समाजवाद एवं साम्यवाद कक्षा 10 इतिहास – Samajwad Evam Samyavad

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History) के पाठ 2 ( Samajwad Evam Samyavad ) “समाजवाद एवं साम्यवाद” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में समाजवाद एवं साम्यवाद तथा रूसी क्रांती के बारे में बताया गया है ।

Samajwad Evam Samyavad

2. समाजवाद एवं साम्यवाद (Samajwad Evam Samyavad)

समाजवाद और साम्यवाद दोनों का उद्देश्य- समानता स्थापित करना है।
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के समान हो।
किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं हो।
सब किसी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता मिले।
समाजवाद एवं साम्यवाद में अंतर

समाजवाद-
समाज को महत्व दिया जाता है।
समाज में असमानता को कम करके समानता स्थापित करने की बात करता है।
असमानता को दूर करने के लिए राज्य को उपयोगी माना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि राज्य ही समाज में समानता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
समाजवाद में प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता के अनुसार कार्य दिया जाने तथा कार्य के अनुसार वेतन की बात किया जाता है।
ज्यादा काम करने पर ज्यादा वेतन और कम काम करने पर कम वेतन देने पर जोर देता है।

साम्यवाद-
साम्यवादी राज्य को समाप्त करना चाहते हैं।
क्योंकि राज्य द्वारा शोषण करने वालो को बल मिलता है।
साम्यवादी कहते हैं कि इन दो वर्गों में संघर्ष जरूर होगा और जिस दिन संघर्ष-क्रांति करा जायेगा तब ही शोषित वर्ग जीत सकेगा।
शोषित वर्ग इसलिए जीतेगा क्योंकि शोषित वर्ग बहुत अधिक संख्या में होते हैं।
शोषण करने वाले लोग कम होते हैं।
जब शोषित जीत जायेंगे तब समानता आऐगी।
आर्थिक स्थिति में समानता हो।
आवश्यकता के अनुसार वेतन पर जोर देता है।

समाजवाद की उत्‍पत्ति
समाजवादी भावना का उदय मूलतः 18 वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप हुआ था।
औद्योगिक क्रांति के दौरान पूँजीपतियों और मिल-मालिकों की श्रमिक विरोधी नीतियों के कारण सभी देशों के श्रमिक जीवन नारकीय बन गया था।
श्रमिकों को कोई अधिकार नहीं था और उनका क्रूर शोषण हो रहा था।
पूँजीवादी व्यवस्था दिन-प्रतिदिन मजबूत होती जा रही थी।
श्रमिकां की आर्थिक स्थिति का तेजी से पतन हो रहा था।
इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से समाज का विभाजन दो वर्गों में हो गया था-
(1) पूँजीपति वर्ग          (2) श्रमिक वर्ग
जिस समय श्रमिक जगत आर्थिक दुर्दशा और सामाजिक पतन की स्थिति से गुजर रहा था उसी समय श्रमिकां को कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्र-भक्तों, विचारकों और लेखकों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
इन व्यक्तियों ने सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में एक नवीन विचारधारा का प्रतिपादन किया जिसे ‘समाजवाद‘ के नाम से जाना जाता है।

यूटोपियन समाजवादी
प्रथम यूटोपियन समाजवादी, जिसने समाजवादी विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, एक फ्रांसीसी विचारक सेंट साइमन था।
उसका मानना था कि राज्य एवं समाज को इस ढंग से संगठित करन चाहिए कि लोग एक दूसरे का शोषण करने के बदले मिलजुल कर प्रकृति का दोहन करें।
प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार तथा प्रत्येक को उसके कार्य के अनुसार वेतन मिलना चाहिए।
फ्रांस से बाहर सबसे महत्वपूर्ण यूटोपियन चिंतक ब्रिटिश उद्योगपति रार्बट ओवन था।

कार्ल मार्क्स (1818-1883)

  • कार्ल मार्क्स का जन्म 5 मई, 1818 ई० को जर्मनी के राइन प्रांत के ट्रियर नगर में एक यहूदी परिवार में हुआ था।
    कार्ल मार्क्स के पिता हेनरिक मार्क्स एक प्रसिद्ध वकील थे, जिन्होंने बाद में चलकर ईंसाई धर्म ग्रहण कर लिया था।
    मार्क्स ने बोन विश्व विद्यालय में विधि की शिक्षा ग्रहण की परन्तु 1836 में वे बर्लिन विश्वविद्यालय चले आये, जहाँ उनके जीवन को एक नया मोड़ मिला।
    1843 में उन्होंने बचपन के मित्र जेनी से विवाह किया।
    कार्ल मार्क्स की मुलाकात पेरिस में 1844 ई० में फ्रेडरिक एंगेल्स से हुई जिससे जीवन भर उसकी गहरी मित्रता बनी रही।
    मार्क्स ने 1867 ई० में ‘दास-कैपिटल‘ नामक पुस्तक की रचना की जिसे ‘समाजवादियों की बाइबिल‘ कहा जाता है।

मार्क्स के सिद्धांत

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत
वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या
मूल्य एवं अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
राज्यहीन और वर्गहीन समाज की स्थापना

कार्ल मार्क्स के अनुसार छः ऐतिहासिक चरण हैं।

आदिम साम्यवादी युग
दासता का युग
सामन्ती युग
पूँजीवादी युग
समाजवादी युग
साम्यवादी युग

1917 की बोल्शेविक क्रांति

20वीं शताब्दी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना रूस की क्रांति थी।
इस क्रांति ने रूस के सम्राट अथवा जार के एकतंत्रीय निरंकुश शासन का अंत कर मात्र लोकतंत्र की स्िापना का ही प्रयत्न नहीं किया, अपितु सामाजिक, आर्थिक और व्यवसायिक क्षेत्रों में कुलीनों, पूँजीपतियों और जमींदारों की शक्ति का अंत किया और किसानों की सŸा को स्थापित किया।

1917 की बोल्शेविक क्रांति के कारण :

  • जार की निरंकुशता एवं अयोग्य शासन
    कुषकों की दयनीय स्थिति
    मजदूरों की दयनीय स्थिति
    औद्योगीकरण की समस्या
    रूसीकरण की नीति
    विदेशी घटनाओं का प्रभाव :
    (क) क्रीमिया का युद्ध     (ख) जापान से पराजय तथा 1905 की क्रांति
    रूस में मार्क्सवाद का प्रभाव तथा बु़द्धजीवियों का योगदान
    तात्कालिक कारण-प्रथम विश्व युद्ध में रूस की पराजय

रूसी क्रांति

खूनी रविवार
1905 में रूस-जापान युद्ध में रूस के पराजय के कारण 9 जनवरी 1905 को लोगों का समूह ‘रोटी दो‘ के नारे के साथ सड़कों पर प्रदर्शन करते हुए सेंट पीटर्सवर्ग स्थित महल की ओर जा रहा था। परन्तु जार की सेना ने इस निहत्थे लोगों पर गोलियाँ बरसाई जिसमें हजारों लोग मारे गये इसलिए 22 जनवरी को खूनी रविवार के नाम से जाना जाता है।

मार्च की क्रांति एवं निरंकुश राजतंत्र का अंत :

  • 7 मार्च 1917 को पेट्रोग्राड ( वर्तमान लेनिनग्राद ) की सड़कों पर किसान-मजदूरों ने जुलूस निकाला। उन्होंने ‘रोटी दो‘ के नारे लगाए। अगले दिन 8 मार्च को कपड़े की मिलों की महिला मजदूरों ने बहुत सारे कारखानों में ‘रोटी‘ की माँग करते हुए हड़ताल का नेतृत्व किया, जिसमें अन्य मजदूर भी शामिल हो गए।
    जुलूस में लाल झंडों की भरमार थी। जब सेना की एक टुकड़ी से भीड़ पर गोली चलाने के लिए कहा गया तो उसने भी विद्रोह कर दिया। सैनिकों का विद्रोह बढ़ता गया। अतः विवश होकर 12 मार्च 1917 को जार ने गद्दी त्याग दी।
    इस तरह से रोमनोव-वंश का निरंकुश जारशाही का अंत हो गया। 15 मार्च को बुर्जुआ सरकार का गठन हुआ।
    बुर्जुआ सरकार गिर गई तथा करेंसकी के नेतृत्व में एक उदार समाजवादियों की सरकार गठित हुई। बोल्शेविकों ने इस सरकार को भी स्वीकार नहीं किया।
  • सर्वहारा वर्ग- समाज का वैसा वर्ग जिसमें किसान, मजदूर एवं आम गरीब लोग शामिल हो।
  • रूसी समाज दो वर्गां में बँटा था, जो बहुमत वाला दल था वह ‘बोल्शेविक‘ कहलाया और अल्पमतवाला दल ‘मेनशेविक‘ कहलाया।

बोल्शेविक क्रांति

इसी समय लेनिन का उदय हुआ। जार की सरकार ने लेनिन को निर्वासित कर दिया था।
जब रूस में मार्च 1917 की क्रांति हुई, तो वह जर्मनी की सहायता से रूस पहुँचा, तब रूस की जनता का उत्साह बढ़ गया।
लेनिन ने घोषित किया कि रूसी क्रांति पूरी नहीं हुई है। अतः एक दूसरी क्रांति अनिवार्य है।
लेनिन ने तीन नारे दिये- भूमि, शांति और रोटी।
लेनिन ने बल प्रयोग द्वारा केरेन्सकी सरकार को उलट देने का निश्चय किया। सेना और जनता दोनों ने उसका साथ दिया।
7 नवम्बर 1917 को बोल्शेविकों ने पेट्रोग्राद के रेलवे स्टेशन, बैंक, डाकघर, टेलिफोन-केंन्द्र, कचहरी तथा अन्य सरकारी भवनों पर अधिकार कर लिया।
केरेन्सकी रूस छोड़कर भाग गया।
इस प्रकार रूस की महान बोल्शेविक क्रांति ( इसे अक्टुबर क्रांति भी कहते हैं।) सम्पन्न हुई।
सत्ता पर कब्जा करने के पश्चात् लेनिन और बोल्शेविक दल का उत्तरदायित्व और भी बढ़ गया। सत्ता में आने के बाद लेनिन के समक्ष कई जटिल समस्याएँ थीं। परन्तु उसने बहुत हद तक इन समस्याओं का निराकरण करने की कोशिश की। सर्वप्रथम उसने जर्मनी के साथ ब्रेस्टलिटोवस्क की संधि की। इस संधि में सोवियत रूस को लगभग एक चौथाई भू-भाग गवाना पड़ा। परंतु लेनिन प्रथम विश्व युद्ध से बाहर हो गया तथा उसने अब आंतरिक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इसी समय रूस में गृहयुद्ध की समस्या भी उत्पन्न हुई। जिसमें अमेरिका, जापान, ब्रिटेन और फ्रांस ने हस्तक्षेप करते हुए सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया, परन्तु लेनिन ने साहसपूर्वक इन विरोधियों का सामना किया।
ट्रॉटस्की के नेतृत्व में एक विशाल लाल सेना गठित की गई। लाल सेना ने सफलतापूर्वक विदेशी हमले का सामना किया। दूसरी तरफ, आंतरिक विद्रोहों को दबाने के लिए ’चेका’ नामक गुप्त पुलिस संगठन बनाया गया। यह अचानक छापा मार कर विद्राहियों को गिरफ्तार कर लेती थी। इस तरह, लेनिन आंतरिक विद्रोह को दबाने में सफल रहा।

रूसी क्रांति में लेनिन की भूमिका

लेनिन ने एक शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता की स्थापना की। सन् 1918 में विश्व का पहला समाजवादी शासन स्थापित करने वाला देश रूस का नया संविधान बनाया गया। इसके द्वारा रूस का नाम ’सोवियत समाजवादी गणराज्यों का समूह’ के रूप में परिवर्तित किया गया। लेनिन ने नए राज्य में प्रतिनिधि सरकार की व्यवस्था की। राजनैतिक संगठन के सबसे निचले स्तर पर ’सोवियत’ नामक स्थानीय समितियाँ बनाई गयीं। सभी सोवियत के सदस्यों को मिलाकर एक राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया गया, जिसकी कार्यकारिणी शक्ति एक केंद्रीय समिति को सौंपा गया। लेनिन इस समिति का अध्यक्ष था। मंत्रिमंडल के सदस्यों का चुनाव इसी समिति के द्वारा होना निश्चित हुआ।
लेनिन के नये संविधान के द्वारा 18 वर्ष से अधिक उम्रवाले वैसे सभी नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया गया। बैंकों, परिवहन एवं रेलवे का राष्ट्रीयकरण किया गया।
शिक्षा पर से चर्च का अधिकार समाप्त कर उसका भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
इसी तरह लेनिन ने शासन के नियमों में परिवर्तन करने के साथ ही बोल्शेविक दल का नया नाम बदलकर साम्यवादी दल कर दिया और लाल रंग के झंडे पर हँसुए और हथौड़े को सुशोभित कर देश का राष्ट्रीय झंडा तैयार किया गया। उसके बाद से यह झंडा साम्यवाद का प्रतीक बन गया।
अब लेनिन के समक्ष एक अन्य समस्या भूमि के पुनर्वितरण की थी। उसने एक आदेश जारी किया जिसके तहत बड़े भूस्वामियों की भूमि किसानों के बीच पुनर्वितरित किया गया। हालांकि किसानों ने भूमि पर पहले से ही कब्जा जमा रखा था। इस आदेश द्वारा लेनिन ने उसे सिर्फ वैधता प्रदान की। लेनिन के इस कदम की आलोचना हुई क्योंकि समाजवादी अर्थव्यवस्था में भूमि पर राज्य का नियंत्रण होता है।
करोड़ों लोगों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न आ खड़ा हुआ। कहीं-कहीं तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई। राजकीय और विदेशी सहायता के बावजूद काफी लोग भूख और प्यास से मरने लगे। क्रांति विरोधी नारे भी सनाई पड़ने लगे। अतः लेनिन ने अपनी नीति में संशोधन किया जिसका परिणाम था-नई आर्थिक नीति की घोषणा की गई। उसने यह स्पष्ट देखा कि तत्काल पूरी तरह समाजवादी व्यवस्था लागू करना या एक साथ सारी पूँजीवादी दुनिया से टकराना संभव नहीं है, जैसा कि ट्रॉटस्की चाहता था। इसलिए 1921 ई० में उसने एक नई नीति की घोषणा की जिसमें मार्क्सवादी मूल्यों से कुछ हद तक समझौता करना पड़ा। लेकिन वास्तव में पिछले अनुभवों से सीखकर व्यावहारिक कदम उठाना इस नीति का लक्ष्य था।

नई आर्थिक नीति में निम्नांकित प्रमुख बातें थी

किसानों से अनाज ले लेने के स्थान पर एक निश्चित कर लगाया गया। बचा हुआ अनाज किसान का था और वह इसका मनचाहा इस्तेमाल कर सकता था।
यद्यपि यह सिद्धांत कायम रखा गया कि जमीन राज्य की है फिर भी व्यवहार में जमीन किसान की हो गई।
20 से कम कर्मचारियों वाले उद्योगों को व्यक्तिगत रूप से चलाने का अधिकार मिल गया।
उद्योगों का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया। निर्णय और क्रियान्वयन के बारे में विभिन्न इकाइयों को काफी छूट दी गई।
विदेशी पूँजी भी सीमित तौर पर आमंत्रित की गई।
व्यक्तिगत संपत्ति और जीवन की बीमा भी राजकीय ऐजेंसी द्वारा शुरू किया गया।
विभिन्न स्तरों पर बैंक खोले गए।
ट्रेड यूनियन की अनिवार्य सदस्यता समाप्त कर दी गई।

स्टालिन

1924 ई० में जब लेनिन की मृत्यु हुई तो उत्तराधिकार की समस्या खड़ी हुई। विभिन्न समूहों और अलग-अल नेताओं के बीच सत्ता के लिए गंभीर संघर्ष चल रहे थे। इस संघर्ष में स्टालिन की विजय हुई। 1929 ई० में ट्रॉटस्की को निर्वासित कर दिया गया। 1930 के दशक में लगभग वे सभी नेता खत्म कर दिए, जिन्होंने क्रांति में और उसके बाद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजनीतिक लोकतंत्र तथा भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता स्टालिन द्वारा नष्ट हो गयी। पार्टी के अन्दर भी मतभेदों को बर्दाश्त नहीं किया जाता था। स्टालिन कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव था और 1953 ई० में अपनी मृत्यु तक तानाशाही व्यवहार करता रहा।

रूसी क्रांति का प्रभाव

  • इस क्रांति के पश्चात् श्रमिक अथवा सर्वहारा वर्ग की सत्ता रूस में स्थापित हो गई तथा इसने अन्य क्षेत्रों में भी आंदोलन को प्रोत्साहन दिया।
    रूसी क्रांति के बाद विश्व विचारधारा के स्तर पर दो खेमों में विभाजित हो गया। साम्यवादी विश्व एवं पूँजीवादी विश्व । इसके पश्चात् यूरोप भी दो भागों में विभाजित हो गया। पूर्वी यूरोप एवं पश्चिमी यूरोप। धर्मसुधार आंदोलन के पश्चात् और साम्यवादी क्रांति से पहले यूरोप में वैचारिक आधार पर इस तरह का विभाजन नहीं देखा गया था।
    द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् पूँजीवाद विश्व और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध की शुरूआत हुई और आगामी चार दशकों तक दोनों खेमों के बीच शस्त्रों की होड़ चलती रही।
    रूसी क्रांति के पश्चात् आर्थिक आयोजन के रूप में एक नवीन आर्थिक मॉडल आया। आगे पूँजीवादी देशों ने भी परिवर्तित रूप में इस मॉडल को अपना लिया। इस प्रकार स्वयं पूँजीवाद के चरित्र में भी परिवर्तन आ गया।
    इस क्रांति की सफलता ने एशिया और अफ्रीका में उपनिवेश मुक्ति को भी प्रोत्साहन दिया क्योंकि सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार ने एशिया और अफ्रीका के देशों में होने वाले राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक समर्थन प्रदान किया।
  • शीत युद्ध- यह एक वैचारिक युद्ध था जिसमें पूँजीवादी गुट का नेता संयुक्त राज्य अमेरिका तथा साम्यवादी गुट का नेता सोवियत रूस था।

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