Mandakini Varnanam VVI Subjective Questions – संस्‍कृत कक्षा 10 मंदाकिनीवर्णनम्

Mandakini Varnanam VVI Subjective Questions

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 10 संस्‍कृत के पाठ दस मंदाकिनीवर्णनम् (Mandakini Varnanam VVI Subjective Questions)’ के महत्‍वपूर्ण विषयनिष्‍ठ प्रश्‍नों के उत्तर को पढ़ेंगे।

Mandakini Varnanam VVI Subjective Questions

Class 10th Sanskrit Chapter 10 Mandakini Varnanam VVI Subjective Questions मंदाकिनीवर्णनम्
लेखक – महर्षि बाल्‍मीकि

लघु-उत्तरीय प्रश्‍नोत्तर (20-30 शब्‍दों में) ____दो अंक स्‍तरीय
1. मंदाकिनी का वर्णन करने में ‘राम’ सीता को किन-किन रूपों में संबोधित करते हैं?
उत्तर- ‘परमपावनी’ गंगा’ की शोभा से वशीभूत (वश मे होना) ‘राम’ सीता को इसकी सुन्दरता का निरीक्षण करने के लिए अपने भाव प्रकट करते हैं; हे सीते ! प्रिये ! विशालाक्षि ! शोभने । आदि संबोधन से संबोधित करते हैं।

2. मनुष्य को प्रकृति से क्यों लगाव रखना चाहिए?
उत्तर- प्रकृति ही मनुष्य को पालती है, अतएव प्रकृति को शुद्ध होना चाहिए। यहाँ महर्षि वाल्मीकि प्रकृति के यथार्थ रूप का वर्णन करके मनुष्य को लगाव रखने का संदेश देते हैं। इससे हमारा जीवन सुखमय एवं आनंदमय होगा।

3. मंदाकिनीवर्णनम् से हमें क्या संदेश मिलता है?
उत्तर- मंदाकिनीवर्णनम् महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के अयोध्याकांड के 95 सर्ग से संकलित है। इससे हमें यह संदेश मिलता है कि प्रकृति हमारे चित्त को हर लेती है तथा इससे पर्यावरण सुरक्षित रहता है। प्रकृति की शुद्धता के प्रति हमें हमेशा ध्यान देना चाहिए।

4. मन्दाकिनी वर्णनम् पाठ का पाँच वाक्यों में परिचय दें। अथवा, ‘मन्दाकिनी’ का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर- वाल्मीकीय रामायण के अयोध्याकाण्ड की सर्ग संख्या-95 से संकलित इस पाठ में चित्रकूट के निकट बहने वाली मन्दाकिनी नामक छोटी नदी का वर्णन है। इस पाठ में आदिकवि वाल्मीकि की काव्यशैली तथा वर्णन क्षमता अभिव्यक्त हुई है। वनवास काल में जब राम, सीता और लक्ष्मण एक साथ चित्रकूट जाते हैं, तब मंदाकिनी की प्राकृतिक सुंदरता से प्रभावित हो जाते है। वे सीता से कहते हैं कि यह नदी प्राकृतिक  संपदाओं से घिरी होने के कारण मन को आकर्षित कर रही है। यह नदी रंग-बिरंगी छटा वाली और हंसों द्वारा सुशोभित है। ऋषिगण इसके निर्मल जल में स्नान कर रहे हैं। श्रीराम सीता को मन्दाकिनी का वर्णन सुनाते है ।

5. श्रीराम के प्रकृति सौंदर्य बोध पर अपना विचार लिखें। (2020A І)
उत्तर- वनवास काल में जब राम, सीता और लक्ष्मण एक साथ चित्रकूट जाते हैं, तब श्रीराम मंदाकिनी की प्राकृतिक सुंदरता से प्रभावित हो जाते है। वे सीता से कहते हैं कि यह नदी प्राकृतिक  संपदाओं से घिरी होने के कारण मन को आकर्षित कर रही है। यह नदी रंग-बिरंगी तटों वाली और हंसों द्वारा सुशोभित है। ऋषिगण इसके निर्मल जल में स्नान कर रहे हैं। श्रीराम सीता को मन्दाकिनी का वर्णन सुनाते है।

संस्कृत कक्षा 10 स्वामी दयानन्दः – Swami Dyanand Class 10 Sanskrit

पाठ परिचय- उन्नसवीं शताब्दी ईस्वी में महान समाजसुधारकों में स्वामी दयानन्द बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने रूढ़िग्रस्त समाज और विकृत धार्मिक व्यवस्था पर कठोर प्रहार करके आर्य समाज की स्थापना की जिसकी शाखाएँ देश-विदेश में शिक्षाव्यवस्था में गुरुकुल पद्धति का पुनरुद्धार करते हुए इन्होंने आधुनिक शिक्षा के लिए डी० ए० वी० विद्यालय जैसी संस्थाओं की स्थापना को प्रेरित किया था। इनका जीवनचरित प्रस्तुत पाठ में संक्षिप्त रूप से दिया गया है।

Swami Dyanand Class 10 Sanskrit

Swami Dyanand Class 10 Sanskrit Chapter 9 स्वामी दयानन्दः

आधुनिकभारते समाजस्य शिक्षायाश्च महान् उद्धारकः स्वामी दयानन्दः। आर्यसमाजनामकसंस्थायाः संस्थापनेन एतस्य प्रभूतं योगदानं भारतीयसमाजे गृह्यते। भारतवर्षे राष्ट्रीयतायाः बोधोऽपि अस्य कार्यविशेषः।
आधुनिक भारत में समाज और शिक्षा के महान उद्धारक स्वामी दयानन्द हैं। आर्यसमाज नामक संस्था की स्थापना करने में इनका बहुत बड़ा योगदान भारतीय समाज में लिया जाता है। भारत वर्ष में राष्ट्रीयता का ज्ञान कराना भी इनका कार्य-विशेष माना जाता है।
समाजे अनेकाः दूषिताः प्रथा खण्डयित्वा शुद्धतत्त्वज्ञानस्य प्रचारं दयानन्दः अकरोत्। अयं पाठः स्वामिनो दयानन्दस्य परिचयं तस्य समाजोद्धरणे योगदानं च निरूपयति।
समाज में अनेक दूषित प्रथाओं को खण्डित कर वास्तविकता का ज्ञान का प्रचार दयानन्द ने किया। यह पाठ स्वामी दयानन्द के परिचय और समाज उद्धार में उनका योगदान को स्पष्ट किया है।

Swami Dyanand Class 10 Sanskrit Chapter 9 स्वामी दयानन्दः

मध्यकाले नाना कुत्सितरीतयः भारतीयं समाजम् अदूषयन्। जातिवादकृतं वैषम्यम्, अस्पृश्यता, धर्मकार्येषु आडम्बरः, स्त्रीणामशिक्षा, विधवानां गर्हिता स्थितिः, शिक्षायाः अव्यापकता इत्यादयः दोषाः प्राचीनसमाजे आसन्। अतः अनेके दलिताः हिन्दुसमाजं तिरस्कृत्य धर्मान्तरणं स्वीकृतवन्तः।
मध्य काल में अनेक गलत रीति-रिवाजों से भारतीय समाज दूषित हो गया था। जातिवाद से किया गया विषमता, छुआ-छूत, धर्म कार्यों में आडम्बर, स्त्रियों की अशिक्षा, विधवाओं की निन्दनीय स्थिति, शिक्षा की कमी इत्यादि अनेक दोष समाज में थे। अतः अनेक दलित हिन्दू समाज अपमानित होकर धर्म परिवर्तन करना स्वीकार लिया।
एतादृशे विषमे काले ऊनविंशशतके केचन धर्मोद्धारकाः सत्यान्वेषिणः समाजस्य वैषम्यनिवारकाः भारते वर्षे प्रादुरभवन्। तेषु नूनं स्वामी दयानन्दः विचाराणां व्यापकत्वात् समाजोद्धरणस्य संकल्पाच्च शिखर-स्थानीयः।
इस प्रकार के विषम समय में उन्नसवीं सदी में कुछ धर्म उद्धारक, सत्य की खोज करने वाले तथा समाज की विषमता को दूर करने वाले भारतवर्ष में उत्पन्न हुए। उनमें अवश्य स्वामी दयानन्द के विचारों का व्यापक प्रभाव तथा समाज-उद्धार के संकल्प से उनका स्थान सर्वोच्च है।
स्वामिनः जन्म गुजरातप्रदेशस्य टंकरानामके ग्रामे 1824 ईस्वी वर्षेऽभूत्। बालकस्य नाम मूलशंकरः इति कृतम्। संस्कृतशिक्षया एवाध्ययनस्यास्य प्रारम्भो जातः। कर्मकाण्डिपरिवारे तादृश्येव व्यवस्था तदानीमासीत्। शिवोपासके परिवारे मूलशंकरस्य कृते शिवरात्रिमहापर्व उद्बोधकं जातम्।
स्वामी जी का जन्म गुजरात प्रदेश के ‘टंकरा‘ नामक गाँव में 1824 ई0 हुआ था। बालक का नाम ‘मूलशंकर‘ रखा गया। संस्कृत शिक्षा से ही अध्ययन प्राप्त हुआ। उस समय कर्मकाण्डी परिवार में एसी ही व्यवस्था थी। शिव के उपासक परिवार में शिवरात्रि महापर्व मूलशंकर के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ।
रात्रिजागरणकाले मूलशंकरेण दृष्टं यत् शंकरस्य विग्रहमारुह्य मूषकाः विग्रहार्पितानि द्रव्याणि भक्षयन्ति। मूलशंकरोऽचिन्तयत् यत् विग्रहोऽयमकिंचित्करः। वस्तुतः देवः प्रतिमायां नास्ति। रात्रिजागरणं विहाय मूलशंकरः गृहं गतः। ततः एव मूलशंकरस्य मूर्तिपूजां प्रति अनास्था जाता। वर्षद्वयाभ्यन्तरे एव तस्य प्रियायाः स्वसुर्निधनं जातम्।
रात्री जागरण के समय मूलशंकर द्वारा देखा गया कि शिव की मूर्ति पर चढ़ाए गए प्रसाद को चूहा खा रहा है। मूलशंकर ने सोचा कि यह मूर्ति कुछ भी करने वाला नहीं है। वास्तव में देवता प्रतिमा में नहीं है। रात्री जागरण छोड़कर मूलशंकर घर चला गया। उसी समय से मूलशंकर के हृदय में मूर्ति पूजा के प्रति आस्था खत्म हो गया। दो वर्ष के अंदर ही उनके प्रिय बहन का निधन हो गया।
ततः मूलशंकरे वेराग्यभावः समागतः। गृहं परित्यज्य विभिन्नानां विदुषां सतां साधूनांच संगतौ रममाणोऽसौ मथुरायां विरजानन्दस्य प्रज्ञाचक्षुषः विदुषः समीपमगमत्। तस्मात् आर्षग्रन्थानामध्ययनं प्रारभत।
इसके बाद मूलशंकर में वैराग्य भाव आ गया। घर त्यागकर विभिन्न विद्वानों , सज्जनों और साधुओं की संगति में घूमते हुए वे मथुरा में विरजानन्द नामक अन्धा विद्वान के पास गये। उनसे वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। 
विरजानन्दस्य उपदेशात् वैदिकधर्मस्य प्रचारे सत्यस्य प्रचारे च स्वजीवनमसावर्पितवान्। यत्र-तत्र धर्माडम्बराणां खण्डनमपि च चकार। अनेके पण्डिताः तेन पराजिताः तस्य मते च दीक्षिताः।
विरजानन्द के उपदेश से उपदेशित होकर वेदिक धर्म और सत्य के प्रसार में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। जहाँ-तहाँ धर्म-आडम्बर का खण्डन भी उन्होने किया। अनेक पंडितों ने उनसे पराजित होकर उनके मत में दीक्षा प्राप्त की।
स्त्रीशिक्षायाः विधवाविवाहस्य मूर्तिपूजाखण्डनस्य अस्पृश्यतायाः बालविवाहस्य च निवारणस्य तेन महान् प्रयासः विभिनैः समाजोद्धारकैः सह कृतः। स्वसिद्धान्तानां संकलनाय सत्यार्थप्रकाशनामकं ग्रन्थं राष्ट्रभाषायां विरच्य स्वानुयायिनां स महान्तमुपकारं चकार।
स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह, मूर्ति-पूजा खण्डन, छुआ-छूत और बाल-विवाह निवारण का महान प्रयास उनके द्वारा विभिन्न समाज उद्धारको के साथ किया गया। अपने सिद्धांत का संकलन करने के लिए ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ नामक ग्रन्थ को हिन्दी भाषा में रचना कर अपने अनुयायी लोगों का बहुत बड़ा उपकार किया।
किंच वेदान् प्रति सर्वेषां धर्मानुयायिनां ध्यानमाकर्षयन् स्वयं वेदभाष्याणि संस्कृतहिन्दीभाषयोः रचितवान्। प्राचीनशिक्षायां दोषान् दर्शयित्वा नवीनां शिक्षा पद्धतिमसावदर्शत्। स्वसिद्धान्तानां कार्यान्वयनाय 1875 ईस्वी वर्षे मुम्बईनगरे आर्यसमाजसंस्थायाः स्थापनां कृत्वा अनुयायिनां कृते मूर्त्तरूपेण समाजस्य संशोधनोद्देश्यं प्रकटितवान्।
वेदों के प्रति अनुयायियों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वेद का भाषा संस्कृत-हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखा। 1875 ई0 में अपने सिद्धांत के प्रचार-प्रसार के लिए मुम्बई में आर्य-समाज की स्थापना करके अनुयायियों के समक्ष उद्देश्य प्रकट किया।
सम्प्रति आर्यसमाजस्य शाखाः प्रशाखाश्च देशे विदेशेषु च प्रायेण प्रतिनगरं वर्तन्ते। सर्वत्र समाजदूषणानि शिक्षामलानि च शोधयन्ति। शिक्षापद्धतौ गुरुकुलानां डी॰ ए॰ वी॰ (दयानन्द एंग्लो वैदिक) विद्यालयानांच समूहः स्वामिनो दयानन्दस्य मृत्योः (1883 ईस्वी) अनन्तरं प्रारब्धः तदनूयायिभिः।
वर्तमान समय में आर्यसमाज की शाखा-प्रशाखा देश तथा विदेशों के प्रायः सभी नगरों में विद्यमान है। सब जगह समाज में स्थित दोषों और गंदगियों को शुद्ध कर रहा है। शिक्षा पद्धति में गुरूकुलों का डी0 ए0 वी0 (दयानन्द-एंग्लो-वैदिक) विद्यालयों का समुह स्वामी दयानन्द की मृत्यु 1883 ई0 के बाद अनके अनुयायियों के द्वारा प्रारंभ किया गया।
वर्तमानशिक्षापद्धतौ समाजस्य प्रवर्तने च दयानन्दस्य आर्यसमाजस्य च योगदानं सदा स्मरणीमस्ति।
वर्तमान शिक्षा पद्धति में और समाज के परिवर्त्तन में दयानन्द और आर्य समाज का योगदान सदा स्मरणीय है।

संस्कृत कक्षा 10 कर्मवीर कथा ( कर्मवीर की कहानी ) – Karamveer Katha

karamveer katha

पाठ परिचय- इस पाठ में एक पुरूषार्थी की कथा है जो निर्धनता एवं दलित जाति में जन्म जैसे विपरित परिवेश में भी रहकर प्रबल इच्छाशक्ति तथा उन्नति की तीव्र कामना के कारण उच्चपद पर पहुँचता है। यह कथा किशोरों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान उत्पन्न करती है, विजय के रथ को प्रशस्त करती है। ऐसे कर्मवीर हमारे आदर्श हैं।karamveer katha

8. कर्मवीर कथा (कर्मवीर की कहानी)
कर्मवीर- परिश्रमी, कर्तव्य में वीर, कर्मवान
Class 10th Sanskrit chapter 8 Karamveer Katha

(पाठेऽस्मिन् समाजे दलितस्य ग्रामवासिनः पुरुषस्य कथा वर्तते। कर्मवीरः असौ निजोत्साहेन विद्यां प्राप्य महत्पदं लभते, समाजे च सर्वत्र सत्कृतो भवति। कथाया मूल्यं वर्तते यत् निराशो न स्यात्, उत्साहेन सर्वं कर्तुं प्रभवेत्।)
( इस पाठ में समाज में दलित ग्रामवासी पुरूष की कहानी है। कर्मवीर लोग अपने उत्साह से विद्या को पाकर बहुत बड़ा पद को प्राप्त करते हैं। समाज में सब जगह उनका सत्कार होता है। कथा का वास्तविकता है कि मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए। उत्साह से सभी कामों में लगना चाहिए।)
अस्ति बिहारराज्यस्य दुर्गमप्राये प्रान्तरे ‘भीखनटोला‘ नाम ग्रामः। निवसन्ति स्म तत्रातिनिर्धनाः शिक्षाविहीनाः क्लिष्टजीवनाः जनाः। तेष्वेवान्यतमस्य जनस्य परिवारो ग्रामाद् बहिःस्थितायां कुट्यां न्यवसत्। कुटी तु जीर्णप्रायत्वात् परिवारजनान् आतपमात्राद् रक्षति, न वृष्टेः।
बिहार राज्य के दुर्गम क्षेत्र में भीखनटोला नामक एक गाँव है। वहाँ बहुत गरीब शिक्षाविहीन, कठिनाई से जीवन जीने वाले लोग निवास करते थे। उन सबों में एक व्यक्ति का परिवार गाँव से बाहर से स्थित कुटियॉ में निवास करता था। झोपड़ी टुटी जैसी थी जो परिवार वालों को केवल धुप से बचाती थी, वर्षा से नहीं।
परिवारे स्वयं गृहस्वामी, तस्य भार्या तयोरेकः कनीयसी दुहिता चेत्यासन्। तस्माद् ग्रामात् क्रोशमात्रदूरं प्राथमिको विद्यालयः प्रशासनेन संस्थापितः। तत्रैको नवीनदृष्टिसम्पन्नः सामाजिकसामरस्यरसिकः शिक्षकः समागतः। भीखनटोलां द्रष्टुमागतः स कदाचित् खेलनरतं दलितबालकं विलोक्य तस्यापातरमणीयेन स्वभावेनाभिभूतः।
परिवार में स्वयं घर का मालिक, उसकी पत्नी, उसका पुत्र और छोटी बेटी थी। उस गाँव से मात्र एक कोश दुरी पर प्राथमिक विद्यालय सरकार द्वारा स्थापित की गई। वहाँ एक नवीन विचार वाले सामाजिक समरसता के पक्षधर शिक्षक भीखनटोला देखने आए उस शिक्षक ने खेल में मग्न एक प्रमिभासम्पन्न दलित बालक को देखकर प्रभावित हो गए।
शिक्षकं बालकमेनं स्वविद्यालयमानीय स्वयं शिक्षितुमारभत। बालकोऽपि तस्य शिक्षणशैल्याकृष्टः शिक्षाकर्म जीवनस्य परमा गतिरिति मन्यमानो निरन्तरमध्यवसायेन विद्याधिगमाय निरतोऽभवत्। क्रमशः उच्चविद्यालयं गतस्तस्यैव शिक्षकस्याध्यापनेन स्वाध्यवसायेन च प्राथम्यं प्राप।
शिक्षक ने उस बालक को विद्यालय में लाकर पढ़ाना शुरू कर दिए। बालक भी उनकी पढ़ाई से प्रसन्न होकर शिक्षा को जीवन का असली धन मानकर परिश्रमपूर्वक अध्ययन करने लगा। इस प्रकार उच्च विद्यालय में जाने पर शिक्षक के सहयोग तथा अपने परिश्रम के बल पर परीक्षा मे प्रथम स्थान प्राप्त किया।
‘छात्राणामध्ययनं तपः‘ इति भूयोभूयः स्वविद्यागुरुणोपदिष्टोऽसौ बालकः पित्रोरर्थाभावेऽपि छात्रवृŸया कनीयश्छात्राणां शिक्षणलब्धेन धनेन च नगरगते महाविद्यालये प्रवेशमलभत। तत्रापि गुरूणां प्रियः सन् सततं पुस्तकालये स्ववर्गे च सदावहितचेतसा अकृतकालक्षेपः स्वाध्यायनिरतोऽभूत्।
पढ़ाई या शिक्षा की प्राप्ति तपस्या है। अपने गुरू से बार-बार उपदेश प्राप्त करने के फलस्वरूप पिता की निर्धनता के बावजूद छात्रवृति के सहारे माध्यमिक परीक्षा के बाद नगर के महाविद्यालय में नामांकन कराया। वहाँ भी शिक्षकों का प्रिय हो गया। हमेशा पुस्तकालय तथा अपने वर्ग में सावधानी पूर्वक मन से बिना समय नष्ट किए हुए पढ़ाई में लग गया।
महाविद्यालयस्य पुस्तकागारे बहूनां विषयाणां पुस्तकानि आत्मसादसौ कृतवान्। तत्र स्नातकपरीक्षायां विश्वविद्यालये प्रथमस्थानमवाप्य स्वमहाविद्यालयस्य ख्यातिमवर्धयत्। सर्वत्र रामप्रवेशराम इति शब्दः श्रूयते स्म नगरे विश्वविद्यालयपरिसरे च। नाजानतां पितरावस्य विद्याजन्यां प्रतिष्ठाम्।
महाविद्यालय के पुस्तकालय में अनेक प्रकार के विषयों का अध्ययन करके याद कर लिया। स्नातक के परिक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके महाविद्यालय की इज्जत बढ़ाई। सभी जगह विश्वविद्यालय में तथा नगर में रामप्रवेश राम सुनाई पड़ता था। पिता को कोई नहीं जानते हुए भी विद्यापुत्र के कारण प्रसिद्ध हो गए।
वर्षान्तरेऽसौ केन्द्रीयलोकसेवापरीक्षायामपि स्वाध्यवसायेन व्यापकविषयज्ञानेन च उन्नतं स्थानमवाप। साक्षात्कारे च समितिसदस्यास्तस्य व्यापकेन ज्ञानेन, तत्रापि तादृशे परिवारपरिवेशे कृतेन श्रमेणाभ्यासेन च परं प्रीताः अभूवन्।
वर्ष के अन्त में, इन्होंने केन्द्रीय लोकसेवा की परीक्षा में अपने परिश्रम और व्यापक ज्ञान के कारण श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। साक्षात्कार में समिति के सदस्यों को उनके ज्ञान, आर्थिक स्थिति और कठोर परिश्रम से सभी अति प्रसन्न हुए।
अद्य रामप्रवेशरामस्य प्रतिष्ठा स्वप्रान्ते केन्दप्रशासने च प्रभूता वर्तते। तस्य प्रशासनक्षमतां संकटकाले च निर्णयस्य सामर्थ्यं सर्वेषामावर्जके वर्तेते। नूनमसौ कर्मवीरो व्यतीत्य बाधाः प्रशासनकेन्द्रे लोकप्रियः संजातः। सत्यमुक्तम् – उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
आज रामप्रवेश राम की प्रतिष्ठा अपने राज्य में और केन्द्र सरकार में बहुत है। उसका प्रशासनिक क्ष्मता और संकटकाल में निर्णय की क्षमता सबों के लिए आकर्षक है। अवश्य यह कर्मवीर बाधाओं को पार कर प्रशासन क्षेत्र में लोकप्रिय हो गया है। सत्य कहा गया है- परिश्रमी व्यक्ति को ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। Piyusham Bhag 2 Sanskrit Chapter 8 Karmveer Katha

संस्कृत साहित्य लेखिका: (संस्कृत साहित्य की लेखिकाएँ) – Sanskrit Sahitya Lekhika Class 10

sanskrit sahitya lekhika

पाठ परिचय- संस्कृत की सेवा जिस प्रकार पुरुषों ने की है उसी प्रकार महिलाओं ने भी वैदिक युग से आजतक इसमें भाग लिया है। प्रायः इस पाठ की उपेक्षा हुई है। प्रस्तुत पाठ में संक्षिप्त रूप से संस्कृत की प्रमुख लेखिकाओं का उल्लेख किया गया है। उनके योगदान संस्कृत साहित्य में अमर है।

Sanskrit Sahitya lekhika class 10 chapter 4 bihar board

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समाजस्य यानं पुरुषैः नारीभिश्च चलति। साहित्येऽपि उभयोः समानं महत्वम्। अधुना सर्वभाषासु साहित्यरचनायां स्त्रियोऽपि तत्पराः सन्ति यशश्च लभन्ते।
समाज की गाड़ी पुरूषों और स्त्रीयों के द्वारा चलती है। साहित्य में भी दोनां का समान महत्व है। आजकल सभी भाषाओं की साहित्य रचना में स्त्रियाँ भी तत्पर हैं और यश भी पा रही है।
संस्कृतसाहित्ये प्राचीनकालादेव साहित्यसमृद्धौ योगदानं न्यूनाधिकं प्राप्यते। पाठेऽस्मिन्नतिप्रसिद्धानां लेखिकानामेव चर्चा वर्तते येन साहित्यनिधिपूरणे तासां योगदानं ज्ञायेत।
संस्कृत साहित्य में प्राचीन काल से ही साहित्य को समृद्ध करने में दोनों का योगदान कम-अधिक के रूप में प्राप्त होता रहा है। इस पाठ में अति प्रसिद्ध लेखिकाओं का ही चर्चा है जिससे साहित्यरूपी खजाना को भरने में उन स्त्रीयों का योगदान के बारे में जानकारी होती है।

Bihar Board Class 10th पाठ 4 संस्‍कृत साहित्‍ये लेखिका: (संस्‍कृत साहित्‍य की लेखिकाएँ)

विपुलं संस्कृतसाहित्यं विभिन्नैः कविभिः शास्त्रकारैश्च संवर्धितम्। वैदिकालादारभ्य शास्त्राणां काव्यानांञ्च रचने संरक्षणे यथा पुरुषाः दत्तचिताः अभवन् तथैव स्त्रिऽपि दत्तावधानाः प्राप्यन्ते। वैदिकयुगे मन्त्राणां दर्शका न केवला ऋषयः, प्रत्युत ऋषिका अपि सन्ति। ऋग्वेदे चतुर्विंशतिरथर्ववेदे च पञ्च ऋषिकाः मन्त्रदर्शनवत्यो निर्दिश्यन्ते यथा- यमी, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, वागाम्भृणी इत्यादयः।
विशाल संस्कृत साहित्य अनेक कवियों तथा शास्त्रकारों द्वारा अत्यधिक समृद्ध किया गया। वैदिक काल के आरंभ से ही शास्त्रों तथा काव्यों की रचना और संरक्षण में पुरूष के समान स्त्रीयाँ भी सावधान थी। वैदिक युग में ऋषि एवं ऋषि-पत्नी दोनों ही मंत्रों की रचना करते थे। ऋगवेद में चौबीस और अथर्ववेद में पाँच ऋषि-पत्नियाँ उल्लिखित हैं- यमी, अपाला, उर्वशी, इन्द्राणी, वागाम्भृणी आदि-आदि।
बृहदारण्यकोपनिषदि याज्ञवल्क्यस्य पत्नी मैत्रेयी दार्शनिकरुचिमती वर्णिता यां याज्ञवल्क्य आत्मतत्‍वं शिक्षयति। जनकस्य सभायां शास्त्रार्थकुशला गार्गी वाचक्नवी तिष्ठति स्म। महाभारतेऽपि जीवनपर्यन्तं वेदान्तानुशीलनपरायाः सुलभाया वर्णनं लभ्यते।
वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी दार्शनिक रूप में वर्णित की गई है। जिनको याज्ञवल्क्य जी ने आत्मतत्‍व की शिक्षा देते हैं। जनक की सभा में शास्त्रार्थ कुशल गार्गी नामक विदुषी रहती थी। महाभारत में भी जीवन-पर्यन्त वेदान्त अध्ययन में स्त्रियाँ रही। यह बात आसानी से वर्णन में मलती है।
लौकिकसंस्कृतसाहित्ये प्रायेण चत्वारिंशत्कवयित्रीणां सार्धशतं पद्यानि स्फुटरूपेण इतस्ततो लभ्यन्ते। तासु विजयाङ्का प्रथम-कल्पा वर्तते। सा च श्यामवर्णासीदिति पद्येनानेन स्फुटीभवति-
लौकिक संस्कृत साहित्य में प्रायः चालीस कवयित्रीयों का डेढ़ सौ पदें स्पष्टरूप से जहाँ-तहाँ प्राप्त हैं। उनमें विजयाङ्का का प्रथम कल्प है। वह श्यामवर्ण की थी। यह इस पद से स्पष्ट होता है।

नीलोत्पलदलश्यामां विजयाङ्कामजानता।
वृथैव दण्डिना प्रोक्ता ‘सर्वशुक्ला सरस्वती‘।।
नीले कमल के समान श्यामवर्ण की विजयाङ्का को न जानते हुए सरस्वती को सर्वशुक्ला दण्डी द्वारा व्यर्थ ही कहा गया।
तस्याः कालः अष्टमशतकमित्यनुमीयते। चालुक्यवंशीयस्य चन्द्रादित्यस्य राज्ञी विजयभट्टारिकैव विजयाङ्का इति मन्यते। किञ्च शीला भट्टारिका, देवकुमारिका, रामभद्राम्बा-प्रभृतयो दक्षिणभारतीयाः संस्कृतलेखिकाः स्वस्फुटपद्यैः प्रसिद्धाः।
उनका समय आठवीं शताब्दी अनुमान किया जाता है। अनेक विद्वानों का मानना है कि चालुक्यवंश के राजा चन्द्रादित्य की रानी विजय भट्टारिका ही विजयाङ्का है। कुछ और शीला भट्टारिका, देवकुमारिका, रामभद्राम्बा आदि दक्षिण भारतीय संस्कृत लेखिकाओं की कविताएँ प्रसिद्ध है।
विजयनगरराज्यस्य नरेशाः संस्कृतभाषासंरक्षणाय कृतप्रयासा आसन्निति विदितमेव। तेषामन्तःपुरेऽपि संस्कृतरचनाकुशलाः राज्ञयोऽभवन्। कम्पणरायस्य ( चतुर्दशशतकम् ) राज्ञी गंगादेवी ‘मधुराविजयम्‘ इति महाकाव्यं स्वस्वामिनो ( मदुरै )- विजयघटनामाश्रित्यारचयत्। तत्रालङ्काराणां संनिवेशः आवर्जको वर्तते।
विजयनगर के राजा ने संस्कृत भाषा की रक्षा के लिए जितना प्रयास किया, वह ज्ञात ही है। उनके अन्तःपुर में संस्कृत के कुशल रचनाकार हुए। चौदहवीं शताब्दी में कम्पन राय की रानी गंगा देवी मधुरा विजयम् नामक महाकाव्य की अपने स्वामी विजयघटना के आश्रय में रचना की। उसमें अलंकारां का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
तस्मिन्नेव राज्ये षोडशशतके शासनं कुर्वतः अच्युतरायस्य राज्ञी तिरुमलाम्बा वरदाम्बिकापरिणय- नामकं प्रौढ़ं चम्पूकाव्यमरचयत्। तत्र संस्कृतगद्यस्य छटा समस्तपदावल्या ललितपदविन्यासेन चातीव शोभते। संस्कृतसाहित्ये प्रयुक्तं दीर्घतमं समस्तपदमपि तत्रैव लभ्यते।
उनके ही राज्य में सोलहवीं शताब्दी में राज्य करते हुए अच्युत राय की रानी तिरूमलाम्बा ने वरदाम्बिका परिणय नामक विशाल चम्पुकाव्य की रचना की। उसमें संस्कृत गद्य की छटा तथा सुन्दर पदविन्यास अति रमणीय हैं। संस्कृत साहित्य में लम्बे समस्त पद का प्रयोग उसी में हुआ है।
आधुनिककाले संस्कृतलेखिकासु पण्डिता क्षमाराव (1890-1953 ई॰) नामधेया विदुषी अतीव प्रसिद्धा। तया स्वपितुः शंकरपाण्डुरंगपण्डितस्य महतो विदुषो जीवनचरितं ‘शंकरचरितम्‘ इति रचितम्।
आधुनिक काल में संस्कृत लेखिकाओं में पंडित क्षमाराव नाम की विदुषी बहुत प्रसिद्ध है। उन्होनें अपने पिता पंडित शंकर पाण्डुरंग की महान विद्वता जीवन चरित पर ‘शंकर चरितम्‘ की रचना की।
गान्धिदर्शनप्रभाविता सा सत्याग्रहगीता, मीरालहरी, कथामुक्तावली, विचित्रपरिषद्यात्रा, ग्रामज्योतिः इत्यादीन् अनेकान् पद्य-पद्यग्रन्थान् प्रणीतवती। वर्तमानकाले लेखनरतासु कवयित्रीषु पुष्पादीक्षित-वनमाला भवालकर – मिथिलेश कुमारी मिश्र-प्रभृतयोऽनुदिनं संस्कृतसाहित्यं पूरयन्ति।
गाँधी दर्शन से प्रभावित होकर उन्होने सत्याग्रहगीता, मीरालहरी, कथा मुवक्ताली, विचित्र परिषद्यात्रा, ग्रामज्योति इत्यादि अनेक गद्य-पद्य की रचना की। इस समय लेखन कार्य में संलग्न कवित्रियों में पुष्पादीक्षित, वनमाला भवालकर, मिथिलेश कुमारी मिश्र आदि आए दिन संस्कृत साहित्य को पूरा करते है।

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Manglam Class 10th Sanskrit – संस्‍कृत कक्षा 10 प्रथमः पाठः मङ्गलम्

इस पोस्‍ट में हम दसवीं वर्ग के संस्कृत पियूषम् भाग 2 के पहला पाठ (Manglam Class 10th Sanskrit) “मङ्गलम्” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Manglam

1. मंगलम् (Manglam Class 10th Sanskrit)

पाठ परिचय- इस पाठ (Manglam) में पाँच मन्त्र क्रमशः ईशावास्य, कठ, मुण्डक तथा श्वेताश्वतर नामक उपनिषदों से संकलित है। ये मंगलाचरण के रूप में पठनीय हैं। वैदिकसाहित्य में शुद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थों के रूप में उपनिषदों का महत्‍व है। इन्हें पढ़ने से परम सत्‍य (मुख्य शक्ति अर्थात् ईश्वर) के प्रति आदरपूर्ण आस्था या विश्वास उत्पन्न होती है, सत्य के खोज की ओर मन का झुकाव होता है तथा आध्यात्मिक खोज की उत्सुकता होती है। उपनिषदग्रन्थ विभिन्न वेदों से सम्बद्ध हैैं ।

उपनिषदः वैदिकवाङ्मयस्य अन्तिमे भागे दर्शनशास्त्रस्य परमात्मनः महिमा प्रधानतया गीयते। तेन परमात्मना जगत् व्याप्तमनुशासितं चास्ति। स एव सर्वेषां तपसां परमं लक्ष्यम्। अस्मिन् पाठे परमात्मपरा उपनिषदां पद्यात्मकाः पंच मंत्राः संकलिताः सन्ति।

अर्थ- उपनिषद वैदिक साहित्य के अंतिम भाग में दार्शनिक सिद्धांत को प्रकट करते हैं। सब जगह श्रेष्ठ पुरूष परमात्मा की महिमा का प्रधान रूप से गायन हुआ है। उसी परमात्मा से सारा संसार परिपूर्ण और अनुशासित है। सबों की तपस्या का लक्ष्य उसी को प्राप्त करना है। इस पाठ में उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु उपनिषद के पाँच मंत्र श्लोक के रूप में संकलित हैं।

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्वम् पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

अर्थ- हे प्रभु ! सत्य का मुख सोने जैसा आवरण से ढ़का हुआ है, सत्य धर्म की प्राप्ति के लिए उस आवरण को हटा दें ।।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘ईशावास्य उपनिषद्‘ से संकलित तथा मङ्गलम पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के विषय में कहा गया है कि सांसारिक मोह-माया के कारण विद्वान भी उस सत्य की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं, क्योंकि सांसारिक चकाचैंध में वह सत्य इस प्रकार ढ़क जाता है कि मनुष्य जीवन भर अनावश्यक भटकता रहता है। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु ! उस माया से मन को हटा दो ताकि परमपिता परमेश्वर को प्राप्त कर सके।

अणोरणीयान् महतो महीयान्
आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।
तमक्रतुरू पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मानः ।।

अर्थ- मनुष्य के हृदयरूपी गुफा में अणु से भी छोटा और महान से महान आत्मा विद्यमान है। विद्वान शोक रहित होकर उस श्रेष्ठ परमात्मा को देखता है ।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘कठ‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें आत्मा के स्वरूप तथा निवास के विषय में बताया गया है।
विद्वानों का कहना है कि आत्मा मनुष्य के हृदय में सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तथा महान से भी महान रूप में विद्यमान है। जब जीव सांसारिक मोह-माया का त्यागकर हृदय में स्थित आत्मा से साक्षात्कार करता है तब उसकी आत्मा महान परमात्मा में मिल जाती है और जीव सारे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए भक्त प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! हमें उस अलौकिक (पवित्र) प्रकाश से आलोकित करो कि हम शोकरहित होकर अपने-आप को उस महान परमात्मा में एकाकार कर सकें।

सत्यमेव जयते नानृतं
सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्‍तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परं निधानम् ।।

अर्थ- सत्य की ही जीत होती है, झुठ की नहीेे। सत्य से ही देवलोक का रास्ता प्राप्त होता है। ऋषिलोग देवलोक को प्राप्त करने के लिए उस सत्य को प्राप्त करते हैं । जहाँ सत्य का भण्डार है ।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘मुण्डक‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम्‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
ऋषियों का संदेश है कि संसार में सत्य की ही जीत होती है, असत्य या झूठ की नहीं। तात्पर्य यह कि ईश्वर की प्राप्ति सत्य की आराधना से होती है, न कि सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहने से होती है। संसार माया है तथा ईश्वर सत्य है। अतः जीव जब तक उस सत्य मार्ग का अनुसरण नहीं करता है तब तक वह सांसारिक मोह-माया में जकड़ा रहता है। इसलिए उस सत्य की प्राप्ति के लिए जीव को सांसारिक मोह-माया से दूर रहनेवाला भाव से कर्म करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ ईश्वर ही सत्य है, इसके अतिरिक्त सबकुुछ असत्य है।

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे-
ऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान नामरूपाद् विमुक्तः
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।

अर्थ- जिस प्रकार नदियाँ बहती हुई अपने नाम और रूप को त्यागकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार विद्वान अपने नाम और रूप को त्यागकर परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति करते हैं।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘मुण्डक‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें जीव और आत्मा के बीच संबंध का विवेचन किया गया है।
ऋषियों का कहना है कि जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार विद्वान ईश्वर के अलौकिक (पवित्र) प्रकाश में मिलकर जीव योनि से मुक्त हो जाता है। जीव तभी तक माया जाल में लिपटा रहता है जब तक उसे आत्म-ज्ञान नहीं होता है। आत्म-ज्ञान होते ही जीव मुक्ति पा जाता है।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्
आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।

अर्थ- मुझे ही महान पुरूष (परमात्मा) जानो, जो प्रकाश स्वरूप में अंधकार के आगे है। उसी को जानकर मृत्यु को प्राप्त किया जाता है। इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अर्थात् आत्मज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘श्वेताश्वतर‘ उपनिषद् से संकलित तथा ‘मङ्गलम‘ पाठ से उद्धृत है। इसमें परमपिता परमेश्वर के विषय में कहा गया है।
ऋषियों का मानना है कि ईश्वर ही प्रकाश का पुंज है। उन्हीं के भव्य दर्शन से सारा संसार आलोकित होता है। ज्ञानी लोग उस ईश्वर को जानकर सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्ति पाते हैं। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।