इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ7 (Hiroshima) “ हिरोशिमा” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के कविसच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय‘ है | अज्ञेय का प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में घर पर हुई। उन्होंने मैट्रिक 1925 ई॰ में पंजाब विश्वविद्यालय से, इंटर 1927 ई॰ में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से, बी॰ एससी॰ 1929 ई॰ में फोरमन कॉलेज, लाहौर से और एम॰ ए॰ (अंग्रेजी) लाहौर से किया।
7. हिरोशिमा (Hiroshima)
लेखक परिचय
लेखक- सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय‘
जन्म- 7 मार्च 1911 ई॰, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
मृत्यु- 4 अप्रैल 1987 ई॰
पिता- डॉ॰ हिरानन्द शास्त्री
माता- व्यंती देवी
अज्ञेय का प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में घर पर हुई। उन्होंने मैट्रिक 1925 ई॰ में पंजाब विश्वविद्यालय से, इंटर 1927 ई॰ में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से, बी॰ एससी॰ 1929 ई॰ में फोरमन कॉलेज, लाहौर से और एम॰ ए॰ (अंग्रेजी) लाहौर से किया।
प्रमुख रचनाएँ- काव्यः- भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर छन भर, बावरा अहेरी, आँगन के पार द्वार, सदानीरा आदि। कहानीः- विपथगा, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप, छोड़ा हुआ रास्ता, लौटती पगडंडियाँ आदि। उपन्यासः- शेखरः एक जीवनी, नदी के द्विप, अपने अजनबी। यात्रा साहित्यः- अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली।
कविता परिचय– प्रस्तुत कविता में आधुनिक सभ्यता की मानवीय विभीषिका का चित्रण किया गया है। यह कविता ‘अज्ञेय‘ की ‘सदानीरा‘ कविता संग्रह से संकलित है।
7. हिरोशिमा (Hiroshima)
एक दिन सहसा
सुरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौकः
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से
कवि कहता है कि एक दिन सबेरे प्रकाश दिखाई पड़ा। यह प्रकाश क्षितिज से निकलते सूरज का नहीं, बल्कि शहर के मध्य में अमेरिका द्वारा गिराए गए बम का था। लोग गर्मी से जलने लगे। यह धूप की गर्मी नहीं थी। यह गर्मी बम विस्फोट से उत्सर्जित किरणों की थी। गर्मी फटी धरती की थी।
छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ी-वह सुरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टुटकर
बिखर गये हो
दशों दिशा में।
कवि कहता है कि मनुष्य की छायाएँ दिशाहिन हो गई। प्रकाश छिटने लगा, लेकिन यह प्रकाश सूर्य का नहीं, बल्कि मानव के नृशंसता का था, जिसमें मानवता झुलस रही थी। कवि कहता है कि यह नगर के मध्य में मृत्यु रूपी सूर्य के टुटे हुए अरे का प्रकाश था। अतः बम फटते हि विध्वंसक पदार्थ मौत बनकर दशों दिशाओं में नाचने लगे।
कुछ छन का वह उदय-अस्त
केवल एक प्रज्वलित छन की
दृश्य सोख लेने वाली दो पहरी
फिर ?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटी लंबी हो-हो कर :
मानव ही सब भाप हो गये।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं।
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।
कवि कहता है कि बम गिरने के बाद कुछ छन में ही विनाशलीला का दृश्य मन्द पड़ने लगा। दोपहर तक सारी लीला खत्म हो गई तथा मानव शरीर भाप बनकर वातावरण में मिल गया, परन्तु यह दुर्घटना आज भी झुलसे हुए पत्थरों और उजड़ी हुई सडकों पर के रूप में निशानी है।
मानव का रचा हुआ सुरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
मानव के द्वारा बनाया गया बम मानव को ही भाप में बदलकर मिटा दिया। पत्थर पर लिखी हुई वह जलती छाया अर्थात् विकृत रूप मानव के नृशंसता का गवाह है।
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