इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्याय 9 वैश्वीकरण का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। Vaishvikaran class 12
पाठ – 9
वैश्वीकरण
वैश्वीकरण की अवधारण
यदि हम वास्तविक जीवन में ‘वैश्वीकरण‘ शब्द के इस्तेमाल को परखें तो पता चलेगा कि इसका इस्तेमाल कई तरह के संदर्भो में होता है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।
फसल के मारे जाने से कुछ किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन किसानों ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से बड़े महंगे बीज खरीदे थे।
यूरोप स्थित एक बड़ी और अपनी प्रतियागी कंपनी को एक भारतीय कंपनी ने खरीद लिया जबकि खरीदी गई कंपनी के मालिक इस खरीददारी का विराध कर रहे थे। अनेक खुदरा दुकानदारों को भय है कि अगर कुछ बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां ने देश में खुदरा दुकानों की अपनी श्रृंखला खोल ली तो उनकी रोजी-रोटी जाती रहेगी।
ये उदाहरण हमें बताते हैं कि वैश्वीकरण हर अर्थ में सकारात्मक ही नहीं होता; लोगों पर इसके दुष्प्रभाव भी पड़ सकते हैं।
एक अवधारणा के रूप में वैश्वीकरण की बुनियादी बात है – प्रवाह। विश्व के एक हिस्से के विचारों का दूसरे हिस्सों में पहुँच; पूँजी का एक से ज़्यादा जगहों पर जाना; वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार तथा बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही।
वैश्वीकरण के कारण
वैश्वीकरण विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की आपाजाही से जुड़ी परिघटना है तो एक मजबूत ऐतिहासिक आधार है
टेलीग्राफ्र, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रांति कर दिखायी है।
विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में हुई तरक्की के कारण संभव हुई है।
संचार-साधनों की तरक्की और उनकी उपलब्धता मात्र से वैश्वीकरण अस्तित्व में आया हो -ऐसी बात नहीं। यहाँ ज़रूरी बात यह कि विश्व के विभिन्न भागों के लोग अब समझ रहे हैं कि वे आपस में जुड़े हुए हैं। आज हम इस बात को लेकर सजग हैं कि विश्व के एक हिस्से में घटने वाली घटना का प्रभाव विश्व के दूसरे हिस्से में भी पड़ेगा।
जब बड़ी आर्थिक घटनाएँ होती हैं तो उनका प्रभाव उनके मौजूदा स्थान अथवा क्षेत्रीय परिवेश् तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि विश्व भर में महसूस किया जाता है।
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राजनीतिक प्रभाव
वैश्वीकरण के कारण राज्य की क्षमता यानी सरकारों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की धारण अब पुरानी पड़ गई है और इसकी जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले ली है।
लोक कल्याणकारी राज्य की जगह अब बाज़ार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है। पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगम अपने पैर पसार चुके हैं और उनकी भूमिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फ़ैसला करने की क्षमता में कमी आती है।
वैश्वीकरण से हमेशा राज्य की ताकत में कमी आती हो- ऐसी बात नहीं।
राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यां को पूरा कर रहे हैं और बहुत सोच-समझकर अपने कदम उन्हीं दायरों से खींच रहे हैं जहाँ उनकी मर्जी हो। राज्य अभी भी महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं।
कुछ मायनों में वैश्वीकरण के फलस्वरूप राज्य की ताकत में इजाफा हुआ है। अब राज्यों के हाथ में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बूते राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं। इस सूचना के दम पर राज्य ज़्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं। इस प्रकार नई प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप राज्य अब पहले से ज़्यादा ताकतवर हैं।
आर्थिक प्रभाव
जिस प्रक्रिया को आर्थिक वैश्वीकरण कहा जाता है उसमें दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तेज हो जाता है।
वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्वुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है; वैश्वीकरण के चलते अब विचारों के सामने राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं, उनका प्रवाह अबाध हो उठा है। इंटरनेट और कंप्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है। लेकिन वैश्वीकरण के कारण जिस सीमा तक वस्तुओं और पूंजी का प्रवाह बढ़ा है उस सीमा तक लोगों की आवाजाही नहीं बढ़ सकी है। विकसित देश अपनी वीजा-नीति के जरिए अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बड़ी सतर्कता से अभेद्य बनाए रखते हैं ताकि दूसरे देशों के नागरिक विकसित देशों में आकर कहीं उनके नागरिकों के नौकरी-धंधं न हथिया लें। आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारों कुछ जिम्मदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं और इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिंतित हैं। इनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से आबादी के एक बड़े छोटे तबके को फायदा होगा जबकि नौकरी और जन-कल्याण (शिक्ष, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि) के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे।
अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनःउपनिवेशीकरण कहा है।
आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं के समर्थकों का तर्क है कि इससे समृद्धि बढ़ती है और ‘खुलेपन‘ के कारण ज़्यादा से ज़्यादा आबादी की खुशहाली बढ़ती है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सरकार, व्यवसाय तथा लोगों के बीच जुड़ाव बढ़ रहा है।
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सांस्कृतिक प्रभाव
वैश्वीकरण के परिणाम सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक दायरों में ही नज़र नहीं आते;
हम जो कुछ खाते-पीते-जहनते हैं अथवा सोचते हैं- सब पर इसका असर नज़र आता है।
वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस भय को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी। वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता ले आता है। सांकृतिक समरूपता का यह अर्थ नहीं कि किसी विश्व-संस्कृति का उदय हो रहा है। विश्व-संस्कृति के नाम पर दरअसल शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है।
बर्गर अथवा नीली जीन्स की लोकप्रियता का नजदीकी रिश्ता अमरीकी जीवनशैली के गहरे प्रभाव से है क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम ताकतवर समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और संसार वैसा ही दीखता है जैसा ताकतवर संस्कृति इसे बनाना चाहती है।
विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमरीकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। चूँकि इससे पूरे विश्व की समृद्धि सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है इसलिए यह केवल गरीब देशों के लिए ही नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए खतरनाक है।
यह मान लेना एक भूल है कि वैश्वीकरण के सांस्कृसतिक प्रभाव सिर्फ नकारात्मक हैं। हर संस्कृति हर समय बाहरी प्रभावों को स्वीकार करते रहती है।
कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसंद-नापसंद का दायरा बढ़ता है तो कभी इनसे परंरागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ बिना संस्कृति का परिष्कार होता है।
बर्गर से वस्तुतः कोई खतरा नहीं है। इससे हुआ मात्र इतना है कि हमारे भोजन की पसंउ में एक चीज़ और शामिल हो गई है। दूसरी तरफ, नीली जीन्स भी हथकरघा पर बुने खादी के कुर्ते के साथ खूब चलती है।
नीलि जीन्स के ऊपर खादी का कुर्ता पहना जा रहा है। मज़ेदार बात तो यह कि इस अनुठे पहरावे को अब उसी देश को निर्यात किया जा रहा है जिसने हमें नीली जीन्स दी है।
वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज़्यादा अलग और विशिष्ट होते जा रही है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण कहते हैं।
इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि सांस्कृतिक प्रभाव एकतरफा नहीं होता।
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भारत और वैश्वीकरण
पूँजी, वस्तु, विचार और लोगों की आवाजाही का भारतीय इतिहास कई सदियों का है।
औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन के साम्राज्वादी मंसूबों के परिणामस्वरूप भारत आधारभूत वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यातक तथा बने-बनाये सामानों का आयात देश था। आज़ादी हासिल करने के बाद, ब्रिटेन के साथ अपने इन अनुभवों से सबक लेते हुए हमने फ़ैसला किया कि दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय खुद सामान बनाया जाए। हमने यह भी फ़ैसला किया कि दूसरों देशों को निर्यात की अनुमति नहीं होगी ताकि हमारे अपने उत्पादक चीजों को बनाना सीख सकें। इस‘ संरक्षणवाद‘ से कुछ नयी दिक्कतें पैदा हुईं। कुछ क्षेत्रों में तरक्की हुई तो कुछ ज़रूरी क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, आवास और प्राथमिक शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। भारत में आर्थिक -वृद्धि की दर धीमी रही।
1991 में, वित्तीय संकट से उबरने और आर्थिक वृद्धि की ऊँची दर हासिल करने की इच्छा से भारत में आर्थिक-सुधारों की योजना शुरू हुई। इसके अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों पर आयद बाधाएँ इटायी गई।
यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारत के लिए यह कितना अच्छा साबित हुआ है क्योंकि अंतिम कसौटी ऊँची वृद्धि-दर नहीं बल्कि इस बात को सुनिश्चित करना है कि आर्थिक बढ़वार के फायदों में सबका साझा हो ताकि हर कोई खुशहाल बने।
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वैश्वीकरण का प्रतिराध
वैश्वीकरण बड़ा बहसतलब म ुद्दा है और पूरी दुनिया में इसकी आलोचना हो रही है। वामपंथी राजनीतिक रूझा रखने वालों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूंजीवाद और ज़्यादा धनी (तथा इनकी संख्या में कमी) और गरीब को और ज़्यादा ग़रीब बनाती है।
राजनीतिक अर्थों में उन्हें राज्य के कमजोर होने की चिंता है। सांस्कृतिक संदर्भ में उनकी चिंता है कि परंरागत संस्कृति हानि होगी और लोग अपने सदियों पराने जीवन-मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धों देंगे।
1999 में, सिएट्ल में विश्व व्यापार संगठन की मंत्री-प्रदर्शन हुए। आर्थिक रूप से ताकतवर देशों द्वारा व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों के अपनाने के विरोध में ये प्रदर्शन हुए थे। विरोधियों समुचित महत्त्व नहीं दिया गया है।
नव-उदारवादी वैश्वीकरण के विरोध का एक विश्व-व्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम‘ (ूि) है। इस मंच के तहत मानवधिकार- कार्यकर्त्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा और महिला कार्यकर्त्ता एकजुट होकर नव-उदारवादी वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।
भारत में वैश्वीकरण का विराध कई हलकों से हो रहा है। आर्थिक वैश्वीकरण के खि़लाफ वामपंथी तेवर की आवाजें राजनीतिक दलों की तरफ से उठी हैं तो इंडियन सोशल फोरम जैसे मंचों से भी। औद्योगिक श्रमिक और किसानों के संगठनों ने बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का विराध किया है।
वैश्वीकरण का विराध राजनीति के दक्षिणपंथी खमों से भी हुआ है। यह खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों का विरोध कर रहा है जिसमें केबल नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराए जा रहे विदेशी टी.वी. चैनलों से लेकर वैलेन्टाईन-डे मनाने तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पश्चिमी पोशाकों के लिए बढ़ती अभिरूचि तक का विरोध शामिल है।
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