अध्‍याय 7 जन आंदोनों का उदय | Jan andolan ka uday class 12

अध्‍याय 7

जन आंदोनों का उदय

जन आंदोलनों की प्रकृति

यह घटना 1973 में घटी जब मौजूदा उत्तराखंड के एक गाँव के स्‍त्री-पुरूष एकजुट हुए और जंगलों की व्‍यासायिक कटाई का विरोध किया। सरकार ने जंगलों की कटाई के लिए अनु‍मति दी थी। इन लोगों ने पेडों को अपनी बाँहों में घेर लिया ताकि उन्‍हें कटने से बचाया जा सके। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरण आंदोलन के रूप में परिणत हुआ और ‘चिपको-आंदोलन’ के नाम से विश्‍वप्रसिद्ध हुआ।

चिपको आंदोलन

इस आंदोलन की शुरूआत उतराखंड के दो-तीन गाँव से हुई थी! गाँव वालों ने वन विभाग से कहा कि खेती-बाडी के औजार बनाने के लिए हमें अंगू के पेड काटने की अनुमति दी जाए । वन    विभाग ने अनु‍मति देने से इनकार कर दिया। बहरहाल, विभाग ने खेल-सामग्री के एक विनिर्माता को जमीन का यही टुकडा व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल के लिए आबंटित कर दिया। इससे गाँव वालों में रोष पैदा हुआ और उन्‍होंने सरकार के इस कदम का विरोध किया। गाँववासियों ने माँग की कि जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्‍यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए और स्‍थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।

चिपको आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। इलाके में सक्रिय जंगल कटाई के ठेकेदार यहाँ के पुरूषों को शराब की आपूर्ति का भी व्‍यवसाय करते थे। महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी लगातार आवाज उठायी। इससे आंदोलन का दायरा विस्‍तृत हुआ और उसमें कुछ और सामाजिक मसले आ जुडे। आखिरकार इस आंदोलन को सफलता मिली और सरकार ने पंद्रह सालों के लिए हिमालयी क्षेत्र में पेडों की कटाई पर रोक लगा दी ताकि इस अवधि में क्षत्र का वनाच्‍छादन फिर से ठीक अवस्‍था में आ जाए।

दल-आधारित आंदोलन

जन आंदोलन कभी सामाजिक तो कभी राजनीतिक आंदोलन का रूप ले सकते हैं और अकसर ये आंदोलन दोनों ही रूपों के मेल से बने नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, हम अपने स्‍वाधीनता आंदोलन को ही लें। यह मुख्‍य रूप से राजनीतिक आंदोलन था। लेकिन हम जानते हैं कि औपनिवेशिक दौर में सामाजिक-आर्थिक मसलों पर भी विचार मंथन चला जिससे अनेक स्‍वतंत्र सामाजिक आंदोलनों का जन्‍म हुआ, जैसे-जाति प्रथा विरोधी आंदोलन, किसान सभा आंदोलन और मजदूर संगठनों के आंदोलन।

ऐसे कुछ आंदोलन आजादी के बाद के दौर में भी चलते रहे। मुंबई, कोलकाता और कानपुर जैसे बडे शहरों के औद्योगिक मजदूरों के बीच मजदूर संगठनों के आंदोलन का बडा जोर था।

किसान और मजदूरों के आंदोलन का मुख्‍य जोर आर्थिक अन्‍याय तथा असमानता के मसले पर रहा। ऐसे आंदोलनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में भाग तो नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से इनका नजदी‍की रिश्‍ता कायम हुआ।

राजनीतिक दलों से स्‍वतंत्र आंदोलन

‘सतर’ और ‘अस्‍सी’ के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार-व्‍यवहार से मोहभंग हुआ। इसका तात्‍कालिक कारण तो यही था कि जनता पार्टी के रूप में गैर-कांग्रेसवाद का प्रयोग कुछ खास नहीं चल पाया और इसकी असफलता से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल भी कायम हुआ था। देश ने आजादी के बाद नियोजित विकास का मॉडल अपनाया था। इस मॉडल को अपनाने के पीछे दो लक्ष्‍य थे-आर्थिक संवृद्धि और आय का समतापूर्ण बँटवारा। आजादी के शुरूआती 20 सालों में अर्थव्‍यवस्‍था के कुछ क्षेत्रों में उल्‍लेखनीय संवृद्धि हुई, लेकिन इसके बावजूद गरीबी और असमानता बडे पैमाने पर बरकरार रही।

राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्‍वास लोकतांत्रिक संस्‍थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध को स्‍वर देने के लिए इन्‍होंने आवाम को लामबंद करना शुरू किया। मध्‍यवर्ग के युवा कार्यकर्ताओं ने गाँव के गरीब लोगों के बीच रचनात्‍मक कार्यक्रम तथा सेवा संगठन चलाए। इन संगठनों के सामाजिक कार्यो की प्रकृति स्‍वयंसेवी थी इसलिए इस संगठनों को स्‍वयंसेवी संगठन या स्‍वयंसेवी क्षेत्र के संगठन कहा गया।

ऐसे स्‍वयंसेवी संगठनों ने अपने को दलगत राजनीति से दूर रखा। स्‍थानीय अथवा क्षेत्रीय स्‍तर पर ये संगठन न तो चुनाव लडे और न ही इन्‍होंने किसी एक राजनीतिक दल को अपना समर्थन दिया। ऐसे अधिकांश संगठन राजनीति में विश्‍वास करते थे और उसमें भागीदारी भी करना चाहते थे, लेकिन इन्‍होंने राजनीतिक भागीदारी के लिए राजनीतिक दलों को नहीं चुना। इसी कारण इन संगठनों को ‘स्‍वतंत्र राजनीतिक संगठन’ कहा जाता है। इन संगठनों का मानना था कि स्‍थानीय मसलों के समाधान में स्‍थानीय नागरिकों की सीधी और सक्रिय भागीदारी राजनीतिक दलों की अपेक्षा कहीं ज्‍यादा कारगर होगी।

अब भी ऐसे स्‍वयंसेवी संगठन शहरी और ग्रामीण इलाकों सक्रिय हैं। बहरहाल, अब इनकी प्रकृति बदल गई है।

उदय

सातवें दशक के शुरूआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें ज्‍यादातर शहर की झुग्गी-बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्‍ट्र में 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन ‘दलित पैंथर्स’ बना। आजादी के बाद के सालों में दलित समूह मुख्‍यतया जाति-आधारित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्‍याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में जाति-आधारित किसी भी तरह के भेदभाव के विरूद्ध गारंटी दी गई है। आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्‍याय की ऐसी ही नीतियों का कारगर क्रियान्‍वयन इनकी प्रमुख माँग थी।

भारतीय संविधान में छुआछुत की प्रथा को समाप्‍त कर दिया गया है। सरकार ने इसके अंतर्गत ‘साठ’ और ‘सत्तर’ के दशक में कानून बनाए। इसके बावजूद पुराने जमाने में जिन जातियों को अछुत माना गया था, उनके साथ इस नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बरताव कई रूपों में जारी रहा। दलितों की बस्तियाँ मुख्‍य गाँव से अब भी दूर होती थीं। दलित महिलाओं के साथ दुर्व्‍यवहार होते थे। दलितों के सामाजिक और आर्थिक उत्‍पीड़न को रोक पाने में कानून की व्‍यवस्‍था नाकाफी साबित हो रही थी। दूसरी तरफ, दलित जिन राजनीतिक दलों का समर्थन कर रहे थे जैसे-रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, वे चुनावी राजनीति में सफल नहीं हो पा रही थीं। इन वजह से ‘दलित पैंथर्स’ ने दलित अधिकारों की दावेदारी क‍रते हुअ जन-कार्रवाई का रास्‍ता अपनाया।

गतिविधि

महाराष्‍ट्र के विभिन्‍न इलाकों में दलितों पर बढ़ रहे अत्‍याचार से लड़ना दलित पैंथर्स की अन्‍य मुख्‍य गतिविधि थी। दलित पैंथर्स तथा इसके समधर्मा संगठनों ने दलितों पर हो रहे अत्‍याचार के मुद्दे पर लगातार विरोध आंदोलन चलाया। इसके परिणामस्‍वरूप सरकार ने 1989 में एक व्‍यापक कानून बनाया। इस कानून के अंतर्गत दलित पर अत्‍याचार करने वाले के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया।

भारतीय किसान यूनियन

सत्तर के देशक से भारतीय समाज में कई तर‍ह के असंतोष पैदा हुए। अस्‍सी के दशक का कृषक-संघर्ष इसका एक उदाहरण है

उदय

1988 के जनवरी में उत्तर प्रदेश के एक शहर मेरठ में लगभग बीस हजार किसान जमा हुए। ये किसान सरकार द्वारा बिजली की दर में की गई बढ़ोतरी का विरोधी कर रहे थे। किसान जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी माँग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धरना था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गाँवों से उन्‍हें निरंतर राशन-पानी मिलता रहा। धरने पर बैठे किसान, भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के सदस्‍य थे।

1980 के दशक के उत्तरार्ध से भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के उदा‍रीकरणस के प्रयास हुए और क्रम में नगदी फसल के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन ने गन्‍ने और गेहूँ के सरकारी खरीद मूल्‍य में बढ़ोतरी करने, कृषि उत्‍पादों के अंतर्राज्‍यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने, समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की माँग की।

ऐसी माँग देश के अन्‍य किसान संगठनों ने भी उठाईं। महाराष्‍ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आंदोलन को ‘इंडिया’ की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया। आप तीसरे अध्‍याय में यह बात पढ़ ही चुके हैं कि भारत में अपनाए गए विकास के मॉडल से जुड़े विवादों में कृषि बनाम उद्योग का विवाद प्रमुख था।

विशेषताएँ

सरकार पर अपनी माँग को मानने के लिए दबाव डालने के क्रम में बीकेयू ने रैली, धरना, प्रदर्शन और जेल भरो अभियान का स‍हारा लिया। पूरे अस्‍सी के दशक भर बीकेयू ने राज्‍य के अनेक जिला मुख्‍यालयों पर इन किसानों की विशाल रैली ओयोजित की। देश की राजधानी दिल्‍ली में भी बीकेयू ने रैली का आयोजन किया।

1990 के दशक के शुरूआती सालों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्‍य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँग मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में किसान आंदोलन अस्‍सी के दशक में सबसे ज्‍यादा सफल सामाजिक आंदोलन की सफलता के पीछे इसके सदस्‍यों की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता का हाथ था।

महिलाओं ने शराब माफिया को हराया

चित्तूर जिले के कलिनारी मंडल स्थित गुंडलुर गाँव की महिलाएँ अपने गाँव में ताड़ी की बिक्री पर पाबंदी लगाने के लिए एकजुट हुईं। उन्होंने अपनी बात गाँव के ताड़ी विक्रेता तक पहुँचाई। महिलाओं ने गाँव में ताड़ी लाने वाली जीप की वापस लौटने पर मजबूर कर दिया। जब गाँव के ताड़ी-बिक्रेता ने ठेकेदार को इसकी सूचना दी तो ठेकेदार ने उसके साथ गुंडों का एक दल भेजा। गाँव की महिलाएँ इससे भी नहीं डरीं। ठेकेदार ने पुलिस को बुलाया लेकिन पुलिस भी पीछे हट गई। एक सप्‍ताह बाद ताड़ी की बिक्री का विरोध करने वाली महिलाओं पर ठेकेदार के गुंडो ने सरियों और घातक हथियारों से हमला किया। लेकि‍न गुंडों को हार माननी पड़ी। फिर महिलाओं ने तीन जीप ताड़ी फेंक दिया।

ताड़ी-विरोधी आंदोलन

एक अलग तरह का आंदोलन दक्षिणी राज्‍य आंध्र प्रदेश में आकार ले रहा था। यह महिलाओं का एक स्‍वत:स्फूर्त आंदोलन था। ये महिलाएँ अपने आस-पड़ोस में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थीं।

वर्ष 1992 के सितंबर और अक्‍तूबर माह में इस तरह की खबरें प्रेस में लगभग रोज दिखती थी। ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। यह लड़ाई माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आंदोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्‍य में ताड़ी-विरोधी आंदोलन के रूप में जाना गया।

उदय 

आंध्र प्रदेश के नेल्‍लौर जिले के एक दूर-दराज के गाँव दुबरगंटा में 1990 के शुरूआती दौर में महिलाओं के बीच प्रौढ़-साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्‍या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाएँ घर के पुरूषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने की शिकायतें करती थीं। ग्रामीणों के शराब की गहरी लत लग चुकी थी। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था बुरी तर‍ह प्रभावित हो रही थी। शराबखोरी से सबसे ज्यादा दिक्‍कत महिलाओं को हो रही थी। इससे परिवार की अर्थव्‍यवस्‍था चरमराने लगी।

नेल्लोर में महिलाएँ ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आई और उन्‍होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। यह खबर तेजी से फैली और करीब 5000 गाँवों की महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेना शरू कर दिया। प्रतिबंध संबंधी एक प्रस्‍ताव को पास कर इसे जिला कलेक्‍टर को भेजा गया। नेल्‍लोर जिले में ताड़ी की नीलामी 17 बार रद् हुई। नेल्‍लोर जिले का यह आंदोलन धीरे-धीरे पूने राज्‍य में फैल गया।

आंदोलन की क‍ड़ीयाँ

ताड़ी-विरोध आंदोलन का नारा बहुत साधारण था-‘ताड़ी की बिक्री बंद करो।’ राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से काफी राजस्व की प्राप्ति होती थी इसलिए वह इस पर प्रतिबंध नहीं लगा रही थी। स्‍थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दे को अपने आंदोलन में उठाना शुरू किया। वे घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर बोलने का मौका दिया।

इस तरह ताड़ी-विरोध आंदोलन महिला का एक हिस्सा बन गया। आठवें दशक के दौरान महिला आंदोलन परिवार के अंदर और उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केंद्रित रहा। धीरे-धीरे महिला आं‍दोलन कानूनी सुधारों से हटकर सामाजिक टकराव के मुद्दों पर भी खुले तौर पर बात करने लगा। नवें दशक तक आते-आते महिला आंदोलन समान राजनीतिक प्रतिनिधित्‍व की बात करने लगा था। संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत महिलाओं को स्थानीय राजनीतिक निकायों में आरक्षण दिया गया है। इस व्‍यवस्था को राज्‍यों की विधानसभाओं तथा संसद में भी लागू करने की माँग की जा रही है।

नर्मदा बचाओं आंदोलन

वे सभी सामाजिक आंदोलन जिनके बारे में हमने अभी तक चर्चा की है, देश में आजादी के बाद अपनाए गए आर्थिक विकास के मॉडल पर सवालिया निशान लगाते रहे हैं। एक ओर जहाँ चिपको आंदोलन ने इस मॉडल में निहित पर्यावरणीय विनाश के मुद्दे को सामने रखा, वहीं दूसरी ओर, किसानों ने कृषि क्षेत्र की अनदेखी पर रोष प्रकट किया। इसी तरह जहाँ दलित समुदायों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ उन्‍हें जन-संघर्ष की ओर ले गई वहीं ताड़ी-बंदी आंदोलन ने विकास के नकारात्‍मक पहलुओं की ओर इशारा किया।

सरदार सरोवर परियोजना 

आठवें दशक के प्रारंभ में भारत के मध्‍य भाग में स्थित नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के तहत मध्‍य प्रदेश, गुजरात और महाराष्‍ट्र से गुजरने वाली नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मझोले तथा 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्‍ताव रखा गया। गुजरात के सरदार सरोवर और मध्‍य प्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे बड़ी और बहु-उद्देश्‍यीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आंदोलन चला।

सरदार सरोवर परियोजना के अंतर्गत एक बहु-उद्देश्‍यीय विशाल बाँध बनाने का प्रस्‍ताव है। बाँध समर्थकों का कहना है कि इसके निर्माण से गुजरात के एक बहुत बड़े हिस्‍से सहित तीन पड़ोसी राज्‍यों में पीने के पानी, सिंचाई और बिजली के उत्‍पादन की सुविधा मुहैया कराई जा सकेगी तथा कृषि की उपज में गुणात्‍मक बढ़ोतरी होगी।

प्रस्‍तावित बाँध के निर्माण से संबंधित राज्‍यों के 245 गाँव डूब के क्षेत्र में आ रहे थे। अत: प्रभावित गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा सबसे पहले स्‍थानीय कार्यकर्ताओं ने उठाया।

वाद-विवाद और संघर्ष

आंदोलन के नेतृत्‍व ने इस बात की ओर ध्‍यान दिलाया कि इस परियोजनाओं का लोगों के पर्यावास, आजीविका, संस्‍कृति तथा पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्‍थानीय समुदायों की भागीदारी होनी चाहिए और जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर उनका प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का गुजरात जैसे राज्‍यों में तीव्र विरोध हुआ है। परंतु अब सरकार और न्‍यायपालिका दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि लोगों को पुनर्वास मिलना चाहिए। सरकार द्वारा 2003 में स्‍वीकृत राष्‍ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ जैसे सामाजिक आंदोलन की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार को बाँध का काम आगे बढ़ाने की हिदायत दी है लेकिन साथ ही उसे यह आदेश भी दिया गया है कि प्रभावित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से किया जाए। नर्मदा बचाओ आंदोलन दो से भी ज्‍यादा दशकों तक चला। नवें दशक के अंत तक पहुँचते नर्मदा बचाओ आंदोलन से कई अन्‍य स्‍थानीय समूह और आंदोलन भी आ जुड़े।

जन आंदोलन के सबक

जन आंदोलन का इतिहास हमें लोकतांत्रिक राजनीति को बेहतर ढंग से समझने में मदद देता है। सामाजिक आंदोलनों ने समाज के उन नए वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्‍याओं को अभिव्‍यक्ति दी जो अपनी दिक्‍कतों को चुनावी राजनीति के जरिए हल नहीं कर पा रहे थे।

इन आंदोलनों के आलोचक अकसर यह दलील देते हैं कि हड़ताल, धरना और रैली जैसी सामूहिक कार्रवाईयों से सरकार के कामकाज पर बुरा असर पड़ता है।

सुचना के अधिकार का आंदोलन  

सुचना के अधिकार का आंदोलन जन आंदोलनों की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। यह आंदोलन सरकार से एक बड़ी माँग को पूरा कराने में सफल रहा है। इस आंदोलन की शुरूआत 1990 में हुई और इसका नेतृत्‍व किया मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने। राजस्‍थान में काम कर रहे इस संगठन ने सरकार के सामने यह माँग रखी कि अकाल राहत कार्य और मजदूरों को दी जाने वाली पगार के रिकॉर्ड का सार्वजनिक खुलासा किया जाए।

इस मुहिम के तहत ग्रामीणों ने प्रशासन से अपने वेतन और भुगतान के बिल उपलब्‍ध कराने को कहा। दरअसल, इन लोगों को लग रहा था कि स्‍कूलों, डिस्‍पेंसरी, छोटे बाँधों तथा सामुदायिक केंद्रों के निर्माण कार्य के दौरान उन्‍हें दी गई मजदूरी में भारी घपला हुआ है। कहने के लिए के विकास परियोजनाएँ पूरी हो गई हो गई थीं लेकिन लोगों का मानना था कि सारे काम में धन की हेराफेरी हुई है। पहले 1994 और उसके बाद 1996 में मजदूर किसान शक्ति संगठन ने जन-सुनवाई का आयोजन किया और प्रशान को इस मामले में अपना पक्ष स्‍पष्‍ट करने को कहा।

आंदोलन के दबाव में सरकार को राजस्‍थान पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करना पड़ा। नए कानून के तहत जनता को पंचायत के दस्‍तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिप प्राप्‍त करने की अनुमति मिल गई। संशोधन के बाद पंचायतों के लिए बजट, लेखा, खर्च, नीतियों और लाभार्थियों के बारे में सार्व‍जनिक घोषणा करना अनिवार्य कर दिया गया। 1996 में एमकेएसएस ने दिल्‍ली में सुचना के अधिकार को लेकर राष्‍ट्रीय समिति का गठन किया। इस कार्रवाई का लक्ष्‍य सूचना के अधिकार को राष्‍ट्रीय अभियान का रूप देना था। इससे पहले, कंज्‍यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च सेंटर (उपभोक्‍ता शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र), प्रेस काउंसिल तथा शौरी समिति ने सुचना के अधिकार का एक मसौदा तैयार किया था। 2002 में ‘सूचना की स्वतंत्रता’ नाम का एक विधेयक पारित हुआ था। यह एक कमजोर अधिनियम था और इसे अमल में नहीं लाया गया। सन् 2004 में सूचना के अधिकार के विधेयक को सदन में रखा गया। जून 2005 में विधेयक को राष्‍ट्रपति की मंजूरी हासिल हुई।

आंदोलन का म‍तलब सिर्फ धरना-प्रदर्शन या सामूहिक कार्रवाई नहीं होता। इसके अंतर्गत किसी समस्‍या से पी‍ड़ीत लोगों का धीरे-धीरे एकजुट होना और समान अपेक्षाओं के साथ एक-सी माँग उठाना जरूरी है। इसके अतिरिक्‍त, आंदोलन का एक काम लोगों को अपने अधिकारों को लेकर जागरूक बनाना भी है ताकि लोग यह समझें कि लोकतंत्र की संस्‍थाओं से वे क्‍या-क्‍या उम्‍मीद कर सकते हैं।

समकाली सामाजिक आंदोलन किसी एक मुद्दे के इर्द-गिर्द ही जनता को लामबंद करते हैं। इस तरह वे समाज के किसी एक वर्ग का ही प्रतिनिधित्‍व कर पाते हैं। इसी सीमा के चलते सरकार इन आंदोलनों की जायज माँगों को ठुकराने का साहस कर पाती है।

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