इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास का पाठ पंद्रह संविधान का निर्माण (Sanvidhan ka nirman) के सभी टॉपिकों के व्याख्या को पढ़ेंगें, जो परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस पाठ को पढ़ने के बाद इससे संबंधित एक भी प्रश्न नहीं छूटेगा।
15. संविधान का निर्माण
भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है।
यह 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया था।
उथल पुथल का दौर
संविधान निर्माण से पहले के साल बहुत उथल पुथल वाले थे।
यह महान आशाओ का क्षण भी था और भीषण मोहभंग का भी।
15 अगस्त 1947 को भारत देश आजाद हुआ।
लेकिन इसका बंटवारा भी कर दिया गया।
लोगों में 1942 आंदोलन की यादें अभी जीवित थी।
सुभाष चंद्र बोस द्वारा किए गए प्रयास भी लोगों को बखूबी याद थे।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों राजनीतिक दल धार्मिक सौहार्द और सामाजिक सामंजस्य बनाए रखने में असफल हुए।
1946 अगस्त महीने में कलकत्ता में हिंसा शुरू हुई।
यह हिंसा उत्तरी और पूर्वी भारत में लगभग साल भर चलती रही।
कई दंगे फसाद हुए, नरसंहार हुआ।
इसके साथ ही देश का बंटवारे की घोषणा भी हुई।
असंख्य लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने को मजबूर हुए।
आजादी का दिन खुशी का दिन था।
लेकिन इसी समय भारत के बहुत सारे मुसलमानों और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिख के लिए एक निर्मम चुनाव का क्षण था।
लोगों को शरणार्थी बनकर यहां से वहां जाना पड़ा।
मुसलमान पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की तरफ जा रहे थे।
वही हिंदू और सिख पश्चिमी बंगाल व पूर्वी पंजाब की तरफ बढ़े जा रहे थे।
उनमें से बहुत सारे बीच रास्ते में ही मर गए।
देश के सामने एक और गंभीर चुनौती रियासतों को लेकर थी।
ब्रिटिश भारत का लगभग एक तिहाई भूभाग पर रियासते थी।
ऐसे समय में कुछ महाराजा तो बहुत सारे टुकड़ों में बंटे भारत में स्वतंत्र सत्ता का सपना देख रहे थे।
लेकिन वल्लभ भाई पटेल जी ने इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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संविधान सभा का गठन
केबिनेट मिशन योजना द्वारा सुझाए गए प्रस्ताव के अनुसार 1946 में संविधान सभा का गठन हुआ था।
संविधान सभा के कुल सदस्य की संख्या- 389 थी।
ब्रिटिश भारत – 296 सीट
देसी रियासत – 93 सीट
हर प्रांत व देशी रियासतों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें दी जानी थी।
लगभग 1000000 लोगों पर एक सीट आवंटित की गई थी।
संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था।
नई संविधान सभा में कांग्रेस प्रभावशाली थी।
प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने सामान्य चुनाव क्षेत्रों में भारी जीत प्राप्त की।
मुस्लिम लीग ने अधिकतर मुस्लिम सीटों पर जीत प्राप्त की।
लेकिन मुस्लिम लीग ने भारतीय संविधान सभा का बहिष्कार किया।
और अपने लिए अलग संविधान बनाया और पाकिस्तान की मांग जारी रखी।
शुरुआत में समाजवादी भी संविधान सभा से दूर रहे।
क्योंकि वह इसे अंग्रेजों की बनाई हुई संस्था मानते थे।
संविधान सभा में 82% सदस्य कांग्रेस पार्टी के ही सदस्य थे।
कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस के सदस्यों के बीच आपसी मतभेद देखने को मिले।
क्योंकि कई कांग्रेसी समाजवाद से प्रेरित थे।
तो कई अन्य जमीदारों के हिमायती थे।
कुछ सांप्रदायिक दलों के करीब थे।
तो कुछ पक्के धर्मनिरपेक्ष थे।
संविधान सभा में जो भी चर्चाएं होती थी।
वह जनमत से प्रभावित होती थी जब संविधान सभा में बहस होती थी।
तो विभिन्न पक्षों की दलीलें अखबारों में छपी जाती थी।
इन प्रस्तावों पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी।
इस तरह प्रेस में होने वाली इस आलोचना और जवाबी आलोचना से किसी मुद्दे पर बनने वाली सहमति और असहमति पर गहरा असर पड़ता था।
सामूहिक सहभागिता बनाने के लिए जनता के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे।
कई भाषाई अल्पसंख्यक, अपनी मातृभाषा की रक्षा की मांग करते थे।
धार्मिक अल्पसंख्यक, अपने विशेष हित सुरक्षा करवाना चाहते थे।
दलित जाति, शोषण के अंत की मांग कर रही थी।
दलितों ने सरकारी संस्थाओं में आरक्षण की मांग की।
मुख्य आवाज
संविधान सभा में 6 सदस्यों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है
1) जवाहरलाल नेहरू
2) वल्लभभाई पटेल
3) राजेंद्र प्रसाद
4) डॉक्टर भीमराव अंबेडकर
5) के. एम. मुंशी
6) अल्लादी कृष्णास्वामी
7) बी.एन राव
8) एस. एन. मुखरजी
नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया था।
भारत का राष्ट्रीय ध्वज केसरिया, सफेद और गहरे हरे रंग की तीन बराबर चौड़ाई वाली पार्टियों का तिरंगा झंडा होगा।
जिसके बीच में गहरे नीले रंग का चक्र होगा।
वल्लभ भाई पटेल मुख्य रूप से पर्दे के पीछे कई महत्वपूर्ण काम कर रहे थे।
इन्होंने कई रिपोर्ट के प्रारूप लिखने में खास मदद की और परस्पर विरोधी विचारों के बीच सहमति पैदा करने में भूमिका अदा की।
डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर संविधान सभा के सबसे महत्वपूर्ण सदस्यों में से एक थे।
अंबेडकर जी कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी रहे थे।
लेकिन स्वतंत्रता के समय महात्मा गांधी की सलाह पर उन्हें केंद्रीय विधि मंत्री के पद संभालने का न्योता दिया गया था।
उन्हें संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष बनाया गया।
इनके साथ दो अन्य वकील काम कर रहे थे।
गुजरात के के. एम. मुंशी और मद्रास के अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर।
बी. एन. राव (सरकार के संवैधानिक सलाहकार)
एस. एन. मुखर्जी (मुख्य योजनाकार)
अंबेडकर जी के पास सभा में संविधान के प्रारूप को पारित करवाने की जिम्मेदारी थी।
इस काम में कुल मिलाकर 3 वर्ष लगे।
इस दौरान हुई चर्चाओं के मुद्रित रिकॉर्ड 11 खंडों में प्रकाशित हुए।
संविधान की दृष्टि
संविधान सभा की पहले बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई।
मुस्लिम लीग ने इसका बहिष्कार किया था।
डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा को सभा का अस्थाई अध्यक्ष चुना गया।
दूसरी बैठक – 11 दिसंबर 1946
राजेंद्र प्रसाद को सभा का स्थाई अध्यक्ष चुना गया।
तीसरी बैठक- 13 दिसंबर 1946
नेहरू जी ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया।
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उद्देश्य प्रस्ताव
यह एक ऐतिहासिक प्रस्ताव था।
इसमें स्वतंत्र भारत के संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।
इसमें भारत को एक स्वतंत्र, संप्रभु (Sovereign) गणराज्य घोषित किया गया।
नागरिकों को न्याय, समानता व स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया।
इसमें वचन दिया गया की अल्पसंख्यक पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों और दमित तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए रक्षात्मक प्रावधान किए जाएंगे।
लोगों की इच्छा
भारतीय संविधान का उद्देश्य यह होगा कि
लोकतंत्र के उदारवादी विचारों और आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक दूसरे में समावेश किया जाए।
और भारतीय संदर्भ में इन विचारों की रचनात्मक व्याख्या की जाए।
नेहरू ने इस बात पर जोर दिया कि भारत के लिए क्या उचित है।
संविधान सभा के कम्युनिस्ट सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी
सोमनाथ लाहिड़ी को संविधान सभा की चर्चाओं पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्याह साया दिखाई देता था।
इन्होंने संविधान सभा के सदस्यों तथा आम भारतीयों से आग्रह किया कि वह साम्राज्यवादी शासन के प्रभाव से खुद को पूरी तरह आजाद करें।
1946- 47 की सर्दियों में जब संविधान सभा में चर्चा चल रही थी।
तो अंग्रेज अभी भारत में ही थे।
जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार शासन तो चला रही थी।
लेकिन उसे सारा काम वायसराय तथा लंदन में बैठी ब्रिटिश सरकार की देखरेख में करना पड़ता था।
सोमनाथ लाहिड़ी ने अपने साथियों को समझाया कि संविधान सभा अंग्रेजों की बनाई हुई है।
और वह अंग्रेजों की योजना को साकार करने का काम कर रही है।
नेहरू ने इस बात को स्वीकार किया कि ज्यादातर राष्ट्रवादी नेता एक भिन्न प्रकार की संविधान सभा चाहते थे और यह सही भी था कि ब्रिटिश सरकार का उस के गठन में काफी हाथ था।
और उसने सभा के कामकाज पर कुछ शर्ते लगा दी थी।
लेकिन नेहरू ने कहा आपको उस स्रोत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
जहां से इस सभा को शक्ति मिल रही है।
सरकार सरकारी कागजों से नहीं बनती।
सरकार जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती हैं।
हम यहां इसलिए जुटे हैं क्योंकि हमारे पास जनता की ताकत है।
और हम इतनी दूर तक ही जाएंगे जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे।
फिर चाहे वह किसी भी समूह या पार्टी से संबंधित ही क्यों ना हो।
इसलिए हमें भारतीय जनता के दिलों में समाए आकांक्षाओं और भावनाओं को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए और उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
संविधान सभा उन लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन मानी जा रही थी।
जिन लोगों ने स्वतंत्रता के आंदोलन में हिस्सा लिया था।
जब 19वीं शताब्दी में समाज सुधारकों ने बाल विवाह का विरोध किया।
और विधवा विवाह का समर्थन किया तो वे सामाजिक न्याय का ही अलख जगा रहे थे।
जब विवेकानंद ने हिंदू धर्म में सुधार के लिए मुहिम चलाई।
तो वे धर्मों को और ज्यादा न्यायसंगत बनाने का प्रयास कर रहे थे।
जब ज्योतिबा फुले ने दलित जातियों की पीड़ा का सवाल उठाया।
कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट ने मजदूर और किसानों को एकजुट किया।
तो वह भी आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए ही जूझ रहे थे।
एक दमनकारी और अवैध सरकार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन लोकतंत्र व न्याय का नागरिकों के अधिकारों और समानता का संघर्ष ही था।
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पृथक निर्वाचिका
27 अगस्त 1947 को मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने पृथक निर्वाचन के पक्ष में एक भाषण दिया।
इसके बाद बहुत से राष्ट्रवादी भड़क गए थे।
अल्पसंख्यक सब जगह होते हैं उन्हें हम चाह कर भी नहीं हटा सकते।
हमें जरूरत एक ऐसे राजनीतिक ढांचे की है।
जिसके भीतर अल्पसंख्यक भी और लोगों के साथ सद्भाव के साथ जी सके।
और समुदायों के बीच में मतभेद कम से कम हो।
इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक व्यवस्था में अल्पसंख्यक लोगों का पूरा प्रतिनिधित्व हो।
उनकी आवाज सुनी जाए और उनके विचारों पर ध्यान दिया जाए।
देश के शासन में मुसलमानों की एक सार्थक हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए पृथक निर्वाचन के अलावा और कोई रास्ता नहीं हो सकता।
बहादुर को लगता था कि मुसलमानों की जरूरतों को गैर मुसलमान अच्छी तरह नहीं समझ सकते।
ना ही अन्य समुदाय के लोग मुसलमानों का कोई सही प्रतिनिधि चुन सकते हैं।
इस बयान के बाद भड़के हुए राष्ट्रवादियों द्वारा गरमा-गरम बहस चली।
राष्ट्रवादियों का कहना था कि पृथक निर्वाचिका की व्यवस्था लोगों को बांटने के लिए अंग्रेजों की चाल थी।
आर. वी. धुलेकर ने बहादुर को संबोधित करते हुए कहा था।
अंग्रेजों ने संरक्षण के नाम पर अपना खेल खेला।
इसकी आड़ में उन्होंने तुम्हें फुसला लिया।
अब इस आदत को छोड़ दो अब कोई तुम्हें बहकाने वाला नहीं है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि “पृथक निर्वाचिका एक ऐसा विषय है जो हमारे देश की पूरी राजनीति में समा चुका है“
उनके अनुसार यह एक ऐसी मांग थी।
जिसने एक समुदाय को दूसरे समुदाय से भिड़ा दिया।
राष्ट्र के टुकड़े कर दिए, रक्तपात को जन्म दिया और देश के विभाजन का कारण बनी.
पटेल जी ने कहा क्या तुम इस देश में शांति चाहते हो अगर चाहते हो तो इसे फौरन छोड़ दो।
गोविंद वल्लभ पंत ने कहा यह प्रस्ताव न केवल राष्ट्र के लिए, बल्कि अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक है।
वह बहादुर के इस विचार से सहमत थे कि किसी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि समाज के विभिन्न तबकों में वह कितना आत्मविश्वास पैदा कर पाती है।
लेकिन पृथक निर्वाचिका के मुद्दे पर जी. बी. पंत बिल्कुल सहमत नहीं थे।
उनका कहना था कि यह एक आत्मघाती मांग है।
जो अल्पसंख्यकों को स्थाई रूप से अलग-थलग कर देगी।
उन्हें कमजोर बना देगी और शासन में उन्हें प्रभावी हिस्सेदारी नहीं मिल पाएगी“
उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए किसान नेता और समाजवादी विचारों वाले एन.जी. रंगा ने आह्वान किया कि अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर पर की जानी चाहिए।
एन.जी. रंगा की नजर में असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे कुचले लोग हैं।
उन्होंने इस बात का स्वागत किया कि संविधान में हर व्यक्ति को कानूनी अधिकार दिए जा रहे हैं।
लेकिन उन्होंने इसकी सीमाओं को भी चिन्हित किया।
उन्होंने कहा कि जब तक अधिकारों को लागू करने का प्रभावी इंतजाम नहीं किया जाएगा।
तब तक गरीबों के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं है।
अब उनके पास जीने का, पूर्ण रोजगार का अधिकार आ गया है या अब वे सभा कर सकते हैं।
सम्मेलन कर सकते हैं।
संगठन बना सकते हैं।
उनके पास नागरिक स्वतंत्रता हैं।
यह जरूरी था कि ऐसी परिस्थितियां बनाई जाए और जहां संविधान द्वारा किए गए अधिकारों का जनता प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सकें।
रंगा ने कहा कि “उन्हें सहारों की जरूरत है उन्हें एक सीढ़ी चाहिए“
एन.जी.रंगा ने आम जनता और संविधान सभा में उसके प्रतिनिधित्व का दावा करने वालों के बीच मौजूद विशाल खाई की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया।
“हम किस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं अपने देश की आम जनता का और उसके बावजूद हममें से ज्यादातर लोग उस जनता का हिस्सा नहीं है हम उनके हैं।”
उनके लिए काम करना चाहते हैं, लेकिन जनता खुद संविधान सभा तक नहीं पहुंच पा रही है।
इसमें कुछ समय लग सकता है तब तक हम यहां उनके ट्रस्टी हैं।
उनके हिमायती हैं और उनके पक्ष में आवाज उठाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं“
रंगा ने आदिवासियों को भी ऐसे ही समूहों में गिनाया था।
इनमें जयपाल सिंह जैसे जबरदस्त वक्ता भी शामिल थे।
जयपाल सिंह ने उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए कहा
“एक आदिवासी होने के नाते मुझ से यह उम्मीद नहीं की जाती कि मैं इस प्रस्ताव की बारीकियों को समझता होऊंगा।
लेकिन मेरा सहज विवेक कहता है कि हममें से हर एक व्यक्ति को मुक्ति के उस मार्ग पर चलना चाहिए और मिलकर लड़ना चाहिए।
अगर भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह है जिसके साथ सही व्यवहार नहीं किया गया तो वह मेरा समूह है।
मेरे लोगों को पिछले 6000 साल से अपमानित किया जा रहा है।
इनकी उपेक्षा की जा रही है।
मेरे समाज का पूरा इतिहास भारत के गैर मूल निवासियों के हाथों लगातार शोषण और छीना झपटी का इतिहास रहा है।
जिसके बीच में जब-तब विद्रोह और अव्यवस्था भी फैली है।
इसके बावजूद मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों पर विश्वास करता हूं।
मैं आप सबके इस संकल्प का विश्वास करता हूं कि अब हम एक नया अध्याय रचने जा रहे हैं।
स्वतंत्र भारत का एक ऐसा अध्याय जहां सब के पास अवसरों की समानता होगी।
जहां किसी की उपेक्षा नहीं होगी“
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जयपाल सिंह
आदिवासियों की सुरक्षा के लिए तथा उन्हें आम आबादी के स्तर पर लाने के लिए जरूरी परिस्थितियां रचने की आवश्यकता पर सुंदर वक्तव्य दिया
“आदिवासी कबीले संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक नहीं है। लेकिन उन्हें संरक्षण की आवश्यकता है”
उन्हें वहां से बेदखल कर दिया गया जहां वह रहते थे।
उन्हें उनके जंगलों और गांव से वंचित कर दिया गया।
उन्हें नए घरों की तलाश में भागने के लिए मजबूर किया गया।
उन्हें आदिम और पिछड़ा मानते हुए शेष समाज उन्हें हिकारत की नजरों से देखता है।
जयपाल ने आदिवासियों और शेष समाज के बीच मौजूद भावनात्मक और भौतिक फासले को खत्म करने के लिए बड़ा जजबाती बयान दिया।
हमारा कहना है कि आपको हमारे साथ घुलना मिलना चाहिए।
हम आपके साथ मेलजोल चाहते हैं।
जयपाल सिंह पृथक निर्वाचिका के हक में नहीं थे।
लेकिन उनको भी यह लगता था कि विधायिका में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सीटों में आरक्षण की जरूरत है।
उन्होंने कहा कि इस तरह औरों को आदिवासियों की आवाज सुनने और उनके पास आने के लिए मजबूर किया जा सकेगा“
हमें हजारों साल तक दबाया गया है।
संविधान में दलित जातियों के अधिकारों को किस तरह परिभाषित किया जाए।
राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान डॉ भीमराव अंबेडकर जी ने दलित जातियों के पृथक निर्वाचन की मांग की थी।
जिसका महात्मा गांधी ने यह कहते हुए विरोध किया था कि ऐसा करने से यह समुदाय स्थाई रूप से शेष समाज से कट जाएगा।
संविधान सभा इस विवाद को कैसे हल कर सकती थी?
दलित जातियों को किस तरह की सुरक्षा दी जा सकती थी ?
दलित जातियों के कुछ सदस्यों का कहना था.
कि अस्पृश्यों (अछूत) की समस्या को केवल संरक्षण और बचाव के जरिए हल नहीं किया जा सकता।
उनके अपंगता के पीछे जाति में बंटा समाज तथा इस समाज के सामाजिक कायदे कानून और नैतिक मूल्यों मान्यताओं का हाथ है।
समाज ने उनकी सेवा और श्रम का इस्तेमाल किया है। परंतु उन्हें सामाजिक तौर पर खुद से दूर रखा है।
अन्य जातियों के लोग उनके साथ घुलने मिलने से कतराते हैं।
उनके साथ खाना नहीं खाते, उन्होंने मंदिर में नहीं जाने दिया जाता।
मद्रास के सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था
“हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं है”
हमें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया है।
हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी है“
नागप्पा ने कहा कि संख्या की दृष्टि से हरिजन अल्पसंख्यक नहीं है।
आबादी में उनका हिस्सा 20 से 25% है।
उनकी पीड़ा का कारण यह है कि उन्हें बाकायदा समाज व राजनीति के हाशिए पर रखा गया है।
उसका कारण उनकी संख्यात्मक महत्वहीनता नहीं है।
उनके पास ना तो शिक्षा तक पहुंची थी।
ना ही शासन में हिस्सेदारी।
सवर्ण बहुमत वाली संविधान सभा को संबोधित करते हुए।
मध्य प्रांत के श्री के. जी. खंडेल करने कहा था।
“ हमें हजारों साल तक दबाया गया है ,,,, दबाया गया,,,,,
इस हद तक दबाया कि हमारे दिमाग हमारी देह काम नहीं करती।
और अब हमारा हृदय भी भावशून्य हो चुका है।
ना ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं यह हमारी स्थिति है “
बंटवारे की हिंसा के बाद अंबेडकर तक ने पृथक निर्वाचन की मांग छोड़ दी थी।
संविधान सभा ने अंततः यह सुझाव दिया कि अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए।
हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए।
निचली जातियों को विधायिका और सरकारी नौकरी में आरक्षण दिया जाए।
बहुत सारे लोगों का मानना था कि इससे भी समस्या हल नहीं हो पाएगी।
सामाजिक भेदभाव को केवल संवैधानिक कानून पारित करके खत्म नहीं किया जा सकता।
समाज की सोच बदलनी होगी।
परंतु लोकतांत्रिक जनता ने इस प्रावधानों का स्वागत किया।
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राज्य की शक्तियां
संविधान सभा में इस बात पर काफी बहस हुई थी।
कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार के क्या अधिकार होने चाहिए ?
दोनों में से किसे अधिक शक्ति मिलनी चाहिए।
जवाहरलाल नेहरू शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे।
उन्होंने संविधान सभा के अध्यक्ष के नाम लिखे पत्र में कहा था।
अब जबकि विभाजन एक हकीकत बन चुका है।
एक दुर्बल केंद्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी।
क्योंकि ऐसा केंद्र शांति स्थापित करने में।
आम सरोकारों के बीच समन्वय स्थापित करने में
और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए आवाज उठाने में सक्षम नहीं होगा।
संविधान के मसविदे ( draft ) में तीन सूची बनाई गई।
1) केंद्रीय सूची ( संघ सूची )
2) राज्य सूची
3) समवर्ती सूची
( केंद्र सूची)- केवल केंद्र सरकार के अधीन आने वाले मामले।
( राज्य सूची)- केवल राज्य सरकार के अंतर्गत आने वाले मामले।
( समवर्ती सूची)- केंद्र और राज्य दोनों की साझा जिम्मेदारी।
खनिज पदार्थ तथा प्रमुख उद्योगों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण दिया गया।
अनुच्छेद 356 में गवर्नर की सिफारिश पर।
केंद्र सरकार को राज्य सरकार के सारे अधिकार अपने हाथ में लेने का अधिकार दे दिया।
केंद्र बिखर जाएगा
मद्रास के सदस्य के सन्तनम ने।
राज्यों के अधिकारों की हिमायत की।
उन्होंने कहा कि न केवल राज्यों को।
बल्कि केंद्र को मजबूत बनाने के लिए शक्तियों का पुनर्वितरण जरूरी है।
यह दलील एक जिद सी बन गई है।
कि तमाम शक्तियां केंद्र को सौंप देने से वह मजबूत हो जाएगा।
सन्तनम ने कहा कि यह गलतफहमी है।
अगर केंद्र के बाद जरूरत से ज्यादा जिम्मेदारी होगी।
तो वह प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा।
उसके कुछ दायित्व में कमी करने से।
और उन्हें राज्यों को सौंप देने से केंद्र ज्यादा मजबूत हो सकता है।
सन्तनम का मानना था की शक्तियों का मौजूदा वितरण उन को कमजोर बना देगा।
राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर देगा।
क्योंकि भू राजस्व के अलावा अधिकतर टैक्स केंद्र सरकार के अधिकार में दे दिए गए हैं।
यदि पैसा ही नहीं होगा तो राज्यों में विकास परियोजना कैसे चलेगी।
मैं ऐसा संविधान नहीं चाहता।
जिसमें इकाई को आकर केंद्र से यह कहना पड़े।
कि मैं अपने लोगों की शिक्षा व्यवस्था नहीं कर सकता।
मैं उन्हें साफ सफाई नहीं दे सकता।
मुझे सड़कों में सुधार तथा उद्योग की स्थापना के लिए खैरात दे दीजिए।
बेहतर होगा कि हम संघीय व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर दें।
और एकल व्यवस्था स्थापित करें।
सन्तनम ने यह भी कहा कि अगर अधिक जांच पड़ताल किए बिना।
शक्तियों का वितरण लागू कर दिया गया।
तो हमारा भविष्य अंधकार में पड़ जाएगा।
कुछ ही सालों में सारे प्रांत, केंद्र के विरुद्ध खड़े हो जाएंगे।
उन्होंने इस बात के लिए जमकर जोर लगाया।
कि समवर्ती सूची और केंद्रीय सूची में कम से कम विषय को रखा जाए.
उड़ीसा के एक सदस्य ने यहां तक चेतावनी दे डाली.
कि संविधान में शक्तियों का बेहिसाब विकेंद्रीकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा “
आज हमें एक शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता है “
राज्यों के लिए अधिक शक्तियों की मांग से सभा में तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगी थी.
शक्तिशाली केंद्र के जरूरत को असंख्य अवसरों पर रेखांकित किया जा चुका था.
अंबेडकर जी ने घोषणा की थी.
कि वह एक शक्तिशाली और एकीकृत केंद्र चाहते हैं.
1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केंद्र बनाया था.
उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केंद्र.
सड़कों पर हो रही हिंसा के कारण देश टुकड़े-टुकड़े हो रहा था.
उस का हवाला देते हुए बहुत सारे सदस्यों ने बार-बार यह कहा.
कि केंद्र की शक्तियों में भारी इजाफा होना चाहिए.
ताकि वह सांप्रदायिक हिंसा को रोक सके.
प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की मांग का जवाब देते हुए.
गोपाल स्वामी अय्यर ने जोर देकर कहा.
केंद्र ज्यादा से ज्यादा मजबूत होना चाहिए.
बालकृष्णा शर्मा ने विस्तार से इस बात पर प्रकाश डाला.
कि शक्तिशाली केंद्र का होना जरूरी है.
ताकि वह देश के हित में योजना बना सके.
उपलब्ध आर्थिक संसाधन जुटा सके.
उचित शासन व्यवस्था स्थापित कर सके.
देश को विदेशी आक्रमण से बचा सके.
देश के बंटवारे से पहले कांग्रेस ने प्रांतों को काफी स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति जता दी थी।
कुछ हद तक मुस्लिम लीग को इस बात का भरोसा दिलाने की कोशिश की थी।
कि जिन प्रांतों में मुस्लिम लीग की सरकार बनी है।
वहां दखलंदाजी नहीं की जाएगी।
लेकिन बंटवारे को देखने के बाद ज्यादातर राष्ट्रवादियों की राय बदल चुकी थी।
उनका कहना था कि आप एक विकेंद्रीकृत संरचना के लिए पहले जैसे राजनीतिक दबाव नहीं बचे।
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राष्ट्र की भाषा
रत देश में अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोग रहते हैं।
उनकी सांस्कृतिक विरासत अलग है।
ऐसे में राष्ट्र निर्माण कैसे किया जा सकता है ?
कैसे लोग एक दूसरे की बातें सुन सकते हैं या एक दूसरे से जुड़ सकते हैं।
जबकि वे एक दूसरे की भाषा भी नहीं समझते।
संविधान सभा में भाषा के मुद्दे पर कई महीनों तक तीखी बहस हुई।
और कई बार तनातनी पैदा हो गई।
सवाल यही था कि राष्ट्रभाषा किसे बनाएं ?
तीस के दशक तक कांग्रेस ने यह मान लिया था।
कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए.।
महात्मा गांधी का मानना था कि हर एक को एक ऐसी भाषा बोलने चाहिए।
जिसे लोग आसानी से समझ सके।
हिंदी और उर्दू के मेल से बनी हिंदुस्तानी।
भारतीय जनता के बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी।
यह विविध संस्कृतियों का आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।
जैसे जैसे समय बीता।
बहुत तरह के स्रोतों से नए नए शब्द और अर्थ इसमें जुड़ते गए।
और उसे विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोग समझने लगे।
महात्मा गांधी को ऐसा लगता था कि यह बहुत सांस्कृतिक भाषा।
विभिन्न समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा हो सकती है।
वह हिंदू और मुसलमानों को उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है।
लेकिन 19वीं सदी में माहौल बदलने लगा।
जैसे जैसे सांप्रदायिक टकराव गहरे होते जा रहे थे।
हिंदी और उर्दू एक दूसरे से दूर जा रही थी।
एक तरफ तो फारसी और अरबी मूल के सारे शब्दों को हटाकर हिंदी को संस्कृतनिस्ठ बनाने की कोशिश की जा रही थी।
दूसरी तरफ उर्दू लगातार फारसी के नजदीक होती जा रही थी।
नतीजा यह हुआ कि भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई।
लेकिन हिंदुस्तानी के साझा चरित्र में महात्मा गांधी की आस्था कम नहीं हुई।
हिंदी की हिमायत
संविधान सभा के शुरुआती सत्र में संयुक्त प्रांत के कांग्रेसी सदस्य आर. वी. धूलेकर ने इस बात के लिए पुरजोर शब्दों में आवाज उठाई।
कि हिंदी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाए।
जब किसी ने कहा कि सभी सदस्य हिंदी नहीं समझते।
तो धूलेकर ने पलटकर कहा, इस सदन में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे और हिंदुस्तानी नहीं जानते।
वे इस सभा की सदस्यता के योग्य नहीं है, उन्हें चले जाना चाहिए।
जब इन टिप्पणियों के कारण सभा में हंगामा खड़ा हुआ।
तो धूलेकर हिंदी में अपना भाषण देते रहे।
नेहरू के हस्तक्षेप के चलते आखिरकार सदन में शांति बहाल हुई।
भाषा का सवाल अगले 3 साल तक बार-बार कार्रवाइयों में बाधा डालता रहा।
करीबन 3 साल बाद 12 सितंबर 1947 को राष्ट्र की भाषा के सवाल पर धूलेकर के भाषण ने एक बार फिर तूफान खड़ा कर दिया।
तब तक संविधान सभा की भाषा समिति अपनी रिपोर्ट पेश कर चुकी थी।
समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिंदी के समर्थकों और विरोधियों के बीच पैदा हो गए गतिरोध को तोड़ने के लिए फार्मूला निकाला।
समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी भारत की राजकीय भाषा होगी।
परंतु इस फार्मूले को समिति ने घोषित नहीं किया था।
समिति का मानना था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए।
पहले 15 साल तक सरकारी कामों में अंग्रेजी का इस्तेमाल जारी रहेगा।
प्रत्येक प्रांत को अपने कामों के लिए कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।
संविधान सभा की भाषा समिति ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावनाओं को शांत करने और सर्व स्वीकृत समाधान पेश करने का प्रयास किया।
धूलेकर बीच-बचाव की ऐसी मुद्रा से राजी होने वाले नहीं थे।
वे चाहते थे कि हिंदी को राजभाषा नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा बनाया जाए।
उन्होंने ऐसे लोगों की आलोचना की जिन्हें लगता था हिंदी को उन पर थोपा जा रहा है।
धूलेकर ने ऐसे लोगों का मजाक उड़ाया।
“जो महात्मा गांधी का नाम लेकर
हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं “।
Class 12th History Chapter 15 Sanvidhan ka nirman Notes
वर्चस्व का भय
धूलेकर के बोलने के बाद मद्रास की सदस्य श्रीमती जी. दुर्गाबाई ने इस चर्चा पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा।
अध्यक्ष महोदय,
अभी हाल तक भारत की राष्ट्रीय भाषा का जो सवाल लगभग सहमति तक पहुंच गया था।
अचानक बेहद विवादास्पद मुद्दा बन गया है चाहे यह सही हुआ हो या गलत।
गैर- हिंदी भाषी इलाकों के लोगों को यह एहसास कराया जा रहा है।
कि यह झगड़ा, या हिंदी भाषी इलाकों का यह रवैया।
असल में इस राष्ट्र की साँझा संस्कृति पर, भारत के अन्य शक्तिशाली भाषाओं के स्वाभाविक प्रभाव को रोकने की लड़ाई है।
दुर्गा बाई ने सदन को बताया कि दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध बहुत ज्यादा है।
विरोधियों का मानना है कि हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़े खोजने का प्रयास है।
इसके बावजूद बहुत सारे अन्य सदस्यों के साथ-साथ उन्होंने भी महात्मा गांधी की बातो का पालन किया।
और दक्षिण में हिंदी का प्रचार जारी रखा, विरोध का सामना भी करना पड़ा ।
हिंदी के स्कूल खोले और कक्षाएं चलाई।
अब इस सब का क्या नतीजा निकलता है ?
दुर्गा बाई ने पूछा सदी के शुरुआती सालों में हमने जिस उत्साह से हिंदी को अपनाया था।
मैं उसके विरुद्ध यह आक्रामकता देख कर सकते में हूं।
दुर्गाबाई हिंदुस्तानी को जनता की भाषा स्वीकार कर चुके थे।
मगर अब उस भाषा को बदला जा रहा था ।
उर्दू तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को से निकाला जा रहा था।
उनका मानना था कि हिंदुस्तानी के समावेशी और साँझा स्वरूप को कमजोर करने वाले किसी भी कदम से विभिन्न भाषा ही समूहों के बीच बेचैनी और भय पैदा होना निश्चित है।
जैसे-जैसे चर्चा तीखी होती गई।
बहुत सारे सदस्यों ने सहयोग और सम्मान की भावना का आह्वान किया।
मुंबई के सदस्य श्री शंकरराव देव ने कहा कि कांग्रेस तथा महात्मा गांधी का अनुयाई होने के नाते हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर चुके हैं।
मद्रास के श्री टी. ए . रामलिंगम चेटीआर ने इस बात पर जोर दिया।
जो कुछ भी किया जाए एहतियात के साथ किया जाए।
यदि आक्रामक होकर काम किया गया तो हिंदी का कोई भला नहीं हो पाएगा। Class 12th History Chapter 15 Sanvidhan ka nirman Notes
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