इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास का पाठ आठ किसान, जमींदार और राज्य (Kishan jamindar or rajya) के सभी टॉपिकों के व्याख्या को पढ़ेंगें, जो परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस पाठ को पढ़ने के बाद इससे संबंधित एक भी प्रश्न नहीं छूटेगा।
8. किसान, जमींदार और राज्य
16 वीं-17 वीं शताब्दी में 85% लोग गाँव में रहते थे।
कृषि उत्पादन छोटे किसान और बड़े अमीर किसान दोनों करते थे।
नाहरी ताकते गाँवों में दाखिल हुई अर्थात नहर का विस्तार हो रहा था।
मुगल राज्य में आमदनी का बड़ा हिस्सा था— कृषि उत्पादन में Tax लेना, गाँव पर नियंत्रण रखना।
Class 12th History Chapter 8 Kishan jamindar or rajyat Notes
किसान और कृषि उत्पादन
खेतिहर समाज की बुनीयादी इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे।
किसान साल भर खेतों में काम करते थे तथा अलग-अलग मौसम में फसल उगाते थे। वे लोग खेतों में जुताई, बीज बोना, कटाई जैसे कार्य करते थे।
कृषि आधारित वस्तुओं का उत्पादन करते थे। जैसे:– शक्कर, तेल।
सुखी जमीन वाले पहाड़ी इलाको में खेती नहीं हो सकती थी ।
सिर्फ मैदानी इलाके में खेती होती थी।
स्रोतो की तलाश
किसानों के बारे में जानकारी ऐतिहासिक ग्रंथ व दास्तावेज से मिलते हैं जो मुगल दरबार की निगरानी में लिखे गए थे।
आइन–ए–अकबरी (संक्षेप में इसे आइन कहा जाता है।) अबुल फजल (अकबर के दरबारी इतिहासकार) ने लिखा। इस पुस्तक में जुताई, Tax इकट्ठा करना, राज्य व जमींदारो के रिश्ते का लेखा-जोखा है।
आइन का उद्देश्य था अकबर के शासन काल का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना।
यह स्रोत (आइन) मुगलों की राजधानी से दूर लिखे गए। गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान से मिले।
जो सरकार की आमदनी का विवरण देते हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज हैं जो कृषि के बारे में जानकारी देते हैं।
किसान और उनकी जमीन
किसान को रैयत या मुजरियान भी कहा जाता था।
17वीं शताब्दी में किसान दो तरह के होते थे— 1. खुद काश्त, 2. पाहि काश्त
खुद काश्त– उन्ही गाँव में रहतें थें जहाँ उनकी जमीन थी।
पाहि काश्त– बाहर से आकर ठेके पर खेती करते थे।
पाहि काश्त किसान उच्च लगान के कारण दूसरे जगह जाकर खेति करते थे।
उत्तर भारत के किसान गरीब होते थे।
किसानों के पास 1 जोड़ी बैल 2 हल से ज्यादा नहीं होता था।
गुजरात में एक औसत किसान के पास 6 एकड़ जमीन, बंगाल में 5 एकड़ जमीन होती थी।
10 एकड़ जमीन वाला किसान अमीर माना जाता था।
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सिंचाई और तकनिक
खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था।
चावल, गेहूँ, ज्वार फसलें ज्यादा उगाई जाती थी।
जहाँ 40 सेमी या ज्यादा बारिश होती थी वहाँ चावल की खेती होती थी। कम बारिश वाले इलाके में गेहूँ, ज्वार, बाजरा इत्यादि की खेती होती थी।
सिंचाई कार्य में राज्य मदद करता था।
राज्यों के द्वारा कई नहरें और नालें खुदवाए जाते थें। शाहजहाँ के समय में पंजाब में शाह नहर का निर्माण सिंचाई के लिए किया गया था। खेतों को जोतने के लिए लकड़ी के हल, लोहे की नुकिली फाल तथा बैलों का प्रयोग किया जाता था।
फसलों की भरमार
मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी; एक खरीफ पतझड़ में और दूसरी रबी; वसंत में।
साल में दो फसले उगाई जाती थी और जहाँ बारिश होती थी या सिंचाई के अन्य साधन मौजूद थे वहाँ साल में तीन फसलें उगाई जाती थी। आइन बताती है कि दोनों मौसम मिलाकर आगरा में 39 किस्म की फसलें उगाई जाती थी जबकि दिल्ली में 43 फसलों की पैदावार होती थी और बंगाल में चावल की सिर्फ 50 किस्में पैदा होती थी। मध्यकालीन भारत में गुजारे के लिए फसलें उगाई जाती थी पर कुछ फसल फायदे के लिए भी उगाई जाती थी जिसमें ज्यादा टैक्स मिले।
सर्वोतम फसलों को जिन्स-ए-कामिल कहा जाता था, जिसमें कपास और गन्ने आते हैं।
मध्यभारत और दक्कनी पठार में बड़े-बड़े खेतों में कपास उगाई जाती थी, जबकि बंगाल में चीनी की खेती व्यापक पैमाने पर की जाती थी। तिलहन और दलहन नगदी फसलें थी।
भारती में मक्का अफ्रिका होते हुए स्पेन के रास्ते आया।
आलू, टमाटर, मिर्च जैसी सब्जियाँ नयी दुनिया (अमेरिका) से लाई गई।
ग्रामीण समुदाय
किसान की अपनी जमीन पर व्यक्ति मिलकियत होती थी।
ग्रामीण समुदाय का हिस्सा किसान थे।
ग्रामीण समुदाय के तीन घटक थे- खेतिहर किसान, पंचायत और गाँव का मुखिया।
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जाति और ग्रामीण माहौल
जातिगत भेदभाव के कारण खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे हुए थे। खेतों की जुताई करने वाले अधिकतर लोग नीच जाति के थे। खेतों में मजदूरी करने वालों को भी नीच समझा जाता था। ये गरीब थे।
इनकी हालत बहुत ही दयनिय थी। आधुनिक भारत में जैसे दलितों की स्थिति थी वैसे ही इनलोगों की स्थिति थी।
मुसलमानों में भी जातिगत भेदभाव थी। इस समुदाय में हलालखोरान (मैला या कुड़ा साफ करने वाला) जैसे नीच कामों से जुड़े समुह थे जिन्हें गाँवों की हदों से बाहर रहना पड़ता था।
पंचायतें और मुखिया
गाँव की पंचायत में बुजुर्गों का जमावड़ा होता था।
जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे, वहाँ अकसर पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी।
छोटे-मोटे और नीच काम करने वाले खेतिहर मजदूरों के लिए इसमें कोई जगह नहीं होती होगी। पंचायत का फैसला गाँव में सबको मानना पड़ता था।
पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकद्दम या मंडल कहते थे।
मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजुरी जमींदार से लेनी पड़ती थी। मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था। ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बख़ार्स्त कर सकते थे। गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था।
पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम ख़जाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था।
इस ख़जाने से उन कर अधिकारियों की ख़ातिरदारी का ख़र्चा भी किया जाता था जो समय-समय पर गाँव का दौरा किया करते थे। दूसरी ओर, इस कोष का इस्तेमाल बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था। मिट्टी के छोटे-मोटे बाँध और नहर बनाते थे।
पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे ज्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार थे।
ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी।
ग्रामीण दस्तकार
अलग-अलग तरह के उत्पादन कार्य में जुटे लोगों के बीच फैले लेन-देन के रिश्ते गाँव का एक और रोचक पहलू था। अंग्रेजी शासन के शुरुआती वर्षों में किए गए गाँवों के सर्वेक्षण और मराठाओं के दस्तावेज़ बताते हैं कि गाँवों में दस्तकार काफ़ी अच्छी तादाद में रहते थे। कहीं-कहीं तो कुल घरों के 25 फ़ीसदी घर दस्तकारों के थे।
कभी-कभी किसानों और दस्ताकारों के बीच फ़र्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे परवाही समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे। खेतिहर और उसके परिवार के सदस्य कई तरह की वस्तुओं के उत्पादन में शिरकत करते थे।
मसलन रंगरेज़ी कपडे़ पर छपाई मिट्टी के बरतनों का पकाना, बनाना या उनकी मरम्मत करना। उन महीनों में जब उनके पास खेती के काम से फुरसत होती-जैसे कि बुआई आर तुलार के बीच या सहाई और कटाई के बीच-उस समय ये खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे।
कुम्हार, लोहार, बढई, नाई, यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले उन्हें अलग-अलग तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे। आमतौर पर या तो उन्हें फ़सल का एक हिस्सा दे दिया जाता था या फिर गाँव की ज़मीन का एक टुकड़ा, शायद कोई ऐसी ज़मीन जो खेती लायक होने के बावजूद बेकार पड़ी थी। अदायगी की सूरत क्या होगी ये शायद पंचायत ही तय करती थी। महाराष्ट्र में ऐसी ज़मीन दस्तकारों की मीरास या वतन बन गई जिस पर दस्तकारों का पुश्तैनी अधिकार होता था।
यही व्यवस्था कभी-कभी थोड़े बदले हुए रूप में भी पायी जाती थी जहाँ दस्तकार और हरेक खेतिहर परिवार परस्पर बातचीत करके अदायगी की किसी एक व्यवस्था पर राजी होते थे। ऐसे में आमतौर पर वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था। उदाहरण के तौर पर, अठारहवीं सदी के स्रोत बताते हैं कि बंगाल में ज़मींदार उनकी सेवाओं के बदले लोहारों, बढ़ई और सुनारों तक को “रोज़ का भत्ता और खाने के लिए नकदी देते थे।” इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे, हालांकि यह शब्द सोलहवीं व सत्रहवीं सदी में बहुत इस्तेमाल नहीं होता था। ये सबूत मज़ेदार हैं क्योंकि इनसे पता चलता है कि गाँव के छोटे स्तर पर फेर-बदल के रिश्ते कितने पेचीदा थे। ऐसा नहीं है कि नकद अदायगी का चलन बिलकुल ही नदारद था।
Class 12th History Chapter 8 Kishan jamindar or rajyat Notes
एक ‘छोटा गणराज्य‘
19वीं शताब्दी में अंग्रजों ने भारतीय गाँवों को एक ‘छोटे गणराज्य‘ के रूप में देखा, जहाँ लोग भाइचारे के साथ रहते थे।
ताकतवर लोग गाँव के कमजोर लोगों का शोषण करते थे।
काम करने वाले लोगों की मजदूरी या निर्यात करने वाले दस्तकारों की मजदूरी नगद मिलती थी।
कृषि समाज में महिलाएँ
कृषि कार्य में महिलाएँ मर्द के कंधे से कंधा मिलाकर काम करती थी।
सूत कातने, बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने और गूँधने और कपड़ों पर कढ़ाई का काम महिलाएँ ही करती थी।
बार-बार माँ बनने और प्रसव के वक्त महिलाओं की संख्या कम रहती थी।
जिसके कारण ग्रामीण संप्रदायों में शादी के लिए ‘दुलहन की कीमत‘ अदा करने की जरूरत होती थी, न कि दहेज की।
घर का मुखिया मर्द होता था।
राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत में मिले दस्तावेजों से पता चलता है कि पत्नियां अपने पति के बेवफाई की शिकायत ग्राम पंचायत में करती थी।
बच्चों का पालन पोषण न करने पर पति पर आरोप लगाती थी।
महिलाओं को पुश्तैनी संपति में हक मिलता था। हिंदू और मुस्लमान दोनों धर्मों में महिलाओं को संपति रखने, उसे बेचने का अधिकार था।
जमींदार
मुगल काल में जमींदार को ग्रामीण समाज में ऊँची हैशियत मिली हुई थी। वे काफी समृद्ध होते थे। उसने पास काफी जमीन होती थी जिसे मिलकीयत थे यानी संपति कहते थे।
इस जमीन पर जमींन पर दिहाड़ी के मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी मर्जी के मुताबिक इन जमींनों को बेचन सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे।
जमींदार राज्य की ओर से कर वसुल कर सकते थे, जो उसके ताकत को दिखाता है।
जमींदार ऊँची जाति के हुआ करते थे।
ये बाजार भी स्थापित करते थे जहाँ किसान अपनी फसल बेचने आते थे।
जमींदार गाँव के कमजोर लोगों का शोषन करते थे।
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भू-राजस्व प्रणाली
जमीन से मिलने वाला राजस्व मुगल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद थी।
लोगों पर कर का बोझ निर्धारित करने से पहले मुगल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में खास किस्म की सूचनाएँ इकऋा करने की कोशिश की।
हर प्रांत में जुती हुई जमीन और जोतने लायक जमीन दोनों की नपाई की गई। अकबर के शासन काल में अबुल फजल ने आइन में ऐसी जमींनों के सभी आंकड़ों को संकलित किया।
अकबर के शासन में भूमि का वर्गीकरण
आइन में वर्गीकरण के मापदंड की निम्नलिखित सूची दी गई हैः अकबर बादशाह ने अपनी गहरी दूरदर्शिता के साथ जमींनों का वर्गीकरण किया और हरेक (वर्ग की जमीन) के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धारित किया। पोलज वह जमीन है जिसमें एक के बाद एक हर फसल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता है। परौती वह जमीन है जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोयी ताकत वापस पा सके। चचर वह जमीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है। बंजर वह जमीन है जिस पर पाँच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई हो। पहले दो प्रकार की जमीन की तीन किस्में हैं, अच्छी, मध्यम और खराब। वे हर किस्म की जमीन के उत्पाद को जोड़ देते हैं, और इसका तीसरा हिस्सा मध्यम उत्पाद माना जाता है, जिसका एक-तिहाई हिस्सा शाही शुल्क माना जाता है। जिसे राजा राजस्व के रूप में प्राप्त करता था।
अबुल फजल की आइन-ए-अकबरी
आइन-ए-अकबरी आँकड़ों के वर्गीकरण के एक बहुत बड़े ऐतिहासिक और प्रशासनिक परियोजना का नतीजा थी जिसका जिम्मा बादशाह अकबर के हुक्म पर अबुल फजल ने उठाया था। अकबर के शासन के बयालीसवें वर्ष, 1598 ई. में, पाँच संशोध्नों के बाद, इसे पूरा किया गया।
आइन इतिहास लिखने के एक ऐसे बृहत्तर परियोजना का हिस्सा थी जिसकी पहल अकबर ने की थी। इस परियोजना का परिणाम था अकबरनामा जिसे तीन जिल्दों में रचा गया। पहली दो जिल्दों ने ऐतिहासिक दास्तान पेश की।
तीसरी जिल्द, आइन-ए-अकबरी, को शाही नियम कानून के सारांश और साम्राज्य के एक राजपत्र की सूरत में संकलित किया गया था।
आइन कई मसलों पर विस्तार से चर्चा करती है : दरबार, प्रशासन और सेना का संगठन, राजस्व के स्रोत और अकबरी साम्राज्य के प्रांतों का भूगोल, और लोगों के साहित्यिक, सांस्कृतिक व धर्मिक रिवाज। Class 12th History Chapter 8 Kishan jamindar or rajyat Notes
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