुबारा राजनीतिक उत्तराधिकारी का सवाल उठ खड़ा हुआ। इस के बाद मोरारजी देसाई और इंदिरा गाँधी के बीच कड़ा मुकाबला था। इंदिरा गाँधी ने मोरारजी देसाई को हरा दिया। उन्हें कांग्रेस पार्टी के दो-तिहाई से अधिक सांसदों ने अपना मत दिया था। प्रधानमंत्री बनने के एक साल के अंदर इंदिरा गाँधी को लोकसभा के चुनौवों में पार्टी की अगुवाई करनी पड़ी। इस वक्त तक देश की आर्थिक स्थिति और भी खराब हो गई थी। इससे इंदिरा की कठिनाइयाँ ज्यादा बढ़ गईं।
चौथा आम चुनाव, 1967
भारत के राजनीतिक और चुनावी इतिहास में 1967 के साल को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है।
चुनावों का संदर्भ
इस अरसे में देश गंभीर आर्थिक संकट में था। मानसून की असफलता, व्यापक सूख, खेती की पैदावार में गिरावट, गंभीर खाद्य संकट, विदेशी मुद्रा-भंडार में कमी, औद्योगिक उत्पादन और निर्यात में गिरावट के साथ ही साथ सैन्य खर्चे में भारी बढ़ोतरी हुई थी। इंदिरा गाँधी की सरकार के शुरूआती फैसलों में एक था- रूपये का अवमूल्यन करना। माना गया कि रूपये का अवमूल्यन अमरीका के दबाव में किया गया। पहले के वक्त में 1 अमरीका डॉलर की कीमत 5 रूपये थी, जो अब बढ़कर 7 रूपये हो गई।
आर्थिक स्थिति की विकटता के कारण कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ। लोग आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, खाद्यान्न की कमी, बढ़ती हुई बेरोजगारी और देश की दयनीय आर्थिक स्थिति को लेकर विरोध पर उत्तर आए। देश में अकसर ‘बंद’ और ‘हड़ताल’ की स्थिति रहने लगी।
साम्यवादी और समाजवादी पार्टी ने व्यापक समानता के लिए संघर्ष छेड़ दिया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुआ साम्यवादीयों के एक समूह ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनायी और सशस्त्र कृषक-विद्रोह का नेतृत्व किया। इस अवधि में गंभीर किस्म के हिन्दू-मुस्लिम दंगे भी हुए। आजादी के बाद से अब तक इतने गंभीर सांप्रदायिक दंगे हुए थे।
गैर-कांग्रेसवाद
विपक्षी दल जनविरोध की अगुवाई कर रहे थे और सरकार पर दबाव डाल रहे थे। कांग्रेस की विरोधी पार्टियों ने महसूस किया कि उसके वोट बँट जाने के कारण ही कांग्रेस सत्तासीन है। जो दल अपने कार्यक्रम अथवा विचारधाराओं के धरातल पर एक-दूसरे से एकदम से अलग थे वे सभी दल एकजुट हुए और उन्होंने कुछ राज्यों में एक कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाया समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने इस रणनीति को ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का नाम दिया।
चुनाव का जनादेश
व्यापक जन-असंतोष और राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण के इसी माहौल में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए 1967 के फरवरी माह में चौथे आम चुनाव हुए। कांग्रेस को जैसे-तैसे लोकसभा में बहुमत तो मिल गया था, लेकिन उसको प्राप्त मतों के प्रतिशत तथा सीटों की संख्या में भारी गिरावट आई थी। इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडल के आधे मंत्री चुनाव हार गए थे। तमिलनाडु से कामराज, महाराष्ट्र से एस.के.पाटिल, पश्चिम बंगाल से अतुल्य घोष और बिहार से के.बी.सहाय जैसे राजनीतिक दिग्गजों को मुँह की खानी पड़ी थी।
कांग्रेस को सात राज्यों में बहुमत नहीं मिला। दो अन्य राज्यों में दलबदल के कारण यह पार्टी सरकार नहीं बना सकी। मद्रास प्रांत (अब इसे तमिलनाडु कहा जाता है) में एक क्षेत्रीय पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पाने में आई थी। यहाँ के छात्र हिंदी को राजभाषा के रूप में केंद्र द्वारा अपने ऊपर थोपने का विरोध कर रहे थे और डीएमके ने उनके इस विरोध को नेतृत्व प्रदान किया था। चुनावी इतिहास में यह पहली घटना थी जब किसी गैर-कांग्रेसी दी को किसी राज्य में पूर्ण बहुमत मिला। अन्य आठ राज्यों में विभिन्न गैर-कांग्रेसी दलों की गठबंधन सरकार बनी।
गठबंधन
1967 के चुनावों से गठबंधन की परिघटना सामने आयी। चूँकि किसी पार्टि को बहुमत नहीं मिला था, इसलिए अनेक गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने एकजुट होकर संयुक्त विधायक दल बनाया और गैर-कांग्रेसी सरकारों को समर्थन दिया। इसी कारण इन सरकारों को संयुक्त विधायक दल की सरकार कहा गया। मिसाल के लिए बिहार में बनी संयुक्त विधायक दल की सरकार में दो समाजवादी पार्टियाँ-सीपीआई और पीएसपी-शामिल थीं। इनके साथ इस सरकार में वामपंथी-सीपीआई और दक्षिणपंथी जनसंघ-भी शामिल थे। पंजाब में बनी संयुक्त विधायक दल की सरकार को ‘पॉपुलर युनाइटेड फ्रंट’ की सरकार कहा गया। इसमें उस वक्त के दो परस्पर प्रतिस्पर्धी अकाली दल-संत ग्रुप और मास्टर ग्रुप शामिल थे।
दल-बदल
1967 के चुनावों की एक खास बात दल-बदल भी है। कोई जनप्रतिनिधि किसी खास दल के चुनाव चिन्ह को लेकर चुनाव लड़े और जीत जाए और चुनाव जीतने के बाद इस दल को छोड़कर किसी दूसरे दल में शामिल हो जाए, तो इसे दल-बदल कहते हैं। 1967 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस को छोड़ने वाले विधायकों ने तीन राज्यों-हारियाणा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश-में गैर-कांग्रेसी सरकारों को बहाल करने में अहम भूमिका निभायी।
कांग्रेस में विभाजन
1967 के चुनावों के बाद केंद्र में कांग्रेस की सत्ता कायम रही, लेकिन उसे जितना बहुमत हासिल नहीं था। साथ महत्त्वपूर्ण बात यह कि चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया था कि कांग्रेस को चुनवों में हराया जा सकता है।
इंदिरा गाँधी बनाम सिंडिकेट
इंदिरा गाँधी को असली चुनौती विपक्ष से नहीं बल्कि खुद अपनी पार्टी के भीतर से मिली। उन्हें ‘सिंडिकेट’ से निपटना पड़ा। ‘सिंडिकेट’ कांग्रेस के भीतर ताकतवर और प्रभावशाली नेताओं का एक समूह था। ‘सिंडिकेट’ ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने में महत्त्वपूर्ण भमिका निभायी थी। सिंडिकेट के नेताओं को उम्मीद थी कि इंदिरा गाँधी उनकी सलाहों पर अमल करेंगी।
इस तरह इंदिरा गाँधी ने दो चुनौतियों का सामना किया। उन्हें ‘सिंडिकेट’ के प्रभाव से स्वतंत्र अपना मुकाम बनाने की जरूरत थी कांग्रेस ने 1967 के चुनाव में जो जमीन खोयी थी उसे भी उन्हें हासिल करना था।
राष्ट्रपति पद का चुनाव, 1969
सिंडिकेट और इंदिरा गाँधी के बीच की गुटबाजी 1969 में राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय खुलकर सामने आ गई। तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के कारण उस साल राष्ट्रपति का पद खाली था। इंदिरा गाँधी की असहमति के बावजूद उस साल सिंडिकेट ने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष एन. संजीव रेड्डी को कांग्रेस पार्टी की तरफ से राष्ट्रिपति पद के उम्मीदवार के रूप में खड़ा करवाने में सफलता पाई। एन. संजीव रेड्डी से इंदिरा गाँधी की बहुत दिनों से राजनीतिक अनबन चली आ रही थी। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने भी हार मानी। उन्होंने तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरी को बढ़ावा दिया कि वे एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरें। इंदिरा गाँधी ने चौदह अग्रणी बैंकों के राष्ट्रीयकरण और भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को प्राप्त विशेषाधिकार यानी ‘प्रिवी पर्स’ को समाप्त करने जैसी कुछ बड़ी और जनप्रिय नीतियों की घोषणा भी की । दोनों गुट चाहते थे कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में ताकत को आजमा ही लिया जाए। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा ने ‘व्हिप’ जारी किया कि सभी ‘कांग्रेस सांसद और विधायक पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार संजीव रेड्डी को वोट डालें। वी.वी.गिरि का छुप तौर पर समर्थन करते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने खुलेआम अंतरात्मा की आवाज पर वोट डालने को कहा। इसका मतलब यह था कि कांग्रेस के सांसद और विधायक अपनी मनमर्जी से किसी भी उम्मीदवार को वोट डाल सकते हैं। आखिरकार राष्ट्पति पद के चुनाव में वी.वी. गिरि ही विजयी हुए। वे स्वतंत्र उम्मीदवार थे, जबकि एन.संजीव रेड्डी कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार थे।
कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार की हार से पार्टी का टूटना तय हो गया। कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी से निष्कासित कर दिया। पार्टी से निष्कासित प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने कहा कि उनकी पार्टी ही असली कांग्रेस है। 1969 के नवंबर तक सिंडिकेट की अगुवाई वाले कांग्रेसी खेमे को कांग्रेस (आर्गनाइजेशन) और इंदिरा गाँधी की अगुवाई वाले कांग्रेसी खेमे को कांग्रेस (रिक्विजिनिस्ट) कहा जाने लगा था। इन दोनों दलों को क्रमश: ‘पुरानी कांग्रेस’ और ‘नयी कांग्रेस’ भी कहा जाता था।
1971 का चुनाव और कांग्रेस का पुनर्स्थापन
कांग्रेस की टूट से इंदिरा गाँधी की सरकार अल्पमत में आ गई। बहरहाल, डीएमके और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत कुछ अन्य दलों से प्राप्त मुदा आधारित समर्थन के बल पर इंदिरा गाँधी की सरकार सत्ता में बनी रही। इसी दौर में इंदिरा गाँधी ने भूमि सुधार के मौजूदा कानूनों के क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त दलों पर अपनी निर्भरता समाप्त करने, संसद में अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत करने और अपने कार्यक्रमों के पक्ष में जनादेश हासिल करने की गरज से इंदिरा गाँधी की सरकार ने 1970 के दिसंबर में लोकसभा भंग करने की सिफारिश की। लोकसभा के लिए पाँचवें आम चुनाव 1971 के फरवरी माह में हुए।
मुकाबला
चुनावी मुकाबला कांग्रेस (आर) के विपरीत जान पड़ रहा था। सभी बड़ी गैर-साम्यवादी और गैर-कांग्रेस विपक्षी पार्टियों ने एक चुनावी गठबंधन बना लिया था। इसे ‘ग्रैंड अलायंस’ कहा गया। नयी कांग्रेस के पास एक मुदा था; एक अजेंडा और कार्यक्रम था। ‘ग्रैंड अलायंस’ के पास कोई सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था। इंदिरा गाँधी ने देश भर में घूम-घूम कर कहा कि विपक्षी गठबंधन के पास बस एक ही क्रार्यक्रम है : इंदिरा हटाओ। इसके विपरीत उन्होंने लोगों के सामने एक सकारात्मक कार्यक्रम रखा और इसे अपने मशहूर नारे ‘गरीबी हटाओ’ के जरिए एक शक्ल प्रदान किया। ‘गरीबी हटाओ’ के नारे से इंदिरा गाँधी ने वंचित तबकों खासकर भूमिहीन किसान, दलित और आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिला और बेरोजगार नौजवानों के बीच अपने समर्थन का आधार तैयार करने की कोशिश की । ‘गरीबी हटाओ’ का नारा और इससे जुड़ा हुआ क्रार्यक्रम इंदिरा गाँधी की राजनीतिक रणनीति थी।
परिणाम और उसके बाद….
1971 के लोकसभा चुनावों के नतीजे उतने ही नाटकीय थे, जितना इन चुनावों को करवाने का फैसला। कांग्रेस (आर) और सीपीआई के गठबंधन को इस बार जितने वोट या सीटें मिलीं, उतनी कांग्रेस पिछले चार आम चुनावों में कभी हासिल न कर सकी थी। इस गठबंधन को लोकसभा की 375 सीटें मिलीं और इसने कुल 48.4 प्रतिशत वोट हासिल किए। अकेले इंदिरा गाँधी की कांग्रेस (आर) ने 352 सीटें और 44 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। अब जरा इस तसवीर की तुलना कांग्रेस (ओ) के उजाड़ से करें: इस पार्टी में बड़े-बड़े महारथी थे, लेकिन इंदिरा गाँधी की पार्टी को जितने वोट मिले थे, इसके एक चौथाई वोट ही इसकी झोली में आए। इस पार्टी को महज 16 सीटें मिलीं। अपनी भारी-भरकम जीत के साथ इंदिरा गाँधी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने अपने दावे को साबित कर दिया कि वही ‘असली कांग्रेस’ है विपक्षी ‘ग्रैंड अलायंस’ धराशायी हो गया था। इस ‘महाजोट’ को 40 से भी कम सीटें मिली थीं।
1971 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में एक बड़ राजनीतिक और सैन्य संकट उठ खड़ा हुआ। 1971 के चुनावों के बाद पूर्वी पाकिस्तान में संकट पैदा हुआ और भारत-पाक के बीच युद्ध छिड़ गया। इसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना। इन घटनाओं से इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए।
कांग्रेस लोकसभा के चुनावों में जीती थी और राज्य स्तर के चुनावों में भी। इन दो लगातार जीतों के साथ कांग्रेस का दबदबा एक बार फिर कायम हुआ।
कांग्रेस प्रणाली का पुनर्स्थापन?
बहरहाल कांग्रेस प्रणाली के पुनर्स्थापन का क्या मतलब निकलता है ? इंदिरा गाँधी ने जो कुछ किया, वह पुरानी कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का काम नहीं था। कई मामलों में यह पार्टी इंदिरा गाँधी के हाथों नयी तर्ज पर बनी थी। इस पार्टी को लोकप्रियता के लिहाज से वही स्थान प्राप्त था, जो उसे शुरूआती दौर में हासिल था, लेकिन यह अलग किस्म की पार्टी थी। इस कांग्रेस पार्टी के भीतर कई गुट नहीं थे, यानी अब वह विभिन्न मतों और हितों को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी नहीं थी। पार्टी कुछ सामाजिक वर्गों जैसे गरीब, महिला, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों पर ज्यादा निर्भर थी। जो कांग्रेस उभरकर सामने आई, वह एकदम नयी कांग्रेस थी। इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस प्रणाली को पुनर्स्थापित जरूर किया, लेकिन कांग्रेस-प्रणाली की प्रकृति को बदलकर।
कांग्रेस प्रणाली के भीतर हर तनाव और संघर्ष को पचा लेने की क्षमता थी। कांग्रेस प्रणाली को इसी खासियत के कारण जाना जाता था, लेकिन नयी कांग्रेस ज्यादा लोकप्रिय होने के बावजूद इस क्षमता से हीन थी।