इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 11 (Loutkar Aaunga Phir) “ लौटकर आऊँगा फिर” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि जीवनानंद दास है |रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाँग्ला साहित्य के विकास में जिन लोगों का योगदान है, उनमें सबसे प्रमुख स्थान जीवनानंद दास का है। इन्होंने बंगाल के जीवन में रच बसकर उसकी जड़ों को पहचाना तथा उसे अपनी कविता में स्वर दिया।
11. लौटकर आऊँगा फिर (Loutkar Aaunga Phir)
कवि परिचय
कवि- जीवनानंद दास
जन्म- 17 फरवरी, 1899 ई॰, बारीसाल ( बांग्लादेश )
मृत्यु- 22 अक्टुबर, 1954 ई॰
रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाँग्ला साहित्य के विकास में जिन लोगों का योगदान है, उनमें सबसे प्रमुख स्थान जीवनानंद दास का है। इन्होंने बंगाल के जीवन में रच बसकर उसकी जड़ों को पहचाना तथा उसे अपनी कविता में स्वर दिया।
प्रमुख रचनाएँ- झरा पालक, धूसर पांडुलिपि, वनलता सेन, महापृथिवि, सातटि तारार तिमिर, जीवननांद दासेर कविता, रूपसी बाँग्ला, बेला अबेला कालबेला, मनविहंगम, आलोक पृथ्वी आदि। उनके निधन के बाद लगभग एक सौ कहानीयाँ तथा तेरह उपन्यास प्रकाशित किए गए।
कविता परिचय- प्रस्तुत कविता ‘लौटकर आऊँगा फिर‘ कवि प्रयाग शुक्ल द्वारा भाषांतरित जीवनानंद दास की कविता है। इसमें कवि का अपनी मातृभूमि तथा परिवेश का उत्कट प्रेम अभिव्यक्त है। कवि ने इस कविता में एक बार फिर जन्म लेने की लालसा प्रकट कर अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा प्रकट की है।
11. लौटकर आऊँगा फिर (Loutkar Aaunga Phir)
खेत हैं जहाँ धान के, बहती नदी
के किनारे फिर आऊँगा लौटकर
एक दिन बंगाल में; नहीं शायद
होऊँगा मनुष्य तब, होऊँगा अबाबील
कवि कहता है कि धान के खेत वाले बंगाल में, बहती नदी के किनारे, मैं एक दिन लौटूँगा। हो सकता है मनुष्य बनकर न लौटूँ । अबाबील होकर
या फिर कौवा उस भोर का-फुटेगा नयी
धान की फसल पर जो
कुहरे के पालने से कटहल की छाया तक
भरता पेंग, आऊँगा एक दिन!
या फिर कौआ होकर, भोर की फूटती किरण के साथ धान के खेतों पर छाए कुहासे में, कटहल पेड़ की छाया में जरूर आऊँगा।
बन कर शायद हंस मैं किसी किशोरी का;
घुँघरू लाल पैरों में;
तैरता रहुँगा बस दिन-दिन भर पानी में-
गधं जहाँ होगी ही भरी, घास की।
किसी किशोरी का हंस बनकर, घुँघरू जैसे लाल-लाल पैरों में दिन-दिन भर हरी घास की गंध वाली पानी में, तैरता रहुँगा।
आऊँगा मैं। नदियाँ, मैदान बंगाल के बुलायेंगे-
मैं आऊँगा। जिसे नदी धोती ही रहती है पानी
से इसी सजल किनारे पर।
बंगाल की मचलती नदियाँ, बंगाल के हरे भरे मैदान, जिसे नदियाँ धोती हैं, बुलाएँगे और मैं आऊँगा, उन्हीं सजल नदियों के तट पर।
शायद तुम देखोगे शाम की हवा के साथ उड़ते एक उल्लु को
शायद तुम सुनोगे कपास के पेड़ पर उसकी बोली
घासीली जमीन पर फेंकेगा मुट्ठी भर-भर चावल
शायद कोई बच्चा – उबले हुए !
हो सकता है, शाम की हवा में किसी उड़ते हुए उल्लु को देखो या फिर कपास के पेड़ से तुम्हें उसकी बोली सुनाई दें। हो सकता है, तुम किसी बालक को घास वाली
जमीन पर मुट्ठी भर उबले चावल फेंकते देखो
देखोगे रूपसा के गंदले-से पानी में
नाव लिए जाते एक लड़के को – उड़ते फटे
पाल की नाव !
लौटते होंगे रंगीन बादलों के बीच, सारस
अँधेरे में होऊँगा मैं उन्हीं के बीच में
देखना !
या फिर रूपसा नदी के मटमैले पानी में किसी लड़के को फटे-उड़ते पाल की नाव तेजी से ले जाते देखो या फिर रंगीन बादलों के मध्य उड़ते सारस को देखो, अंधेरे में मैं उनके बीच ही होऊँगा। तुम देखना मैं आऊँगा जरूर। (Loutkar Aaunga Phir)
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