इस पोस्ट में हमलोग शरद जोशी रचित कहानी ‘रेल-यात्रा(Rail-yatra class 9th Hindi)’ को पढ़ेंगे। यह कहानी समाजिक कुरितियों के बारे में है।
Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 9 रेल-यात्रा
लेखक शरद जोशी
Bihar Board Class 10th Social Science
पाठ का सारांश
प्रस्तुत पाठ ‘रेल-यात्रा’ शरद जोशी की व्यंग्य रचना है। इसमें लेखक ने भारतीय रेल व्यवस्था के माध्यम से सरकार की डपोरशंखी रेल प्रगति की पोल खोल दी है।
रेलमंत्री का मानना है कि भारतीय रेलें तेजी से प्रगति कर रही हैं जबकि लेखक के अनुसार रेल की प्रगति यही है कि एक स्थान से लोगों को दूसरे स्थान तक पहुँचा देती है, लेकिन डब्बे में घुसते ही रेल की प्रगति की सच्चाई का पता चल जाता है। डब्बेमें बैठने की बात तो दूर साँस लेने की जगह नहीं मिलती। धक्कम-धुक्की, मार-पीट,जोर-जबर्दस्ती तथा नोक-झोंक भारतीय रेल यात्रा की प्रधान विशेषता हैं। सरकारीअव्यवस्था के कारण सीट उन्हें ही मिलती है जिन्हें धन-बल है। कुछ बाहुबली भी साट प्राप्त कर लेते हैं।
लेखक का कहना है कि हमारे यहाँ कहा जाता है— ‘ईश्वर आपकी यात्रा सफलकरें’, ऐसा क्यों ? इस संबंध में लेखक का तर्क है कि रेल-यात्रा में भगवान की कृपा ही सर्वोपरि है, क्योंकि रेल कहाँ दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगी, निर्दिष्ट स्थान पर कब पहुँचेगी तथा भीड़ में जगह मिलेगी या नहीं, सारी बातें ईश्वर की कृपा पर निर्भर करती है। भारतीय रेल कर्म पर विश्वास करती है, फल की चिंता नहीं करती। इसका दायित्व मात्र निश्चित स्थान तक पहुँचा देना है, यात्री की जो भी दशा हो, वे जिंदा रहें या मुर्दा, इसको जिम्मेदारी भारतीय रेल को नहीं है। वह पूर्ण ईमानदारी से अपना काम करती है। उसे पता है कि जिसेलेखक भारतीय रेलों की अव्यवस्था पर व्यंग्यात्मक लहजे में कहता है कि भारतीय रेलों ने एक बात सिद्ध कर दी है कि बड़े आराम अथवा पीड़ा के सामने छोटे आराम या पीड़ा का कोई महत्त्व नहीं होता। जैसे किसी घर में कोई मर जाता है अथवा किसी की शादी तय हो जाती है,गाँव जाने के लिए फौरन रेल में चढ़ जाते हैं। भीड़, धक्कामुक्की, गाली-गलौज सब कुछ सहन करते खड़े रहते हैं, क्योंकि घर में आदमी मर गया है अथवा शादी की बात तय हो गई है। भारतीय रेलें हमें चिंतन सिखाती हैं कि जीवन की अंतिम यात्रा अर्थात् मृत्यु के समय मनुष्य खाली हाथ रहता है, उसी प्रकार मनुष्य रेल-यात्रा के समय खाली रहना चाहिए, क्योंकि सामान रहने पर बैठने की समस्या हो जाती है, बैठने पर सामान रखने की समस्या खड़ी हो जाती है, यदि दोनों काम हो जाता है तो प्रश्न उठता है कि दूसरा आदमी कहाँ बैठेगा अथवा सामान रखेगा। तात्पर्य कि रेलों में इतनी अधिक भीड़ रहती है कि कहीं जाने के समय सोचना पड़ जाता है क्योंकि भारतीय रेलें हमें मृत्यु का दर्शन समझाती हैं और अक्सर पटरी से उतरकर उसकी महत्ता का अनुभव करा देती हैं। रेल में चढ़ने के बाद यह कहना कठिन होता है कि वह कहाँ उतरेगा, अस्पताल में या श्मशान में । इसी कारण लोग रेलों की आलोचना करते हैं।
निष्कर्ष रूप में लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि सरकार की उदासीनता तथा रेलों की भ्रष्ट व्यवस्था के कारण रेल-यात्रा करते हुए हम अक्सर विचारों में डूब जाते हैं। इसका मुख्य कारण रेल की अनियमितता है। यह कहीं भी खड़ी हो जाती है। ऐसा देखकर कोई यात्री लेखक से पूछ बैठता है— “कहिए साहब, आपका क्या ख्याल है, इस कंट्री का कोई फ्यूचर है या नहीं ?” ‘पता नहीं’ जवाब देते हैं “अभी तो ये सोचिए कि इस ट्रेन का कोई फ्यूचर है या नहीं।” अतः इससे स्पष्ट होता है कि आज के विकसित परिवेश में भारतीय रेलें एवं भारतीय अभी भी अविकसित हैं। लेखक व्यंग्यात्मक भाषा में कहता है—-‘आपने भारतीय मनुष्य को भारतीय रेल के पीछेभागते देखा होगा। उसे पायदान से लटके, डिब्बे की छत पर बैठे, भारतीय रेलों के साथ प्रगति करते देखा होगा।’ लेखक का मानना है कि अगर इसी तरह रेल पीछे आती रही तो भारतीय मनुष्य के पास बढ़ते रहने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहेगा। रेल में सफर करते, दिन भर झगड़ते रात भर जागते रेलनिशात् सर्वभूतानां’ चरितार्थ करते रहेंगे।