इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 7 हिन्दी के कहानी पाठ अठारह ‘ Hutsang ki Bharat Yatra (हुत्सांग की भारत यात्रा)’ के सारांश को पढ़ेंगे। जिसके लेखक बंलिन्दर एवं धरिन्दर धनौआ है।
18 हुत्सांग की भारत यात्रा
(बंलिन्दर एवं धरिन्दर धनौआ)
पाठ का सारांश- प्रस्तुत पाठ में हएनत्सांग ने अपनी भारत-यात्रा के विषय में प्रकाश डाला है। सन् 630 के पतझड़ के मौसम में हुएनत्सांग सुमेरू पर्वत की सुन्दरता देखने में मग्न थे। उन्हें वह पर्वत सोना, चाँदी से बना समुद्र के मध्य में उभरा प्रतीत हो रहा था। उन्होंने उस पर चढ़ना चाहा, लेकिन समुद्र की ऊँची लहरों के कारण उनका प्रयास विफल रहा । लेकिन उन्होंने अपना प्रयास जारी-रखा। उन्होंने जैसे ही अपना और आगे बढ़ाया कि पाषाण-कमल उदित हुआ। उसी पाषाण-कमल पर पैर रखते हुए पर्वत तक पहुँच गए। लेकिन वह पर्वत की चोटी पर चढ़ न सके । फिर उन्होंने जैसे ही साहस बटोरकर आगे बढ़ने की कोशिश की कि भयंकर तूफान ने उन्हें पर्वत की ऊँची चोटी पर पहुँचा दिया। यह वास्तविकता न होकर एक स्वप्न था।
उन्होंने अपने स्वप्न को शुभ मानकर बुद्ध की भूमि भारत की यात्रा पर चले । राजधानी Nkkax&एन से वे चल पड़े। रास्ते में लिएंग चाउ ने उन्हें बौद्ध लेखों की व्याख्या करने लिए रोका। उस समय किसी को चीन छोड़कर अन्यत्र जाने की आज्ञा नहीं थी, लेकिन मानत्सांग अपने निश्चय पर दृढ़ थे। उन्होंने लिएंग चाउ के श्रद्धास्पद भिक्षु से इस पवित्र काम में सहयोग करने की प्रार्थना की। भिक्षु ने उनके मार्ग दर्शन के लिए दो शिष्यों को · भेज दिया। यात्रियों ने बताया कि यहाँ से पचास ली की दूरी पर हु-लू नदी है। उस नदी की धारा बहुत तेज है। उसे नाव से पार नहीं किया जा सकता।
हएनत्सांग ने उथली जगह पर पार करने का निश्चय किया। आदमी ने बताया कि वहाँ यह मैन-अवरोध है। उसके बाद पाँच टावर हैं। उसकी निगरानी, प्रहरी करता है तथा बिना अनुमति के किसी को चीन के बाहर नहीं जाने देता। इसके उस पार मौ-होयैन नामक रेगिस्तान और हामी की सीमाएँ हैं । बुद्ध के देश जाने वाले जानकारों ने बताया कि पश्चिमी रास्ते नर-पिशाचों तथा लू-लपट से भरे आंधी-तूफानों का भी खतरा है, . इसलिए अपनी जिन्दगी से खिलवाड़ न करें। इस पर हुएनत्सांग ने कहा- “जब तक मैं बुद्ध के देश नहीं पहुँच जाता, मैं कभी चीन की तरफ मुड़कर भी नहीं देगा, चाहे. रास्ते में मेरी मृत्यु ही हो जाए, इसकी परवाह नहीं।” Hutsang ki Bharat Yatra
हुएनत्सांग भारत पहुँचने पर सर्वप्रथम आठ-नौ दिन गया में ठहरे। इनकी तीर्थयात्रा के बारे में जानकर नालंदा के बौद्ध भिक्षु उन्हें लाने गए। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि हुएनत्सांग प्रसिद्ध विद्वान शीलभद्र से योगशास्त्र पर चर्चा करना चाहते थे। नालंदा मठ के चारों ओर. ईंटों की दीवार थी। द्वार महाविद्यालय के रास्ते में खलता था। उसमें vkठ कक्ष थे और भवन कलात्मक और बों से सज्जित था। वेधशाला के ऊपरी कमरे बादलों में खोए प्रतीत हो रहे थे। वहाँ की सुन्दरता के बारे में हुएनत्सांग ने लिखा है कि ‘खिड़कियों से झांकने पर ऐसा लगता था, जैसे हवा का संयोग पाकर बादल अठखेलियाँ करते थे तथा नई-नई आकृतियाँ बना रहे थे। तालाब नील कमल से परिपूर्ण थे। आम की मंजरियों की सुगंध फैल रही थी। बाहरी सभी आंगनों में चार मंजिलें कक्ष पुजारियों के लिए थीं। खंभों पर बेल-बूटे उकेरे गये थे। वह स्थान अति रमणीय था। राजा पुजारियों का काफी सम्मान करता था और सौ गाँवों का लगान इस संस्थान को धर्मार्थ मिलता था।
हुएनत्सांग को नालंदा में शीलभद्र से मिलने के पूर्व 20 भिक्षुओं ने उनके आदेशों एवं अनुदेशों की जानकारी दी। उन्होंने शीलभद्र का आदरपूर्वक चरण स्पर्श किया और अपने उद्देश्य के बारे में उन्हें बताया। हुएनत्सांग की नम्रता एवं श्रद्धा देख शीलभद्र की आँखें भर आईं। उन्होंने कहा- ‘हमारा गुरु-शिष्य का संबंध देव निर्धारित है। मैं बीमारी के कारण अपनी जीवन-लीला समाप्त करने की इच्छा प्रकट की तो स्वप्न में तीन देव आए। इनमें एक का रंग स्वर्ण, दूसरे का स्वच्छ तथा तीसरे का रजत जैसा था। उन्होंने बताया कि चीन देश का एक भिक्षु यहाँ धर्म-ज्ञान की शिक्षा लेने आ रहा है, इसलिए आप मरने की इच्छा वापस ले लें। उसे भली प्रकार शिक्षित करना है। दोनों भिक्षओं ने तुरंत अध्ययन आरंभ कर दिया। Hutsang ki Bharat Yatra
हएनत्सांग कुशाग्रबुद्धि के थे। वे कई वर्ष भारत में बिताए और इस अवधि में शेष – भारत का दौरा भी किया। उन्होंने नालंदा में अध्ययन का पूरा लाभ उठाया। विदजनों के साथ वार्तालाप कर पूरी जानकारियाँ ली और बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। हुएनत्सांग ने नालंदा के विषय में लिखा है कि यहाँ के भिक्ष विद्वान पर थे। उन्हें मठ के नियमों का पालन करना अनिवार्य था। दिन भर अध्ययन अध्यापन काम चलता था। किसी भी दर्शनार्थी तथा शास्त्रार्थ करने वालों को द्वारपाल के पर का उत्तर देना आवश्यक था। अन्यथा उन्हें वापस होना पड़ता था।
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