इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 3 (Prem Ayani Shri Radhika) “ प्रेम-अयनि श्री राधिका” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि रसखान है | रसखान मूल रूप से मुसलमान थे, फिर भी इन्होंने जीवन भर कृष्णभक्ति का गान किया। कृष्ण के प्रति इनकी भक्ति देखकर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। बाल्यावस्था से ही यह प्रेमी स्वभाव के थे। बाद में यहीं प्रेम ईश्वरीय प्रेम में बदल गया। ऐसी मान्यता है कि इन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर में साक्षात् कृष्ण के दर्शन हुए थे। इसी कृष्ण दर्शन से उत्प्रेरित हो कर ब्रजभूमि में रहने लगे और मृत्यु तक वहीं रहे।
2. प्रेम-अयनि श्री राधिका
(Prem Ayani Shri Radhika)
करील के कुजंन ऊपर वारौं
लेखक- रसखान
लेखक परिचय
पूरा नाम- सैय्यद इब्राहिम खान
जन्म- 1548 ई0, एक पठान परिवार
दिल्ली में
मृत्यु- 1628 ई0
रसखान मूल रूप से मुसलमान थे, फिर भी इन्होंने जीवन भर कृष्णभक्ति का गान किया। कृष्ण के प्रति इनकी भक्ति देखकर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। बाल्यावस्था से ही यह प्रेमी स्वभाव के थे। बाद में यहीं प्रेम ईश्वरीय प्रेम में बदल गया। ऐसी मान्यता है कि इन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर में साक्षात् कृष्ण के दर्शन हुए थे। इसी कृष्ण दर्शन से उत्प्रेरित हो कर ब्रजभूमि में रहने लगे और मृत्यु तक वहीं रहे।
प्रमुख रचनाएँ- सुजान रसखान तथा प्रेमवाटिका
पाठ परिचय (Prem Ayani Shri Radhika)
प्रस्तुत पाठ में रसखान के दो पद संकलित है। प्रथम पद दोहे और सोरठा छंद में है जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेममय युगल रूप का अति हृदयहारी वर्णन है। इसमें राधा-कृष्ण के मनोहर रूप पर कवि के हृदय की आकर्षण व्यक्त हुई है जबकि दुसरे पद में कवि हर स्थिति में ब्रज में जीना चाहता है। इसमें ब्रज के प्रति कवि का भावपूर्ण समर्पण व्यक्त है।
प्रेम- अयनि श्री राधिका
प्रेम-अयनि श्री राधिका, प्रेम-बरन नँदनंद।
प्रेम-बाटिका के दोऊ, माली-मालिन-द्वन्द्व।।
मोहन छबि रसखानि लखि अब दृग अपने नाहिं।
अँचे आवत धनुस से छूटे सर से जाहिं।।
रसखान कवि कहते हैं कि राधा प्रेमस्वरूपा है तो श्रीकृष्ण प्रेमरूप है। ये दोनों प्रेमरूपी वाटिका के माली-मालिन के समान हैं। कवि ने जब से इन दोनों को देखा है, उनकी आँखें उन्हीं दोनों को देखती रहती है। क्षण भर के लिए आते हैं और जैसे धनुष से बाण छूटता है, उसी प्रकार आते-जाते रहते हैं।
मो मन मानिक लै गयो चितै चोर नँदनंद।
अब बे मन मैं का करूँ परी फेर के फंद।।
प्रीतम नन्दकिशोर, जा दिन तै नैननि लग्यौ।
मन पावन चितचोर, पलक ओट नहिं करि सकौं।
श्रीकृष्ण ने उसके मन को चुरा लिया है जिस कारण मन इच्छा रहित हो गए हैं। वह इस प्रेम के जाल में बुरी तरह फँस गए हैं। रसखान अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहते हैं कि जिस दिन से उनके दर्शन हुए हैं, उसने मन चुरा लिया है। हर क्षण कृष्ण एवं राधा के रूप सौन्दर्य को अपलक देखते रहते हैं।
करील के कुंजन ऊपर वारौं
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर की तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवोनिधि को सुख नन्द की गाइ चराई बिसारौं।।
कवि रसखान अपने हार्दिक अभिलाषा प्रकट करते हुए कहते हैं कि श्रीकृष्ण की लाठी और कंबल पर तीनों लोक के राज्य का त्याग कर दूँ। नंद बाबा की गाय चराने का अवसर मिल जाए तो आठों प्रकार की सिद्धियों तथा नव-निधियों के सुखों का त्याग करने में मुझे कष्ट महसूस नहीं होगा।
रसखानी कबौं इन आँखिन सौं ब्रज के बनबाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक रौ कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
कवि का कहना है कि जब से ब्रज के वनों, निकुंजों, तालाबों तथा करील के सघन कुँजों को अपनी आँखों से देखा हूँ, तब से इच्छा होती है कि ऐसे मनोहर निकुंजों की सुन्दरता के समक्ष करोड़ों सुनहरे महल तुच्छ प्रतीत होतें हैं अर्थात् ऐसे मूल्यवान् महलों को छोड़कर जहाँ कृष्ण रासलीला करते थे, वहीं निवास करूँ।
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